घोटालों का अड्डा बिहार राज्य वित्त निगम
बिहार सरकार के प्राय: सभी उपक्रम औद्योगिक इकाइयां और संस्थान भ्रष्टाचार के अखाड़े हैं. ‘बिहार राज्य वित्त निगम’ इस राज्य की प्रमुख वित्तीय संस्था है, अब तक इसमें करोड़ों के घोटाले हो चुके हैं और लगातार घपले हो रहे हैं. दोषी अधिकारी अपने आकाओं की मदद से वैधानिक कानूनों को ठेंगा दिखा कर कैसे मौजमस्ती […]
बिहार सरकार के प्राय: सभी उपक्रम औद्योगिक इकाइयां और संस्थान भ्रष्टाचार के अखाड़े हैं. ‘बिहार राज्य वित्त निगम’ इस राज्य की प्रमुख वित्तीय संस्था है, अब तक इसमें करोड़ों के घोटाले हो चुके हैं और लगातार घपले हो रहे हैं. दोषी अधिकारी अपने आकाओं की मदद से वैधानिक कानूनों को ठेंगा दिखा कर कैसे मौजमस्ती कर रहे हैं, इस संबंध में हरिवंश की रिपोर्ट.
बिहार राज्य वित्त निगम की स्थापना 1954 में हुई थी लेकिन 1971 तक निगम के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई. वर्ष 1971 में पहली बार बिहार सरकार ने एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अनवरुल होड्डा को निगम का प्रबंध निदेशक बनाया. निगम के अध्यक्ष हुए अंबिका शरण सिंह, जो अब जीवित नहीं हैं. अध्यक्ष महोदय के कृपापात्र कायस्थ जाति के कुछ खास लोग थे. इस जाति के लोगों को निगम में अध्यक्ष महोदय की कृपा से फलने-फूलने का काफी अवसर मिला. अगस्त 1974 में बल्लभ शरण को प्रबंध निदेशक और जयनारायण को अध्यक्ष बनाया गया.
निगम में जातिवाद, भ्रष्टाचार का खुला खेल वस्तुत: इसी समय आरंभ हुआ. शरण ने निगम से नियुक्ति के दौरान स्वजातीय लोगों को वरीयता दी. यह जातिवाद इस कदर बढ़ा कि निगम में पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए जो प्रथम पैनल बना, उसमें एक खास जाति समूह के 80 फीसदी लोगों को रखा गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस पैनल को लेकर रद्द कर दिया. फिर भी बल्लभ शरण अपनी हरकतों से बाज नहीं आये और स्वजातीय लोगों को खुलेआम भरती करते रहे. बल्लभ शरण के समय से ऋण-वसूली का काम पूर्णतया उपेक्षित रहा और निगम राजनीति का अड्डा बन गया.
घर बनाने तथा कार खरीदने के नाम पर बल्लभ शरण ने निगम से कर्ज ले रखा है. समयानुसार वह ऋण की किस्तें भी नहीं लौटा रहे हैं. फिलहाल वह औद्योगिक विकास आयुक्त हैं, इसलिए निगम पर दबाव डाल रहे हैं कि उनसे आसान किस्तों में ऋण वसूलने का प्रबंध किया जाये. उन्हें जो कर्ज दिया गया है, उस पर निगम को समय से सूद भी नहीं प्राप्त हो रहा है. ऋण वापस करने में बिहार सरकार के आयुक्त का व्यवहार ऐसा है, जो साधारण लोगों से ऋण वापसी की अपेक्षा करना कहां तक मुनासिब है.
दो साल बाद बल्लभ शरण का स्थानांतरण हो गया. अध्यक्ष जयनारायण को भी हटाया गया. सरकार ने जब जे. के. संगलूरा को प्रबंध निदेशक तथा श्रीमती मनोरमा पांडेय को अध्यक्ष नियुक्त किया. इन लोगों का कार्यकाल निष्पक्ष रहा. बाद में सन 1982 में निगम के प्रबंध निदेशक के रूप में मंत्रेश्वर झा आये. वह चतुर प्रशासक थे. अत: निगम में एक खास जाति की चौकड़ी से वह सावधान रहते थे. मंत्रेश्वर झा के कार्यकाल में चौकड़ी की एक न चली. इसके बाद प्रबंध निदेशक बन कर आयीं, कृष्णा सिंह. कृष्णा सिंह व्यक्तिगत रूप से अपनी ईमानदारी व कुशल प्रशासक के नाते जानी जाती हैं. उनके कार्यों से प्रभावित हो कर आइडीबीआइ ने उन्हें अपने निदेशक मंडल में रखा.
बिहार से यह गौरव पानेवाली वह पहली प्रबंध निदेशक थीं. उन्होंने प्रशासन को चुस्त बनाया और निगम को वित्तीय संकट से उबारने के लिए प्रयास किया. लेकिन बिहार में स्वतंत्र ढंग से कार्य करनेवाले अधिकारी मंत्रियों के लिए अनुपयोगी होते हैं, अत: कृष्णा सिंह को भी अंतत: हट जाना पड़ा.
निगम की अजीबोगरीब स्थिति है. यह एक तकनीकी ढंग से प्रशिक्षित, आर्थिक विषयों के जानकार लोगों की संस्था है. लेकिन यहां कुशल लोगों की संख्या कम है, अकुशल लोगों की ही बहुतायत है. किरानी से सहायक महाप्रबंधक, उप महाप्रबंधक बने लोगों को तकनीकी कार्यों का अनुभव नहीं होता. ऐसे लोग निगम को आधुनिक बनाने और उसके कार्यकलापों को फैलाने में सहायक नहीं होते. जहां प्रशिक्षित इंजीनियर आदि आवश्यक हैं, वहां महज हाईस्कूल या इंटरमीडिएट पास लोगों को इस कारण बहाल कर लेना, क्योंकि वे अमुक मंत्री, अधिकारी से जुड़े हैं, निगम के साथ सरासर खिलवाड़ है. निगम में ऐसी प्रोन्नति पानेवाले अनेक अधिकारी हैं. लगता है, ‘लोक उद्यम ब्यूरो’ की नजर अभी तक इधर नहीं पहुंची है.
निगम में कार्यरत अधिकारी खूब घोटाला कर रहे हैं, लेकिन दोषी लोगों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की जा रही है. मानिक वेदसेन, निगम के सहायक महाप्रबंधक हैं. वेदसेन पर, ‘मेसर्स बीसीके डाटा प्रोडक्ट्स (रांची की कंप्यूटर फर्म)’ को गलत ढंग से 30 लाख रुपये रिलीज करने का आरोप है. वेदसेन उस समय भुगतान करनेवाली शाखा के पदाधिकारी थे. इस कंपनी से संबंधित कागजात में वेदसेन ने गलत ढंग से सत्यापन किया कि इस कंपनी द्वारा पहले से खरीदी गयी मशीनें प्रस्तावित स्थल पर पहुंच चुकी है. यह सरासर गलत बयान था. जो पैसा उस समय इस कंपनी को दिया गया. उसका डीडी कलकत्ता की एक कंपनी का नाम था, यानी पैसा कलकत्ता की उस कंपनी को भुगतान किया जाना था. फरजी ढंग से पटना सिटी में एक बैंक से इसे भुना लिया गया. इस घोटाले में अनेक गंभीर अनियमितताएं हैं. कंपनी ने निगम को अपनी जमीन बंधक रखी थी. उस जगह कंपनी ने कुछ भी नहीं बनवाया, लेकिन वेदसेन के अनुसार सभी मशीनें पहले से ही उस जगह पहुंच चुकी थीं.
बिहार की अन्य वित्तीय संस्थाओं में भी ‘मेसर्स बीसीके डाटा प्रोडक्ट्स’ की साख नहीं है. इस कंपनी ने ‘बिहार राज्य वित्त निगम’ तथा ‘बिहार राज्य उधार एवं विनियोग निगम’ से 70 लाख से भी अधिक कर्ज ले रखा है, लेकिन इस कंपनी के पास आज 10 लाख से अधिक की संपत्ति नहीं है. इस गोलमाल में ‘बिहार राज्य उधार एवं विनियोग निगम’ के तत्कालीन प्रबंध निदेशक अजय कुमार मिश्र भी फंसे हैं. निगम के तत्कालीन वित्तीय सलाहकार चंद्रशेखर सिंह, इस मामले में निलंबित हो चुके हैं.
वित्त निगम में एक और अधिकारी हैं, आलोक वर्मा. सहायक महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं. इन पर ‘पालिटेक्स कॉरपेरेशन’ के साथ विशेष पक्षपात करने का आरोप है. इस घपले से निगम को शायद 20-25 लाख रुपये का नुकसान हुआ. ‘मेसर्स छोटानागपुर फर्टीलाइजर’ रांची की एक कंपनी है. वर्मा ने विधिकक्ष (वित्त निगम) से परामर्श किये बिना ही इस कंपनी को कर्ज भुगतान करने का आदेश करवाया. ‘वेस्टर्न इंडिया रेक्सीन कॉरपोरेशन’ और बिहार कागज उद्योग के मामले में आलोक वर्मा की भूमिका विवादास्पद है.
रांची की ‘भवानी इंडस्ट्रीज’ में आलोक वर्मा और वाइ. पी. वर्मा की भूमिका दिलचस्प है. यह इकाई वाइ. पी. वर्मा के रिश्तेदार की है. इसके मालिक अप्रशिक्षित व्यक्ति हैं. श्री वर्मा रांची में थे, तब इस इकाई को कोकर इंडस्ट्रियल एरिया की एकमात्र सक्षम इकाई बताया गया. पाटलिपुत्र शाखा (पटना) की एक बैठक में इस इकाई को रुग्ण घोषित किया गया और इसे सुविधाएं मुहैया करायी गयीं. यह उद्योग आज बंद है, लेकिन कुछ अधिकारियों के संरक्षण के कारण इस उद्योग को ‘लीगल नोटिस’ भी नहीं दिया जा रहा है.
वाइ. पी. वर्मा बिहार सरकार से आये ‘ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी’ हैं. इनका कार्यकाल तीन साल पहले ही पूरा हो चुका है, लेकिन आज भी वह निगम में ही जमे हैं.
9.11.85 को बिहार राज्य वित्त निगम के बोर्ड की बैठक थी. उसमें (आइटम नं 9842) निगम में बढ़ती अनुशासनहीनता के संबंध में एन. के. पी शर्मा (अधिकारी प्रशासन) ने एक प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव में आलोक कुमार सिन्हा (उप प्रबंधक, तकनीक) के संबंध में काफी आरोप लगाये गये हैं. इसमें उल्लेख है कि ‘आलोक कुमार सिन्हा का मामला अजीबोगरीब है. उन्हें अनुशासन की कतई परवाह नहीं है. उन्हें अनुशासित करने के सारे उपाय विफल हो चुके हैं. कार्यालय में जब भी उन्हें तलाश किया गया, वह अनुपस्थित पाये गये. अचानक जांच में भी गप्प मारते, बेकार बैठे या कहीं चाय पीते हुए उन्हें पाया गया.’ जून 1985 में इनका स्थानांतरण बोकारो शाखा में किया गया. लेकिन वह बोकारो गये ही नहीं, निगम को एक पत्र दे कर पटना में ही जमे रहे. ‘मेसर्स श्याम कार्ड बोर्ड’ और ‘इंडस्ट्रियल एरिया बेगूसराय’ के साथ सौदेबाजी में उनकी भूमिका बहुत ही विवादास्पद है. ‘मेसर्स श्याम कार्ड बोर्ड’ को दो मशीनें दिलाने के लिए सिन्हा कलकत्ता गये थे. ‘मेसर्स बीसीके डाटा प्रोडक्ट्स’ के मामले में भी श्री सिन्हा को दोषी पाया गया. इसके अतिरिक्त और अनेक मामलों में भी सिन्हा को दोषी पाया गया. लेकिन बिहार में गंभीर-से-गंभीर अपराधों का भी इलाज है, पैसा या जातीय संरक्षण. ऊपर बैठे आका इन गंभीर अनियमितताओं के बावजूद अपने लोगों को संरक्षण देते हैं.
निगम में ही एक और अधिकारी हैं, हजारीबाग शाखा के प्रबंधक अमरेंद्र प्रसाद. उसके पूर्व श्री प्रसाद देवघर शाखा के प्रबंधक थे. देवघर शाखा में गंभीर अनियमितताएं हुई हैं. श्री प्रसाद देवघर शाखा में रोजाना एक बजे दिन में पहुंचते थे. बाबाधाम होटल में उनके लिए बराबर कुछ विशेष इंतजाम रहता था. श्री प्रसाद ने वहां के लेखा विभाग में काफी घपलेबाजी की है.
शाखा में विविध खर्च के लिए एक अलग खाता होता है — ‘मिसलेनियस एक्सपेंसेज खाता’ (विविध खर्च खाता). शाखा में होनेवाले खर्च इसी मद से किये जाते हैं. इस मद में अगर 18 रुपये का वाउचर पास होता था, तो उसे बढ़ा कर कुछ और कर दिया जाता था. उदाहरणस्वरूप एक वाउचर हम छाप रहे हैं. वाउचर में शब्दों में खर्च दिखाया गया है, 18 रुपये , बाद में इसे 518 रुपये लिख कर पास किया गया है. लेकिन जल्दी में इस वाउचर में एक भयंकर चूक हो गयी है. शब्दों में रकम की मात्रा अठारह ही है, जबकि अंकों में स्पष्ट दिखता है कि 18 के पूर्व 5 बाद में जोड़ा गया है. ऐसे अनगिनत घपले हैं.
यही नहीं, श्री प्रसाद के समय ‘कैश बही’ और ‘लोन लेजर’ भी अच्छी तरह नहीं रखे गये. निर्धारित दर से कम सूद लेकर अनेक उद्यमियों से नाजायज पैसा वसूला गया. कुछ औद्योगिक इकाइयों में जैसे मेसर्स स्टील इंडिया रीरोलिंग मिल्स, जसीडीह को पुरानी मशीनें मुहैया करा कर कर्ज दिया गया. निगम के नियमों का यह सरासर उल्लंघन है. इन सबके बावजूद अभी भी प्रसाद निगम में टिके हैं और हजारीबाग शाखा में प्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं. बिहार में यदि आपका कोई ‘गॉड फादर’ है, तो दिनदहाड़े कत्ल कर आप बच सकते हैं. श्री प्रसाद के मामले से इस धारणा की पुष्टि हो रही है.
निगम में ही एक और अधिकारी है, पीपी शर्मा. पहले पटना शाखा में प्रबंधक के रूप में कार्यरत थे. इस शाखा से पटना सिटी स्थित मेसर्स नारायण दास नरसिंघ दास को अनियमित भुगतान किया गया. लेकिन श्री शर्मा की सेहत पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा.निगम में कार्यरत अधिकारियों की चल-अचल संपत्ति की तत्काल जांच करायी जाये, चौंकानेवाले तथ्य सामने आयेंगे. बिहार राज्य वित्त निगम के अध्यक्ष हैं, सरजू मिश्र. निगम के अध्यक्ष के रूप में मिश्र जी के कार्य काफी विवादास्पद हैं. वित्त निगम के नियमों के अनुसार अध्यक्ष को गाड़ी अथवा ड्राइवर की सुविधा मुहैया नहीं करायी जाती.
श्री मिश्र फारबिसगंज के रहनेवाले हैं और फारबिसगंज की लगातार यात्रा पर इन्होंने काफी पैसा खर्च किया है. चार साल की अवधि में इन्होंने निगम की तीन नयी गाड़ियों को ठिकाने लगा दिया है. फारबिसगंज यात्रा का बिल बनाते समय उसमें मिश्र ने उल्लेख किया है कि उन्हें जरूरी बातचीत के सिलसिले में फारबिसगंज जाना था. फारबिसगंज छोटी जगह है, मिश्र वहां के रहनेवाले हैं. लगातार उनकी वहीं यात्रा का अर्थ स्पष्ट है.
अध्यक्ष महोदय के टेलीफोन का बिल 5000 से 10000 रुपये प्रतिमाह की दर से आता रहा है. निगम में अध्यक्ष का पद पूर्णतया मानद है. इन गंभीर अनियमितताओं के कारण मिश्र का 13 हजार रुपये का बिल लटका हुआ है, जिसे अभी तक प्रबंध निदेशक ने पास नहीं किया है.
वस्तुत: निगम में ऐसे अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिन्होंने लगातार कई गंभीर घोटाले किये हैं. लेकिन इन लोगों का संबंध बिहार के ताकतवर और प्रभावशाली लोगों से है, अत: ये पूर्णतया सुरक्षित और बेफिक्र हैं.
सरयू मिश्र की विवादास्पद यात्राएं
सरयू मिश्र बिहार के स्वास्थ्य मंत्री हैं और बिहार राज्य वित्त निगम के अध्यक्ष भी. अध्यक्ष के नाते उन्होंने निगम से काफी लाभ उठाये हैं. उनका यात्रा बिल वर्षों तक अधूरा रहने के कारण निगम में पास नहीं हो सका. उन्होंने अपनी यात्रा का जो बिल निगम को दिया, उससे कई विसंगतियां हैं. हवाई जहाज से जो उन्होंने यात्राएं की हैं, उनके लिए आवश्यक कागजात मिश्र ने नहीं दिया है. जैसे 24.2.83 से 13.8.84 के बीच श्री मिश्र ने दिल्ली, कलकत्ता और रांची की अनेक दफे हवाई यात्राएं कीं. नियमानुसार श्री मिश्र ने महज रांची और कलकत्ता की अपनी दो यात्राओं का हवाई टिकट ही पेश किया. इस संबंध में बिल पास करनेवाले अधिकारी ने अपनी टिप्पणी बिल पर लिखी.
4.2.85 को उक्त अधिकारी द्वारा लिखी गयी टिप्पणी में उल्लेख है कि इन बिलों को पास करने के पूर्व हम माननीय अध्यक्ष महोदय, सरयू मिश्र के सहायक से यह आग्रह कर सकते हैं कि इस यात्रा बिल के साथ वे आवश्यक कागजात को संलग्न करें, ताकि बिल अधूरा न रहे और इसे पास किया जा सके, मंत्री महोदय के सहायक से मांगे गये कागजात में अध्यक्ष महोदय की (1) यात्रा डायरी, (2) प्रत्येक यात्रा का मकसद (3) यात्रा कार्यक्रम और (4) हवाई टिकट हैं.
इन कागजात को बिल के साथ संलग्न करने के बदले अध्यक्ष महोदय के सहायक ने अध्यक्ष महोदय के यात्रा वृत्तांत के संबंध में अपना नोट निगम को भेजा. यात्रा के उद्देश्यों और पूछे गये स्पष्टीकरण के संबंध में अध्यक्ष महोदय के सहायक ने निगम को कुछ भी नहीं लिखा. उनके अनुसार बिल में सब कुछ बताया जा चुका है, जबकि बिल में यात्रा उद्देश्य के कॉलम में महज ‘ऑफिसियल प्रोग्राम’ लिखा है.
पुन: अधूरे बिल को देख कर जांच अधिकारी ने अपनी टिप्पणी दी कि अध्यक्ष महोदय के यात्रा बिल में कहीं भी उल्लेख नहीं है कि किन कार्यों से ये यात्राएं हुईं? लेखा विभाग जांच के समय इन मुद्दों पर आपत्ति उठा सकता है. उक्त अधिकारी ने यह भी उल्लेख किया कि अध्यक्ष महोदय से पुन: अवश्यक कागजात को प्रस्तुत करने के लिए अनुरोध किया जाये. अगर इन कागजात को देने में अध्यक्ष महोदय विलंब करते हैं, तो इसकी जिम्मेदारी उनकी होगी. चूंकि ये बिल पुराने हैं, अत: हमें इनके बारे में पता नहीं है.
बाद में माननीय अध्यक्ष महोदय के सहायक राजेंद्र खान ने लिखा है कि ‘अध्यक्ष महोदय के लिए प्रत्येक यात्रा के संबंध में सूचनाएं देना संभव नहीं है. माननीय अध्यक्ष महोदय ने जब यह बता दिया है कि ये यात्राएं निगम के कार्यों के लिए की गयी हैं, तो यह औपचारिक जांच के लिए पर्याप्त होनी चाहिए.