सीने से लगो, तो सुनाई पड़ती है इसकी धड़कन

पुनीता कुमारी मैं गरमी की छुट्टी में अपने बच्चों के साथ अपने शहर जमशेदपुर का मजा ले रही हूं. हर व्यक्ति का अपना शहर वही होता है, जहां उसने अपना बचपन बिताया होता है औऱ सारे जगह तो बिल्कुल अस्थायी. अपनी जमीन से दूर होने का दर्द हर वक्त झेलती हूं. यहां आयी हूं और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 10, 2016 8:15 AM
पुनीता कुमारी
मैं गरमी की छुट्टी में अपने बच्चों के साथ अपने शहर जमशेदपुर का मजा ले रही हूं. हर व्यक्ति का अपना शहर वही होता है, जहां उसने अपना बचपन बिताया होता है औऱ सारे जगह तो बिल्कुल अस्थायी. अपनी जमीन से दूर होने का दर्द हर वक्त झेलती हूं.
यहां आयी हूं और हर पल अपने बचपन को ढूंढ़ती हूं. हर वक्त घर के हर सामान में छुपी उन यादों को टटोलती हूं. मैंने कभी कहीं पढ़ा था कि घर बड़ा चुपचाप पड़ा होता है, पर जब उसके सामानों से बतियाओ तो वह भी तुमसे बातें करेगा. यह बिल्कुल सच हो रहा है मेरे साथ. घर का वह सामान जो कम-से-कम पच्चीस साल पुराना है, मुझे बहुत आकर्षित करता है.
बरसों पुराने उस बरतन से ज्यादा लगाव हो जाता है… मन करता है कोई थाली अपने साथ ले जाऊं. यादों को थामना और सुखद अनुभव करना बिल्कुल अलग ख्याल हैं. कटोरी जिसमें कभी हमलोग दूध-रोटी खाया करते थे, वह यूं ही इस्तमाल में देख कर आज भी मैं दूध-रोटी खाने का मन बना बैठती हूं. हर वक्त तलाश रहती है कोई पुराना-सा सामान छूकर अनुभव करने का. घर मैं इसलिए भी आना चाहती हूं, क्योंकि अगर मां-पापा से मिल भी लूं, तो भी एक कमी-सी बनी रहती है. घर के दीवारों को महसूस करने की कमी. वह सुगंध मैं धूल लगे किताबों में ढूंढ़ती हूं.
मेरा छोटा-सा कॉसमोपोलिटन शहर सदाबहार दिखता है. बारिश हो जाने की वजह से शहर हरा-भरा हो गया है. स्निग्ध स्नान किया हुआ मेरा शहर धुला-पोंछा हुआ दिखता है. जिधर से भी गुजर जाएं, अति व्यवस्थित. मानों आधुनिक विश्वकर्मा (मजदूरों की इस नगरी को) ने इसे अपने हाथों से गढ़ा हो. शहर की यही खासियत भी है कि यहां सभी तबके के लोग मिल जायेंगे और सभी जाति के भी.
पर अपना शहर शायद बेगाना हो गया है. जिस उमंग और उत्साह से एक-एक स्टेशन को पार करते हुए ज्यों ही इसके करीब आती हूं, दिल धड़कने लगता है और ऐसा सोचती हूं कि कोई भी जाना-पहचाना व्यक्ति मुझे स्टेशन में ही जरूर मिल जायेगा. पर आज तक कोई नहीं मिला.
घर से निकल कर मेरा समय लोगों को गौर से देखने में ही निकल जाता है. अपनी दोस्त को ढूंढ़ने मैं निकल पड़ी, वह नहीं मिली. उसके पुराने घर (टाटा स्टील के क्वार्टर) पर गयी, पर नयेवाले ने कह दिया कि उसे नहीं पता कि वे लोग कहां चले गये. मैं जानती हूं, वह यहीं है, पर मैं उस तक नहीं पहुंच पाती हूं. मन और उदास हो गया जब उसके बगलवाले ने बड़े ही रुखे स्वर में जवाब दिया कि हमलोग नहीं जानते कि वे लोग कहां चले गये हैं.
वह समझ नहीं सकते थे कि मैं किन परिस्थितियों में उन तक पहुंची हूं. मेरी ही गलती है कि मैंने रिश्ता बिल्कुल ही खत्म कर दिया था. दो साल पहले हम मिले थे, पर बचपन की उस सहेली को ढूंढ़ना चाहती हूं जो कभी नहीं बदल सकती. सारी सहेलियां चली गयीं. गिन-चुन कर पांच हम दोस्त थे. उनमें से दो तो विदेश में हैं और एक को ढूंढ़ रही हूं. एक बंगाल में रहती है. लंदन चली गयी दोनों सहेलियों के बारे में भी मुझे बहुत कुछ जानना है. पिछले साल भर से बात नहीं हुई है. अब उनका नंबर भी नहीं है. उम्मीद से थी वह, पर उम्मीद में क्या मिला उसे, यह मैं जानना चाहती हूं. उसके पापा के पास जाऊंगी. शायद वह कुछ पता चले.
शहर के 50 साल पूरे होने पर यहां बना जुबली पार्क. यहां टाटा नगर के संस्थापक जमशेद जी नसरवान जी टाटा की आदमकद प्रतिमा के सामने खड़ी हूं. उनकी प्रतिमा के ठीक नीचे उनकी एक पंक्ति लिखी हुई है- अगर मुझे देखना है, तो देखो मेरे चारों ओर. सचमुच, मजदूरों की इस नगरी में आधुनिक और लघु भारत का दिल धड़कता है. इसके सीने से लगो, तो इसकी धड़कन सुनाई पड़ती है.
(लेखिका का ब्लॉग hamarabachpan.blogspot.in)

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