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इतिहास रच रही हैं दा आंग सान सूकी

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश सूकी से मुलाकात भारत से आये पत्रकारों के लिए यादगार भेंट राजनयिक आचार और अवसर इसकी इजाजत नहीं देते थे. 22 वर्षों बाद भारत से यांगून की सीधी उड़ान, भारत-म्यांमार के बदलते संबंधों का परिणाम थी. ऊपर से सैनिक शासन के कठोर कानून ऐसी स्थिति में सरकारी मिशन पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2015 6:24 PM

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश

सूकी से मुलाकात भारत से आये पत्रकारों के लिए यादगार भेंट राजनयिक आचार और अवसर इसकी इजाजत नहीं देते थे. 22 वर्षों बाद भारत से यांगून की सीधी उड़ान, भारत-म्यांमार के बदलते संबंधों का परिणाम थी. ऊपर से सैनिक शासन के कठोर कानून ऐसी स्थिति में सरकारी मिशन पर आये लोगों का सैनिक शासकों के सबसे बड़े दुश्मन से मिलना राजनयिक आचार संहिता प्रतिकूल था.
पर सूकी से भेंट मानवीय प्रतिबंधों से परे की इच्छा का स्वाभाविक परिणाम थी. विपरीत परिस्थितियां कैसे एक साबूत और बहादुर इंसान पैदा करती हैं, जिसकी अगुवाई में इतिहास की धाराएं मुड़ जाती है. यह जानने की आदिम ललक ही सूकी के पास लें गयी. कहीं कोई तानाशाह या निरंकुश शासक पैदा होता है, उसी क्षण उसके प्रतिरोध के बीज अंकुरने लगते हैं. यही प्रकृति का नियम है. बड़े से बड़े आतंकवादी, अपराधी या क्रूर लोगों के साथ भी यही होता है. समरसता प्रकृति की स्वाभाविक दौलत है. दूसरों पर अपनी इच्छा थोपने या उन्हें शासित बनाने की इच्छा अप्रकृतिक है. असहज और संघर्ष का कारण है.
1962 में नेविन ने सैनिक विद्रोह कर, सत्ता हथियायी. 1988 मध्य तक उनका ताप रहा. अचानक छिटपुट छात्र प्रतिरोध हुए. मामूली सवालों पर और बर्मा का इतिहास पलट गया. कब, कौन-सी चिनगारी दावानल बन जाये, कोई नहीं जानता. तब सूकी अपने पति माइकल एरिस के साथ ब्रिटेन में थीं. उनकी बूढ़ी मां की तबीयत अचानक खराब हुई सूकी की मां भारत में राजदूत रही हैं. उन्हीं दिनों सूकी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई की. बीमार मां और दुबली-पतली काया की सूकी. घर में कोई पुरुष नहीं. बर्मा के इतिहास पुरुष आंग सान की पुत्री सूकी के पास सिर्फ उनके नाम की आभा-दौलत की पूंजी थी. एक तरफ बीमार मां की सेवा-सुश्रुषा में वह लगी थीं, तो दूसरी तरफ छात्रों पर हो रहे प्रशासनिक अत्याचार उन्हें उकसा रहे थे. अंतत: एक दुबली काया की लड़की सूकी अपने बेटों, पति से दूर आंदोलन में कूद पड़ी. न कोई दल था. न तैयारी. देश से कई दशक वह बाहर रही थीं. बीच-बीच में आना-जाना था. 1988 में दस दिनों में बर्मा का दृश्य बदल गया. सर्वशक्तिमान नेविन ने त्याग-पत्र देकर जनमत संग्रह की घोषणा की. सूकी सड़कों पर उतर पड़ी. शहर, गांव, जंगल की लगातार यात्राएं हर जगह भारी भीड़ इस बीच 18 सितंबर को सलार्क (स्टेट लॉ एड आर्डर रिस्टोंरेशन काउंसिल) ने सैनिक विद्रोह कर सत्ता संभाल लीं. सख्त सैनिक शासन के दिन लौट आये.
सड़कों पर बंदूकें गरजने लगीं. साथ में चुनावों के आश्वासन भी मिलने लगे. उन्हीं दिनों 2 जनवरी 1989 को सूकी की की मां चल बसीं. परिवार में वह नितांत अकेली रह गयीं.
शासकों की क्रूरता बढती गयी. लंबी दास्ता हैं. पर सूकी का संकल्प दृढ़ से दृढ़तर होता गया. मई 1998 में सफलत में चुनाव हुए. सूकी की असंगठित पार्टी को 485 में से 392 सीटें मिलीं. पर सता नहीं, कैद मिली. वह अपने पति के पास नहीं लौटीं दोनों बेटों के बर्मा आने पर प्रतिबंध लग गया. बाद में पति पर श्री मन तोड़ने के हर संभव उपाय किये गये. भावात्मक रूप से अलग-थलग कर दिया गया. पूरी दुनिया से काट कर अकेले घर की चहारदीवारी में कैद कर दी गयी सूकी सैनिक तानाशाहों के लिए चुनौती बन गयीं. 1990 से 10 जुलाई 1995 तक सूकी अपने घर में ही कैद रहीं. 10 जुलाई 1995 को उनके घर से सेना का सख्त पहरा कम किया गया. समर्थकों को संबोधित करने की छूट मिली. वहां से बाहर जाकर कहीं सभा नहीं कर सकती. इस बीच उन्हें 1990 में सखारोव पुरस्कार, 1991 में यनोबु पुरस्कार फिर नेहरू शांति पुरस्कार मिले. बर्मा के शासक चाहते थे कि सूकी पुरस्कार लेने जायें, तो फिर देश लौटने पर पाबंदी लगा दें, सूकी को यह सूचना थी. इसलिए वह खुद पुरस्कार लेने कहीं नहीं गयीं. 1988 के बाद से अब तक वह बर्मा से नहीं निकली हैं. हर दुख, दर्द में अपने लोगों के साथ उनके बीच शायद नेतृत्व की कसौटी भी यही है. पूरी दुनिया में नेल्सन मंडेला पुरानी पीढ़ी के अंतिम कोहिनूर हैं. सूकी उपभोक्तावादी नयी पीढ़ी की अंतिम और एकमात्र धरोहर, दुख और पीड़ा से मंज कर मनुष्य भी समाज का धरोहर होता है. सूकी वही धरोहर हैं.
अब सूकी हर शनिवार-रविवार की अपने आवास के आगे ठीक शाम चार बजे भीड़ को संबोधित करती हैं. 9 दिसंबर की शाम भी उनके यहां भारी भीड़ उमड़ आयी थी. लभभग सात हजार की. खामोश और अनुशासित बालों में लाल और गुलाबी गुलाब टांके हुए. गुलाबी थमई (राष्ट्रीय पोशाक) पहने हुए अद्भुत सात्विक और मोहक मुस्कान यातना ने उन्हें मजबूत बनाया है. हाथ में माइक्रोफोन लिये हुए वह भीड़ को बर्मी भाषा में संबोधित करती हैं. भारतीय पत्रकारों के बारे में बोलती हैं. भीड़ दा (सम्मानसूचक बर्मी शब्द) आगसान सूकी की बातों पर मुदित होती है. आह्लाद करती है. सभी उम्र के स्त्री-पुरुष होते हैं. बूढ़े और युवा भी. बौद्ध भिक्षु भी सूकी के समर्थक भीड़ को नियंत्रित करते हैं. देश के कोने-कोने से चिट्ठियां आती हैं. पीड़ा-दमन के तथ्यों से भारी चिट्ठियां सूकी उनका जवाब देती हैं.
इन सभाओं के दृश्य बर्मा के बनते इतिहास के जीवंत अध्याय हैं. वह अपनी आंशिक स्वतंत्रता के बारे में बोलती हैं. आप अपने बच्चों और पति से कैसे अलग हैं? वह जवाब देती हैं कि बर्मा को छोड़ने पर, सैनिक शासक उन्हें पुन: लौटने नहीं देंगे. नेहरू पुरस्कार भी इस भय से खुद नहीं ले पायीं कि शासक बाहर जाने पर फिर देश में लौटने नहीं देंगे. वह सैनिक शासकों से संवाद करना चाहती हैं. लोकतंत्र के लिए वह सेना को सम्मान देकर सीमित रखना चाहती हैं. वह भारत और चीन के बारे में कहती हैं कि इन दोनों से बर्मा के सैनिक शासकों के मधुर संबंध हैं. लोकतांत्रिक भारत से उन्हें लोकतंत्र के संघर्ष में अपेक्षाएं हैं. वह कहती हैं कि भारत सही मन से चाहेगा, तो हल निकल सकता है. भारतीय कंपनियों के निवेश के बारे में उनका सुझाव है कि उन्हें सही मौके का इंतजार करना चाहिए.
वह गांवों की गरीबी, पिछड़ेपन और राष्ट्रीय संवाद की चर्चा करती हैं. किसानों की बात करती हैं. बुनियादी क्षेत्रों में निवेश की बात करती हैं. आपसी विश्वास को आवश्यक मानती हैं. महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और नेल्सन मंडेला जैसे लोग उन्हें प्रेरित करते हैं. वह कहती हैं कि धूर्त पैसेवाले, भ्रष्ट राजनेताओं-सरकारों को खरीद सकते हैं. पर किसी देश की जनता के दिलोदिमाग की सौदेबाजी नहीं होती. उनकी पार्टी नेशनल कंन्वेंशन का बहिष्कार कर रही है, जहां बर्मा का संविधान बन रहा है.
फौज के पहरेदारों, वर्जनाओं, वीडियो कैमरों की आंखें और चौकस शासन की निगाहों के वाबजूद लोगों का सूकी तक पहुंचना जारी है. भारतीय पत्रकारों से आंग बतियाते हुए वह देश की दारुण आर्थिक हालत बताती हैं. रामायण-महाभारत की वह पाठिका हैं. भारत से उन्हें खास लवाव हैं. भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन पर उनका गहरा अध्ययन है. (जारी)

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