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कोमल पंखों पर सपनों का बोझ

पिछले दिनों राजस्थान के कोटा शहर से खबर आयी कि साल 2015 में वहां इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की तैयारी करने में जुटे 31 बच्चों ने खुदकुशी कर ली. इन आंकड़ों ने देश भर के अभिभावकों और कोचिंग संचालकों को डरा दिया है. इशारा साफ है कि हम बच्चों के कोमल पंखों पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 22, 2016 8:48 AM
पिछले दिनों राजस्थान के कोटा शहर से खबर आयी कि साल 2015 में वहां इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की तैयारी करने में जुटे 31 बच्चों ने खुदकुशी कर ली. इन आंकड़ों ने देश भर के अभिभावकों और कोचिंग संचालकों को डरा दिया है. इशारा साफ है कि हम बच्चों के कोमल पंखों पर अपने सपनों का इतना बोझ लाद दे रहे हैं कि वे उसका मुकाबला नहीं कर पा रहे. इन्हीं मसलों पर आंखें खोलनेवाली रिपोर्ट
लिखी है चित्रा अग्रवाल ने.
कभी साड़ियों के लिए मशहूर राजस्थान का कोटा शहर इन दिनों कोचिंग नगरी के रूप में जाना जाने लगा है. पूरे देश से लाखों बच्चे देश के श्रेष्ठ तकनीकी शिक्षण संस्थानों में नामांकन कराने की उम्मीद लिये यहां पहुंचने लगे हैं. यहां के कोचिंग संस्थानों की बेहतर रिजल्ट देने की क्षमता भी लोगों को आकर्षित कर रही हैं. आंकड़े बताते हैं कि यहां पहुंचनेवाले एक तिहाई बच्चे किसी न किसी संस्थान में नामांकन की प्रतियोगिता पास कर ही लेते हैं. मगर यह भी सच है कि यहां पहुंचनेवाले बच्चे लगातार मानसिक दबाव में रहते हैं और खुदकुशी के ये जो आंकड़े सामने आये हैं उसने कोचिंग संस्थानों को मनोवैज्ञानिकों की मदद लेने पर मजबूर कर दिया है. यह हालत सिर्फ कोटा की नहीं, बल्कि पूरे देश की है.
रितु की रूटीन
गाजियाबाद के सुंदरदीप कॉलेज से बी-टेक कर रही रितु की दिनचर्या देखें- सुबह आठ बजे वह सोकर उठती है और नौ बजे तक तैयार होकर, नाश्ता वगैरह करके कॉलेज चली जाती है. लौटते हुए लगभग साढ़े चार-पांच बज जाते हैं. आने के तुरंत बाद रितु खाना खाकर सो जाती है और इसके बाद रात को नौ बजे उठ कर सुबह चार बजे तक ‘शांति में’ पढ़ाई करती है.
सुबह चार बजे सोने के बाद वो सीधे आठ बजे स्कूल जाने के समय पर उठती है. इम्तेहान के दिनों में यह रुटीन बदल जाता है, कॉलेज से 12-1 बजे तक आ जाने के बाद रितु पांच बजे तक दिन में भी पढ़ाई करती है. यहीं नहीं छुट्टी के दिन वह स्पेशल क्लासेस के लिए अपने सर के पास भी जाती है. जब हमने उससे पूछा कि इतनी ज्यादा पढ़ाई करने की क्या आवश्यकता है, जबकि यह कोई आइआइटी या मेडिकल की तैयारी नहीं है, तो उसका कहना था कि कॉलेज की पढ़ाई और कोर्स बहुत ज्यादा है. पापा ने इतने पैसे खर्च करके मेरा एडमिशन कराया है. अगर मैं पढ़ कर अच्छे नंबर नहीं लाई उन्हें खराब लगेगा.
और फिर मैं आगे किसी कॉम्पटीटिव एग्जाम में कैसे निकल पाऊंगी…? कैसे उनके सपनों को पूरा कर पाऊंगी? कैसे अपनी पहचान बना पाऊंगी…?
ऐसा करने और सोचने वाली केवल रितु ही नहीं. यकीनन रितु की तरह आपके आस-पास भी ऐसे ही कितने बच्चे, किशोर होंगे जो अपने सपने पूरे करने और अपने मम्मी-पापा की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं. छोटी-सी उम्र में उन्होंने अपने ऊपर आपके सपनों और आकांक्षाओं का बोझ लाद कर जीना सीख लिया है. पर क्या हर बच्चा यह दवाब झेल पाता है? तब क्या होता है जब वे इस बोझ को ढो नहीं पाते, आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते…और मौत को गले लगा लेते हैं.
कहानी पीयूष वर्मा की
ऐसी ही कहानी पीयूष वर्मा (बदला हुआ नाम) की है. 20 वर्षीय पीयूष ने केवल इसलिए अपनी कलाई काट कर जान देने की कोशिश की क्योंकि वह मेडिकल कॉलेज के फर्स्ट ईयर की परीक्षा में एक विषय में फेल हो गया था. तुरंत चिकित्सकीय सहायता ने उसकी जान तो बचा ली, लेकिन उसकी मानसिक स्थिति को सामान्य करने के लिए अभी तक काउंसलिंग चल रही है.
मनोवैज्ञानिक ने जब पीयूष से इस स्थिति में आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसने तीन साल तक मेडिकल एंट्रेस एक्जाम के लिए कोचिंग की थी जिसके बाद उसका डेंटल में सलेक्शन हुआ. काफी डोनेशन देकर उसके डैडी ने उसे एक अच्छे कॉलेज में दाखिला दिलाया. परिवारवालों ने उसकी पढ़ाई पर काफी पैसा खर्च किया था और उनको पीयूष से काफी उम्मीदें थी, ऐसे में जब वो पहली ही साल फाइनल्स में फेल हो गया तो उसकी अपने मम्मी-पापा को फेस करने की हिम्मत नहीं हुई.
क्या कहता है नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो
(एनसीआरबी)
साल 2014 में भारत में 2403 छात्रों ने परीक्षाओं में फेल होने के कारण या पास होने के दबाव के चलते अपनी जान ली.
इम्तिहानों के दबाव के चलते आत्महत्या करना, भारतीयों द्वारा आत्महत्या किये जाने के प्रमुख 10 कारणों में छठे स्थान पर आ पहुंचा है.
यह पिछले साल 1.8 फीसदी मामलों में आत्महत्या की वजह रहा.14 साल से कम उम्र के बच्चों में भी परीक्षा में फेल होना, आत्महत्या करने की तीसरी प्रमुख वजह रही. पिछले वर्ष इस आयु वर्ग के 163 बच्चों (91 लड़के, 72 लड़कियां) ने आत्महत्या की.

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