बिहारी अपना गौरव अध्याय नहीं जानता
म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश घटते सामाजिक सरोकार के इस दौर में मजदूरों की पीड़ा शायद चर्चा का विषय नहीं है. इस कारण ही हिंदी भाषी मजदूरों का बर्मा अध्याय काफी मशक्कत के बाद पता चला. दुख, दर्द और पीड़ा से भरे अतीत को भला कौन बाद रखना चाहता है? पर खासतौर से बिहार […]
म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश
घटते सामाजिक सरोकार के इस दौर में मजदूरों की पीड़ा शायद चर्चा का विषय नहीं है. इस कारण ही हिंदी भाषी मजदूरों का बर्मा अध्याय काफी मशक्कत के बाद पता चला. दुख, दर्द और पीड़ा से भरे अतीत को भला कौन बाद रखना चाहता है? पर खासतौर से बिहार को अपने उन अभागे पुत्रों के दस्तावेज तैयार करना चाहिए, जिन्हें पशुओं की तरह फीजी, मारीशस, बर्मा वगैरह ले जाया गया. गिरमिटिया मजदूरों की व्यथा अनकही कथा है. आज भी पंजाब, दिल्ली, कलकत्ता और बंबई की झोपड़पट्टियों में बिहार से पलायन कर गुजारा कर रहे मजदूरों की पीड़ा किसे बेचैन करती है?
पर 1828 में बर्मा की चीनी मिलों में ईख के खेतों में काम करने के लिए बिहारी मजदूर भेजे गये. भारी तादाद में पहले जबरन, लोभ और बंधन के कारण बाद में स्वत: रोजी-रोटी की तलाश में. आज बर्मा के ज्वावडी, ज्यावडी फ्यू और चवडागा वगैरह में बिहारी मजदूरों की बहुतायत है. इन जगहों पर बिहार की झलक मिलती है. वे अपनी भाषा बोलते हैं. भोजपुरी में बोलते-बतियाते हैं. बिहारी संस्कृति खाने की गंध है. वर्मा सरकार ने बिहारी लोगों के परिश्रम से प्रसन्न होकर काफी जमीनों दी हैं. लीज पर हाल ही में कावो घाटी प्रोजेक्ट में 750 एकड़ जमीन बिहारी मजदूरों को लीज पर दी गयी है. लगभग एक सौ बिहारी मूल के परिवार कावो घाटी की धरती को आवाद करेंगे. वर्मा में जो भारतीय हैं, उनमें सबसे बड़ी तादाद बिहारी लोगों की है.
बिहार का दुर्भाग्य है कि अपने इन समूतों के कामों की उसने जगजाहिर नहीं किया.
बिहारी लोगों ने बर्मा, फीजी, मारीशस वैगरह का चेहरा बदला है. मशक्कत और पसीने से अपनी तकदीर बदली है. बर्मा, फीजी या मारीशस जानेवाले बिहारियों ने दुर्दिन झेला. पर उनकी भावी पीढ़िया सुखी हैं. बर्मा के बिहारी, बिहार के सामान्य लोगों से आर्थिक रूप से बहुत अच्छे हैं-उनके श्रम के कारण उन पर श्रद्धा है. वह घृणा नहीं, सम्मान पाते हैं. महेंद्र मिश्र के गीतों में बाहर गये बिहारी मजदूरों की जो पीड़ा ध्वनित होती थी, अब वह स्थिति बदल गयी है. आज भी लोग पंजाब की सफलता के गुण गाते हैं. पर उस उपलब्धि-आर्थिक प्रगति में बिहारी मजदूरी की कुरबानी किसे याद है? बर्मा के बिहारी, बिहार नहीं लौटना चाहते. वे खुशहाल हैं. कमाते हैं. मौज से रहते हैं. बिहार से उनका भावात्मक लगाव कायम है. आना-जाना बरकरार है. बिहारी संस्कृति, भाषा-वेशभूषा जिंदा रखने के संबंध में एक सज्जन कहते हैं. बात(बोल-भाषा) भूला, जात (देश के संदर्भ में) भूला. इसलिए भोजपुरी जुबान जिंदा रखे हुए हैं. बिहार की हवा में उन्हें अशांति की गंध मिलती है हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या और कलह. इस कारण वे बिहार नहीं लौटना चाहते. बौद्ध धर्म के देश में रहते-रहते इन बिहारी लोगों का मानस बदला है.
बिहार, भारत के अन्य राज्यों में भी नकारात्मक चीजों के लिए जाना जाता है. पर बिहार के खाते में उपलब्धियां भी हैं. बाजार व्यवस्था के इस युग में अपनी उपलब्धियों को खुद गिनाना-बताना होगा. लेकिन क्या बिहार इसके लिए तैयार है?
बिहार तो नहीं, पर दूसरे राज्य अपने सपूतों की कुरबानी को बाजार व्यवस्था में भुना रहे है. बर्मा में बिहारियों के बाद दूसरे नंबर पर तमिलनाडु के लोग हैं. चेरियार खासतौर से संपन्न. वहां के कारोबार-व्यवसाय पर उनका दबदबा था. 1962 में सैनिक विद्रोह के कारण उन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा. छूट मिलने के बाद अब वे पुन: लौट रहे हैं. चेरियारों का जादू आसपास के देशों में फैला है. सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड में काफी तादाद में हैं. तमिलनाडु की सरकार इन अप्रवासी तमिलों को अपने साथ जोड़ रही है.
बर्मा में बिहारी, तमिल के बाद तीसरे नंबर पर तेलुगु भाषी हैं. गुजराती भी हैं. दूसरे प्रांतों से भी छिटपुट हैं. शरतचंद्र की दुर्गाबाड़ी भी हैं.
पर इन भारतीयों पर तरह-तरह के प्रतिबंद्ध हैं. एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए अनुमति लेनी होती है. नयी जगह जाकर सूचित करना होता है. अपनी संपत्ति बेचने के पहले इजाजत लेनी पड़ती है. कार, घर वगैरह बर्मी मूल के लोगों को ही बेचना पड़ता है.
अपने नाम जमीन-जायदाद नहीं कर सकते. तरह-तरह की वैधानिक अड़चनें हैं. फिर भी भारतीय यहां प्रसन्न हैं. वे लौटना नहीं चाहते. क्योंकि बर्मा में उन्हें शांति मिलती है. भारत की तरह-तरह की वैधानिक अड़चने हैं. फिर भी भारतीय यहां प्रसन्न हैं. वे लौटना नहीं चाहते. क्योंकि बर्मा में उन्हें शांति मिलती है. भारत की तरह यहां की हवा में वे अवसाद-फसाद की गंध नहीं पाते.