ऐतिहासिक दस्तावेज
-हरिवंश- भगत सिंह के आत्मोत्सर्ग के पीछे महज उत्कट देश प्रेम की भावना ही नहीं थी, बल्कि उनकी शहादत के पीछे एक पूरा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्शन था. हिंसा उनकी लड़ाई का मुख्य और कारगर हथियार नहीं थी, न ही वह आज के संदर्भ में आतंकवादी थे. हिंसा द्वारा समाज बदलने के सवाल पर उन्होंने […]
-हरिवंश-
भगत सिंह के आत्मोत्सर्ग के पीछे महज उत्कट देश प्रेम की भावना ही नहीं थी, बल्कि उनकी शहादत के पीछे एक पूरा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्शन था. हिंसा उनकी लड़ाई का मुख्य और कारगर हथियार नहीं थी, न ही वह आज के संदर्भ में आतंकवादी थे. हिंसा द्वारा समाज बदलने के सवाल पर उन्होंने कहा था ‘किसी विशेष हालत में हिंसा जायज हो सकती है, लेकिन जन आंदोलनों का मुख्य हथियार अहिंसा होगी.’
दरअसल, भगत सिंह को महज उनके किसी एक कार्य या एक फुटकर लेख के आधार पर हम नहीं समझ सकते. वह स्वतंत्रता आंदोलन की एक सशक्त धारा के सर्वोत्तम प्रतीक थे. उनकी विचारधारा तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच पर आधारित थी. ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’ (संपादक- जगमोहन सिंह चमनलाल, प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, मूल्य-75 रुपये) पुस्तक से स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक संकट के बारे में क्रांतिकारियों की विचारधारा सिर्फ रोमांटिक नहीं थी.
हजारों वर्ष से गुलामी की पीड़ा झेल रहे जड़ समाज में हरकत या बदलाव के लिए भूख पैदा करना आसान काम नहीं है. इस गंभीर समस्या पर अनेक समाज-वैज्ञानिकों ने अलग-अलग ढंग से सोचा-समझा है, फिर भी जड़ता से उबरने के लिए कोई ठोस मार्ग नहीं मिल सका है. भगत सिंह ने कहा, ‘जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं. इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है. अन्यथा पतन और बरबादी का वातावरण छा जाता है.’
जड़ भारतीय सामाजिक चेतना को झकझोरने में भगत सिंह कामयाब रहे, क्योंकि उनके तौर-तरीके और उद्देश्य पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों से भिन्न थे. स्वतंत्रता पूर्व के क्रांतिकारी आंदोलन के वैचारिक इतिहास पर नजर डालने से यह अंतर ज्यादा स्पष्ट होता है. क्रांतिकारी आंदोलन के पहले चरण में पुणे और बंगाल के क्रांतिकारियों को हिंदू पुनरुत्थानवाद से प्रेरणा मिलती थी. धर्म की बुनियाद पर राष्ट्रीयता का जन्म हो रहा था. तात्कालिक रूप से इससे खतरा नहीं था, लेकिन यह एक अंधेरे भविष्य की शुरुआत थी. हालांकि बाद में यह धारा स्वत: क्षीण हो गयी.
लेकिन तब क्रांति से मोहग्रस्त होनेवाले यह नजरअंदाज करते थे कि धर्म पर पनपी संकीर्ण राष्ट्रीयता के गर्भ से समतामूलक धर्मनिरपेक्ष समाज का जन्म नहीं होता, बल्कि तानाशाही पनपती है. यही कारण था कि क्रांतिकारी आंदोलन के आरंभिक चरण से मुसलमान दूर ही रहे. आरंभिक चरण में बंगाल और महाराष्ट्र तक ही क्रांतिकारियों की गतिविधियां सीमित थीं. बाद में भारतीय क्रांतिकारियों ने अमेरिका में गदर पार्टी का गठन किया. लेकिन वह हिंदुस्तान में बहुत कारगर नहीं हुई. रूस की ‘अक्तूबर क्रांति’ के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन हुआ.
इस दौर में यह संगठन वैचारिक रूप से काफी सशक्त हुआ. वैज्ञानिक समाजवाद क्रांतिकारियों को आकर्षित करने लगा था. धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समता और अंधविश्वास के प्रति इन लोगों का दृष्टिकोण स्पष्ट था. भगत सिंह के आने से क्रांतिकारी विचारधारा में प्रौढ़ता आयी.
एक बृहत्तर उद्देश्य की प्राप्ति की दिशा में हिंसा के प्रयोग से वे कतराते नहीं थे. लेकिन हिंसा उनके लिए गौण थीं. हिंसक कार्रवाइयों में उन्हें लुत्फ नहीं आता था. वे निर्दोषों की बलि देने के लिए आतुर नहीं रहते थे. पूरे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन उनका सपना था. परिवर्तन महज भौतिक संदर्भों में ही नहीं, बल्कि लंबी गुलामी के कारण पूरे समाज में पनपी दासवृत्ति का उन्मूलन उनका मुख्य लक्ष्य था.
आतंकवादी तौर-तरीकों के बारे में भगत सिंह ने स्षष्ट कहा था, ‘मैं अपनी पूरी ताकत से यह कहना चाहूंगा कि क्रांतिकारी जीवन के पहले कुछ दिनों के सिवाय न तो मैं आतंकवादी हूं और न ही था. मुझे पूरा विश्वास है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते. आतंकवाद हमारे भीतर क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है.’
दुनिया के दूसरे देशों में वैचारिक उथल-पुथल का जो दौर उस समय चल रहा था, उससे भारतीय क्रांतिकारी अछूते नहीं थे. हिंसा को वैचारिक जगत में सामाजिक स्वीकृति इस सदी के आरंभ से ही मिलने लगी थी. पश्चिम के कुछ विचारक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि हिंसा गुलामी की जंजीर को तोड़ती है. ये विचारक दासभाव और उपनिवेशवादी चरित्र से मुक्ति के लिए हिंसा को महत्वपूर्ण मानते थे. इनकी मान्यता थी कि उपनिवेशों के लोग शोषकों की हिंसा की संतान हैं. इस कारण इन्हें अपना मौलिक गौरव हासिल करने के लिए हिंसा का आश्रय लेना पड़ेगा. इनकी दलील थी कि बाहरी आक्रमणकारी हिंसा के बल ही देसी (नेटिव) लोगों का न केवल शोषण करते हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व, सोच और मानवीय तंतुओं की हत्या कर डालते हैं. ऐसी स्थिति में दासत्व से मुक्ति के लिए साथ ही मौलिक व्यक्तित्व के विकास के लिए हिंसा बेहतर विकल्प है.
लाहौर में सांडर्स की हत्या के बाद भारतीय क्रांतिकारियों को भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था. सांडर्स पर लाला लाजपत राय की हत्या का आरोप था. सांडर्स की हत्या के बाद भारतीय क्रांतिकारियों के संगठन हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना (हिसप्रस) के सदस्यों ने महसूस किया कि इस अप्रिय काम से राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा हुई है, ‘आज संसार ने देख लिया है कि हिंदुस्तान की जनता निष्प्राण नहीं हो गयी है. उनका (नौजवानों) खून जम नहीं गया. वे अपने राष्ट्र के सम्मान के लिए प्राणों की बाजी लगा सकते हैं.’
फिलहाल भगत सिंह का नाम ले कर हिंसा से समाज में जो लोग विकृति फैला रहे हैं, वे किसी स्वस्थ समाज का सपना नहीं देखते. आरंभ में क्रांतिकारियों ने हिंसा की बुनियाद पर समतापूर्ण स्वस्थ समाज का सपना देखा था. अब हिंसा, आतंक कायम करने, पाशविक वृत्ति शांत करने और अराजकता कायम करने का कारगर, अस्त्र बन गयी है. वैचारिक धरातल पर घृणा और नफरत का माहौल बन रहा है. यह एक तरह से वैचारिक ठहराव की स्थिति है. अब कोई भगत सिंह ही, हिंसा की अप्रासंगिकता स्वीकारते हुए, परिवर्तन और बदलाव के लिए कारगर और नये औजार की आवश्यकतानुसार ईजाद कर सकता है.