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दुनिया में सिक्का है कोरिया के ब्रांडों का

दक्षिण कोरिया से लौट कर हरिवंश सोल 05 का निमंत्रण मिला, तो दक्षिण कोरिया से जुड़ी तीन बातें स्मृति में उभर आयीं. पहला, 1995 में अमेरिका यात्रा के दौरान प्रत्यक्ष देखा-सुना, स्वअनुभव. दक्षिण कोरिया की औद्योगिक ताकत से अमेरिकी बाजार में बढ़ती बेचैनी का एहसास. दूसरी, उन्हीं दिनों विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका द इकानामिस्ट में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2015 5:01 PM
दक्षिण कोरिया से लौट कर हरिवंश
सोल 05 का निमंत्रण मिला, तो दक्षिण कोरिया से जुड़ी तीन बातें स्मृति में उभर आयीं. पहला, 1995 में अमेरिका यात्रा के दौरान प्रत्यक्ष देखा-सुना, स्वअनुभव. दक्षिण कोरिया की औद्योगिक ताकत से अमेरिकी बाजार में बढ़ती बेचैनी का एहसास. दूसरी, उन्हीं दिनों विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका द इकानामिस्ट में छपा दक्षिण कोरिया का पढ़ा हुआ सव0000000. तीसरी बात, हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की पत्रिका (वर्ष 1992) में पढ़ा हआ पोहांग आइरन एंड स्टील कंपनी(पोसको) की केस स्टडी. इसके बहत बाद में संयुक्त मोरचा-वाम मोरचा की सरकार के वित्त मंत्री पी चिदंबरम (1997 में) संपादकों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए, एशियन टाइगर्स, एशियन वित्तीय संकट, पूर्व एशिया के बाजारों-अर्थव्यवस्था के गुब्बार फूटने और गंभीर अर्थसंकट का विवेचन कर रहे थे, तब भी दक्षिण कोरिया जाने की उत्सुकता मन में थी.
हालांकि यह यात्रा भिन्न थी. सोल 05 (दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल का उच्चारण सोल है), वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स का आयोजन था. इसके तीन कार्यक्रम थे. पहला वर्ल्ड न्यूजपेपर कांग्रेस का 58वां सम्मेलन, दूसरा वर्ल्ड एडीटर्स फोरम का 12वां सम्मेलन और तीसरा इनफो सर्विस एक्सपो 2005 का आयोजन. 1991 के उदारीकरण के बाद अखबार उद्योग में अकल्पित बदलाव आये हैं. मास मीडिया और इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री (मनोरंजन उद्योग) बड़े उद्योग तो हुए ही हैं, साथ ही करेक्टर (चरित्र) और कंटेंट(विषय वस्तु-सामग्री) भी बदल गये हैं. ग्लोबल दुनिया-समाज-संस्कृति से तालमेल बैठाने की जुगत में. अब अखबार उद्योग भी एक चुनौतीपूर्ण विधा है. इसमें हो रहे बदलावों को जानना, अपने पेशे-विधा में बने रहने की बुनियादी शर्त्त जैसा है. पोस्ट इंडस्ट्रिएल इकोनॉमी (औद्योगिक अर्थव्यवस्था के बाद का युग) या सूचना क्रांति या ग्लोबल इकोनॉमी या डेथ ऑफ डिसटेंस एरा (दूरी खत्म होने व ग्लोबल विलेज के दौर में) की खास बात है, युवापन. दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में 20 से 35 वर्ष की पीढ़ी (युवा-युवती) कंट्रोल व कमांड (संचालन की केंद्रीय भूमिका में) में हैं. रिटेचमेंट (छंटनी) सरप्लस मैन पॉवर (अधिक कर्मचारी), वीआरएस (स्वैच्छिक अवकाश योजना), रिडिपलायमेंट (किसी अन्य काम में नियोजन) के इस दौर में अपनी विधा-पेशे (पत्रकारिता) में दुनिया स्तर पर हो रहे बदलावों को जानते-समझने-प्रासंगिक रहने की भूख युवा अवस्था की चाहत है, तो शायद बदलती दुनिया से तालमेल न रखने की स्थिति में अप्रासंगिक बन जाने का भय भी है. क्या इस जिज्ञासु प्रवृत्ति के मूल में भय है, मोह और राग-विराग है? नहीं पता. पिछले दिनों राजगीर के वेणुवन के पास देर रात अकेले घूमते हुए बार-बार लगता रहा कि संसार के मोहपाश में कितना बंध गया. ज्ञान मुक्ति देता है, यह पुरानी धारणा है. आज ज्ञान व प्रासंगिक रहने की भूख सांसारिक-सफलता के लिए जरूरी है? क्या यही जीवन है? क्या यही मकसद था?
यात्रा, चाहे देश में हो या विदेश में, ये सवाल पीछा नहीं छोड़ते. कुछेक वर्षों से यह गहरा एहसास है कि न जाने कब जीवन मशीन बन गया?
सुबह उठना, दर्जनों अखबारों को बांचना (धीरे-धीरे यह प्रामाणिक मत बन गया है कि अखबार सिर्फ सूचनाएं, कई बार परस्पर विरोधी-गलत, देते हैं उन्हें पढ़ना छोड़ दिया जाये, तो बौद्धिक तेज-ज्ञान में कमी नहीं होगी), दफ्तर के नोट बनाना, जल्दी तैयार होना, फोन घनघनाना, फिर दफ्तर के पूर्व नियोजित काम, बैठक, बाहर के कार्यालयों से संवाद… इसमें न जाने कब शाम हो जाती है. फिर घर, रात तक कार्यालय से संपर्क. ऐसा करते 15 वर्ष इस वर्ष के अंत में हो जायेंगे. रांची रहते. पर रांची शहर के अनेक इलाके अदेखे हैं. यही हाल बंबई में था, हैदराबाद में रहा, पटना, कोलकाता और दिल्ली में भी. इन शहरों में रहा, पर इनसे मुकम्मल दरस-परस नहीं हुआ. सिर्फ बनारस छोड़ कर, जहां पढ़ा और काशी की वह अनोखी संस्कृति देखी, जो दुनिया को खींचती है. पर काशी विद्यास्थली थी, ज्ञान की खोज, जीवन के सवाल पूछने की बेचैनी जैसे संस्कार काशी में मिले, तो जिन शहरों ने रोजी-रोटी का मंच दिया, नौकरी दी, उन शहरों ने जिज्ञासा सोख ली. जीवन को मशीन बना दिया. मशीन बना जीवन अचानक रिटायर होने पर सूना हो जाता है, तब वह जीवन के मूल सवालों से बहत दूर निकल चुका होता है. हर यात्रा इस कठोर यथार्थ से रूबरू कराती है. यह मारक, बेचैन करनेवाला एहसास भी विराट संसार के अलग-अलग रूप देखने से खत्म होता है. इस अर्थ में यात्राएं ऊर्जा देती हैं.
दक्षिण कोरिया की यात्रा शुरू करते समय भी यही मनोभाव है. इस देश से जुड़ी बातें उभरती हैं. 1995 में एक माह अमेरिका में था. तब सुना अमेरिकी वर्चस्व को अमेरिकी बाजार में जिन देशों से चुनौती मिल रही है, उनमें एक दक्षिण कोरिया है. सुन कर अच्छा लगा. एक एशियाई देश. छोटा देश. दुनिया की महाशक्ति के लिए चिंता का विषय बन रहा है. टेक्सटाइल, आटोमोबाइल, केमिकल, इलेक्ट्रानिक्स जैसे क्षेत्रों में कोरिया की चीजों से अमेरिकी बाजार पटे हैं. सस्ते और क्वालिटी में बेहतर कोरियाई चीजों के मुकाबले अमेरिकी उद्योग मार खा रहे हैं. 21 मई 2005 के द इकानामिस्ट में छपा कि कैसे दक्षिण कोरिया का कार निर्माता हुंडई अमेरिका में गाड़ियां बना रहा है. वही हुंडई, जिसे रांची की सड़कों पर देखता हूं. भारत में जिसने दक्षिण कोरिया के विश्वप्रसिद्ध ब्रांडों, सैमसंग, एलजी वगैरह के साथ साख बना ली है. रसूख कायम कर लिया है. पिछले वर्ष जाड़ों में दक्षिण भारत की सुंदर सड़कों पर जिन आरामदेह वोल्वो बसों में यात्रा का सुख मिला था, उनकी जड़ें भी कोरिया में ही हैं. 20 मई 2005 को इसी हुंडई ने अमेरिका में अपना पहला कारखाना खोला है. अमेरिका में कार खरीदनेवालों के बीच लोकप्रिय पत्रिका कंज्यूमर रिपोर्ट्स का निष्कर्ष है कि हुंडई की कार 2004 सोनाटा अमेरिका की सबसे विश्वसनीय कार है. कारों के बाजार पर निष्पक्ष अध्ययन करनेवाले आर्बिटेटर (पंच) जेडी पावर का कहना है कि हुंडई में खराबी की दर पिछले वर्ष सबसे कम खराबी आनेवाले कार निर्माताओं की सूची में दूसरी थी. टोयोटा के ठीक बाद. अमेरिका के अलबामा में 1.1 बिलियन डॉलर से तैयार हुंडई कारखाने को प्रतिस्पर्द्धी अमेरिकी कार निर्माता डिटाएट जैसा पेंशन, स्वास्थ्य सुरक्षा और यूनियनबाजी की समस्याएं नहीं हैं, इसलिए हुंडई को लेकर अमेरिकी कार निर्माता बेचैन हैं. हुंडई दो नारों को लेकर अमेरिकी उपभोक्ताओं के सामने हैं. क्वालिटी और रिलायबिलिटी (गुणवत्ता व विश्वसनीयता). पांच वर्ष की वारंटी (अमेरिकी बाजारों के लिए अनोखा सूत्र), कार का इंजन और ट्रांसमिशन पर 10 वर्ष की वारंटी). हुंडई बाद में लक्जरी कार, स्पोर्ट्स कार, ट्रक वगैरह अमेरिका में बनाने की तैयारी में है. इस साल हुंडई अलबामा कारखाने में तीन लाख सोनाटा सीडेन गाड़ियां बनेंगी.
कोरिया के ही कार बस-ट्रक निर्माता हैं देउ. इस कंपनी ने जनरल मोटर्स से गंठबंधन कर लिया है. टाटा घराने ने ट्रक बनानेवाले देउ को ले लिया है. सैमसंग भी कार बनाता है. फ्रांस की विश्वविख्यात रेनाल्ट से इसने गंठबंधन किया है. पर दक्षिण कोरिया के कार बाजार में 73 फीसदी हिस्सा हुंडई का है. हुंडई के लोग हमेशा-हर समय बदलती परिस्थितियों-चुनौतियों के अनुरूप खुद को बदलते-तैयार करते रहे हैं. हुंडई समूह के स्थापक चुंग जू-यंग के बड़े पुत्र युंग ने 1998 में काम संभाला, तो कंपनी में इंजीनियरों के महत्व को शिखर पर पहुंचा दिया और डिफेक्ट्स (खराबी) को घटाने-न्यूनतम करने का नारा दिया. यह मनोवैज्ञानिक कदम था. कार उद्योग के जानकार इंजीनियर थे, महारत-कौशल, निपुणता उनमें थी. इसलिए ऐसे प्रोफेशनलों को शिखर पर ले जाना, महत्व देना, साथ में हुंडई कार की डिफेक्ट (खराबियों) को न्यूनतम पहुंचाने का नारा देना, यह प्रसंग जानते हए मुझे भारत के आइएएस याद आते हैं. हर मर्ज की दवा, कार, बिजली, अर्थव्यवस्था, प्रबंधन, शिक्षा, कल-कारखाना, रक्षा, उद्योग, साइंस टेक्नोलॉजी, सूचना तकनीक जैसे अनेक अत्यंत विशिष्ट और प्रोफेशनल क्षेत्रों में भी शिखर पर आइएएस बैठे हैं. शासन भी वही चलाते हैं. इस दास-सामंती मनोवृत्ति-मानस से भारत को सुधारनेवाला कोई राजनीतिज्ञ पैदा होगा?
बदलती दुनिया में नये मानस से काम करनेवाले मुल्क, पौने पांच करोड़ की आबादीवाले कोरिया के ब्रांडों ने दुनिया में शोहरत पायी है, खलबली-धूम मचायी है. सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स और एलजी इलेक्ट्रानिक्स ने दुनिया समेत भारत के कोने-कोने में दस्तक दी है. सैमसंग-एलजी के फ्लैट पैनल टेलीविजन, डिजिटल उत्पाद पूरी दुनिया में धूम मचा रहे हैं. हुंडई हो या देउ या सैमसंग या एलजी, हर उद्योग-निर्माता रिसर्च एंड डेवलपमेंट (शोध व विकास) पर बड़ा खर्च करता है. नित नया. अच्छी से अच्छी सेवा. जीरो डिफेक्ट का ख्वाब. मेरे मन में सवाल उभरते हैं. कैसे पौने पांच करोड़ का मुल्क दुनिया की प्रतिस्पर्द्धा में अपना झंडा गाड़ देता है. पिछले 40-45र्ग्ष में ही. पर 105 करोड़ की आबादी के देश का कोई अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बाजार में नहीं है. हमारा कोई घराना-उद्योग समूह उस स्तर का नहीं है. यह अंतर व्यक्ति, समाज, आबोहवा, इतिहास के कारण है या व्यवस्था, राजनीतिक प्रणाली, सामाजिक मन-मिजाज के कारण है?
यह सब सोचते हए अचानक कोरियन एयरलाइंस के विमान में चल रहे फ्लैट टीवी पर निगाह ठहर जाती है. 1033 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से उड़ रहा है विमान. 33000 फीट की ऊंचाई पर. खिड़की के बाहर, गहरा नीला आकाश दिखता है. आकाश का अक्षत सौंदर्य. गहरा नीलापन, वह सौंदर्य, जो शब्द नहीं बता सकते. कृष्ण याद आते हैं. सचमुच प्रकृति और पौरुष (ईश्वर-प्रकृति, कृष्ण के संदर्भ में) के सौंदर्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं. हवाई मार्ग का नक्शा टेलीविजन पर आता है. हम मुंबई-आंध्र, ओड़िशा होते हए बंगाल की खाड़ी बांग्लादेश छोड़ आये हैं. थाईलैंड पार कर लिया है. हनोई (वियतनाम) के ऊपर हैं. हांगकांग के बगल से. चीन के शंघाई के ऊपर से ईस्ट चाइना सी (चीन का पूर्व समुद्र) पार करते हए हम सोल के इनचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहंचेंगे. शंघाई के ऊपर से गुजरते हए चीन, हांगकांग और सिंगापुर की पुरानी यात्रा याद आती है. मुंबई से सोल की हवाई यात्रा सात घंटे की है, भारत के समय से 3.30 घंटे आगे. इसलिए 10.30 घंटे की यात्रा मानी जाती है. यह सब सूचनाएं पढ़ते हए कोरियन एयरलाइंस का नारा पढ़ता हूं कीप स्काई ब्लू, लैंड ब्यूटीफुली (आकाश को नीला रखें और धरती को सुंदर).
जहाज में अंधेरा ही है. लोग सोये हैं. खिड़की खोल कर निहारता हूं. सुमित्रानंद पंत याद आते हैं. न जाने नक्षत्रों से कौन निमंत्रण देता मुझको मौन याद आता है. क्षितिज पर सफेदी के आहट साफ हैं. कृष्णनाथ जी की पुस्तक पृथ्वी परिक्रमा की पंक्तियां याद आती हैं. पुराना संसार छूट रहा है. लौटने पर वही नहीं रहनेवाला है. कुछ भी नहीं. बिना छूटे मिलता नहीं. छूटता क्या है? मिलता क्या है? भूमि, लोग, चीजें, संबंध पीछे छूटते हैं. भूमि, लोग, चीजें, संबंध आगे खींचते हैं. नीचे धरती आ गयी है. जल (समुद्र) छूट गया है. छोटी-छोटी पहाड़ियां, सलेटी-सी, रेतीली और तांबई धरती. अनजान धरती. जीवन भी तो अनजान ही है. आने-जाने का खेल. यात्राओं का संसार, भवसागर का चक्र. जहाज, दक्षिण कोरिया की धरती पर उतरता है. समय देखता हूं. मेरी भारतीय घड़ी में दिन के डेढ़ बजने को हैं, दक्षिण कोरिया में पांच. काल चक्र में पीछे छूट गया हूं. अगर कोरिया के कालचक्र से जुड़ जाऊं, तो अपनी धरती से भटक जाऊंगा. कालचक्र की यही दुविधा है. दुविधा, संशय, अनिर्णय, द्वंद्व, पसोपेश शायद मनुष्य के अंग हैं, जो इनसे मुक्ति चाहता है, वह दार्शनिक है. बुद्ध है, पाथेय है. हम तो यह जनम भटक गये. भटकाव में मुक्ति नहीं, द्वंद्व ही है, सो, इसी द्वंद्व मानस के साथ दक्षिण कोरिया के भव्य, आलीशान, अधुनातन, तकनीक समृद्ध हवाई अड्डे, इंचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर हूं. कोरियन एयर की पत्रिका हाथ में है, जो कहती है लैंड ऑफ मार्निंग काम(शांत सुबह की धरती) में आपका स्वागत. मुझे अपने देश की देशज कहावत सुबहे बनारस, शामे अवध याद आती है.

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