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भारतीय समाजवाद के भीष्म पितामह आचार्य नरेंद्र देव

-हरिवंश- आचार्य नरेंद्र देव और उनके सहयोगियों का सम्यक मूल्यांकन होना शेष है. पतनोन्मुख सत्ता या समाज सर्वदा सत्ताधीशों या उनके प्रियजनों के अवदान के संदर्भ में चारण गीत गाता है. यह दोषपूर्ण दृष्टि है. इससे बीमार समाज जनमता-पनपता है, जो समाज अपने मनीषियों-ऋषितुल्य चिंतकों को भुलाने लगे, वह गंभीर सामाजिक रोग से पीड़ित हो […]

-हरिवंश-

आचार्य नरेंद्र देव और उनके सहयोगियों का सम्यक मूल्यांकन होना शेष है. पतनोन्मुख सत्ता या समाज सर्वदा सत्ताधीशों या उनके प्रियजनों के अवदान के संदर्भ में चारण गीत गाता है. यह दोषपूर्ण दृष्टि है. इससे बीमार समाज जनमता-पनपता है, जो समाज अपने मनीषियों-ऋषितुल्य चिंतकों को भुलाने लगे, वह गंभीर सामाजिक रोग से पीड़ित हो कर बिखरता है. आज हम ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं. इस माहौल में आचार्य जी जैसे तपस्वी, त्यागी और उद्धट विद्वान की याद अंधेरे में बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत है.
आचार्य नरेंद्रदेव और उनके साथियों ने न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की, बल्कि एक वैकल्पिक और नये समाज के लिए अपने जीवन की आहुति दी. सत्ता को ठुकरा कर संघर्ष का वरण किया. 1930 के आसपास राष्ट्रीय आंदोलन में वैचारिक रिक्तता झलकने लगी थी. सविनय अवज्ञा, असहयोग आंदोलन, स्वदेशी और नमक सत्याग्रह में ताजगी-स्फूर्ति क्षीण हो रही थी. इस रिक्तता को एक तरफ खूनी क्रांति का सपना देखनेवाले साहसी युवकों ने भरने की कोशिश की, दूसरे मोरचे पर इसी दशक में भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर ‘समाजवादी दर्शन’ के बीज अंकुरित-पल्लवित हुए. उस दौर में आये राजनीतिक ठहराव को तोड़ने और वैचारिक ताजगी लाने का श्रेय आचार्य नरेंद्रदेव के नेतृत्व में समाजवादियों ने किया. आचार्य जी के मार्गदर्शन में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्द्धन, युसूफ मेहरअली, मीनू मसानी, अरुणा आसफ अली, जैसे अनेक लोगों ने राष्ट्रीय आंदोलन में शिरकत की. अपनी तेजस्विता और आभा के लिए गंभीर चुनौती खड़ी कर दी.
आचार्य जी उन चिंतकों में से थे, जो सदैव समय और वर्तमान की परिधि से आगे देखते-आंकते हैं. वह देश, काल की सीमा से परे एक नये समाज की बुनियाद रखनेवाले मनीषी थे. वह सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा रहे. उन्होंने ‘क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों’ की कल्पना की, जो राष्ट्रीय और समाजवादी क्रांति के लिए अपरिहार्य हैं. वह जीवनपर्यंत मार्क्सवादी रहे. राष्ट्रीयता की बात जिस शिद्दत से उन्होंने की, वह अनूठी है. देश में समाजवाद का सपना देखनेवाले वह शिखर पुरुष रहे. इस संबंध में गांधीजी और उनके बीच गंभीर चर्चा हुई.
समाजवादी संविधान और कार्यक्रम की यह महत्वपूर्ण आलोचना है. वह बौद्ध दर्शन के अगाध विद्वान थे. बौद्ध धर्म में उनकी रुचि से ही पंडित नेहरू बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए. जीवन में वह विचार और उसके क्रियान्वयन में एका यानी कथनी-करनी में साम्य के पक्षधर रहे.
देश में राजनीतिक प्रतिबद्धता का अभाव देख कर आचार्य जी ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था. वह पत्र आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं.उन्होंने लिखा, ‘‘मुझे लगता है कि आज हमारे आसपास जो उदासीनता तटस्थता का माहौल है, वह बौद्धिक प्रतिबद्धता के अभाव के कारण है. आज हमारे सामने प्राथमिक कार्य हैं, अपने लोगों को बौद्धिक खाद्य के रूप में वैचारिक ऊर्जा देना.’’
वैचारिक मंथन के अभाव में समाज बिखरता है. एकरसता आती है. फिर गुपचुप सर्वसत्तावादी ताकतें सत्ता हथिया लेती हैं. इस खतरे से वह वाकिफ थे. इस कारण भारतीय संस्कृति-परंपरा के तहत देसी मुहावरे में उन्होंने समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की. कट्टर मार्क्सवादियों की तरह अफीम के रूप में उन्होंने ‘धर्म’ की चर्चा नहीं की, बल्कि उसकी सकारात्मक ऊर्जा को पहचाना. उन्होंने निराकार समाजवादियों की कल्पना नहीं की.
उनका सपना था, ‘‘जहां-जहां आम जनता की बहुतायत है, वहां-वहां समाजवादी पाये जाने चाहिए. जनता के स्वार्थ हक के लिए जहां भी जन संघर्ष हो रहा हो या साम्राज्यवाद ताकतों के खिलाफ लड़ाई चल रही हो, समाजवादियों को उसका हरावल दस्ता बनना चाहिए.’’ ‘वर्ग चेतना’ और राष्ट्रीय चेतना के बीच सेतु बनाने के लिए उन्होंने प्रयास किया. उन्होंने स्वीकार किया कि जो समाज देश क्षेत्रीय संकीर्णताओं सांप्रदायिक-भाषिक, जातिगत और क्षुद्र स्वार्थों की परिधि में लिपटा हो, वहां राष्ट्रीय चेतना अंकुरित नहीं होती. किसानों के संबंध में आचार्य जी ने गंभीरता से उस दौर में ही विचार किया. वह व्यक्ति पूजा के विरोधी रहे. क्योंकि वह मानते थे, ‘‘कोई अकेला नेता समाजवादी राज्य की स्थापना नहीं कर सकता. ऐसे समाज की स्थापना मजदूर और किसान ही कर सकते हैं या उनकी पार्टी कर सकती है.’’
आचार्य जी समाजवादी आंदोलन के भीष्म पितामह थे. युसूफ मेहरअली ने उन्हें समाजवादियों का वयोवृद्ध नेता बताया था. उनकी विद्वता-वक्तृत्व और व्यक्तित्व अनूठे थे. उन्हें अपनी मृत्यु की पदाचाप सुनाई देने लगी थी. अंतिम दिनों में वह बंबई के अपने मित्र बाबूलाल माखरिया (जो स्वयं, आदर्श और साहस की प्रतिमूर्ति थे) के यहां ठहरे थे. उनका स्वास्थ्य गड़बड़ था, लेकिन वह जल्द-से-जल्द तमिलनाडु के तत्कालीन राज्यपाल श्रीप्रकाश जी का आतिथ्य स्वीकार कर बौद्ध धर्म पर अपनी विख्यात पुस्तक को अंतिम रूप देना चाहते थे. पुस्तक समाप्ति के कुछ ही घंटों बाद तमिलनाडु के इरोड में उनका निधन हो गया.
आचार्य नरेंद्रदेव के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण तिथियां :
31 अक्तूबर 1889 : नरेंद्रदेव का जन्म
1918 : अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के सदस्य बने
1921 : वकालत छोड़ कर असहयोग आंदोलन में शरीक हुए
1934 : आचार्य जी की अध्यक्षता में पटना में समाजवादी सम्मेलन
1936 : प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य
1947 : लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति
1948 : समाजवादी पार्टी का नासिक सम्मेलन, कांग्रेस से संबंध विच्छेद
31 मार्च 1948 : आचार्य नरेंद्रदेव और समाजवादी विधायकों का विधानसभा से इस्तीफा
1951 : बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति
1952 : राज्यसभा के सदस्य
19 फरवरी 1956 : इरोड (तमिलनाडु) में निधन

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