भारत आर्थिक अस्थिरता के कगार पर है. विदेशी ऋण की बढ़ती मात्रा, अंधाधुंध बढ़ते सरकारी खर्च और आर्थिक संकट को समझने या दूर करने के लिए आवश्यक दृष्टि के अभाव ने देश को गंभीर संकट के फंदे में उलझा दिया है. राजनीतिक अस्थिरता के मौजूदा माहौल में वर्तमान आर्थिक संकट को हम समझ नहीं पा रहे. यह संकट भीषण और दूरगामी असर डालनेवाला है. अर्जेंटीना व मैक्सिको के रास्ते पर अब भारत भी अग्रसर है. पश्चिमी आर्थिक साम्राज्यवाद के चंगुल में फंसे ये देश अपने आर्थिक-राजनीतिक संकट को हल करने में विफल रहे हैं. इन देशों की तिकड़ी (नवधनाढ्य वर्ग, राजनेता और नौकरशाह) ने अपने मुल्क को पश्चिमी आर्थिक साम्राज्यवादियों के हाथ गिरवी रख दिया है.
पश्चिम के प्रति बढ़ता मोह और साहबी वर्ग की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति इस आर्थिक संकट के मूल में हैं. विलास के उपकरणों पर विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है. एक गरीब मुल्क जब विकसित देश के रुझान-जीवन पद्धति को अपना लेता है, तो उसे अपने अमूल्य संसाधनों का बड़ा हिस्सा चुकाना पड़ता है. जिस मुल्क में सीमित साधनों का उपयोग फिजूल और दिखावटी चीजों के लिए होता है, उस मुल्क को आर्थिक परतंत्रता चुपके से अपने जाल में कसती है. टेलीविजन, कार और ऐशो-आराम की चीजों को जब हमारी आर्थिक नीति में प्रमुखता मिली, तो इस देश में एक ऐसा माहौल बना, जिसमें इन चीजों के खिलाफ दलील देनेवालों को पिछड़ा, गंवई, मध्ययुगीन, आधुनिकता विरोधी और न जाने कितने विशेषणों से अलंकृत किया गया. सिंचाई की सुविधाएं बढ़ाने, स्कूलों के भवन बनवाने और साफ पानी उपलब्ध कराने के बजाय उपभोक्तावादी वस्तुओं पर पानी की तरह पैसा बहाया गया. विरोधी या शासक दोनों वर्ग के साहबी मिजाज के अनुकूल थी, यह आर्थिक नीति. इस कारण इसके खिलाफ किसी ने मुंह नहीं खोला. आंदोलन या उग्र विरोध की बातें तो जुदा हैं, सुनियोजित ढंग से ऐसा माहौल बनाया गया कि इस नीति की आलोचना करनेवाले स्वयं ही अपने को पिछड़ा, असभ्य और दृष्टिहीन कबूल कर लें. लेकिन हवा में नाव कितने दिनों तक चल सकती है.
हाल में इस मुल्क के कुछ मशहूर अर्थशास्त्रियों ने अपने भय का इजहार किया है. इनके अनुसार वर्तमान सरकारी आर्थिक नीति हमें दिवालिया बना कर छोड़ेगी. इन लोगों का यह भी तर्क है कि हम ‘डेब्ट ट्रैप’ (ऋण जाल) में प्रवेश कर चुके हैं. इस घेरे से निकलने के लिए अगर सरकार तत्काल कठोर कार्रवाई नहीं करती, तो हम भी कुछ लैटिन अमरीकी देशों की तरह आर्थिक गुलामी के दौर में फंस जायेंगे. हमारे ऊपर कर्ज बेशुमार बढ़ गया है. अब तक हम सबसे अधिक खर्च प्रतिरक्षा पर करते रहे हैं. लेकिन इस वर्ष से प्रतिरक्षा के मद पर होनेवाले व्यय से भी अधिक हम अपने कर्जों पर वार्षिक सूद अदा करेंगे. प्रतिरक्षा के मद में इस वर्ष हमारा व्यय 8,728 करोड़ रुपये है, जबकि हमें इस वर्ष 8750 करोड़ रुपये सूद अदा करना है. अर्थशास्त्रियों को यह डर है कि जल्द ही हमारा कर्ज बढ़ कर कुल राष्ट्रीय आय के बराबर हो जायेगा. विदेशों से आनेवाले कर्ज का बड़ा हिस्सा अनुत्पादक कामों लगता है. विदेशी कर्ज से हमारा आर्थिक विकास होता है, यह सुनहला भ्रम इस व्यावहारिक और ठोस अनुभव के बाद भी बरकरार रहे, तो उस आत्महंता समाज की नियति के बारे में अटकलबाजी नहीं हो सकती.
इस संकट का राग कुछ सिरफिरे अर्थशास्त्री ही नहीं अलाप रहे हैं, बल्कि वित्त मंत्रालय ने हाल में बजट के बाद जो ‘बजट पेपर’ संसद के सामने रखा है, उसमें भी इस अनागत संकट-भय का ब्योरा है. वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ सलाहकार यह महसूस करने लगे हैं कि जब तक इस देश का नेतृत्व कर्ज पर निर्भरता खत्म करने के लिए तत्काल कठोर कदम नहीं उठाता, हमें डेब्ट ट्रैप की अंधी सुरंग में फंस जाने से कोई नहीं रोक सकता. विदेशी कर्ज की बात छोड़िये, अपने देश में ही विभिन्न स्रोतों से 70,000 करोड़ रुपये का कर्ज सरकार ने ले रखा है. आगामी कुछ दिनों में यह राशि बढ़ कर 80,500 करोड़ रुपये हो जायेगी. पहली बार सार्वजनिक कर्ज की यह राशि 1986 के अंत तक बढ़ कर 1,00,000 करोड़ से अधिक हो जायेगी. सरकार की बाकी देनदारियों का इससे कोई ताल्लुक नहीं है. इस वर्ष बजट में जो बड़ा घाटा दिखाया गया है, वह कैसे पूरा होता है? यह अलग संकट है.
हाल में वित्त मंत्री ने इस संकट से विश्व बैंक को अवगत कराया और उबारने के लिए फरियाद की. विश्व बैंक ने मदद देने में असमर्थता प्रकट की और विदेशी मुद्रा बाजार से कर्ज उगाहने का सुझाव दिया. सातवीं योजना में बाजार से 10,000 करोड़ कर्ज उगाहने का प्रावधान है, विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में इसे बढ़ा कर 23,000 करोड़ करने का सुझाव दिया है. इससे हमारे ऊपर विदेशी कर्ज लदेगा. मौजूदा आर्थिक संकट और गहरायेगा.
अर्थशास्त्र में ‘डीमांसट्रेटिव इफेक्ट’ (दिखावे का प्रभाव) प्रचलित मुहावरा है. पिछड़े समाज-देश में विकसित व धनाढ्य समाज की विकृतियों को लोग तत्काल आधुनिकता के नाम पर अपनाते हैं. भारत का मध्य वर्ग इसका शिकार है. मध्यम वर्ग की उपभोग सामग्री शत-प्रतिशत विदेशी है. ‘घरेलू व देसी’ शब्दों से इस वर्ग को चिढ़ है. इससे देश में विनियोग की क्षमता गिरती है. बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कोष प्रभावित होता है. नये-नये कार, स्कूटर, हवाई टैक्सी, वायुदूत और हवाई जहाजों की संख्या में बढ़ोतरी ही विकास का पर्याय बन गया है. इन चीजों के बदले हम अपनी ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ को गिरवी रख रहे हैं. हमारे देश की तिकड़ी (नवधनाढ्य वर्ग, राजनेता व नौकरशाह) ने इस मुल्क के बहुसंख्य लोगों का जीवन पश्चिमी देशों-संस्थाओं के पास बंधक रख दिया है. यह आर्थिक परतंत्रता कब और किस रूप में हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता का गला घोंट दे, कहना मुश्किल है.