-हरिवंश-
एडम स्मिथ अर्थशास्त्र के जनक माने जाते हैं. उनके दो महत्वपूर्ण सिद्धांत थे. पहला, मूल्य का सिद्धांत, आगे चल कर मार्क्स ने स्मिथ के इस सिद्धांत की वैज्ञानिक संदर्भों से व्याख्या की. स्मिथ का दूसरा सिद्धांत, जनसंख्या से संबंधित था. उनका मानना था कि ‘मानव समुदाय अपनी प्रजनन शक्ति से पीड़ित रहेगा.’ बाद में इसी मान्यता के आधार पर माल्थस ने ‘जनसंख्या-सिद्धांत’ प्रतिपादित किया.
माल्थस अपने इस सिद्धांत के कारण आज भी चर्चित हैं. वे ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कॉलेज में पढ़ाते थे. उनका निष्कर्ष था कि सामान्य स्थिति में जनसंख्या ज्यामितिक दर से बढ़ती है यानी 2, 4, 8 … की रफ्तार से. इस अनुपात में खाद्यान्न में मामूली बढ़ोतरी (2, 3, 4… की गति से) होती है. इस कारण असंतुलन होता है और प्रकृति इसे नियंत्रित करती है. अकाल, युद्ध, ज्वालामुखी और प्राकृतिक विपदाएं जनसंख्या-विस्फोट पर अंकुश रखेंगी. यह माल्थस का निष्कर्ष था. दुनिया में जब भी बड़े पैमाने पर दुर्घटना होती है, माल्थस याद किये जाते हैं. भला यह कैसे संभव था कि इस सदी की सबसे भयंकर दुर्घटना के अवसर पर उन्हें याद नहीं किया जाता.
कोलंबिया में ज्वालामुखी से रातोंरात 20,000 लोग मारे गये व करीब इतने ही लापता हैं. अंतिम बार 1595 में यहां विस्फोट हुआ था. भूगर्भशास्त्रियों की मान्यता थी कि यहां कुछ खास नहीं होगा. इधर ज्वालामुखी से लावा निकल रहा था, उधर स्थानीय रेडियो बार-बार लोगों को भरोसा दिला रहा था कि घबड़ाने की बात नहीं है. अंतिम क्षणों में यह आवाज भी डूब गयी. पश्चिमी प्रेस जगत ने माल्थस की याद के साथ इस घटना का उल्लेख किया था. पता नहीं माल्थस अर्थशास्त्री के साथ-साथ ज्योतिषी भी थे या नहीं? ऐसी आकस्मिक घटनाओं और प्राकृतिक विपदाओं के समय माल्थस का बार-बार उल्लेख करने का क्या अर्थ है.
माल्थस मूलत: समाजविज्ञानी थे, भविष्यवक्ता नहीं. अगर हम ऐसी घटनाओं के साथ माल्थस का नाम जोड़ कर ही संतुष्ट हो जाते हैं, तो कहीं-न-कहीं से हम नियतिवादी हैं. मनुष्य की तर्क शक्ति या कर्म में हमारा विश्वास नहीं है. पश्चिम पत्र-पत्रिकाओं की मानिंद हम भी पुराण या वेद को उद्धृत करें, तो हमें अज्ञानी, अपढ़, गंवार जैसे अनेक विशेषणों से संबोधित किया जाता है.
इस घटना को पश्चिमी देशों ने महत्वपूर्ण नहीं माना. यह एक दुखद भविष्य का भयानक संकेत है. संगीत और व्यथा की कोई भाषा नहीं होती. ज्वालामुखी से पीड़ित लोगों की व्यथा हमारी पूरी सभ्यता-मूल्यों व वैज्ञानिक विकासों के लिए चुनौती है. लावा के नीचे दबे एक 12 वर्षीय बच्चे को बचाव दल ने निकाला. अपने सगे-संबधियों को उसने पुकारा, फिर दहाड़ मार कर वह बेहोश हो गया. एक बूढ़े ने खोजी दल से कहा ‘मुझे मत निकालो, यहीं दफना दो. क्या बचा है अब जीने के लिए.’ उस श्मशान में एक बूढ़ी औरत खोजी दल को देख कर बिलखने लगी.
इन लाखों लोगों की जो दुनिया उजड़ गयी, वह किसी हिरोशिमा से कम भयावह नहीं है. दुनिया में न्याय, लोकप्रिय व समता के स्वघोषित प्रहरी देशों ने इस घटना को तरजीह नहीं दी. कोलंबिया को संकट से उबारने के लिए दुनिया के विभिन्न भागों से अपेक्षित हाथ आगे नहीं आये. जिन दिनों यह घटना हुई. उसके चंद दिनों बाद ही दुनिया के तथाकथित दो सरताजों की जिनीवा में बैठक हो रही थी. रेगन या गोर्बाचौफ ने किस रंग के कपड़े पहने, क्या खाये. ऐसी सूचनाएं अखबारों में खूब छपती रहीं. कोलंबिया की इस भयावह दुर्घटना पर दुनिया में संवेदना की लहर न फैले, इसका क्या अर्थ है? हमारे समाज की संवेदना भोथरा गयी है.
मशीनीकरण व ऑटोमेशन से हमारी पूरी सभ्यता पंगु हो रही है. कारण इन चीजों का ताल्लुक उन भावनाओं से नहीं जो समाज में प्रत्येक को भावुक, कल्पनाशील और नैतिक रूप से सजग बनाती हैं. औद्योगिक क्रांति का यह अंतिम चरण है. इलेक्ट्रॉनिक्स युग की दहलीज पर हम खड़े हैं. यंत्र मानव के पर्याय हो गये हैं. यह यथार्थ है कि मन जैसे-जैसे कठोर होता है, उसमें मानसिक चिंतन और विकास की क्षमता एवं कल्पनाशीलता कम होती जाती है. इस समाज में मन का कठोर होना स्वाभाविक है. औद्योगिक समाज का प्रतिफल है, कठोरता.
सभ्यता के विकास के क्रम में संपत्ति व सत्ता का महत्व लोगों ने समझा. आज दुनिया में मानव के लिए जीवन से महत्वपूर्ण सत्ता व संपत्ति है. परिणामस्वरूप, मनुष्य एकांगी हो गया है. समूह के साथ उसका रागात्मक संबंध टूट गया है. इसी कारण सत्ता की होड़ व संहारक शस्त्रों संबंधी वार्ता को पश्चिमी मीडिया ने काफी महत्व दिया, और कोलंबिया की घटना को नजरअंदाज किया.
आज विश्व के तमाम राजनेता कह रहे हैं कि शस्त्रों की होड़ से हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं. इस कारण नि:शस्त्रीकरण होना चाहिए, लेकिन नि:शस्त्रीकरण से भी आवश्यक है मानव मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयास. पहले वीरोचित कार्यों व निर्बलों की रक्षा के लिए शस्त्रों का प्रयोग होता था. अब शस्त्र के ये दोनों सांस्कृतिक मूल्य नष्ट हो चुके हैं. इसी कारण यूरोप से लेकर छोटे विकासशील देशों में भी अणु युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं. हिरोशिमा को न दुहराये जाने की मांग होती रही है. जिस दिन ‘मानवीय बोध’ मर जायेगा. इन चीजों के खिलाफ आवाज नहीं उठेगी. लोगों को आत्मघाती संघर्ष में ही उपलब्धि का बोध होगा. इस कारण इन मूल्यों की पहरेदारी आवश्यक है.