गुजरात यात्रा-1: पोरबंदर के कीर्ति मंदिर में कुछ घंटे !

-देश-दुनिया के कोने-कोने से गांधी का पुश्तैनी घर देखने आते हैं लोग- -हरिवंश- गुरुवार (22 दिसंबर ’05) को पोरबंदर पहुंचते-पहुंचते शाम सात बज गये थे. सीधे कीर्ति मंदिर (गांधी जी का पैतृक घर, जहां वह जन्मे) गये हम. एक कमरे में ही इतना समय लग गया कि अन्य कमरे बंद हो गये. रात में द्वारका […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 6, 2016 3:30 PM

-देश-दुनिया के कोने-कोने से गांधी का पुश्तैनी घर देखने आते हैं लोग-

-हरिवंश-
गुरुवार (22 दिसंबर ’05) को पोरबंदर पहुंचते-पहुंचते शाम सात बज गये थे. सीधे कीर्ति मंदिर (गांधी जी का पैतृक घर, जहां वह जन्मे) गये हम. एक कमरे में ही इतना समय लग गया कि अन्य कमरे बंद हो गये. रात में द्वारका रहना था. वहां से पुन: पोरबंदर होते हुए (यही रास्ता है) सोमनाथ जाना था. वहां से उसी दिन शाम तक राजकोट पहुंचना था. लगभग 700 किमी की यात्रा, महज 24 घंटे में. रात में सोना भी.

पर गांधी के जन्म का कमरा न देखना, इस सौराष्ट्र यात्रा को अपूर्ण बना देता. गुजरात कई बार आना हुआ, पर अहमदाबाद-बड़ोदरा वगैरह इलाके में. पर हर गुजरात यात्रा पोरबंदर देखे बगैर अपूर्ण लगती. सो अगले दिन पुन: द्वारका से पोरबंदर, गांधी के पैतृक घर लौटे. गांधी जी जिस मकान में जन्मे, उसे लगभग 250 वर्ष पहले उनके प्रतिमाह श्री हरजीवन जी रईदास गांधी ने खरीदा. एक स्थानीय महिला से.

सत्रहवीं सदी में. मकान तीन मंजिला है. लगभग 23 कमरे हैं छोटे-छोटे. काठ की सीढ़ियां बनी हुई हैं. पुरानी तकनीक से. मकान भीड़ भरे इलाके में है. आसपास सटे घर-दुकानें हैं. गांधी जी के पैतृक घर के पीछे छह-सात मकानों को छोड़ कर कस्तूरबा जी (बा) का पैतृक घर है. गांधीजी के घर की देखरेख कर रहे एक सज्जन बताते हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि बापू और बा के बीच, आज के युवकों की तरह रोमांस हुआ था या प्रेम विवाह हुआ था? दोनों के पिता मित्र थे.


बा का घर देखते समय वहां बैठे एक युवक ने दोनों घरों की समानता बतायी. कहा, बापू के पैतृक आवास में 23 कमरे हैं. वह घर तीन मंजिला है. बा (कस्तूरबा जी का पीहर) के पैतृक घर में भी 23 कमरे हैं और यह घर भी तीन मंजिला है. दोनों घरों के बीच रास्ता है, पर बीच में कई अन्य घर भी हैं. गंदगी है. इलाका संकरा है. गांधीजी-बा के घर के बीच गंदगी भी है, देख कर आहत होता हूं. बनारस की गलियां याद आती हैं.

जिस इंसान ने हजारों वर्ष से अंधेरे में भटकते देश-कौम को एक नयी पहचान दी, उस बापू-बा के पैतृक घरों को हम एक आकर्षक स्मारक (सादगी भरा ही) भी नहीं बना पाये हैं? कृतघ्नता हमारी रगों में है. दिल्ली के शासकों के बंगलों पर अरबों रुपये साज-सजावट में हर साल खर्च होते हैं, पर जिस इंसान ने हजारों वर्ष बाद हमें मुक्त होकर सांस लेनेवाली आजादी दिलायी, मनुष्य होने का गौरव-स्वाभिमान लौटाया, आज जिसे दुनिया वैकल्पिक चिंतन, जीवन-पद्धति और नयी रोशनी के रूप में देख रही है, उसका जन्म स्थान (संयोग से बा का पीहर भी साथ है) आजाद भारत का ‘मंदिर, मसजिद, गिरजाघर’ होना चाहिए था, प्रेरणास्रोत के रूप में.

भगवान बनाने के लिए नहीं. शायद मैं गलत आहत हूं, गांधी तो हमेशा सामान्य ही बन कर जीये, इसलिए हमारे शासकों ने उनसे जुड़ी स्मृतियों को भी लोक निगाह से ओझल बनाने की ही कोशिश की. सही भी है. गांधी, लोक जीवन में बार-बार जीवित होंगे, प्रासंगिक होंगे, तो हमारे शासक खतरे में पड़ें, इसलिए उनकी स्मृति से जुड़ी जगहों को समय और प्रकृति को सौंप देना ही शासक श्रेयस्कर मानते हैं. गांधी ही क्यों, आजादी की लड़ाई के अन्य नायकों के साथ क्या हुआ?

राजेंद्र बाबू का पैतृक घर किस हाल में है? जेपी का स्मारक इसलिए भव्य बन सका, क्योंकि चंद्रशेखर ने 25 वर्षों तक वह काम किया. खुद ईंट उठाये. कीचड़ में घंटों खड़े रहे. वर्षों-वर्षों तक. दुनिया के दूसरे देश अपने महापुरुषों से जुड़ी जगहों को ‘जीवंत स्मारक’ बनाते हैं, ताकि हर पीढ़ी नयी ऊर्जा पा सके. अतीत की कुरबानी जान सके. भविष्य की चुनौतियों के लिए ताकत ग्रहण कर सके. उदारीकरण-ग्लोबल विलेज के दौर में हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें, इसलिए भी भारतीय नायकों के ‘जीवंत स्मारक केंद्रों’ की नीति बननी चाहिए.


यह स्मारक बनने की कहानी भी गांधी जी के चरित्र के अनुसार ही है. जब वह आगा खां महल में कैद थे (1942-44), तब पोरबंदर के लोगों ने पहल की. स्मारक बनाने के लिए पैतृक घर के आगे की जगह पर लोक प्रयास से कीर्ति मंदिर बना. सरदार बल्लभ भाई पटेल ने 27 मई 1950 को इस स्मारक का उद्घाटन किया. पोरबंदर के एक गांधीवादी आर्किटेक्ट ने दिन-रात श्रम कर इसे दो वर्ष में पूरा किया. फिर भारत सरकार को इसे समर्पित कर दिया गया. एक पैसा सरकारी नहीं लगा.

स्थानीय लोगों ने चंदे-श्रम से बनाया. एकदम सादगी है. हिंदू, बौद्ध, जैन, चर्च और मसजिद कला के अंश ‘देव-मंदिर’ में झलकते हैं. गांधी जी ने इस शर्त्त पर स्मारक बनाने की अनुमति दी थी कि उन्हें भगवान न बनाया जाये. बा-बापू के चित्र हैं. वहां फूल-माला नहीं चढ़े, यह गांधी जी की हिदायत थी. इनके चुनिंदे वाक्य लिखे गये हैं. एक कमरे में मगनलालजी गांधी और महादेव देसाई के स्मारक हैं. म्यूजियम, हस्तकला की चीजें, विक्रय केंद्र भी हैं. सामान्य स्तर के.


प्रांगण में आगंतुक रजिस्टर है. पलटता हूं. देश-दुनिया के कोने-कोने से आये लोगों ने अपने मंतव्य-विचार लिखे हैं. एक दिन पहले आये एक अप्रवासी भारतीय की अंगरेजी में टिप्पणी पढ़ता हूं. वह लंबे अरसे से अमेरिका में बस गये हैं. भारत घूमने आये थे. कीर्ति मंदिर देख कर उन्होंने लिखा कि गांधी ने दुनिया में हमें सिर ऊंचा कर चलने का गौरव-बोध दिया है. अत्यंत प्रखर, मार्मिक और बेचैन करनेवाली टिप्पणियां. औसतन ढाई से तीन हजार लोग यहां आते हैं. पर्याप्त विदेशी आते हैं. एक नये मनोभाव, उदार दृष्टि और प्रेरणा पा कर लौटते हैं.
वर्षों पहले (1986-87) सेवाग्राम की यात्रा याद आयी. आंध्र के नक्सली इलाकों (करीमनगर, आदिलाबाद बाद वगैरह) से घूम कर बाबा आमटे के आश्रम गया था. फिर सेवाग्राम. संयोग से गांधी जी की कुटी से सटे गांधी जी के अतिथियों के लिए निर्मित अतिथिगृह में रहने की इजाजत मिल गयी थी. खाली चौकी, पीने के लिए घड़ा, घास-फूस की झोपड़ी. जिस इंसान ने इतिहास की सबसे बड़ी ताकत, जिसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था, घुटने टेका दिये, उसके अतिथियों के लिए यही झोपड़ी थी. गांधी ने सिर्फ समाज के अंतिम आदमी की बात नहीं की, बल्कि खुद वैसा ही जीये. इसलिए उनके अतिथि भी ऐसे ही रहते थे. सेवाग्राम में भी तब (1986-87) बताया गया था कि दुनिया के कोने-कोने से लोग आते हैं.

भारत के गांवों के अपढ़, किसान, गरीब भारी संख्या में आते हैं. गांधी के अहमदाबाद आश्रम में भी यही स्थिति देखी थी. वर्ष 96-97 में. गांधी से जुड़े सभी स्मारकों, स्थलों पर रोज आनेवालों की संख्या जोड़ दी जाये, तो यह 15-20 हजार के बीच होगी. महीने में लगभग छह लाख. साल में गांधी से जुड़े विशिष्ट अवसरों पर आनेवालों को भी जोड़ लें, तो तकरीबन एक करोड़ लोग प्रतिवर्ष गांधी स्मृति से दरस-परस करते हैं. स्वत:. अपने खर्च से. भारत के गांधी विरोधी शासक वर्ग को यह याद रखना चाहिए.

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