सूकी का उदय

म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश बर्मा जब आजाद हुआ, तो भारत, पाकिस्तान और चीन मूल के लगभग 15 लाख लोग थे. अंगरेजों के शासन में आकर बसे थे. 1960 के दशक में बर्मा की राजनीति पलटी और लोग भागने लगे. अपने संपत्ति-जायदाद छोड़ कर भारत मूल के लोग जंगल-पहाड़, दुर्गम रास्तों को पार कर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2015 6:32 PM
म्यांमार (बर्मा) से लौट कर हरिवंश
बर्मा जब आजाद हुआ, तो भारत, पाकिस्तान और चीन मूल के लगभग 15 लाख लोग थे. अंगरेजों के शासन में आकर बसे थे. 1960 के दशक में बर्मा की राजनीति पलटी और लोग भागने लगे. अपने संपत्ति-जायदाद छोड़ कर भारत मूल के लोग जंगल-पहाड़, दुर्गम रास्तों को पार कर भारत भागे. मिजोरम की ओर से काफी तादाद में भारतीय इन दुर्गम रास्तों की भेंट चढ़ गये. मर-खप गये. लापता हो गये. बर्मा के कारोबार में चेटियार (तमिल) लोगों का बोलबाला था. उस दौर में यह खत्म हो गया. अब पुन: भारतीय लोग लौट रहे हैं, जो सब कुछ छोड़-गंवा कर भागे, अब वे पुन: नयी आस्था-आत्मविश्वास के साथ लौट रहे हैं. काफी तादाद में उत्तरप्रदेश बिहार के लोग वहां थे. खासतौर से मजदूरी दूध व्यवसाय के क्षेत्र में आज भी यहां लगभग चार फीसदी मुसलमान हैं. तीन फीसदी ईसाई. 85 फीसदी बौद्ध. हीनयान बौद्ध. 1965-66 में बर्मा सरकार ने खासतौर से ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया. इन सबके बावजूद यहां अद्भुत सामाजिक समरसता है. सरकार चौकस रहती है. अयोध्या प्रकरण का असर यहां भी पड़ा पर सख्त सैनिक शासकों ने कहा कि कानून-व्यवस्था की जिम्मेवारी हमारी है. कहीं कुछ नहीं हुआ.
बर्मा में इस सख्त सैनिक शासन का असर है. चार जनवरी 1948 को यह आजाद हुआ. मई 1942 तक जापानी लोगों ने यहां कब्जा कर लिया था. तब बर्मी राष्ट्रवादियों के समूह ने जापानियों की मदद की. तीस कॉमरेडों की अगुवाई में. तीस कॉमरेडों की दिलचस्प कथा है. इनमें सबसे चर्चित आंग सान थे. नोबल शांति पुरस्कार विजेता सू की के पिता. जापानियों ने सत्ता देने में आनाकानी की. तो आंग सान के नेतृत्व में जापानियों के खिलाफ प्रभावकारी भूमिगत विद्रोह शुरू हुआ. एंटी फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग का गठन हुआ. आंग सान इसके मान्य नेता थे, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आंग ने क्लीमेन इटली की सरकार से आजादी की बातचीत की. 1947 में एक षडयंत्र के तहत आंग सान अपने साथियों के साथ मार डाले गये. 1948 में ऊंनू के नेतृत्व में देश आजाद हुआ. संघीय गणराज्य बना. पांच अल्पसंख्यक समूहों शान, कचिन, क्यास, करेन और चिन समुदाय के लोगों को अर्द्ध स्वायत्तता दी गयी. ऊंनू वामपंथी विचारों के थे. वह अनेक बार प्रधानमंत्री रहे. दो मार्च 1962 को सैनिक विद्रोह-तख्यापलट हुआ. ऊंनू भाग कर भारत आये. भोपाल में वर्षों रहे. नेविन के नेतृत्व में सैनिक शासन शुरू हुआ. समाजवादी कार्यक्रम और सादगी पर जोर डाला गया. नेविन का शासन एकांतप्रिय था. सरकार को भय था कि विदेशी राजनीतिक प्रभाव से बर्मा में राजनीतिक विद्रोह की बुनियाद पड़ सकती है. बर्मा की आजादी जा सकती है. विदेशी आर्थिक प्रभाव से बर्मा कमजोर हो सकता है. यह मान कर नेविन ने विदेशी सहयोग नहीं न्योता. नेविन की कुल कोशिश थी कि सारे देशों से दुआ-सलाम रहे. न्यूनतम संबंध रहे. झगड़ा-मनमुटाव किसी से नहीं, पर किसी से बहुत नजदीक न हों. बर्मा के राजनयिक कहते हैं कि यह नीति साफ रही. 1960 और 1970 के दशकों में विदेश नीति के कारण कोई झंझट नहीं हुआ, जबकि पास-पड़ोस के दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे देशों में राजनीतिक अस्थिरता, तबाही, अशांति का दौर रहा.
1988 जुलाई तक नेविन रहे. लोगों के राजनीतिक तेवर देख कर उन्होंने जनमत संग्रह कराने के नाम पर इस्तीफा दिया. 18 दिसंबर 1988 को पुन: विद्रोह हुआ. सेना के कुछ लोगों ने स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रिस्टोरेशन काउंसिल बना कर सत्ता संभाल ली. इसी बीच सू की का राजनीतिक उदय हुआ. गफलत में 27 मई 1990 को चुनाव हुआ. सू की की पार्टी नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी ने 485 सीटों में से 392 सीटें जीतीं. शासक हतप्रभ पर सू की को सत्ता न मिली. गृह कैद, पाबंदी और परेशानी की सौगात मिली. पर दुबली काया की इस महिला में अद्भुत ताकत, संघर्ष की जिजीविषा, संकल्प और साहस जन्मे. (जारी)

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