पति-पत्नी के बीच झगड़ा-झंझट होना कोई बड़ी बात नहीं, मगर रिश्ते में जब कोई गुंजाइश ही न बचे, तो किसी अनहोनी से अच्छा एक-दूजे से अलग हो जाना है. पर, दूसरा सच यह भी है कि तलाकशुदा जीवन खास कर एक महिला के लिए आसान नहीं होता. ऐसे में क्या जीवन की खुशियों पर उसका हक खत्म हो जाता है?
तलाक से एक रिश्ता टूट जाने से जीवन खत्म नहीं हो जाता. तलाकशुदा महिला को जीवन के हर उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए खुद कैरियर को संवारना चाहिए, क्योंकि उसे पुन: सहज जीवन जीने में उसका कैरियर एवं आत्मनिर्भरता का होना जरूरी होता है.
महिलाएं मेहनती, संवेदनशील, भावुक होने के साथ-साथ परिस्थिति से जूझने की ताकत भी रखती हैं, लेकिन पति का तिरस्कार, प्रताड़ना, माता-पिता एवं ससुराल की उपेक्षा उन्हें विचलित कर देती है. तभी वे तलाक लेने को बाध्य होती हैं. कोई भी महिला जानबूझ कर तलाक नहीं लेती, बल्कि परिस्थिति उसे ऐसा करने को मजबूर करती है.
एक कहानी यह भी मैं 45 वर्षीया सुजाता को जानती हूं. उसने ससुराल में सभी को खुश करना चाहा, लेकिन हर दिन उससे ससुरालवाले कुछ-न-कुछ मायके से मंगवाने की मांग करते रहे. इसकी शिकायत उसने रिश्तेदारों से की, लेकिन पति ने उसे ही चरित्रहीन होने का दोष मढ़ दिया. इससे सुजाता ने तलाक ले लिया.
उसने इतने गंदे विचारवाले व्यक्ति से खुद को किनारा कर लिया. वह पढ़ी-लिखी है और नौकरी करके बेटी को पढ़ा रही है. लोगों ने कई बार उसे दूसरी शादी के लिए प्रेरित भी किया, लेकिन अब वह खुद को असहाय नहीं समझती और इज्जत से अपना एवं बेटी का ख्याल रख रही है. छुट्टी के दिन वह गरीब बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाती भी है, जिससे उसके अंदर यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि वह अपना ही नहीं, बल्कि दूसरों की भी मदद कर सकती है. यह एक अच्छी मिसाल है, जिससे सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए.
खुद को लाचार न समझें
सुजाता की तरह तलाक ले चुकीं दूसरी महिलाओं को भी खुद को लाचार नहीं समझना चाहिए. इसके विपरीत खुद में आत्मविश्वास लाएं. जब आत्मनिर्भर बनेंगी तो लोगों के सोचने का रवैया भी बदलेगा. अगर तलाक के बाद नौकरी करती हैं तो प्रोफेशनल बनी रहें. न किसी के व्यक्तिगत बातों में हस्तक्षेप करें और न ही किसी को खुद के जीवन में दखलअंदाजी करने दें.
माता-पिता को भी अपनी तलाकशुदा बेटी को वही प्यार, मान-सम्मान देनी चाहिए जो वे बाकी बच्चों को दे रहे हैं. पुरुष तलाक देकर अधिकार से जीता है, तो एक महिला क्यों नहीं जी सकती. समायोजन करना रिश्तों के लिए जरूरी है, लेकिन सभी को जीने का हक है. रिश्तों को बचाना भी जरूरी है, लेकिन जब सिर से पानी उपर जाने लगे, तो खुद को बचाने का प्रयास कहीं से गलत नहीं है.
केस: सबिता पढ़ी-लिखी महिला है. शादी के कुछ दिनों बाद ही उसके पति एवं ससुराल वाले उसके अंदर मीन मेख निकालने लगे. सविता ने अपने मैके वालों को बताया कि किस तरह वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से उसे प्रताड़ित कर रहे हैं लेकिन उसे समझने की बजाये उसे ही ससुराल में एडजस्ट करने का दबाव देते रहे.
तंग आकर उसने तलाक ले लिया. सबिता ने महसूस किया कि रिश्तेदार पड़ोसी सभी उसे ही दोष दे रहे थे. कभी-कभी वह भी खुद को दोषी मानने पर विवश हो जाती है. कोई उस पर दया करता है कोई उसे ऐसे देखता है मानो किसी का मर्डर कर आ गयी हो. नौकरी करने लगी है, लेकिन वहां भी पुरुषों की निगाहें उसे ताना मारती दिखती हैं.
आखिर उसका कसूर क्या है? क्या उसे जीने का हक नहीं है? किसी भी महिला के लिए तलाक अभिशप्त पहलु है. हमारे भारतीय समाज के असंतुलित चेतना का ही परिणाम है कि तलाकशुदा पुरुष शान से घुमते हैं, लेकिन तलाकशुदा महिलाओं को अनेक कठिनाइयों से दो चार होना पड़ता है. कोई उसकी समस्या को बिना जाने-समझे उसे कलंक मान बैठता है.