फर्क आम और खास आदमी में

-हरिवंश- भूतपूर्व सेनाध्यक्ष अरुण कुमार श्रीधर वैद्य मार डाले गये. मारनेवालों ने उन्हें लगातार तीन खत लिख कर अपना पैगाम भी भेज दिया था. ’65 के भारत-पाक युद्ध में अद्भुत साहस और जान जोखिम में डालने के कारण भारत सरकार ने उन्हें दोबारा महावीर चक्र से सम्मानित किया था. 71 के युद्ध में 36 घंटे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 22, 2016 2:56 PM

-हरिवंश-

भूतपूर्व सेनाध्यक्ष अरुण कुमार श्रीधर वैद्य मार डाले गये. मारनेवालों ने उन्हें लगातार तीन खत लिख कर अपना पैगाम भी भेज दिया था. ’65 के भारत-पाक युद्ध में अद्भुत साहस और जान जोखिम में डालने के कारण भारत सरकार ने उन्हें दोबारा महावीर चक्र से सम्मानित किया था. 71 के युद्ध में 36 घंटे के अंदर 86 अमेरिकी अभेद्य पैटन टैंकों को तोड़ने का काम वैद्य के ही नेतृत्व में हुआ था. वीरता, शौर्य और अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले अरुण कुमार वैद्य ने अपने जीवन के सबसे खूबसूरत वर्ष जिस देश की चौहद्दी पर चौकसी में बिताये, वह देश उन्हें सुकून से ‘रिटायर लाइफ’ जीने की मोहलत भी न दे सका. ऐसा भी नहीं है कि सरकार हत्यारों के इरादे से वाकिफ नहीं थी, फिर भी प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को समझाया कि ऐसी छिटपुट घटनाओं से देश की मौजूदा स्थिति का आकलन नहीं किया जा सकता. ऐसी घटनाएं भविष्य में होती रहेंगी. सब कुछ ठीक-ठाक है.
लोकसभा में गृह मंत्री और पुणे में पुलिस कमिश्नर ने वैद्य की हत्या के चंद दिनों बाद ही बयान दिये कि सुरक्षा व्यवस्था लचर थी. हालांकि इन दोनों लोगों को पता था कि श्री वैद्य आतंकवादियों की ‘हिट लिस्ट’ में हैं. मरने के कुछ दिनों पूर्व वैद्य ने पुणे के पुलिस कमिश्नर से यह आपत्ति की थी कि उन्हें जो धमकी भरे पत्र मिले हैं, पुलिस उनका प्रचार क्यों कर रही है? अब सरकारी बयान आ रहे हैं कि महत्वपूर्ण व्यक्तियों के सुरक्षा प्रबंध को सुदढ़ बनाया जा हा है. संत लोंगोवाल की हत्या के बाद भी ऐसे ही सरकारी बयान आये थे. तब भी सरकार को संत जी की हत्या के पूर्व पता था कि आतंकवादी उन्हें मारना चाहते हैं. हाल में देश के विभिन्न भागों में जो सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, उनकी भी पूर्व सूचना सरकार के पास थी, फिर भी सैकड़ों लोग मार डाले गये. चीन ने अरुणाचल में हेलीपैड बनाया. लोकसभा में संबद्ध मंत्री ने पहले इसका खंडन किया, बाद में उनके सहयोगी मंत्री ने बेशर्मी से इसे कबूल किया. पिछले दो महीने में जो भयानक ट्रेन दुर्घटनाएं हुई हैं, इनके मूल में एकमात्र कारण बताया गया, लापरवाही. बिहार के मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री के तर्ज पर पहले ही कह चुके हैं कि अरवल और कंसारा जैसी घटनाएं कानून व्यवस्था की सही स्थिति नहीं दरसातीं.

यानी सरकार की जानकारी में पूर्व सेनाध्यक्ष या अन्य महत्वपूर्ण लोग मार डाले जायें, देश में विदेशी अड्डे बन जायें, सांप्रदायिक दंगे हो जायें, या पुलिस निहत्थे मजदूरों का कत्लेआम कर दें, फिर भी इन घटनाओं से आप यह निष्कर्ष निकाल नहीं सकते हैं कि देश में कानून व्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है, या सरकार निकम्मी है.

फर्ज कीजिए, चिंताजनक हालत में आप किसी रोगी को देर रात गये सरकारी अस्पताल ले जाते हैं, पर डॉक्टर रोगी को देखने से इनकार करता है और इमरजेंसी वार्ड बंद कर खर्राटे लेता रहता है. ऐसा क्रूर मजाक मौजूदा सरकार अपने नागरिकों से कर रही है. दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में ऐसी खुदगर्ज-निकम्मी और शर्महीन सरकार नहीं हो सकती. चीन के सवाल पर सरकार ने लोकसभा में अपनी कलाबाजी दिखायी. देश की सुरक्षा के सवाल पर जो भद्दा मजाक किया, निर्लज्ज गृह मंत्री और पुणे के पुलिस कमिश्नर ने वैद्य की हत्या के बाद जो बयान दिये, इनमें से एक ही चीज काफी है, जिससे दुनिया के दूसरे हिस्से में या तो सरकार बदल जाती या बगावत हो जाती. वस्तुत: हम एक मर रही कौम (राष्ट्र) के बाशिंदे हैं. गंभीरता से प्रतिबद्ध हो कर, हम अपना फर्ज निभाना नहीं जानते. अनुशासन से हमारा छत्तीस का रिश्ता है.

श्री वैद्य राजनेता नहीं थे, न ही पंजाब समस्या के जनक. वह भारत सरकार के हुक्मबरदार थे. हुकूमत करनेवालों ने उन्हें जो काम सौंपे, वैद्य ने उन्हें निपुणता से पूरा किया. यही उनका अपराध था. कत्ल करनेवाले अपराधियों ने जिलास्तर (कहीं-कहीं राज्यस्तर पर भी) तक तो कब्जा कर ही लिया है, बिहार में तो छोटे-छोटे ठेके भी संबंधित इलाके के आका की मरजी के खिलाफ किसी को नहीं मिल सकते. यानी जो गुंडे तय करते हैं, जिला प्रशासन उस पर दस्तखत करता है. ‘ब्लेकमेल’ का यह काम अब बड़े स्तर पर करने की कोशिश हो रही है. संगठित अपराधी पूरे देश को अपहृत करना चाहते हैं. वैद्य की हत्या के पीछे यही मंशा है.

इस नाजुक दौर में जिनसे पहल की अपेक्षा है, वे राजनेता अपनी हया खो चुके हैं. अरवल में हत्या हुई, बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘अपराधी’ मारे गये हैं. राष्ट्रपति वहां जाना चाहते थे, दो-दो बार उन्होंने जाने की इच्छा प्रकट की. राज्य सरकार ने मना कर दिया. कांग्रेस (इं) के वरिष्ठ लोगों ने प्रधानमंत्री को अरवल जाने के लिए न्योता, ‘‘हुजूर, आप नहीं जायेंगे, तो हमारी जड़ उखड़ जायेगी.’’ अरवल से 80 किलोमीटर दूर पटना में आराम फरमा रहे मुख्यमंत्री को तो अब तक वहां जाने की फुरसत नहीं मिली है. कंसारा में हुई हत्याओं की सूचना मिली, तो उन्होंने अवश्य कहा कि अभी मैं चंद्रशेखर बाबू की अंत्येष्टि में व्यस्त हूं. एक दिन बाद जाऊंगा. हां, प्रधानमंत्री भी चंद्रशेखर बाबू के घर (मुंगेर) गये. जाना भी चाहिए था. चंद रोज पहले ही वह जगजीवन बाबू की अंत्येष्टि में भी चंदवा (आरा) गये थे. यह भी आवश्यक था. लेकिन पटना से मुंगेर और चंदवा की जो दूरी है, उससे अरवल और कंसारा पटना से अधिक निकट है. लेकिन कंसारा में मारे गये कहारों और अरवल में पुलिस आक्रमण के शिकार भूमिहीन मजदूरों के लिए प्रधानमंत्री के पास समय नहीं था, क्योंकि ये आम आदमी थे, खास नहीं. यह छोटी घटना इस देश के मौजूदा माहौल की कलई खोलती है. इस व्यवस्था में जो भी भागीदार हैं, यह व्यवस्था उनकी निगरानी-सुरक्षा में चौकस है. अदने राजनेताओं की सुरक्षा के लिए विदेशों में प्रशिक्षित कमांडो दिये गये हैं, लेकिन श्री वैद्य या आम लोगों को समाज के खूंखार भेड़ियों को सौंप कर यह व्यवस्था चैन की नींद सो रही है.

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