हाल, बेहाल है बिहार का

-हरिवंश- पूरे देश में अराजकता, अव्यवस्था का पर्याय ‘बिहार’ बन गया है. विदेशियों के लिए वह कौतुक प्रदेश है. अन्य प्रदेशों के लोग यहां से गुजरते हुए नाक-भौं सिकोड़ते हैं. बाहर से नौकरी करने आये लोग अपने प्रवास को ‘सजा’ मानते हैं. जिस प्रदेश में यह संभावना है कि पूर्ण विकास के बाद वह पूरे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 22, 2016 4:40 PM

-हरिवंश-

पूरे देश में अराजकता, अव्यवस्था का पर्याय ‘बिहार’ बन गया है. विदेशियों के लिए वह कौतुक प्रदेश है. अन्य प्रदेशों के लोग यहां से गुजरते हुए नाक-भौं सिकोड़ते हैं. बाहर से नौकरी करने आये लोग अपने प्रवास को ‘सजा’ मानते हैं. जिस प्रदेश में यह संभावना है कि पूर्ण विकास के बाद वह पूरे देश का भार वहन कर सके, उस प्रदेश की यह स्थिति क्यों?

मई के अंतिम सप्ताह में उग्रवादियों ने फिर कुछ निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं. लुधियाना के पास सज्जतवाला गांव में दो खेतिहर मजदूर मारे गये, दो घायल हुए. यह आक्रमण तब हुआ, जब 13 मजदूर काम करने के बाद सोने की तैयारी कर रहे थे, उन पर गोलियां बरसायी गयीं. ये सभी मजदूर बिहार के थे. दिल्ली में जो बम-विस्फोट हुए, उसमें भी कुछ बिहारी मजदूर ही मारे गये थे.

पिछले दिनों पंजाब जा रही एक एक्सप्रेस ट्रेन की छत पर बैठे करीब 25 मजदूर पुल से टकरा कर मर गये. इस दुर्घटना में मरे सभी मजदूर बिहारी थे.सिक्किम व सुदूर अन्य इलाकों में हाल के वर्षों में जो बंधुआ मजदूर पाये गये, उनमें अधिकांश बिहार से गये लोग थे. आदिवासी युवतियां थी. निराश्रित बूढ़े थे.

देश में घरेलू नौकरों की सर्वेक्षण रिपोर्ट इंगित करती है कि अब नेपाल व गोरखा लोगों को बिहारी मजदूर पछाड़ रहे हैं. कलकत्ता में हाथ-रिक्शा चलानेवाले भी अधिकांश बिहार के ही हैं. देश के सुदूर नगरों में बिहार से आये मजदूरों की भरमार है. होटलों में, कारखानों में बिहार से आये बच्चे तक खट रहे हैं. जाड़ा अधिक हो या गरमी, बिहार से सर्वाधिक लोगों के मरने की खबर आती हैं.

आर्थिक संसाधन के संदर्भ में बिहार सर्वाधिक संपन्न प्रदेश है. पंजाब की भूमि से यहां अधिक उर्वर भूमि है. लेकिन यहां अवाम की हालत ऐसी क्यों है. आर्थिक विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने बिहार में सामाजिक-आर्थिक विकास की रीढ़ तोड़ दी. फिर भी अंगरेजों के समय तक पटना बड़ा व्यापारिक केंद्र था. बिहार में गन्ने का सर्वाधिक उत्पादन होता था. अब यह आलम है कि प्रतिवर्ष सूखे व अकाल से सैकड़ों लोग मर रहे हैं. विकास की यात्रा में बिहार अब उड़ीसा से भी पिछड़ रहा है. तमिलनाडु व गुजरात में उद्योग-धंधों का विकास बिहार के साथ ही आरंभ हुआ था. लेकिन आज औद्योगीकरण के नक्शे पर बिहार का चित्र धुंधला रहा है.

पूरे देश में अराजकता, अव्यवस्था का पर्याय ‘बिहार’ बन गया है. विदेशियों के लिए वह कौतुक प्रदेश है. अन्य प्रदेशों के लोग यहां से गुजरात हुए नाक-भौं सिकोड़ते हैं. बाहर से नौकरी करने आये लोग अपने प्रवास को ‘सजा’ मानते हैं. जिस प्रदेश में यह संभावना है कि पूर्ण विकास के बाद वह पूरे देश का भार वहन कर सके, उस प्रदेश की यह स्थिति क्यों?

बिहार के राजनीतिज्ञों (सत्ता व विरोध पक्ष) ने जितना इस प्रदेश का अहित किया है, उतना किसी और ने नहीं. प्रदेश का शिक्षा मंत्री खुले-आम यह स्वीकार करता है कि यहां सबसे खराब स्थिति शिक्षा विभाग की है. शिक्षा विभाग में कार्यरत मामूली अधिकारी करोड़ों कमाता हो, उच्च न्यायालय के निर्णयों को अंगूठा दिखाता हो, घर में दफ्तर बना कर सौदेबाजी करता हो. फिर भी उस पर कोई कार्रवाई न हो, यह बिहार में कानून व व्यवस्था की स्थिति है. अब तक तो हाट, बाजार, पोखर, तालाब आदि की ही नीलामी होती थी. अब बिहार में परीक्षा केंद्रों की भी नीलामी हो रही है. हाल में नालंदा जिले में एक माध्यमिक परीक्षा केंद्र पर कब्जा करने के लिए अपराधकर्मियों के कई गिरोहों में होड़ हो गयी. उस परीक्षा केंद्र के अधीक्षक ने अनोखे ढंग से मामला सुलझाया. सभी गिरोहों द्वारा डाक बोलवा कर तीन लाख रुपये में परीक्षा केंद्र की नीलामी कर दी.

बाद में नीलामी जीतनेवाले अपराधकर्मी गिरोह ने, वहां के परीक्षार्थियों से चार लाख रुपये जबरन वसूल किये. टैक्स दीजिए और मजे से किताब-कॉपी खोल कर लिखिए. इसके बाद परीक्षकों से संपर्क भी अत्यावश्यक है. वैसे तो प्राध्यापकों-राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों के पुत्र-पुत्रियों के लिए परीक्षाफलों में उच्च स्थान पूर्व आरक्षित हैं. जहां शिक्षा विभाग के अधिकारी अपनी रिपोर्ट में दर्ज करते हैं कि प्राइमरी स्कूल में भरती 30 फीसदी लोग फर्जी हैं. हजारों के पास आवश्यक योग्यताएं नहीं. सरकार फिर भी चुप्पी साधे रहे, उस प्रदेश के भविष्य के संबंध में बखूबी आप अंदाज लगा सकते हैं.

इस प्रदेश को पीछे ले जाने के अपराधी यहां के चूके राजनीतिज्ञ हैं. उनके पास कोई दृष्टि नहीं है. अपराधी अब सत्ता में साझीदार हैं. विकास के पैसे को ठेकेदारों, नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों की तिकड़ी लूट रही है. जहां औसतन ग्यारह लोगों की हत्याएं प्रतिदिन हो रही हो, पुलिस अपराधियों की मानिंद व्यवहार करती हो, ईमानदार नौकरशाहों का जीना दूभर हो, भ्रष्ट व अनाचार करनेवाले शीर्ष पर हों, वहां अराजकता फैलनी ही थी.

यह सही है कि बिहार को पीछे ले जाने में ‘जातिवाद’ का हाथ सर्वोपरि है. पर जातिवादी कौन हैं. राजपूतों के आका हैं- सत्येंद्र नारायण सिंह, यादवों के भाग्यविधाता रामलखन सिंह यादव माने जाते हैं. इसी तरह भूमिहारों-कायस्थों-पिछड़ों के अलग-अलग नेता हैं. लेकिन ये ‘आका लोग’ किसके लिए जातिवाद चलाते हैं. अपने सगे-संबंधियों-अफसरों-भूस्वामियों व पैसेवाले नजदीकी लोगों के लिए. गरीब राजपूत, यादव, भूमिहार का कोई नेता नहीं है. यहां वर्गीय हित प्रधान है, जातीय हित नहीं. यही वर्गीय हित बिहार का सबसे बड़ा शोषक है.

केंद्रीय सरकार द्वारा भी यह प्रदेश उपेक्षित है. बिहार में कार्यरत वाणिज्यिक बैंकों में कुल 2800 करोड़ रुपये जमा हैं, लेकिन इस प्रदेश के विकास के लिए मात्र 1100 करोड़ रुपये ही अग्रिम दिये गये हैं. बाकी 1700 करोड़ रुपये बंबई-दिल्ली-कलकत्ता के उद्योगपतियों का साम्राज्य बढ़ाने के लिए प्रदेश से बाहर गया होगा. गांव के गरीब, छोटे उद्योगपति पैसा बचा कर बैंकों में रखें व उसका उपयोग बंबई के थैलीशाह करें, यह भेदभाव बिहार के साथ क्यों?

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