आनुवांशिक बीमारियों का ज्ञान अब गर्भ में ही…

कुछ बिमारियों का बड़े होने के बाद ही पता लगता है जो मरीज के लिए कई बार जानलेवा भी हो जाता है. लेकिन हालिया हुए एक शोध ने इस अनभिज्ञता को दूर कर दिया है. अब किसी बच्चे के जन्म से लेकर बुढ़ापे तक की आनुवांशिक बीमारियों का उसके गर्भ में रहते हुए ही पता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 6, 2016 6:38 PM

कुछ बिमारियों का बड़े होने के बाद ही पता लगता है जो मरीज के लिए कई बार जानलेवा भी हो जाता है. लेकिन हालिया हुए एक शोध ने इस अनभिज्ञता को दूर कर दिया है. अब किसी बच्चे के जन्म से लेकर बुढ़ापे तक की आनुवांशिक बीमारियों का उसके गर्भ में रहते हुए ही पता चल सकता है. आइये बताते हैं कैसे?

शोध अनुसार, सिर्फ मां के खून की साधारण जांच एनआईपीटी (नॉन इनवेजिव प्री ट्राइसोमी टेस्ट) से किसी बच्चे की आनुवांशिक बिमारियों के बारे में पता लगाया जा सकता है. इससे बच्चे के लालन-पालन में एहतियात बरतकर माता-पिता उसके स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं काफी हद तक कम कर सकते हैं.

यही नहीं, सही समय पर बीमारी का पता लगने पर कुछ बीमारियों का इलाज गर्भ में ही हो सकता है. आज 15-20 फीसदी महिलाएं 35 से अधिक उम्र में गर्भधारण कर रही हैं. इस कारण गर्भस्थ बच्चों में जेनेटिक डिसआर्डर की संभावना भी बढ़ रही है. जेनेटिक डिसआर्डर की संभावना को प्रदूषण, खान-पान के द्वारा शरीर में जा रहे पेस्टीसाइड भी बढ़ावा देते हैं. इसलिए आज के समय में विशेषकर 35 की उम्र के बाद गर्भधारण करने वाली महिलाओं के लिए इस तरह के टेस्ट आवश्यक हो गए हैं.

पहले इसके लिए एम्नियोसिंटेटिस टेस्ट (गर्भाशय के पानी से की जाने वाली जांच) किया जाता था. लेकिन इसका साइड इफेक्ट गर्भपात के रूप में सामने आने लगा. लेकिन अब मां के रक्त की जांच से ही गर्भस्थ शिशु में होने वाले डिसऑर्डर का पता लगाया जा सकता है.

ऐसे पता लगया है जेनेटिक डिसऑर्डर का

गर्भस्थ शिशु में मां के प्लेसेंटा द्वारा रक्त पहुंचता है. यानि मां के रक्त में शिशु का रक्त भी मौजूद होता है. मां के रक्त में मौजूद फीटल ब्लड सेल से शिशु का डीएनए टेस्ट किया जाता है. विशेषज्ञों के अनुसार, इससे लगभग 90% आनुवांशिक बीमारियों के बारे में गर्भ में ही पता लग सकता है. इसका खर्चा एमनियोसिंटेटिस टेस्ट के बराबर ही लगभग 40 हजार तक आता है.

एनआईपीटी के जरिए बच्चों में गंभीर मानसिक व शरीरिक विकलांगता की समस्या काफी हद तक दूर की जा सकती है क्योंकि गर्भ धारण करने के 12वें हफ्ते में इस जांच से, होने वाले बच्चे की आनुवांशिक विकृतियों के बारे में पता लगाया जा सकता है. जिससे गर्भपात करने जैसी परिस्थिति में मां के लिए ज्यादा समस्या नहीं होती.

डॉक्टरों की सलाह के अनुसार 35 से अधिक उम्र पर गर्भधारण करने वाली हर महिला को यह परीक्षण कराना चाहिए.

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