बारह वर्षों बाद बेलछी
बारह वर्षों पूर्व घटित बेलछी नरसंहार के बाद देश की राजनीति में नाटकीय मोड़ आया. 1977 में मतदाताओं द्वारा ठुकरायी गयी श्रीमती इंदिरा गांधी इस हादसे के बाद पहली बार सार्वजनिक मंच पर अवतरित हुईं. मारे गये हरिजनों की पीर से व्यथित वह एक बड़े हुजूम के साथ कीचड़-पानी पार कर बेलछी पहुंची. लेकिन उनकी […]
बारह वर्षों पूर्व घटित बेलछी नरसंहार के बाद देश की राजनीति में नाटकीय मोड़ आया. 1977 में मतदाताओं द्वारा ठुकरायी गयी श्रीमती इंदिरा गांधी इस हादसे के बाद पहली बार सार्वजनिक मंच पर अवतरित हुईं. मारे गये हरिजनों की पीर से व्यथित वह एक बड़े हुजूम के साथ कीचड़-पानी पार कर बेलछी पहुंची. लेकिन उनकी यह बहुप्रचारित यात्रा, पीड़ित हरिजनों के आंसू पोंछने के बजाय सत्ता प्राप्ति की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी साबित हुई. पिछड़ों के चौतरफा उत्थान की बात करनेवाली जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार भी बेलछी के पीड़ितों को कोई राहत नहीं पहुंचा सकी. इस संहार के बाद कांग्रेस के अनेक मुख्यमंत्री सत्तारूढ़ हुए, पर किसी ने भी इस गांव के पीड़ित लोगों के पुनर्वास की ओर नजर नहीं डाली, क्योंकि सत्ता हथियाने के क्रम में 1980 में ही कांग्रेस बेलछी के हरिजनों का इस्तेमाल कर चुकी थी. वर्षों पूर्व हरिजनों के कत्लेआम के एवज में उनके स्वजनों को भूमि के पट्टे दिये गये, लेकिन आज तक उन्हें जमीन नहीं मिली है. बेलछी और आसपास के गांवों में आज भी दैनिक मजदूरी एक किलो अनाज और आधा किलो सत्तू है. बेलछी से लौट कर हरिवंश की रिपोर्ट. तसवीरें कृष्णमुरारी की हैं.
लोग भूल रहे हैं कि श्रीमती इंदिरा गांधी बेलछी हत्याकांड की पीठ पर ही सवारी गांठ कर दोबारा सत्ता में आयी थीं. यह भी लोगों को याददाश्त में नहीं है कि तत्कालीन विरोधी दल यानी कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए यह स्थान तीर्थस्थल बन गया था. लाश भुनाने और हरिजनों के लिए दिखावटी आंसू बहाने की शुरुआत बेलछी से हुई थी. तत्कालीन सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी ने इस पर मानवीय ढंग से गौर करने के बजाय इसे ‘कांग्रेसियों का हंगामा’ करार दिया. आजीवन पिछड़ों की राजनीति के पैरोकार तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भी दलीय स्वार्थ के तहत इसे तोपने-ढंकने का प्रयास किया. उन दिनों बिहार का कथित प्रबुद्ध वर्ग इस कांड को लेकर दो खेमे में बंट गया था. एक वर्ग की दलील थी कि यह विशुद्ध रूप से दो आपराधिक गिरोहों की लड़ाई थी. दूसरा पक्ष इसे वर्ग संघर्ष बता रहा था. बेलछी नरसंहार के बाद ही बिहार में जाति युद्ध और हत्याओं का एक अटूट सिलसिला आरंभ हुआ, जो आज भी चल रहा है.
हरनौत से बेलछी (लगभग 15 किमी) का रास्ता आज भी दुर्गम है. हालांकि इस पर कई लाख रुपये खर्च हो चुके हैं. बेलछी हत्याकांड के बाद शहंशाहों यानी राजनेताओं-अफसरों के ‘बेलछी दर्शन’ से अब राजनीतिक लाभ नहीं है, इस कारण यह सड़क भी साबूत नहीं है.
बेलछी की दुनिया की यथावत है. समय के अंतराल से लोगों के घाव अवश्य भरे हैं, पर उस भयावह दुर्घटना ने हिंसा-द्वेष के जो बीज बो दिये, उसकी फसल बीच-बीच में लहलहाने लगती है.इसी गांव में 17 मई 1977 के दिन 11 व्यक्तियों को गोली मार कर जिंदा जला दिया गया था. इस नरसंहार में आठ हरिजन और तीन सुनार मारे गये थे. बिहार के अखबारों ने इसे मामूली घटना मान कर नजरअंदाज किया, लेकिन जब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रेस में यह मामला उछला, तो बिहार के तत्कालीन अखबारों ने भ्रम फैलाने के लिए हरिजन दहन खास खबर नहीं थी और इनमें कार्यरत सवर्ण अखबारनवीस इसे उछलने नहीं देना चाहते थे.
बेलछी में लगभग 300 घर हैं. कुल आबादी करीब 2000 के आसपास. लगभग 35 घर कुर्मी हैं. इनमें भी विभेद है. कोटइसा कुर्मी (25 घर) और घमैला कुर्मी (10 घर) अलग-अलग हैं. इनके अलावा 30 घर पासवान, 50 घर मांझी, 10 घर कहार, तीन घर धानुक, 10 घर हरिजन, 10 घर यादव और छह घर तेली हैं. दूसरी जातियों के भी छिटपुट लोग हैं. 1977 में हुए नरसंहार के बाद सुनारों का परिवार यहां से उजड़ गया. इस परिवार के सभी पुरुष मारे गये. जिस गांव में हरिजनों-दुसाधों को निर्भीक बनाने के लिए इंदिरा गांधी ने राजनीतिक वनवास त्याग कर, कीचड़-पानी पार कर हाथी से यात्रा की, तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने जिन्हें ठोस आश्वासन दिये, उस गांव से असुरक्षा के कारण सुनार परिवार की महिलाएं चली गयीं. उनकी दुनिया उजड़ गयी. सुनार परिवार में एकमात्र लड़का बचा था, वह कहीं और चला गया. परिवार बिछुड़ने, घर टूटने और जमीन छूटने के दर्द से भला सत्ता को क्या लेना-देना!
चुनिंदा कुर्मी परिवारों को छोड़ इस गांव के दूसरे लोगों की गरीबी भयावह है. इस नरसंहार के दो प्रमुख षड्यंत्रकारियों महावीर महतो और परशुराम धानुक को फांसी लग चुकी है. जब यह संवाददाता उस गांव में पहुंचा, तो महावीर महतो की पत्नी फटी साड़ी पहने अपने घर के बाहर चावल कूट रही थी. पूछने पर बिफर कर बोली कि मैं महावीर की भौजाई हूं. घोर विपत्ति ने उसे तोड़ दिया है. एक तो असहाय औरत, दूसरे अपराधी की बीवी और चारों तरफ घोर सामंती समाज. ऊपर से चार-चार बच्चों की परवरिश. महावीर के चार लड़के हैं – सबसे छोटा 12 वर्ष का है. अंडरवीयर पहने, खुले बदन, फटा हुआ अंगौछा. सबसे बड़ा लड़का रामेश्वर 25 वर्ष का है. जब बेलछी नरसंहार हुआ, तब वह मात्र 15 वर्ष का था. महावीर को बचाने के प्रयास में कुल 8 बीघा खेत बिक गये. अब बुरा हाल है. इन बच्चों का न अलग ढंग से प्रशिक्षण हो रहा है, न स्वस्थ सोच का माहौल मिल रहा है. बाकी 13 अभियुक्त केशो महतो, नेपाली महतो, सीवन महतो, सीताराम, कैलास, किशोर महतो, नेपाल महतो रामईसर, नरेश, रामकिसुन महतो, साधुशरण महतो, राजिंदर महतो, बालदेव महतो, सिरी महतो और तुलसी महतो 20 वर्ष की सजा काट रहे हैं.
बेलछी की मजूर महिला अलोधनी देवी उस घटना के बारे में बताती है. कुर्मी महावीर महतो और हरिजन सिंधवा दोनों पहले साथ-साथ थे. दोनों अपराधी प्रवृत्ति के थे. सिद्धेश्वर पासवान उर्फ सिंधवा नालंदा का पुश्तैनी घर छोड़ कर अपनी ससुराल बेलछी में बसने आया था. वह दबंग किस्म का इंसान था. आसपास के गांवों में कुर्मी जोतदारों का दबदबा है. महावीर चौधरी भी कुर्मी था. उसे आसपास के बड़े कुर्मी जोतदार मदद देते थे. उसके पास लगभग 20 बीघा खेत और ईंट का मकान था. आज भी इस पूरे गांव में दो-तीन पक्के, लगभग चार ईंट के और बाकी कच्चे मकान हैं. महावीर का इस गांव में आतंक था. आरंभ में महावीर ने सिंधवा की खूबियों को परखा, फिर अपने दल में शामिल किया. सिंधवा गरीब हरिजनों-दुसाधों के शोषण का विरोध करता था. इस कारण हरिजन दुसाध उसे भरपूर मदद देते थे. बाद में दोनों में ठन गयी. यह मनमुटाव भी आर्थिक सवालों को लेकर हुआ. दोनों जानी दुश्मन बन गये.
आरंभ में सिंधवा का गिरोह ताकतवर था. उसने महावीर महतो की फसल लूटने और उसे गांवों में न घुसने देने का संकल्प किया. अब बात दो गिरोहों के बीच न रह कर कुर्मियों बनाम हरिजनों के बीच ‘मूंछ की लड़ाई’ में तब्दील हो गयी. इस बीच महावीर के आदमी धनपत दुसाध की हत्या हो गयी. उसकी लाश मनकोठिया में गाड़ दी गयी. 28 दिनों बाद उसका क्षत-विक्षत शव मिला. फिर आसपास के धनाढ्य कुर्मियों ने हरिजनों को हमेशा के लिए सबक सिखाने की योजना बनायी. 27 मई 1977 को दिन-दहाड़े परशुराम धानुक अपराधियों की फौज लेकर बेलछी चढ़ आया. सिंधवा के लोगों ने जवाबी हमला किया. परशुराम धानुक का गिरोह पीछे हट गया. कुछ ही समय के अंतराल में महावीर महतो के घर से दूसरा गिरोह निकला. सिंधवा और उसके 10 साथी भाग कर रोहन महतो के पक्के घर में घुस गये. इसके बाद अपराधियों ने उस मकान को चौतरफा हमला किया.
असंख्य गोलियां चलीं. 11 बजे दिन से पांच बजे शाम तक युद्ध चलता रहा. धोखे से घर से इन्हें निकाल कर बंदूकधारियों ने इनकी मुश्के चढ़ा दीं. हाथ बांध दिये. फिर जुलूस की शक्ल में गांव से बाहर सटे खेत में ले गये. वहां लगभग 400 लोगों के सामने इन्हें गोली मार कर आग में झोंक दिया गया. 14 वर्षीय बालक राजाराम ने आग से निकलने की कोशिश की, तो उसे पकड़ कर दोबारा आग में फेंक दिया गया. इस आगजनी में एक पासवान परिवार के चार सदस्य और एक सुनार परिवार के तीन पुरुष भून दिये गये. जिस रोहन महतो के घर में इन लोगों ने शरण ली थी. उन्हें स्वजातीय होने के कारण अपराधियों ने बख्श दिया.
इस घटना के बाद तो यहां आगंतुकों का तांता लग गया. सहानुभूति की गठरी लादे राजनेता पहुंचने लगे. अफसरों ने डेरा डाल दिया. पुलिस छावनी बन गयी. फिर भी जातीय गोलबंदी चलती रही. लेकिन जिस आर्थिक विषमता, क्रूरता और राजनीतिक अपसंस्कृति के कारण यह घटना हुई, उसके खिलाफ किसी ने जिहाद नहीं बोला. आज भी यहां टूटा स्कूल चल रहा है, तकरीबन 150 बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं, एक अध्यापक है. स्कूल के ऊपर छत नहीं है. पता नहीं मास्टर जी बरसात में इन बच्चों को 21वीं शताब्दी में ले जाने की शिक्षा कैसे देते होंगे? प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार और लोगों को जागरूक बनाने के लिए बिहार सरकार करोड़ों रुपये व्यय कर रही है, लेकिन जो गांव तबाह हो गये, वहां ऐसे कार्यक्रम नहीं चलाये जाते. विदेशी चंदे बटोरने के लिए लालायित स्वयंसेवी संगठनों ने भी इस गांव को नजरअंदाज कर दिया है.
यह सही है कि पूरे राज्य में सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों को लागू करने और सामंती मनोवृत्ति के खिलाफ जूझने में वक्त लगेगा, लेकिन बेलछी में स्कूल चलाने, लोगों के स्वास्थ्य के लिए बेहतर चिकित्सा केंद्र बनाने और उन्हें पिछड़ेपन के दायरे से बाहर निकालने के काम कठिन नहीं थे. पाशविक वृत्तियों के खिलाफ मानवीय संघर्ष की स्मृति में बेलछी को एक आदर्श गांव बनाया जा सकता था. लेकिन यह काम महज अफसरों और दृष्टिहीन राजनेताओं के बल नहीं होनेवाला. इस पिछड़े इलाके में कोई अफसर नहीं टिकना चाहता. जब तक स्वयंसेवी संगठन या प्रतिबद्ध जागरूक कार्यकर्ता ऐसे गांवों में नहीं जाते, तब तक कोई रास्ता निकलना मुमकिन नहीं है.
बेलछी बिहार की पहली घटना नहीं है. बेलछी के बाद बिहारशरीफ-नालंदा में कोई बड़ी घटना नहीं हुई, लेकिन पड़ोसी जिलों पटना, जहानाबाद, गया और औरंगाबाद में बड़े पैमाने पर हिंसक वारदात हुईं. बिहारशरीफ-नालंदा के नवधनाढ्य पड़ोसी जिलों के स्वजातीय भू-सामंतों की मदद करते रहे. बिहारशरीफ-नालंदा में जो बड़े सामंत या जोतदार हैं, उनकी मनोवृत्ति बदलने के लिए भी कोई बड़ा अभियान किसी राजनीतिक दल ने नहीं चलाया. इस घटना के बाद नव धनाढ्य कुर्मियों का आतंक फैलता गया. इन लोगों ने समानांतर निजी सेनाएं गठित कीं.
इस गांव में शांति स्थापित करने के लिए पुलिस चौकी अवश्य बना दी गयी. पुलिस के जवान और अधिकारी टूटी झोपड़ी में बैठे रहते हैं. गांवों में पुलिस का चरित्र किस कदर घिनौना हो गया है, छुपा तथ्य नहीं है. घर-घर के झगड़ों में पुलिस दखल देती है. जिन लोगों के पास तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं हैं, जिन्हें दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है, वे भी पुलिस की ‘सेवा’ करने के लिए बाध्य हैं.
नालंदा आज अवैध हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा बन गया है. बेलछी में जो वारदात हुई थी, उसमें सैकड़ों राइफलें इस्तेमाल की गयी थीं. 600 के आसपास गोलियां चली थीं. आज भी चुनावों के दौरान बूथ कब्जा करने और आतंक फैलाने के लिए यहां आसानी से हथियार उपलब्ध हैं. अवैध हथियार के निर्माण और प्रसार को नियंत्रित करने के लिए प्रशासन ने कभी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया.
सामाजिक सुधार और कल्याण के मद में राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये व्यय कर रही है, लेकिन बेलछी नरसंहार के शिकार लोगों की संतानों को स्वस्थ माहौल में पनपने का अवसर नहीं मिला. नफरत और द्वेष के माहौल में जो पीढ़ी पनप रही है, अगर वह फिर अपना दुखद अतीत दोहराती है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. अब भी वहां छिटपुट हत्याएं होती रही हैं, पिछले वर्ष बेलछी में जोगाराम कहार की हत्या हो गयी. यह हत्या भी जातीय गोलबंदी का परिणाम थी.
जो लोग जेलों में बंद सजा भुगत रहे हैं, उनकी माली हालत भी बदतर है. केशो महतो, सीवन महतो, राजेंद्र महतो और तुलसी महतो के घरों में केवल औरतें बची हैं. संपत्ति के नाम पर किसी के पास एक बीघा खेत है, तो किसी के पास कुल जमा डेढ़ कट्ठा. माल-मवेशी पाल-पोस कर किसी तरह ये लोग गुजारा कर रहे हैं. इनके घरों में जवान लड़कियों की शादी करनेवाला कोई नहीं बचा है. रिश्तेदार या स्वजातीय नेता भी इनकी सुध नहीं लेते. वस्तुत: बेलछी ऐसा पड़ाव था, जहां से बिहार में जातिवाद के खिलाफ संगठित अभियान चलाया जा सकता था. यह कार्य सभी राजनीतिक दल मिल कर करते, तो आज बिहार की दुर्दशा के लिए किसी को आंसू बहाने की जरूरत नहीं पड़ती. बिहार का जातिवाद पूरे देश में मशहूर है, लेकिन इसकी असलियत कम लोगों को पता है. जो जातीय ठेकेदार हैं, उन्हें अपने सगे-संबंधियों या अपनी जाति के गरीब और असहाय लोगों से सहानुभूति नहीं है. बेलछी के गरीब कुर्मी भी इसी जातिवाद के नाम बलि चढ़ गये. आज उनमें से बहुत लोगों की माली हालत गांव के दुसाधों से भी खराब है. संभव है कि इसके बावजूद उनमें जातीय अहं शेष हो, लेकिन उन्हें कभी सामाजिक सच्चाइयों से रू-ब-रू कराने का प्रयास किसी ने नहीं किया.
बेलछी की वारदात के बाद राजनेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और अफसर सभी नये-नये तथ्य खोजने में जुट गये. यह कार्य कुछ दिनों तक चला. मुश्किल से एक वर्ष बाद ही बेलछी लोगों की स्मृति में धुंधला पड़ गया. जो लोग वर्ग संघर्ष का तर्क देते नहीं थकते थे, बारह वर्षों बाद उन्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि आज भी वहां के खेत मजदूरों की मजदूरी एक किलो आटा या चावल और साथ में आधा किलो सत्तू है. न्यूनतम मजदूरी और भूमि सुधार के खोखले नारे लगानेवाली सरकार के नुमाइंदे इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि मजदूरी की इस अल्प मात्रा के बावजूद इसके खिलाफ स्थानीय मजदूरों में आक्रोश नहीं पनप रहा. शायद तन और मन दोनों ही मोरचों पर वे हताशा के दौर से गुज रहे हैं. सरकारी स्रोतों के अनुसार मजदूर किसान संग्राम समिति और किसान सभा के लोग, इधर पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इनका मानना है कि चूंकि सामंतवाद इस इलाके में मजबूत है, इसलिए लंबे संघर्ष के बाद ही रास्ता निकलेगा.
इस हादसे के लगभग तीन माह बाद ‘गरीबी हटाओ’ का स्वप्न दिखानेवाली श्रीमती गांधी बेलछी पहुंची थीं. उनके साथ बिहार कांग्रेस के सभी दिग्गज थे. तत्कालीन राज्य कांग्रेस अध्यक्ष केदार पांडे, जगन्नाथ मिश्र, सीताराम केसरी, अनेक पूर्व मंत्री-सांसद, विधायक जुलूस बना कर श्रीमती गांधी के साथ बेलछी गये थे. कुछ रास्ते में ही अटक गये. कुछ ने बहाना बना लिया. श्रीमती गांधी ने अपनी यात्रा का मकसद बताया. ‘मैं सिर्फ उनके (पीड़ितों) प्रति सहानुभूति दिखाने आयी हूं.’ लेकिन नंबर ’72 में मधुबनी जिले के सेली बेली गांव में जब आठ बटाईदारों को भू-सामंतों ने गोलियों से छलनी कर दिया था, तब वह पीड़ित लोगों को धीरज बंधाने वहां नहीं गयी थीं. 1971 में रूपसपुर चंदवा में एक दर्जन से अधिक संथाल मारे गये थे, फिर भी उन्हें दुख नहीं पहुंचा था. 1973 मई में भोजपुर के चौरी में पुलिस और जमींदारों ने मिल कर चार हरिजनों की हत्या कर दी थी, लेकिन तब ‘कमजोर तबकों पर बढ़ते अत्याचार’ की पीड़ा से उन्हें वेदना नहीं हुई थी.
लेकिन बेलछी का रास्ता प्रधानमंत्री की गद्दी तक पहुंचता था, इसलिए हर आफत-कठिनाई को पार कर वह बेलछी पहुंचीं. पहले जीप-ट्रैक्टर से जाने की कोशिश हुई, पर बाढ़-पांक के कारण कामयाबी नहीं मिली. कुछ दूर पैदल चल कर नारायणपुर से वह हाथी पर सवार हुईं. गांव में पहुंच कर भी वह हाथी से नीचे नहीं उतरीं. बमुश्किल 15 मिनट वहां ठहरी होंगी. बीच में हरिजन औरतों की बिलखती भीड़ ने उनका कारवां रोक लिया. उन्होंने सरोज खापर्डे से पूछा कि ये लोग कौन हैं, इनका नाम नोट कर लो. सूरज डूबते ही उनका कारवां पटना की ओर रवाना हो गया. उस गांव में महज 15 मिनट गुजार कर हाथी से उतरे बिना ही पूरी दुनिया में हरिजन हमदर्द होने का उन्होंने ढिंढोरा पिटवा लिया.
लेकिन श्रीमती गांधी के सत्तारूढ़ होने और केंद्र सरकार राज की वापसी के बाद भी इन हरिजनों का क्या हुआ? जिनके परिवार के लोग मारे गये, उन्हें भू-खंड देने का कागज 1984 में मिला. लेकिन आज भी इन्हें जमीन नहीं मिली है. बालेश्वर पासवान (भू-हदबंदी, बंदोबस्ती केस नं 1 वर्ष 83-84 30 डि. सी), रामबालक पासवान (भू-हदबंदी केस नं 2/83-84), राधो पासवान (केस नं 2/83-84) समेत 32 लोगों को जमीन देने संबंधी कागजात सरकार ने 1983-84 में ही इन्हें दिया. गौर करने की बात है कि घटना 1977 में हुई. सरकार ने जमीन आवंटित करने संबंधी पर्चा 1983-84 में दिया, लेकिन आज तक इन लोगों के पास महज सरकार द्वारा प्रदत कागजात ही है, जमीन इन्हें नहीं मिली है. हरिजनों की लाश पर राजनीति करनेवाले राजनेताओं, मंत्रियों या अफसरों को बेलछी के हरिजनों को जमीन दिलाने से अब कोई राजनीतिक लाभ तो मिलना नहीं है.