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नर्सरी में एडमिशन से ही शुरू हो जाती है जंग

परसेंटेज के आधार पर दसवीं और बारहवीं के रिजल्ट को तौलने वाले परीक्षा बोर्डों ने अब प्रतिशत का खुलासा करना बंद कर दिया है. सीबीएसई बोर्ड अब सीजीपीए की घोषणा करता है. इसके बावजूद रिजल्ट के नाम पर होने वाली वह क्रूर प्रतिस्पर्धा का स्तर घटा नहीं है. अभिभावक अपने बच्चों को मिलने वाले सीजीपीए […]

परसेंटेज के आधार पर दसवीं और बारहवीं के रिजल्ट को तौलने वाले परीक्षा बोर्डों ने अब प्रतिशत का खुलासा करना बंद कर दिया है. सीबीएसई बोर्ड अब सीजीपीए की घोषणा करता है. इसके बावजूद रिजल्ट के नाम पर होने वाली वह क्रूर प्रतिस्पर्धा का स्तर घटा नहीं है.

अभिभावक अपने बच्चों को मिलने वाले सीजीपीए की घोषणा स्टेटस सिंबल की तरह करते हैं. दरअसल पिछले दो-तीन दशकों से दसवीं-बारहवीं और बारहवीं के बाद मेडिकल-इंजीरियरिंग कॉलेजों में प्रवेश की परीक्षाओं का दवाब इतना अधिक है कि मध्यम वर्गीय परिवारों में आठवीं कक्षा में पहुंचते ही किशोरों को सीमा पर तैनात सैनिक मान लिया जाता है.
उसे टीवी, इंटरनेट और उसके अपने ही कई दोस्तों से दूर कर दिया जाता है. खेलना-कूदना और मनोरंजन करना उसके लिए हराम साबित कर दिया जाता है. उसकी 16-18 घंटे की रूटीन तय कर दी जाती है. जिसमें स्कूल जाना, कोचिंग जाना और घर में सेल्फ स्टडी करना सबसे प्रमुख काम होता है और ज्यादातर किशोरों के लिए तो इसके अलावा कोई और विकल्प ही नहीं होता है. इस रूटीन का कड़ाई से पालन करना माता-पिता की जिम्मेदारी हो जाती है. कुछ प्रगतिशील अभिभावक मनोरंजन की इजाजत देते हैं, मगर उस दवा की खुराक की तरह कि मनोरंजन के बाद वह रिफ्रेश होकर फिर से पढ़ने के लिए जुट जाये.
अमूमन यह कड़ा रूटीन तब तक जारी रहता है, जब तक वह इंजीनियरिंग या मेडिकल में से किसी स्ट्रीम की बेहतर कॉलेजों में एडमिशन हासिल न कर ले. बारहवीं तक यह सब घर में चलता है, बारहवीं के बाद वह किशोर कोचिंग संस्थानों के हवाले हो जाता है. और कोचिंग संस्थान के संचालक भी तकरीबन इसी फार्मूले के आधार पर काम करते हैं. वे यह नहीं सोचते कि जीवन में पहली दफा अपने घरों से दूर होकर स्वतंत्र जीवन जीने की प्रक्रिया में झोंक दिये गये ये बच्चे किस तरह की मानसिक परेशानियों से जूझ रहे हैं. वह अपनी इस नयी जीवन शैली के साथ कैसे कोप-अप कर पा रहे हैं. कर भी पा रहे हैं या नहीं.
इसके बावजूद कि हाल के दिनों में सफलता के कई क्षेत्र विकसित हुए हैं और इंजीनियरिंग पास किये हुए छात्रों के कैरियर की अनिश्चितता की खबरें भी आती रहती हैं. हमारे समाज के लिए सफलता की पहली सीढ़ी आज भी इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों में अपने बच्चों का नामांकन करा देना है. अधिकतर अभिभावक इनके अलावा किसी और स्ट्रीम में अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते. बीए, बीएससी और बीकॉम बेकार मान लिये गये हैं. अगर बच्चे को मैनेजमेंट या प्रशासनिक सेवाओं में भी जाना है तो वह इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की सीढ़ियां चढ़कर ही पहुंचता है. यह रोचक है कि आईआईटी ग्रेजुएट, आइआइएम से पीजी करता है और फिर वह यूपीएससी की परीक्षा पास करता है. हमें आपको यह रास्ता अजीब लगे मगर आज ज्यादातर छात्रों के लिए सफलता का यही मार्ग है.
मगर इस राह पर चलना इतना आसान नहीं है. सफलता का मार्ग बहुत संकरा है. बहुत सारे लोग असफल हो जाते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि आगे वह क्या करे. हालांकि पिछले कुछ सालों में देश में इंजीनियरिंग के कॉलेज बड़ी संख्या में खुले हैं और इनमें से अधिकतर की सीटें खाली ही रह जाती हैं. कई अभिभावक जो बच्चों के कैरियर को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी नहीं होते अपने बच्चों को इन कॉलेजों में भेज देते हैं. मगर कुछ अभिभावक अतिशय महत्वाकांक्षी होते हैं.ऐसे अभिभावकों में वे लोग होते हैं जिन्होंने नर्सरी से ही अपने बच्चों के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया.
आप उन अभिभावकों को देख सकते हैं, जो अपने शहर के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में अपने बच्चों का एडमिशन कराने के लिए आधी रात से स्कूल के बाहर लाइन में लगते हैं. उन्हें कोचिंग कराते हैं ताकि स्कूल में पूछे जाने वाले सवालों का सही जवाब पूरे आत्मविश्वास के साथ उनका चार साल का बच्चा दे सके. वे अपना पूरा रूटीन बच्चों के स्कूल के रूटीन के हिसाब से तय करते हैं.
उसका होमवर्क, प्रोजेक्ट और स्कूल से मिले दूसरे काम उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण होते हैं. पहली कक्षा से ही वे अपने बच्चों के आंसर शीट का गहन अध्ययन करना शुरू कर देते हैं. बच्चा किस विषय में पिछड़ रहा है यह पता करने लगते हैं और स्पेशल ट्यूशन शुरू कर देते हैं. बच्चे के दोस्त कैसे होने चाहिये यह भी वही तय करते हैं और दोस्तों से क्या बात होती है उसका रोज गहन विश्लेषण करते हैं.
बहुत धीमी है बदलाव की रफ्तार : मनोवैज्ञानिक
गाज़ियाबाद के प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक डॉक्टर सारंग देसाई का मानना है कि बच्चों को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए आज का प्रतियोगी युग सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसके चलते मां-बाप अपने बच्चों से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगाते हैं. हांलाकि डॉक्टर देसाई यह भी कहते हैं कि आजकल खासकर महानगरों में एक पॉजिटिव ट्रेंड यह उभरा है कि मां-बाप बच्चों केवल पढ़ाई ही नहीं बल्कि उनकी पसंद के और क्षेत्रों में भी जाने का मौका देने लगे हैं.
लेकिन यह प्रतिशत काफी कम है. बदलाव धीरे-धीरे आ रहा है. पर अधिकतर छोटे नगरों के युवा, जिनके मां-बाप अपनी जीवन भर की पूंजी दांव पर लगाकर उन्हें महानगरों में पढ़ने के लिए भेजते हैं, के ऊपर अपेक्षाओं का दवाब बहुत ज्यादा होता है. डॉक्टर देसाई कहते हैं कि आजकल की फिल्मों, सीरियल्स, इंटरनेट सभी पर बाज़ारवाद हावी है जिसने इसे घर-घर तक पहुंचा दिया है.
यह बाज़ारवाद हमें ज्यादा खर्चा करने, अच्छे से रहने, अच्छा खाने, अच्छा पहनने और अपनी हर ज़रूरत को पूरी करने के लिए प्रेरित करता है.
यह ज़रूरतें पूरी करने के लिए ज़रूरी है अच्छी नौकरी या वाइट कॉलर जॉब और इसके लिए ज़रूरी है पढ़ाई, बहुत ज्यादा पढ़ाई. ज़ाहिर हैं मां-बाप भी आज के इस बाज़ारवाद और प्रतियोगिता के युग में अपने बच्चे को पिछड़ते हुए नहीं देखना चाहते और उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बन जाता है अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना.
अपेक्षाओं का बोझ मां-बाप से होता हुआ कब बच्चों तक पहुंच जाता है, वे समझ भी नहीं पाते और बच्चे इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के अपराध बोध में दबकर आत्महत्या जैसा कदम उठा बैठते हैं. इस समस्या से निबटने का हल बताते हुए डॉक्टर देसाई कहते हैं कि आज के युग में जरूरी यह है कि अपने बच्चों के साथ मित्रवत रिश्ता कायम किया जाये. उन की परेशानियों को सुनकर, उनकी इच्छाओं को सम्मान देकर और उनके सोच पर ध्यान देकर काफी हद तक इस दवाब पर लगाम लगाई जा सकती है.

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