स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान छोटानागपुर में जिन इजारेदारों के खिलाफ कांग्रेस ने आवाज उठायी और आदिवासियों-पिछड़ों की सबसे मुखर प्रवक्ता बनी, वही कांग्रेस आजाद भारत के इस क्षेत्र में कैसे इजारेदारों की जेबी संस्था बन गयी? छोटानागपुर से लौट कर हरिवंश की रिपोर्ट. साथ ही इस क्षेत्र में राजीव गांधी कैसे अपनी पार्टी को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं, इसका आकलन किया है किसलय ने.
29 मई को उस गांव से लौट जनता पार्टी के विधायक सुबोधकांत ने बताया कि अभी भी दोनों समुदायों (साहू पलियार) के लोग एक-दूसरे की सीमा में नहीं घुसते. पुरुष गांव छोड़ कर भाग गये हैं. गांव के 15-20 घोसी (हरिजन) परिवार 27-28 मई के आसपास तनाव बढ़ते देख गांव छोड़ कर भाग गये. जालिमपुर की आबादी तकरीबन 2000 है, 200 घरों के इस गांव में ठाकुर, बनिया, महतो, गिरी, आदिवासी, दुसाध, चेरो और गोसाई रहते हैं. सुबोधकांत के अनुसार इस नरसंहार के तीन-चार दिनों बाद हरिजनों द्वारा गांव छोड़ने की सूचना स्थानीय अधिकारियों ने महज अपने कागजात में दर्ज कर ली. न उन्हें लौटाने की कोशिश की गयी और न ही उनके भागने के कारणों का पता लगाया गया.
काफी पहले इस गांव के संपन्न साहूकारों के मनचले युवकों ने एक ब्राह्मण युवती के साथ बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी गयी. इन दोषी युवकों को सजा हुई. जेल से छूटने के बाद ये अपराधी उक्त ब्राह्मण लड़की के भाई को सबक सिखाना चाहते थे. क्योंकि उस युवक के सामने ही उसकी बहन को अपमानित किया गया था. वह प्रत्यक्षदर्शी था. उसकी गवाही से ही इन दोषी साहू युवकों को सजा हुई थी. तब से ये लोग उस युवक के विरोध में बैर पाल रहे थे.
22 मई को साहू जाति के कुछ युवकों ने उस ब्राह्मण लड़के को पकड़ लिया. उसकी जम कर पिटाई की. इस घटना की तत्काल सूचना लातेहार थाने में दी गयी. लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. इस घटना से अपमानित द्विज मानसिकता आक्रामक हो गयी. ब्राह्मण और राजपूत एक हो गये बदले में पलियार (राजपूत) जाति के लोगों ने एक निर्दोष साहू जाति के लड़के को पकड़ लिया. 23 मई को साहू जाति के लोगों ने बंदूकों से लैस हो कर पलियारों को चुनौती दी. पलियार भी अकड़ गये. पलियारों ने इन मुठभेड़ों में 8 लोगों की हत्या कर दी. इनमें कई निर्दोष व बच्चे शामिल थे.
इस घटना के मूल में साहू लोगों द्वारा किये जा रहे आर्थिक शोषण की अहम भूमिका है. साथ सब कुछ लूट जाने पर भी पलियारों का सांमती रुझान और ऐठ बरकारार है, जिसने आग में घी का काम किया.जालिम गांव में साहू लोगों के पास कुल भूमि का तीन चौथाई हिस्सा है. पलियार लोगों का दावा है कि कभी वे इस गांव के जमींदार थे. उनके पास कभी 1000 एकड़ जमीन थी. साथ ही जंगल उत्पादों पर भी उनका आधिपत्य था. 1950 के आसपास साहूकार इस इलाके में आये. धीरे-धीरे ये लोग सूद पर पैसा देने लगे. एक आकलन के अनुसार 1977 तक करीब 30,000 सूदखोर पूरे पलामू जिले में फैले थे. जालिम गांव में साहू लोगों को छोड़ कर बाकी सभी परिवार औसतन 500 से 1000 रुपये के कर्ज में डूबे हैं. सूदखोर मामूली राशि दे कर उनकी स्थायी संपत्ति भूमि आदि हथिया लेते हैं. साहू लोगों में भी अनेक परिवार बदहाली की स्थिति में हैं. पहले जिस खेत के मालिक पलियार थे, अब उस पर ही वे मजदूरी करते हैं. पलियार जाति की महिलाएं अब साहू लोगों के खेतों में धान रोपती हैं. महाजनों के आंतक और शोषण से पलियार पहले से ही उनके प्रति खफा थे.
अपने इस आर्थिक शोषण से पीड़ित गैर साहू लोगों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संपर्क किया. इस घटना के दो-तीन दिन पूर्व ही माकपा ने इस गांव में एक बैठक की थी. कहा जाता है कि उक्त बैठक ने तनावपूर्ण माहौल को और द्वेषपूर्ण बना दिया. इस अंचल के पंकी, लोहरसाई, बालू मठ, गढ़वा, छतरपुर और पाटन में नक्सली तत्वों का पहले से ही जोर है. चूंकि सामंती तत्व अभी भी इस अंचल में गरीबों का पशुवत शोषण करते हैं, इस कारण अतिवादी समूहों को इस अंचल में अपनी जड़ें जमाने में कामयाबी मिली. इस इलाके में सबसे प्रभावी नक्सल गुट हैं, पार्टी यूनिटी और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर. भाकपा भी इधर सक्रिय है. जब नक्सली गुटों ने इधर काम करना शुरू किया, तो सबसे पहले गरीबों में मजबूत माकपा को कमजोर करने का अभियान चलाया. पिछले एक वर्ष के दौरान इन तीनों समूहों की आपसी लड़ाई में लगभग 17 माकपा सदस्य मारे गये हैं.
आरंभ में माकपा उग्र नहीं थी. बाद में नक्सली समूहों के ‘सफाया अभियान’ से उकता कर वह भी उग्र और खूनी संघर्ष की प्रवक्ता बन गयी. पिछले दो माह से इस इलाके में माकपा के लोग काफी सक्रिय थे. इस गांव के काफी लोगों को माकपा ने अपने सदस्य बनाया था. कुछ सप्ताह पूर्व पंकी गांव में पुलिस के आधुनिक हथियार लूट लिये गये थे. इस दुस्साहसपूर्ण लूट के पीछे भी माकपा का ही हाथ बताया जाता है. इस घटना के लिए पुलिस केस में पंकी के बिशुनगंज सिंह को मुख्य अभियुक्त बताया गया है. फिलहाल वह फरार है. प्राप्त सूचनाओं के अनुसार बिशुनगंज सिंह ने नरसंहार से दो-तीन दिनों पूर्व जालिम गांव में आयोजित सभा को संबोधित किया था और बंदूक लटकाये लातेहार में खुलेआम घूम रहा था, जबकि उस पर पुलिस वारंट है. चूंकि यहां के संपन्न साहूकार कांग्रेस के समर्थक हैं, अत: अदिवासियों, पलियारों, पिछड़ों और गरीब ब्राह्मणों को इनके खिलाफ एकजुट करने की सफल मुहिम माकपा ने चलायी.
साहू लोगों द्वारा ब्राह्मण युवती के साथ बलात्कार, बाद में उसकी पिटाई ताजा घटना थी, जिसने लुटे पलियारों को उकसाया. पलियार अपनी आर्थिक बदहाली के लिए पहले से ही साहू लोगों से चिढ़े थे. इन दोनों घटनाओं के परिणामस्वरूप पलियारों ने साहूकारों की ओर से ही गोली चलायी गयी, बाद में पलियारों ने कुछ निर्दोष साहूकारों के घरों में आग लगा दी और आतताइयों की तरह कुछ साहूकारों की हत्या कर दी. रांची पलामू सीमा पर स्थित इस गांव की घटना के पीछे साहूकारों द्वारा आदिवासियों या यहां के पुराने बशिंदों का आर्थिक शोषण ही मूल बात है. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बागी बिरसा मुंडा ने इस अंचल में साहूकारों, सूदखोरों, ईसाइयत और अंगरेजी शासन के खिलाफ बगावत की थी. बिरसा मुंडा के आंदोलन में आर्थिक शोषण के खिलाफ जिहाद मूल बात थी. बाद में झारखंड आंदोलन ने भी इसके खिलाफ आवाज उठायी. 1966-67 के आसपास इन्हीं साहूकारों के खिलाफ बिरसा सेवा दल जैसा उग्र संगठन उठ खड़ा हुआ. इनका मुख्य आंदोलन शोषक सूदखोरों के खिलाफ था. उस आंदोलन के दौरान चिरी और चैनपुर में गोली चली थी. इन दोनों जगहों पर साहूकारों के खिलाफ ही उग्र प्रदर्शन हुए थे.
बाद में शिबू सोरेन का आंदोलन भी ऐसे ही महाजनों और सूदखोरों के आतंक से पनपा. उन दिनों आलम यह था कि सूद न देने और महाजनों के आर्थिक शोषण के खिलाफ जब भी आदिवासियों की कोई सभा होती थी, तो आदिवासी उमड़ पड़ते थे, नगाड़े की थाप पर ऐसी बैठकों की सूचना लोगों को दी जाती थी. शिबू सोरेन के पिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के आवाहन पर दशकों तक पीठ कर खादी के कपड़े रख कर बेचते थे. वह पेशे से अध्यापक थे. जब उन्हें एक बार विधायक बनाने का प्रस्ताव आया, तो उन्होंने यह कह कर टिकट लेने से मना कर दिया कि मैं अपने लोगों के बीच में ही रह कर काम करना चाहता हूं. बाद के दिनों में ये साहूकार कांग्रेस समर्थक बन गये. तब इनके आतंक के खिलाफ बगावत करनेवाला नया आदिवासी संगठन झारखंड आंदोलन का जन्म उभरा.
वस्तुत: झारखंड आंदोलन का जन्म ही ऐसे तत्वों की कारगुजारियों के कारण हुआ. जो आदिवासी स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में कांग्रेस आंदोलन की रीढ़ थे, वे स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के इस बदलते चरित्र को देख कर बिदकते गये. उनमें कांग्रेस के प्रति अविश्वास बढ़ता गया. धीरे-धीरे तो कांग्रेस ऐसे ही लोगों की पाकेट में चली गयी.
रांची से शिव प्रसाद साहू का कांग्रेस टिकट पर सांसद बनना, कांग्रेस के चरित्र में आये बदलाव की परिणति का चरम उत्कर्ष था. श्री साहू लोहरदगा के रहनेवाले हैं. इस इलाके में वह ‘लिकर किंग’ के नाम से मशहूर हैं. लोहरदगा में तीन ब्लॉक हैं. पूरे जिले से एक विधायक चुना जाता है. शायद यह हिंदुस्तान का सबसे छोटा जिला है. इस छोटे-से क्षेत्र को जिला बनवाने का श्रेय भी शिव प्रसाद साहू को ही है. झारखंड समर्थक अपनी सभाओं में आदिवासियों से पूछते हैं कि अगर एक कांग्रेस सांसद की आवश्यकता के अनुसार एक नये जिले का गठन हो सकता है, तो स्थानीय जनता की मांग पर अलग झारखंड राज्य का गठन क्यों नहीं हो सकता?
लोहरदगा-कोलीबीरा में पहले घने जंगल थे. अब उनकी कटाई हो रही है. कानूनन लकड़ी या जंगल कटाने पर पाबंदी है, लेकिन लोहरदगा-कोलीबीरा में लकड़ी कटाने की मशीनें लगती ही जा रही हैं. नेतरहाट की तराई के गांवों में भी जंगलों की अंधाधुंध सफाई हो रही है. जंगल महकमे के बड़े अधिकारी इधर के कुछ बड़े लोगों से मिले हुए हैं, जो अवैधानिक रूप से जंगल की कटाई में खुलेआम लगे हुए हैं. चूंकि प्रशासन और राजनीति में ऐसे ही लोगों का दबदबा है, इसलिए उन्हें कोई चुनौती नहीं दे पाता.
हाल ही में शिव प्रसाद के परिवार से संबंधित धोखाधड़ी का एक और प्रसंग उजगार हुआ है. ’80 के दशक में भड़क गांव में नंदलाल साहू ने एक बड़ा फार्म बनवाया. नंदलाल साहू, शिव प्रसाद साहू के भाई हैं. उस गांव का नाम बदल कर नंदगांव कर दिया गया. इसमें अनेक आदिवासी परिवारों की करीब 300 एकड़ जमीन हथिया ली गयी. इनमें से एक व्यक्ति बलदेव उरांव, आज मधु टिंग बगान डिब्रूगढ़ में काम करता है. उसकी लगभग 25 एकड़ जमीन साहू परिवार के इस फार्म में चली गयी है. एक विधवा महिला की करीब साढ़े 52 एकड़ जमीन हथिया ली गयी. इस तरह अनेक परिवार हैं, जिनकी जमीन इस फार्म में शामिल कर ली गयी है.
झारखंड मुक्ति मोरचा के विधायक स्टीफन मरांडी ने बिहार विधानसभा की अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जनजाति समिति के सामने नंदलाल साहू के इस फार्म के बारे में पूरी जानकारी दी है. श्री मरांडी ने समिति के समक्ष बयान दिया है कि आदिवासियों की हड़पी गयी जमीन पर साहू परिवार ने आधुनिक फार्म बनवाया है.
1978 में तत्कालीन एसडीओ शिव बसंत ने इस फार्म में 50 आदिवासी परिवारों की हड़पी गयी जमीन लौटाने के लिए काम आरंभ किया. उनकी पहल पर 20 आदिवासी परिवारों को भूमि लौटाने का आदेश पास हो गया. लेकिन साहू परिवार के लोगों विरोध-आतंक के कारण ये आदिवासी परिवार अपनी जमीन पर कब्जा नहीं कर सके. 1980 में सांसद बनते ही शिव प्रसाद साहू ने शिव बसंत का स्थानांतरण करा दिया. प्राप्त सूचनाओं के अनुसार जिनकी जमीन हड़पी गयी है, उनमें से पांच आदिवासी परिवार वहां से दूरदराज के इलाकों में चले गये हैं.
यह भी आरोप है कि साहू परिवार कमड़े में निर्मित साहू कोल्ड स्टोरेज में 16 डिसमिल सरकारी भूमि हड़प ली गयी है. हाल ही में शिव प्रसाद साहू के भाई गोपाल साहू के कारखाने में 83 हजार रुपये के चोरी के स्टील बिलेट्स पकड़े गये. जमीन अधिग्रहण और चोरी के स्टील बिलेट्स पकड़े जाने के संबंध में साहू परिवार अपने को बिल्कुल निर्दोष मानता है. लेकिन कांग्रेस के ही लोग कहते हैं कि साहू परिवार की ऐसी गतिविधियों से ही इस अंचल से कांग्रेस की जड़ें कमजोर हो रही हैं. कुछ दिनों पूर्व पहली बार लोहरदगा में आदिवासियों और मुसलमानों के बीच दंगे हुए. इन दंगों में चार लोगों की जानें गयीं. इसके बाद लोहरदगा उर्स कमिटी ने प्रस्ताव पास कर शिव प्रसाद साहू को उर्स कमिटी से हटा दिया गया और उन पर पिछड़ों के विरोधी और सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया.
कांग्रेस का चरित्र बदल जाने और आदिवासियों के प्रवक्ताओं का इजारेदारों का ठेकेदार बन जाने से इस क्षेत्र में नक्सलियों को पनपने का सुनहला मौका मिला है. हजारीबाग के तीन ब्लॉक प्रतापपुर, सिमरिया और हंटरगंज में आज दिनदहाड़े पुलिस जाने से कतराती है. इस इलाके में एमसीसी का वर्चस्व बढ़ गया है. एक सरकारी अधिकारी के अनुसार, ‘इन इलाकों को अंगरेज जैसा छोड़ गये थे, वैसा ही सब कुछ आज भी कायम है, अंतर सिर्फ एक है कि काफी तादाद में जंगल कट गये है.’
कांग्रेस की आदिवासी अंचल में कोई पहचान नहीं रह गयी है. हाल ही में नक्सलियों ने हजारीबाग में 105 पुलिस फाड़ी जला डाली. 1000 तेंदू पत्ते तोड़ने पर जंगल विभाग 6 रुपये प्रति हजार मजदूरी देता है, जबकि सरकारी दर 12 रुपये प्रति हजार है. चंद दिनों पूर्व नक्सलियों ने जंगल विभाग में मजदूरी के ये पैसे लूट कर मजदूरों के बीच बांट दिये.
1963 में राम जयपाल सिंह के कांग्रेस में आने से आदिवासियों के बीच कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई. लेकिन उनके न रहने पर कांग्रेस में फिर आदिवासियों की पूछ कम हो गयी. इस पूरे इलाके में सूद पर धंधा करनेवाले तत्व, अवैध शराब बनानेवाले सेठ और शोषक, निरंतर कांग्रेस पार्टी में घुसते गये. 1984-86 के दौरान तो पार्टी ऐसे ही तत्वों की जेब में चली गयी. ऐसे तत्वों का विरोध करनेवालों को दल के अंदर सुनियोजित ढंग से कमजोर बना दिया गया. आज छोटानागपुर कांग्रेस में जिन लोगों का दबदबा है, उनका मूल व्यवसाय ही शोषण पर आधारित है. इस पूरे इलाके में आज जो आदिवासी सांसद और विधायक हैं, वे खुलेआम ऐसे तत्वों के खिलाफ रोष प्रकट करते रहे हैं. खासकर सांसद बागुन सुंब्रई, दुर्गा प्रसाद जामदा, सुमति उरांव और साइमन टिग्गा ने खुल कर छोटानागपुर कांग्रेस में हावी ऐसे लोगों के खिलाफ अपने दल की बैठकों में बातें उठायी हैं, लेकिन इनकी बातें अनसुनी रह जाती हैं.
हाल ही में जब प्रधानमंत्री चार वर्षों बाद इस इलाके के दौरे पर आये, तो प्रधानमंत्री सचिवालय ने पहले ही सीधे अपने स्तर से इस क्षेत्र की समस्याओं से उन्हें अवगत करा दिया था. बिरसा मुंडा की धरती पर साइमन तिग्गा ने प्रधानमंत्री की सभा में बिहार में कांग्रेस के मौजूदा चरित्र पर जोरदार हमला किया. इन इलाकों की अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री ने भी ऐसे कांग्रेसी तत्वों के खिलाफ आक्रमक रुख अपनाया और सार्वजनिक रूप से आदिवासियों की हड़पी गयी जमीन लौटाने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिया.