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छोटे इस्पात कारखानों की दिक्कतें

-हरिवंश- 30 के दशक में रूस को आर्थिक रूप से सबल व आत्मनिर्भर बनाने के लिए पोलित ब्यूरो ने महत्वपूर्ण निर्णय किये. बुनियादी उद्योगों मसलन इस्पात, बिजली, कोयला आदि के उत्पादन-निर्माण के लिए पश्चिमी देशों में प्रचलित तत्कालीन तकनीक अपनाने की बात उठी. कुछ विशेषज्ञों ने राय-मशविरे के बाद तत्कालीन पश्चिमी आधुनिक तकनीक को अपनाने […]

-हरिवंश-

30 के दशक में रूस को आर्थिक रूप से सबल व आत्मनिर्भर बनाने के लिए पोलित ब्यूरो ने महत्वपूर्ण निर्णय किये. बुनियादी उद्योगों मसलन इस्पात, बिजली, कोयला आदि के उत्पादन-निर्माण के लिए पश्चिमी देशों में प्रचलित तत्कालीन तकनीक अपनाने की बात उठी. कुछ विशेषज्ञों ने राय-मशविरे के बाद तत्कालीन पश्चिमी आधुनिक तकनीक को अपनाने पर जोर डाला. अंतत: रूस की प्रथम योजना के दौरान इस्पात तकनीक के आयात पर सहमति हुई. यह तय हुआ कि इस्पात तकनीक के आयात के बावजूद आयातित तकनीक पर भविष्य में देसी इस्पात उद्योग को निर्भर न बनाया जाये.

इस निर्णय और स्टालिन के स्पष्ट कड़े निर्देश के तहत प्रथम योजना के अंतर्गत आयातित इस्पात तकनीक को ही वहां स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार फेरबदल करके रूसी इस्पात तकनीक को विकसित-मजबूत किया गया. इसके बाद रूस ने इस्पात उद्योग में अपनी घरेलू तकनीक के बल अधिकतम उत्पादन कर अपने बुनियादी उद्योगों को मजबूत बनाया और विश्व में इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण हस्ती बन गया. विकासशील देशों को वह अपनी तकनीक देने लगा. भारत में भी भिलाई-बोकारो आदि अनेक कारखाने रूस के सहयोग से ही लगे हैं.

लेकिन 21वीं शताब्दी में औद्योगिक भारत का सपना दिखानेवाले हुक्मरानों के पास बुनियादी उद्योगों के विकास के बारे में स्पष्ट धारणाएं नहीं हैं. अगर बुनियादी उद्योगों (कोर सेक्टर) मसलन इस्पात, बिजली और कोयला के उत्पादन-निर्माण में भी आजादी के चालीस वर्ष बाद आयातित तकनीक पर निर्भर रहना पड़े या कथित बड़े विकसित राष्ट्रों का मुंह ताकना पड़े, तो देसी अर्थव्यवस्था की कायापलट का सपना छलावा के अतिरिक्त कुछ नहीं है.

भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और वृद्धि में छोटे इस्पात कारखानों (मिनी स्टील प्लांट्स) का उल्लेखनीय योगदान रहा है. तकनीकी शब्दों में छोटे इस्पात कारखानों को ‘इलेक्ट्रिक ऑर्क फर्नेस’ (इ ए एफ) कहते हैं. 20 वर्षों की छोटी अवधि में इस पद्धति से कच्चे इस्पात (क्रूड स्टील) का उत्पादन 3.12 मिलियन टन हो रहा है. पूरे देश में स्टील उत्पादन का यह 30 फीसदी है. तकरीबन 3 लाख लोगों को परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इन उत्पादन इकाइयों में रोजगार मिला हुआ है. देश में कुल 165 इ ए एफ उत्पादन इकाइयां हैं. तकरीबन 2000 करोड़ रुपये का इसमें निवेश किया गया है. 1985-86 में इस उद्योग की स्थापित क्षमता तकरीबन 4.44 मिलियन टन थी.

1986-87 में इस उद्योग में कुल उत्पादन करीब 3.12 मिलियन टन हुआ, यानी स्थापित क्षमता का तकरीबन 70 फीसदी इस उद्योग ने किया.सरकार ने अर्थव्यवस्था में सर्वांगीण विकास की दर 10 फीसदी निर्धारित की है. यह अति महत्वाकांक्षी विकास दर है. उपलब्ध संसाधनों को देखते हुए सरकार ने हाल ही में नयी इस्पात नीति की घोषणा की है. इसके तहत देश में अब बड़े स्टील प्लांट (इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट्स) नहीं बैठाये जायेंगे. यह बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय है. सरकार ने व्यावहारिक अनुभव के बाद, अपरोक्ष रूप से बड़े स्टील प्लांटों एवं आयातित तकनीक की अनुपयोगिता कबूल कर ली है. बहुत पहले बड़े-बड़े स्टील प्लांटों को बैठाने (दुर्गापुर, भिलाई, बोकारो आदि) के विरोध में आवाज उठ रही थी, तीसरी दुनिया के देशों को आधुनिक बनाने के नाम पर जब कथित विकसित देश अपनी पुरानी अनुपयोगी तकनीक खैरात में बांट रहे थे, तो भारत में देसी तकनीक विकसित करने की मांग उठी.

‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ का आग्रह भारत में बहुत पहले से था, लेकिन तब मदांध सरकारों ने इन मांगों को प्रतिक्रियावादी और पिछड़ेपन का प्रतीक माना. आज मजबूरन सरकार ने खुद यह निर्णय लिया है कि बड़े स्टील प्लांट नहीं बैठाये जायेंगे. इसमें मुख्य व्यावहारिक कठिनाइयां थीं. असीमित पूंजी का प्रबंध, उत्पादन आरंभ होने में लगनेवाला लंबा समय और प्रति टन उत्पादन की बहुत अधिक लागत दर. अत: नयी इस्पात नीति के तहत छोटे स्टील प्लांटों को बढ़ाने, उनका प्रसार करने, उनमें उत्पादन बढ़ाने और उनके आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया है. बड़े स्टील प्लांटों की तुलना में छोटे स्टील प्लांटों में उत्पादन बहुत कम समय में होने आरंभ हो जाता है. पूंजी की वापसी कम समय में होने लगती है. प्रति टन उत्पादन लागत काफी कम होती है. इससे क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या को भी दूर किया जा सकता है. विदेशी मुद्रा भंडार का संरक्षण और रोजगार के पर्याप्त अवसर इस उद्योग के खास विशेषताएं हैं.

लेकिन सरकार ने सैद्धांतिक तौर पर छोटे स्टील प्लांटों की उपयोगिता और आधुनिकीकरण की बात कबूल कर लेने के बाद भी ठोस व्यावहारिक स्तर पर इस उद्योग को समयबद्ध तरीके से आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया है. आधुनिकीकरण के लिए विशेषज्ञों के अनुसार प्रति टन दर 900 रुपये निवेश कर यह उद्योग अपना उत्पादन कम समय में पचास फीसदी बढ़ा सकता है, जबकि निजी क्षेत्रों के ही बड़े प्लांट प्रति टन 10,000 रुपये के विनियोग से अपने कुल उत्पादन में पचास फीसदी वृद्धि कर पायेंगे.

मिनी स्टील प्लांटों में महज 250 करोड़ के अतिरिक्त विनियोग से इस उद्योग में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक लाख लोगों को रोजगार मिलेगा. मौजूदा उत्पादन पद्धति से मिनी स्टील सन 2000 में सरकार द्वारा अनुमानित इस्पात मांग में 50 लाख टन कम उत्पादन करेंगे. अत: सरकार अभी से इस उद्योग के बारे में तार्किक-व्यावहारिक दृष्टि नहीं अपनाती है, तो सन 2000 में मांग-पूर्ति में जो अंतराल पैदा होगा, उसकी भरपाई कठिन होगी. परिणामस्वरूप इस्पात की कीमत में अप्रत्याशित वृद्धि होगी. चूंकि इस्पात उद्योग बुनियादी उद्योगों में से है, अत: इसके भाव में उछाल से पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी. आजकल यह उद्योग अनगिनत समस्याओं से घिरा है. अत: बगैर सरकार द्वारा मदद-राहत के इसमें आधुनिकीकरण का सवाल नहीं उठता. निजी समूह के बड़े प्रतिष्ठानों के साथ ऐसी समस्याएं नहीं हैं. अधिक उत्पादकता और आधुनिकीकरण के लिए खुद सरकार को छोटे स्टील प्लांटों को बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद देनी होगी, तभी सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य पूरा हो पायेगा. चूंकि इस उद्योग में लाभ दर फिलहाल बहुत कम है, इसलिए मंझोले उद्योगपति सहज अपनी हैसियत से इस उद्योग को संकट से नहीं उबार सकते. चूंकि यह मूलत: ‘कनवर्सन’ (रूपांतरण करनेवाला) उद्योग है, अत: इस उद्योग पर सीमा से अधिक लगाये गये सीमा शुल्क, आबकारी शुल्क और बिजली की ऊंची दरें इसे खोखला बना रही हैं.

सरकार ने पहले मॉडवेट के द्वारा इस उद्योग को वित्त अधिनियम 1986 के अंतर्गत राहत देने की घोषणा की थी, लेकिन 19 अप्रैल 1986 को ही फिर इन राहतों को वापस ले लिया गया. भारत में ‘मिनी स्टील प्लांट’ इस उम्मीद से आरंभ किये गये थे कि ये देसी स्क्रैप (रद्दी लोहा, रद्दी धातु) का इस्तेमाल कर इस्पात निर्माण का कार्य करेंगे. लेकिन भारत में आवश्यक मात्रा में स्क्रैप उपलब्ध नहीं है, इसलिए इसका आयात अपरिहार्य है. अत: स्क्रैप को उचित दर पर उपलब्ध कराने के बजाय सरकार ने 1988 के बजट में 5 फीसदी और अतिरिक्त कर लगा दिया. पहले से ही 20 फीसदी शुल्क इस पर लगा हुआ था. इसके अतिरिक्त सरकार ने स्क्रैप के आयात को सारणीबद्ध (केनलाइजेशन) कर दिया है. इन नीतियों के परिणामस्वरूप एक वर्ष की अवधि में स्क्रैप में प्रति टन 900 रुपये की वृद्धि हो गयी है. चूंकि सरकार घोषित कर चुकी है कि सन 2000 तक बड़े स्टील प्लांट नहीं लगाये जायेंगे और ‘मिनी स्टील प्लांटों’ के द्वारा ही उत्पादन कर आवश्यकता की पूर्ति की जायेगी. अत: अपने घोषित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी उसे इस उद्योग को विसंगतियों से मुक्त करना होगा. दूसरी तरफ बिजली की निरंतर कमी से उत्पादन इकाइयां अपनी स्थापित क्षमता का भरपूर उपयोग नहीं कर पा रही हैं. यह अलग संकट है.

1978-79 में अधिकांश ‘मिनी स्टील प्लांटों’ ने आर्थिक संकट और अलाभकर स्थिति के कारण उत्पादन बंद कर दिया था. सरकार ने तब सीमा शुल्क और आबकारी शुल्क के बारे में नये सिरे से महत्वपूर्ण निर्णय किया था. उन निर्णयों से सरकार की आमद में भी वृद्धि हुई थी. अब फिर यह उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है. अत: आयातित स्क्रैप पर करारोपण को तार्किक बनाना, पुन: मॉडवेट छूट देना, बिजली बराबर उपलब्ध कराना आदि उपाय इस उद्योग को राहत देने और पनपाने के लिए आवश्यक हैं.

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