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शाहजहांबाद का गौहर रंगून की खाक में सोया है

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश यांगून में बादशाह बहादुरशाह जफर की दरगाह के साथ 1857 के इतिहास का एक अध्याय दफन है. यांगून की धरती पर एक पांव पड़ते ही हर भारतीय की ख्वाहिश होती है, बादशाह जफर की दरगाह की यात्रा. नेताजी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का दर्शन मंडाले जाकर तिलक की […]

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश
यांगून में बादशाह बहादुरशाह जफर की दरगाह के साथ 1857 के इतिहास का एक अध्याय दफन है. यांगून की धरती पर एक पांव पड़ते ही हर भारतीय की ख्वाहिश होती है, बादशाह जफर की दरगाह की यात्रा. नेताजी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का दर्शन मंडाले जाकर तिलक की स्मृति की तलाश.
शायद यही कारण था कि सरकारी औपचारिकताओं-कार्यक्रमों से मुक्त होते ही हम दो सबसे पहले जफर की दरगाह गये. दोपहर का वक्त था. ताड़ के ऊंचे-ऊंचे दरख्तों और दूसरे गझिन पेड़ों से धूप छन कर आ रही थी. प्रवेशद्वार पर कुछ याचक बैठे थे. हाथ फैलायो और हांक लगाते. मन की उदासी पूरे माहौल पर उतर आयी थी. एक युवा लड़का वहां चुपचाप बैठा था. पता किया. वह दरगाह का कामकाज देखनेवाला मुहम्मद अली था. भारतीय लोगों को देख कर वह खुद चला आया.
हमने दर्ज उर्दू की इबारतें पढ़ने को कहा, वहां दर्ज है, रंगून की खाक उसको आगोश में लेती है, जोखानदाने तैमूर का आखिरी चिराग था, जिसने जहांआबाद में जन्म लिया. वो वतन से हजारहां कोस दूर एक मामूली पलंग पर दम तोड़ रहा था. सांस अकड़ चुकी, जिसकी जिंदगी सचमुच का मेला था, जिसने जिंदगी का हर लमहा झमकरों में गुजारा. हालते कैद व बेबसी थी. आज सिर्फ तीन आदमी एक बीबी दो बच्चे उसके दमे वापसी में साथ हैं. शाहजहांबाद का गौहर(गहना) रंगून की खाक की खाक में सो गया. जिंदगी के तमाम तमाशे दिखा कर बिदा की तैयारी है. दिन ढल चुका है. दिन के साथ ही बादशाह का पैमाने उम्र भी लबरेज हो गया, रंगून की खाक उसको आगोश में ले चुकी.
बादशाह जफर की जिंदगी ही इन लफ्जो में दर्ज है. बहादुरशाह ने दिल्ली में खुद अपना दफन स्थल तय और तैयार कर रखा था. वहां जाकर वह घंटों बैठा करते थे. पर 1857 के गदर ने सब पलट दिया. बहादुरशाह जफर और उनकी पत्नी दिल्ली में गिरफ्तार कर रखे गये, हुमायूं मकबरा के पास सुबह-सुबह उन्हें दो थालों में बेटों के कलम किये गये सिर पेश किये गये. तोप और सजा-संचार कर ठीक नाश्ते के वक्त निर्वासित किये गये, तो साथ में उनकी पत्नी, एक बेटी और एक बेटा था. बादशाह मरे सात नवंबर 1862 को. पत्नी जीनतमहल मरीं 17 जुलाई 1886 को. पत्नी और बेटी की कब्र पास-पास है. महादुरशाह के मरने पर उनका तीसरा बेटा थाईलैंड की ओर रवाना हुआ. फिर उसकी कोई सूचना नहीं मिली. बहुत दिनों तक बहादुरशाह की कब्र की सही-सही जगह पता नहीं थी. हाल में पता चला. 15 दिसंबर 1994 को वहां बड़ा जलसा हुआ. तब जी पार्थसारथी भारत के राजदूत थे. उनके प्रयास से बहादुरशाह की दरगाह सुव्यवस्थित – सुंदर हुई.
जब अंगरेज बहादुरशाह को वहां लाये, तब यहां घोड़ों के अस्तबल थे. उन्हें साथ आने रोज के हिसाब से गुजारा भत्ता मिलता था.
क्या कुछ नहीं सहा बादशाह ने? भारत, बंग्लादेश और पाकिस्तान भू-भाग के वह बादशाह थे, 1837 से 1857 त़क उस बादशाह की अंत में कहने के लिए विवश होना पड़ा कि दो गज जमीं भी न मिली कुएयार में… कितना बदनसीब है जफर… आज मुल्क भूल गया है कि बादशाह जफर को बदनसीफ क्यों होना पड़ा? बादशाह ने आजादी चाही और उसकी कीमत चुकायी बिना आह भर. आज वह कुरबानी किसे याद है?
हिंदू-मुसलमान की बात करनेवालों को? मन बांटनेवालों को? जाति और धर्म पर समाज-देश में लकीर खींचनेवालों को? बादशाह की दरगाह पर ही डी धर्मवीर भारती की याद आयी, पिछली बंबई यात्रा में उन्होंने एक प्रसंग सुनाया था. 1857 के बाद अंगरेज, बहादुरशाह जफर को बंदी बना कर गंगा के रास्ते कलकत्ता ले जा रहे थे. काशी के लोगों को सूचना मिली कि हमारे बादशाह कैद कर इसी रास्ते से ले जाये जा रहे हैं. लोग उमज पड़. नावें रोक ली गयीं. हिंदू-मुसलमान साथ-साथ. अंगरेजों से हिंदुओं ने कहा कि हमारे बादशाह जा रहे हैं. यह काशी बाबा शंकर की नगरी है. यहां हम इन्हें उतारेंगे, सम्मान करेंगे, तब जाने देंगे. अंगरेजों को झुकना पड़ा. योजना बादशाह को छुड़ाने की थी. पर किसी कारणवश यह कारगर न हो सकी. हिंदू-मुसलिम एकता की एक बुनियाद पर आजादी मिली आज इसे जानने के लिए कहां फुरसत है? दरगाह पर आये महत्वपूर्ण व्यक्तियों की भावनाएं एक पुस्तिका में दर्ज हैं. मैं पलटता हूं. तारीख जानने की ललक से. भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश ही नहीं, दूर-दूर से लोग आते हैं. आजादी की चाह रखनेवाले इस महान योद्धा की याद में सिर नवाते हैं. 16.12.87 को राजीव गांधी भी यहां आये उन्होंने पुस्तिका में लिखा है –
दो गज जमीन तो न मिली
हिंदुस्तान में
पर तेरी कुरबानी से उठी
आजादी की आवाज
बदनसीब तू नहीं जफर
जुड़ा तेरा नाम
भारत की शानो-शौकत में
आजादी के पैगाम से
अंत में राजीव जी के दस्तखत हैं, इतिहास के इस क्रूर प्रसंग पर अतीत की परतें जम रही हैं. एक और प्रसंग हैं, उतना ही मार्मिक और वेदनापूर्ण. हिंदुस्तान के बादशाह को अंगरेजों ने बर्मा में निर्वासित किया था. और बर्मा के बादशाह राजा थोबो को भारत में उसी समय थोबो भी आजादी की लड़ाई लड़े थे. उन्हें लाकर रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में नजरबंद कर दिया गाय. वही वह भी मरे.
आजादी की कीमत हैं, साहस नहीं दुस्साहस .. दुस्साहस और कुरबानी से अर्जित हिंदुस्तान की इस आजादी का मर्म कितने लोग समझ पा रहे हैं?
(जारी)

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