रूस में लेनिन, चीन में माओ और वियतनाम में हो ची मिन्ह अब नायक या प्रेरणास्रोत नहीं हैं
-दक्षिण कोरिया से लौट कर हरिवंश- वर्ष ‘90-92 के दौरान ‘द इकानामिस्ट’ की एक महिला पत्रकार ने बहुचर्चित पुस्तक लिखी थी, ‘द डेथ ऑफ डिसटेंस’ (दूरी की मौत). दुनिया ‘ग्लोबल’ बन रही है. ‘ग्लोबल विलेज’ बन रहे हैं. यह सब सैद्धांतिक स्तर पर सुना था. पर इस बार ऐसी दुनिया का एहसास हुआ ‘सोल वर्ल्ड […]
-दक्षिण कोरिया से लौट कर हरिवंश-
बहस की. उन्हीं दिनों वह एक नायक, असाधारण हीरो, इतिहास पुरुष के रूप में मन में बैठ गये. हालांकि चीन के हमले की घटना ने गहराई से आहत किया. इमरजेंसी के दौरान ‘माओ की मौत’ पर बीबीसी सुनते हुए हम लोग पूरी रात बहस विवाद में डूबते-उतराते रहे थे. बनारस की वह रात भूल नहीं पाता. सो, चीनी बंधु से पूछ बैठा आपके देश की युवा पीढ़ी माओ को याद करती है? उनका वय 55 के आसपास रहा होगा. कौतुक से उन्होंने मुझे देखा. परखा. थम कर बोले. अब मेरी उम्र के कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों में ही वह जीवित हैं. पर पार्टी में भी कुछ लोगों का उनके प्रति ‘रिजर्वेशन’ है.
पर युवा पीढ़ी उन्हें शायद ही जानती है. उसकी कोई रुचि-दिलचस्पी माओ या साम्यवाद में नहीं है. वह फिल्म या टीवी के लोगों को नायक मानती है. यह ‘मोबाइल’ (दोनों अथा में मोबाइलधारी और गतिशील) पीढ़ी है. इसका सपना है, शीघ्र संपन्नता, डूब कर मौज-मस्ती. आत्मकेंद्रित, अपने में डूबी हुई. यह बाजारवाद और उपभोक्ता के दौर की पीढ़ी है. इसके तार-लय पश्चिमी जीवन दर्शन से जुड़े हैं. क्षणजीवी. सफल होने के लिए ‘साधन’ और ‘साध्य’ के बहस को फिजूल माननेवाली पीढ़ी. इस पीढ़ी का जीवन दर्शन-मूलमंत्र समझने की कोशिश करता हं, तो बेंजामिन फ्रैंकलिन का कथन याद आता है. (नेहरू का यह प्रिय कोट (उद्धरण था).
तब उन्होंने कहा था, भविष्य में देखना. यह पश्चिमी जीवन दर्शन चुंबक की तरह दुनिया के युवाओं की खींचेगा. इसमें युवा मन है, गति है, खुला, स्वच्छंद और मुक्त जीवन है. वर्जनाहीन सेक्स है. बात-बात में तलाक है. जुड़ाव-अलगाव में भी गति है. स्थायी संबंध नहीं. ‘कोका कोला’ एक पेय नहीं, प्रतीक है. फास्ट लाइफ (गति-वेग) इसका उल्लेखनीय पहलू है. कोरिया में भी तेज रफ्तार से दोपहिया चलाते युवकों को देखता हूं, तो भारत के युवा याद आते हैं. हर शहर में तेज गति (तरह-तरह की मोटरसाइकिलों पर) से गाड़ी चलाते युवा. रांची में भी. बढ़ते एक्सीडेंट और बेमौत मरते युवा. शायद धैर्य नहीं, इस पार या उस पार का मानस. क्या यह विश्वव्यापी बयार है? ग्लोबल दुनिया की संस्कृति! समझ नहीं पाता, क्या गलत है या क्या सही है?
पर यह यथार्थ है. मुझे भारतीय ‘काल’ की अवधारणा याद आती है. पर उस चीनी द्वारा बुद्ध के बारे में पूछे गये सवाल भी मस्तिष्क में कौंधते हैं. 5000 वर्षों से भी अधिक पुराने बुद्ध में दुनिया की दिलचस्पी है, पर माओ या हो ची मिन्ह या लेनिन अपने ही देशों में भुलाये जा रहे हैं? 20वीं सदी के इतिहास के महान नायक थे, ये तीनों. इनके बिना 20वीं सदी का इतिहास नहीं बनता.
तब बुद्ध कैसे दुनिया के प्रिय हो गये! क्या उन्होंने जीवन के शाश्वत सवालों के उत्तर ढूंढ़े, यह कारण है? राजनीति के महानायकों ने जीवन के एक पहलू राजनीति और व्यवस्था के उत्तर ढूंढ़ने की कोशिश की, यह संपूर्ण जीवन से मुक्ति का शाश्वत सवाल-प्रसंग नहीं है, इसलिए राजनीति के महानायक ‘सदियों’ में ही भुलाये जाने लगे और जीवन के शाश्वत सवाल उठानेवाले ‘सहस्त्राब्दियों’ में भी रुचि-प्रेरणा के केंद्र हैं. गांधी भी संपूर्ण जीवन के उत्तर ढूंढ़ने में लगे थे. इसीलिए वह याद रहेंगे? बुद्ध, का दर्शन, बुद्ध का संघ. राजकीय बल, सेना, प्रशासन, फौज के कारण नहीं थे, इन राजनीतिक नायकों का नायकत्व, शायद फौज, सत्ता बल के कारण भी था? अनेक अनसुलझे सवाल उठते हैं, पर कोई उत्तर नहीं मिलता.
2006 में. उस रूस में जहां 1917 की क्रांति हुई, टाल्सटाय, चेखब … सोल्जेनेत्सिन के मुल्क में लेनिन-स्टालिन के देश में. रूस की युवा पीढ़ी चीन-वियतनाम के मुकाबले तेजी से ‘बाजार की संस्कृति’ में डूब रही है. 1917, लेनिन, वगैरह अतीत की स्मृतियों में कैद हो रहे हैं. युवा पीढ़ी, मोबाइल युग की पीढ़ी, टीवी युग की पीढ़ी. संचार क्रांति की पीढ़ी, ग्लोबल विलेज की पीढ़ी है. वही मूल्य-संस्कार हैं.