दो हजार साल पुराने रिश्ते

-हरिवंश- प्राचीन भारत का दुनिया के मशहूर साम्राज्यों और देशों से प्रगाढ़ संबंध रहा है. अपनी आर्थिक संपन्नता और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण भारत दुनिया के दूसरे देशों के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र बना रहा. भारत के धर्मप्रचारक दक्षिण पूर्व एशिया समेत चीन-जापान तक गये. चीन, जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में जिस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 22, 2016 1:40 PM

-हरिवंश-

प्राचीन भारत का दुनिया के मशहूर साम्राज्यों और देशों से प्रगाढ़ संबंध रहा है. अपनी आर्थिक संपन्नता और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण भारत दुनिया के दूसरे देशों के लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र बना रहा. भारत के धर्मप्रचारक दक्षिण पूर्व एशिया समेत चीन-जापान तक गये. चीन, जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में जिस तरह बौद्ध धर्म लोकप्रिय हुआ, उसे कुछ इतिहासकारों ने बौद्ध भिक्षुओं के भारतीय साम्राज्यवाद की संज्ञा दी है.

लेकिन बौद्ध धर्म के प्रसार के पहले भी इतिहासकार दक्षिण भारत की महापाषाण संस्कृति और भूमध्य सागर की महापाषाण संस्कृति में अनेक समानताएं बताते हैं. अनुमान है कि पश्चिम एशिया और चीन में यह संस्कृति विकसित हुई. पुन: व्यापारियों और विजेताओं के दल के साथ दक्षिण भारत तक पहुंची. चीनी इतिहासकार शू-मा-चियन के अनुसार चीन के यूची सरदार कुजला खउफाइसेस ने यूची लोगों के पांच कबीलों को संगठित किया. उनके साथ उत्तरी पर्वतों को लांघ कर वह भारतीय उपमहाद्वीप में घुस आया. उसने काबुल और कश्मीर के राजाओं को परास्त कर उन पर कब्जा कर लिया.

कुषाणों के शासनकाल में उत्तर भारत का मध्य एशिया के साथ घनिष्ठ संबंध रहा. बौद्धों के अनुसार कनिष्क के शासनकाल में बौद्धों की चौथी सभा, धर्मशास्त्र और सिद्धांत के संबंध में विचार-विमर्श के लिए बुलायी गयी. इस सभा में लिये गये निर्णयों के अनुसार मध्य एशिया तथा चीन में बौद्ध प्रचारक भेजे गये. कनिष्क के बारे में इतिहासकारों का मत है कि वह युद्ध करता हुआ मध्य एशिया में मारा गया. चीन के प्राचीन इतिहास में भी एक कुषाण राजा का उल्लेख मिलता है. उसके संबंध में ऐसी चर्चा मिलती है कि उक्त राजा ने चीन के हान वंश की एक राजकुमारी से शादी करने की इच्छा प्रकट की, लेकिन जनरल पान चाओ ने ईसा की पहली शताब्दी के अंत में मध्य एशिया की एक लड़ाई के दौरान उसे हरा दिया.

कुषाण राजाओं के राज में भारत-चीन संबंध के अनेक साक्ष्य मिलते हैं. भारत में उन्हीं दिनों चीनी रेशम के आयात की शुरुआत हुई. दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध कायम हुए. उन दिनों भारतीय व्यापारी दुनिया में पटु और व्यवहारकुशल माने जाते थे. रोम के साथ भी भारत का व्यापार होता था. चीन तथा रोम के बीच विलासिता की चीजों के व्यापार में भारतीय व्यापारी मध्यस्थ रहे. इसमें काफी मुनाफा होता था. बर्मा और असम से हो कर चीन तक थल-मार्ग विकसित करने के प्रयास हुए, किंतु व्यापारियों को जल मार्ग ही अधिक सुगम लगा.


1945 की खुदाई में दक्षिण भारत में अरिकामेडु बंदरगाह का पता चला. इस बंदरगाह की चर्चा पेरिप्लस (प्रथम शताब्दी का विदेशी इतिहासकार) ने भी की है. मलाया और चीन के साथ-साथ रोम से भी इसी बंदरगाह से आयात-निर्यात होता था. चीन से ‘रेशम मार्ग’ (भारत-चीन के बीच कायम प्राचीन व्यापारिक मार्ग) के रास्ते रेशम आता था. ईसा की पहली शताब्दी के लगभग पार्थिया और रोम के बीच लड़ाई हुई. इस कारण पार्थिया चीनी माल की सीधे रास्ते पश्चिम तक नहीं पहुंचने देता था. इस कारण तक्षशिला और भड़ौंच के रास्ते मध्य एशिया से व्यापार आरंभ हुआ.

ईसा पूर्व की दूसरी-तीसरी शताब्दी में भारत में कुछ चीनी वस्तुओं के प्रयोग के प्रमाण मिलते है. मसलन चीनी वस्त्र, ‘चीन पट्ट’ तथा बांस ‘कीचक’, इतिहासकार-भाषाशास्त्री ‘कीचक’ शब्द का उद्‌गम चीनी शब्द ‘की-चोक’ से मानते हैं. चीन और भारत के बीच स्थायी संबंधों की शुरुआत 65 ई में बौद्ध प्रचारकों के प्रथम दल के चीन पहुंचने के साथ हुई. ये लोग चीन पहुंच कर लो-पांग की मशहूर ‘ह्वाइट हार्स मोनास्टीरी’ में ठहरे. इनके प्रयास से मध्य एशिया मरुद्यानों के लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया. इस धर्मप्रचारक दल के प्रयास से ही यारकंद, खोतान, काशगर, तुर्फान, मीरन, कूची, कड़ाशहा और तुनहांग में बौद्ध मठ बने.

इन मठों में भारत से धर्मग्रंथों की पांडुलिपियां, चित्र और अनेक वस्तुएं लायी गयीं. अनेक शताब्दियों तक इन मठों की, भारत और चीन दोनों देशों में बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही. दोनों देशों के बीच प्रगाढ़ संबंध बनाने में बौद्ध मठों ने काफी रूचि ली. ईसा की तीसरी शताब्दी तक चीन के बौद्ध, धर्म का अध्ययन करने के लिए मध्य एशिया पहुंचने लगे थे. चीन से बढ़ते संपर्क के कारण ही दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से भी भारत का संपर्क बढ़ा.


बौद्ध मठों के माध्यम से भारतीय स्थापत्य कला और मूर्ति कला का भी चीन में प्रचार-प्रसार हुआ. बौद्ध धर्म में जब फूट पड़ी, तो अधिकांश चीनी बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अनुयायी बन गये.हर्षवर्द्धन के शासन के दौरान मशहूर चीनी यात्री ह्वेन-त्सांग भारत आया. उसने हर्ष और तत्कालीन भारत का सांगोपांग वर्णन किया है. हर्ष शासन के उत्तरार्द्ध की चर्चा चीनी इतिहास में भी उपलब्ध है. तांग सम्राट ताई-त्सुंग ने 643 ई और 647 ई में हर्ष के दरबार में राजदूत भेजे थे. 647 ई में दूसरी बार जब चीनी राजदूत यहां पहुंचा, तब तक हर्ष का देहांत हो चुका था. किसी दूसरे राजा ने उसके सिंहासन पर कब्जा कर लिया था. चीनी राजदूत ने तत्काल नेपाल, असम की यात्रा की. इन जगहों पर उसने हर्ष के मित्रों की एक सेना गठित की और हर्ष की गद्दी हड़पनेवाले को परास्त किया. उस परास्त राजा को वह चीनी राजदूत बंदी बना कर चीन ले गया. उसका नाम ताई-त्सूंग के मकबरे पर खुदा हुआ है.

बड़ी संख्या में भारत से बौद्ध धर्मप्रचारक चीन गये. 379 ई में चीन में बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित किया गया. चीनी बौद्ध संस्कृत और पाली में लिखे गये बौद्धग्रंथ प्राप्त करना चाहते थे. इसके लिए अनेक चीनी अध्येताओं फाह्यान, सुंगचून, ह्वेन-त्सांग तथा आईत्सिंग ने 400-700 ई के बीच भारत की यात्रा की. चीनी संस्कृति में भारतीय संस्कृति की पैठ हुई. गुफा-मंदिर भी चीन में प्रचलित हो गये. वस्त्र, पहनावा, आभूषण और रहन-सहन में भी चीनियों ने भारत की बहुत-सी चीजें अपना लीं. चीन के मंदिरों में भित्ति-चित्रों को सजाने और बुद्ध की मूर्तियां बनाने के लिए भारतीय कलाकार चीन बुलाये गये. भारत के संपर्क के कारण चीन में संगीत, ज्योतिष और चिकित्सा शास्त्र विकसित हुए. चीन से सीधे समुद्री मार्ग के मध्यम से दक्षिण भारत का व्यापारिक संबंध कायम हुआ. तांग काल (618-907 ई) में भारतीय व्यापारी कैंटन में बसे हुए थे. दक्षिण भारत में तांग के सिक्के मिले हैं. जापान में बौद्ध धर्म चीन के रास्ते ही पहुंचा, चीन का फुनान भारतीय कामकाज का मशहूर केंद्र बन गया था.

ईसा से पहले भी विद्वान, बौद्ध भिक्षु और धर्मप्रचारक भारत से चीन गये. कुमारजीव नामक विद्वान भी उन दिनों चीन गये. उन्होंने अश्वघोष, नागार्जुन और बसुबंधु की कृतियों का चीनी भाषा में अनुवाद किया. खोतान, कुछा और मध्य एशिया के अनेक भागों का उन दिनों ‘भारतीयकरण’ हो गया था. इन स्थानों से आज भी प्रचुर मात्रा में भारतीय साहित्य-धर्मग्रंथ मिलते है. दक्षिण भारत के अन्नम राजा का व्यापार सीधे कोचीन से चीन तक होता था. 132 ई में राजा देवबर्मन का एक दूत चीन गया था. कांग ताई नामक तत्कालीन चीनी घुमक्कड़ ने अपनी कृतियों में भारत के सांस्कृतिक प्रभाव और भारतीयों के चीन आने के संबंध में उल्लेख किया है. फुनान के एक तत्कालीन इतिहासकार ने उल्लेख किया है कि ‘बाजार, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों के संगम के केंद्र बिंदु हैं. यहां भारत से आये हजारों ब्राह्मण रहते है. लोग इनके सिद्धांतों-नीतियों का अनुकरण करते है और इनसे अपनी पुत्रियों की शादी करते हैं.’
फ्रेंच विद्वान पेलिट ने चीन में कांउडिन के राज का वर्णन किया है. कहा जाता है कि काउंडिन भारत से ही चीन गये. वह मूलत: भारतीय थे. वहां जा कर वह फुनान के राजा को और भारतीय नियम-कायदों के अनुसार फुनान का शासन किया. चौथी शताब्दी में भी फनान पर एक हिंदू राजा ने राज किया. उसके संबंध में चीनी इतिहास में उल्लेख है कि ‘फुनान राज में सभी ब्राह्मण ग्रंथों को पढ़ते हैं. बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा रखते है. यहां बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के मंदिर हैं. राजा के दरबार में भारत से आये अनेक विद्वान ब्राह्मण रहते है.’
बाद में फुनान में काउंडिन द्वितीय का शासन हुआ. उन्होंने भी वहां के समाज-शासन का गठन भारतीय पद्धति और तौर-तरीके से किया. फुनान पूर्णरूपेण हिंदू राजा बन गया था. इन दोनों देशों के संपर्क के प्रभाव आज भी हमारे जन-जीवन में मौजूद है. भारत में प्रचलित ‘सिंदूर’ का उदगम चीनी शब्द ‘त्सिन-तुंग’ से हुआ है. विद्वानों-भाषाशास्त्रियों का मत है कि सिंदूर शब्द चीन से आया है. हिंदू विवाह पद्धति में पढ़े जानेवाले मंत्रों में कहीं सिंदूर का उलेख नहीं है. मूलत: यह शब्द वेदे नहीं, लोके है. चीन और भारत के संबंधों का इतिहास दो हजार वर्ष से भी पुराना है.

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