हिंदी के दरबारी लेखक और कवि

-हरिवंश- प्रतिवर्ष 23 जनवरी की संध्या को लाल किले में विराट कवि सम्मेलन होता है. यह पुरानी परंपरा है. पहले इसमें सत्ता, वैभव और दिखावे के खिलाफ हुंकार भरनेवाले कवि शामिल होते थे. व्यवस्था और वैभव के चकाचौंध में बिके लोग नहीं. हमारी पीढ़ी ने तो इतिहास में चारणों के बारे में महज पढ़ा है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 22, 2016 5:24 PM

-हरिवंश-

प्रतिवर्ष 23 जनवरी की संध्या को लाल किले में विराट कवि सम्मेलन होता है. यह पुरानी परंपरा है. पहले इसमें सत्ता, वैभव और दिखावे के खिलाफ हुंकार भरनेवाले कवि शामिल होते थे. व्यवस्था और वैभव के चकाचौंध में बिके लोग नहीं. हमारी पीढ़ी ने तो इतिहास में चारणों के बारे में महज पढ़ा है, लेकिन इस बार लालकिले पर आयोजित सम्मेलन में इन्हें साक्षात देख कर हमारी पीढ़ी को इन्हें मूर्तिवत देखने का भी सुख मिल गया.

घटिया कविताएं, विकृत हावभाव और चेहरे पर चारणों जैसा भक्तिभाव लिये कुछ कवियों ने जो कविताएं इस वर्ष सुनायीं. अगर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए दिल्ली प्रशासन ऐसे आयोजनों पर इतनी रकम खर्च करना ही उद्देश्यपूर्ण मानता है, तो यह तत्काल बंद होना चाहिए. इस भाषा की आत्मा को निर्जीव कर चाटुकारों और दरबारियों को आगे लाकर और घटिया साहित्य को बढ़ावा दे कर ही सरकार हिंदी को लोकप्रिय बनाना चाहती है, तो उससे अच्छा है, हिंदी लोकप्रिय न हो.

जब हिंदी को राज्याश्रय प्राप्त नहीं था, वह राजभाषा नहीं, राष्ट्रभाषा थी, तब क्यों इसके साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने संघर्ष की अगुआई की? ये चेतना जगाने के वाहक बने. इन लोगों ने अपने संघर्ष से इतिहास बनाया. गुलाम भारत में अंगरेजी सत्ता की सेवक थी, तो हिंदी संघर्ष का प्रतीत, हिंदी लेखन में तब तासीर थी. वह हिंदी साम्राज्ञी अंगरेजों के राज से अपने समर्थकों द्वारा ही हेय बना दी गयी है. फिर भी उसके तथाकथित पक्षधर संतुष्ट हैं, क्योंकि औसत दरजे के दरबारी हिंदी लेखकों, चारण कवियों और राजनीतिक बिल्ला लगाये साहित्यकारों ने हिंदी को पंगु और श्रीहीन बना दिया है.

हिंदी में तेजस्वी-ओजपूर्ण और गंभीर लेखन क्यों नहीं हो रहा है? अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र, मुक्तिबोध आदि जैसे लोग हमारी पीढ़ी में क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? वैचारिक गहराई, समझ और चेतना का अभाव हमारे नये लेखकों में क्यों है? व्यावसायिक और बनियागीरी करनेवाले लेखक ही हिंदी की हर विधा पर क्यों हावी हो गये हैं? कन्नड़ में यूआर अनंतमूर्ति, मराठी में पु. ल. देशपांडे, अनंत काणेकर, शिवाजी सावंत आदि जैसे साहित्यकार हैं. हिंदी में ऐसी प्रतिभाएं क्यों नहीं उभर रहीं? हिंदी क्षेत्र आज ज्यादा अशांत है. अनंत समस्याएं हैं. यह क्षेत्र गरम भी है. लोग व्याकुल और अधीर हैं. फिर भी हिंदी लेखन में सूनापन है. कारण, हिंदी के तथाकथित प्रहारी जनता से जुड़े नहीं हैं. लोकभाषा अपने आधार से कट कर निर्जीव हो गयी हैं.

हाल ही में कलकत्ता में ‘प्रोनर प्रहरी’ नाटक हुआ. इसमें बंगला के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, सागरमय घोष, नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती, समरेश बसु, बुद्धदेव गुहा आदि ने अभिनय किया. दो घंटे के अंदर इस नाटक के टिकट हाथोंहाथ बिक गये. चूंकि बंगला, कन्नड़, मराठी, तेलुगु, तमिल आदि के साहित्यकार जनता से जुड़े हैं, अत: इनके लेखन में नयापन, ओज और सामयिकता है. ये दरबारी साहित्यकार नहीं हैं. लोगों के बीच इनकी लोकप्रियता का यही राज है.

हिंदी की इस दुर्दशा के लिए सरकार, नेता-कम-साहित्यकार और हिंदी के मठाधीश जिम्मेदार हैं. सरकार के पास कोई सुनियोजित योजना नहीं है. सरकारी हिंदी की प्रगति की जांच के लिए एक संसदीय समिति है. यह निराली चीज है. समिति के सदस्य सांसद रौब दिखाते हुए केंद्रीय सरकार के संस्थानों में जाते हैं. वहां उनका भव्य स्वागत होता है. बमुश्किल आधे घंटे तक ये लोग हिंदी की प्रगति की समीक्षा करते हैं. इनमें बहुत-से-लोगों को तो हिंदी से संबंधित नियम-कानून भी मालूम नहीं. ऊटपटांग सुझाव देते हैं. कीमती तोहफे लेकर वापस जाते हैं. जब तक ये सदस्य शहर में होते हैं. निरीक्षण करनेवाली संस्थाएं आतंकित रहती हैं. हर सांसद की अगवानी में एक कार और निरीक्षण किये जानेवाले संस्थान के दो प्रतिनिधि होते हैं. इस समिति के साथ आनेवाले छोटा क्लर्क और सचिव भी वीआइपी आवभगत की अपेक्षा रखता है. वैसा ही तुनकमिजाज होता है. एक निरीक्षण समिति के दौरे पर करीब दो-तीन लाख तक खर्च हो जाता है.

सरकारी कार्यालयों-बैंकों आदि में राजभाषा के काम में काहिलों की फौज लगी है. इनका काम कितना सार्थक है? कभी सरकार ने इसका मूल्यांकन नहीं कराया. बेशुमार पैसा अनुत्पादक और उद्देश्यहीन कार्यों पर खर्च हो रहा है. अगर हिंदी के नाम पर कुछ लोगों को नौकरी देना ही सरकार का उद्देश्य है, तो राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति ठीक है, लेकिन अन्य भाषा के लोगों के साथ यह अन्याय क्यों?

हाल ही में सरकार ने अगले वर्ष हिंदी के विकास के लिए दो करोड़ रुपये खर्च का प्रावधान किया है. अगर यह पैसा उद्देश्यहीन अनुवादों, जलसों और तिकड़मी साहित्यकारों के बीच ही पहले की तरह बंट जाना है, तो इसे बंद करने की मांग होनी चाहिए. इस गरीब मुल्क में पानी के लिए तड़पते बच्चों पर वह खर्च ज्यादा सार्थक होगा, बनिस्बत हिंदी के ठेकेदारों की जेब में पैसा जाने के.

हिंदी राज्याश्रित नहीं थी, तो पूरे देश में लोकप्रिय थी. आज भी है, चंद दिनों पूर्व तामिलनाडु विधान परिषद में सत्तारूढ़ अन्ना द्रमुक के सदस्य के. सुप्पू ने तमिलनाडु के लोगों को हिंदी सोखने-पढ़ाने की जोरदार मांग की थी. उनकी इस मांग से पूरी परिषद सन्न रह गयी है. उनका कहना था कि ‘हम विदेशी भाषा अंगरेजी को बढ़ाने के लिए खर्च कर रहे हैं, तो हिंदी के लिए क्यों नहीं? उत्तर भारत और बंबई में हमारे यहां से जो लोग आजीविका की तलाश में जाते हैं, उन्हें भाषा की जानकारी न होने के कारण मुसीबतें झेलनी पड़ती है.’ इसके बाद सुप्पू को धमकियां दी गयीं, वस्तुत: सरकार हिंदी के नाम पर होनवाले खर्च का कुछ अंश दक्षिण भारत में खर्च करे, तो इसके सुखद परिणाम मिलेंगे, लेकिन हिंदी के लिए यह दीर्घकालीन नीति बनायेगा कौन?

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