एज ऑफ इकानामिक्स के नये मुशर्रफ
-पाक से लौटकर हरिवंश- आगरा (जुलाई 2000) और इसलामाबाद (जनवरी 2004) के मुशर्रफ अलग-अलग हैं. इसलामाबाद के मुशर्रफ मैच्योर, एक अंश तक विजन संपन्न और कुछ सकारात्मक करने को आतुर लगे. उनका अप्रोच, एटीट्यूड और बॉडी लैंगवेज भिन्न थे. सेना का चोला उतार कर वह अपने मुल्क में एक नयी सुबह के लिए बेचैन पॉलिटिशियन […]
By Prabhat Khabar Digital Desk |
November 27, 2015 10:04 AM
-पाक से लौटकर हरिवंश-
आगरा (जुलाई 2000) और इसलामाबाद (जनवरी 2004) के मुशर्रफ अलग-अलग हैं. इसलामाबाद के मुशर्रफ मैच्योर, एक अंश तक विजन संपन्न और कुछ सकारात्मक करने को आतुर लगे. उनका अप्रोच, एटीट्यूड और बॉडी लैंगवेज भिन्न थे. सेना का चोला उतार कर वह अपने मुल्क में एक नयी सुबह के लिए बेचैन पॉलिटिशियन लगे. दो-दो हमलों से बाल-बाल बचे मुशर्रफ सोबर (नम्र) और कन्फिडेंट (आत्मविश्वास से लबरेज) थे. पत्रकार वार्ता में तीखे सवाल हुए. पर सेना अफसर की तरह उन्होंने न संयम खोया, न विचलित हुए. बल्कि कई गंभीर मुद्दे उन्होंने उठाये. एक समझदार पॉलिटिशियन की तरह.
उनका सपाट पर प्रभावी अनुरोध था, मीडिया से. कहा एक नया माहौल हम साथ मिल कर बनायें. संशय-दूरी पैदा करनेवाली चीजों को बढ़ावा न दें, तभी नयी शुरुआत होगी. उनका सीधा प्रश्न था, बंबई में बॉर्डर- एलओसी जैसी फिल्में बनें या पाक में ऐसी चीजें हों, तो हम बंटे मन-दिल जोड़ पायेंगे? जनरल से राष्ट्रपति बने मुशर्रफ के इस सवाल को आसानी से खारिज करना संभव नहीं. मुशर्रफ ने माना कि दोनों देशों के ‘हार्डलाइनर’ ही असली चुनौती हैं.
आगरा में ‘टेररिज्म’ शब्द पर बिदक कर बिना संयुक्त बयान जारी किये पाक लौटनेवाले राष्ट्रपति मुशर्रफ ने इसलामाबाद घोषणापत्र में खुलेआम माना कि ‘टेररिज्म’ गंभीर चुनौती है. उन्होंने कहा कि आगरा के बाद ‘नदियों’ में काफी पानी बहा है, आगरा में जो तार टूट गया था. इसलामाबाद में वह जुड़ गया है.
इस बदलाव को दुनिया ने देखा और गौर किया है. पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार नजम सेठी (फ्राइडे टाइम्स) ने भी यह महत्वपूर्ण बदलाव पाया है. उनके अनुसार मुशर्रफ के नेतृत्व में 15 वर्षों बाद पाकिस्तान के हार्डलाइनरों (करपंथियों) ने यह समझा है कि कश्मीर में युद्ध भारत झेल सकता है, पर उसकी ताकत है, तेजी से विकसित होती आर्थिक व्यवस्था. भारत आर्थिक ताकत बन रहा है.
वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने भी यह पाया कि अपने सबसे करीबी देश से शत्रुता पालते हुए भारत महाशक्ति नहीं बनेगा. खबर तो यह भी है कि आइएसआइ ने भी जनरल इसानुल हक के नेतृत्व में यह समझ लिया है कि मजहब के नाम पर कर लड़ाकू पैदा करना, बाजार के इस युग में कठिन है. यह ‘एज ऑफ इकानामिक्स’ (अर्थ दौर) है. पाकिस्तान में यह आवाज गूंजने लगी है कि चीन का व्यापार संतुलन 200 मिलियन डॉलर से बढ़ कर पांच बिलियन डॉलर हो सकता है, तो ‘साउथ एशियन रीजन’ में नयी शुरुआत क्यों नहीं हो सकती? नये मुशर्रफ इस नयी शुरुआत-नयी पहचान की भाषा-मुहावरे बोलने लगे हैं.
उनसे पत्रकारों ने पूछा, सेना के जनरल, जो राजनीति में उग्र बातें करने का आदी रहा हो, जिसने बार-बार यह घोषणा की हो कि कोर इश्यू (मूल मुद्दा) कश्मीर के बगैर भारत से कोई बात नहीं होगी, वह कैसे इसलामाबाद में बदल गया? मुशर्रफ का जवाब, दिल छूनेवाला था. कहा कि सेना का जवान, युद्ध के मैदान में जो हिंसा, रक्तपात और विनाश देखता है, वही शांति-समृद्धि की जरूरत शिद्दत से महसूस कर सकता है.
यह भी लगा कि इतिहास से मुशर्रफ ने सीखा है. इसलामाबाद में उल्लेख हुआ. दो महायुद्धों या उसके पहले कई शताब्दियों तक यूरोपीय देश एक-दूसरे के खून के प्यासे थे. फ्रांस, जर्मनी का इतिहास पलटें. आस्टिया-पोलैंड वगैरह का. कत्लेआम, युद्ध, विनाश ही उनके अतीत रहे. वे अगर एकजुट हो कर आर्थिक महाशक्ति बन सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? पहले कोयला और इस्पात पर यूरोपीय देशों में एका हुई. इस गर्भ से निकला, यूरोपीयन यूनियन.
उसी ‘टेड’ और ‘पालिटिक्स’ के पुल चढ़ कर भारत-पाक ‘एशियन शताब्दी’ के गौरव के हकदार क्यों न बनें, मुशर्रफ का पाकिस्तान इस पर गंभीर डिबेट (बहस) कर रहा है. इसलामाबाद में विश्वसनीय लोगों से सुना. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री से हाथ मिलाते हुए कहा, इस बार मजबूती से हाथ पकड़ा है, छोड़ेंगे नहीं. यह संबंध, साउथ एशिया की नयी पहचान-समृद्धि की बुनियाद हो सकता है.