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फिर चाहिए झारखंड राज्य

बिहार में पुन: झारखंड की मांग उठ रही है. झारखंड पार्टी के नेता अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, तो कांग्रेसी विधायक इसे केंद्र शासित क्षेत्र घोषित कराने के लिए आंदोलन चला रहे हैं. वस्तुत: आज छोटानागपुर में शोषण, पिछड़ापन और अत्याचार सरकारी व्यवस्था की देन हैं, लेकिन बाहर का विभाजन इसका इलाज नहीं […]

बिहार में पुन: झारखंड की मांग उठ रही है. झारखंड पार्टी के नेता अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, तो कांग्रेसी विधायक इसे केंद्र शासित क्षेत्र घोषित कराने के लिए आंदोलन चला रहे हैं. वस्तुत: आज छोटानागपुर में शोषण, पिछड़ापन और अत्याचार सरकारी व्यवस्था की देन हैं, लेकिन बाहर का विभाजन इसका इलाज नहीं है. यह स्थिति कमोबेश पूरे बिहार में है. आंदोलनकारियों से मिलने के बाद हरिवंश की रिपोर्ट.

पिछले 40 वर्षों से चल रहे अलग झारखंड राज्य की मांग फिर तेज हो गयी है. मूल रूप से बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश के 21 जिलों को मिला कर एक झारखंड राज्य की कल्पना पुरानी है.अलग झारखंड राज्य का पहला प्रयास 1939 में हुआ था. इस वर्ष ‘छोटानागपुर आदिवासी महासभा’ गठित की गयी थी. बाद में झारखंड पार्टी ने अलग राज्य के लिए आंदोलन चलाया.

सन 60 के दशक में झारखंड पार्टी बिहार की मुख्य विरोधी पार्टी थी. इसमें 50 से अधिक विधायक थे. तब इस पार्टी के मशहूर नेता थे, स्वर्गीय जयपाल सिंह. आदिवासियों के वे एकछत्र नेता थे. बाद में अपने समर्थकों के साथ वे कांग्रेस में शामिल हो गये और अलग राज्य की मांग दब गयी. वैसे आदिवासियों के दूसरे संगठन समय-समय पर अलग राज्य की मांग करते रहे. हाल में शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो ने भी अलग राज्य के लिए आंदोलन चलाया. रामजयपाल सिंह के पुत्र जयंत जयपाल सिंह भी अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए कुछ दिनों पूर्व राजनीति में आये हैं, लेकिन उनमें न अपने पिता का करिश्मा है और न ही आदिवासियों के साथ आत्मसात होने की कला.

आजकल अलग झारखंड के लिए आंदोलन चला रहे हैं, एन. इ. होरो. होरो एक बार विरोधी दलों की ओर से उपराष्ट्रपति पद लिए चुनाव भी लड़ चुके हैं. फिलहाल झारखंड पार्टी के अध्यक्ष हैं. प्रतिवर्ष यह पार्टी 31 अक्तूबर ‘मां दिवस’ के रूप में मनाती है. झारखंड का शाब्दिक अर्थ है, ‘जंगल का टुकड़ा’ यानी जंगल में बसे क्षेत्रों को मिला एक राज्य.

‘झारखंड राज्य मांग दिवस’ के अवसर पर एन. इ. होरो ने रांची में कहा कि ‘‘आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति को बिहारी नष्ट कर रहे हैं.’’ इस मांग को साकार करने के लिए होरो अपनी सेना का गठन कर रहे हैं. योजना के अनुसार प्रत्येक गांव में 25 से 30 युवकों को झारखंड सेना में बहार किया जायेगा. जिस गांव के युवक इस सेना में शामिल नहीं होंगे, बगल के गांव के लोग उन्हें दंडित करेंगे. यह दंड किस प्रकार का होगा, इसका खुलासा अभी होरो ने नहीं किया है. इतना निश्चित है कि आदिवासी क्षेत्रों में फिर अशांति फैलेगी और बिहार सरकार की नासमझी से यह समस्या गंभीर होगी.

कांग्रेस (इं) के स्तर पर भी छोटानागपुर को अलग करने का प्रयास हो रहा है. पिछले दिनों पटना सचिवालय में छोटानागपुर-संथाल परगना के आदिवासी सांसदों तथा विधायकों की बैठक थी. इस बैठक में केंद्रीय गृहमंत्री शंकरराव चह्वाण और मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे भी उपस्थित थे. वहां ‘छोटानागपुर-संथाल परगना’ को केंद्र शासित राज्य घोषित करने की मांग हुई. प्रस्ताव भी पास हुआ. इस मांग के अगुआ हैं, देवेंद्रनाथ चंपिया. चंपिया कांग्रेस (इं) के विधायक व जिला परिषद, सिंहभूम के अध्यक्ष हैं.

नवंबर के तीसरे सप्ताह में देवेंद्रनाथ चंपिया के नेतृत्व में करीब 30 विधायकों ने हस्ताक्षर कर एक ज्ञापन राज्यपाल को दिया है. इसकी प्रति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को भी प्रेषित की गयी है.ज्ञापन में कहा गया है कि ‘छोटानागपुर के विकास के लिए असीमित धन खर्च किया गया. लेकिन उसी अनुपात में यह क्षेत्र पिछड़ता गया है. आजादी के बाद छोटानागपुर-संथाल परगना में जनजाति आबादी 80 फीसदी थी. हाल ही जगनणना में यह मात्र 30 फीसदी रह गयी है. बिहार के द्वारा इस क्षेत्र में शोषण का विस्तार से इसमें चर्चा की गयी है.

ज्ञापन के अनुसार ‘बिहार के अन्य क्षेत्रों में प्रति 100 किमी में 20 किमी पक्की सड़क है. जबकि छोटानागपुर-संथाल परगना के प्रति 100 किमी में 8 किमी ही पक्की सड़क है. सरकारी नौकरियों में चपरासी से ले कर ऊपर तक बाहर से आये लोग हैं. बिहार के बाकी हिस्से में 50 फीसदी सिंचित भूमि है, तो छोटानागपुर-संथाल परगना में 5 फीसदी सिंचित भूमि है. बिहार के 40 फीसदी गांवों में बिजली पहुंच चुकी है, तो यहां 5 फीसदी से भी कम गांवों में बिजली है. वन तथा खनिज संपदाओं के कारण छोटानागपुर-संथाल परगना से बिहार राज्य को 70 फीसदी राजस्व की प्राप्ति होती है, लेकिन राज्य के वार्षिक बजट में कुल राजस्व का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा इस क्षेत्र के विकास कार्यों में व्यय किया जाता है. गृह मंत्री के समक्ष केंद्र शासित राज्य के लिए जो प्रस्ताव पास हुआ, उसमें यह भी कहा गया कि इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के लिए बाहर से आये लोग दोषी हैं.

देवेंद्रनाथ चंपिया भारत सरकार द्वारा भारतीय मामलों के मंत्री (इंग्लैंड) को 22 अगस्त 1911 को लिखे गये पत्र का हवाला देते हैं. इस पत्र में कहा गया है कि ‘बंगालियों की तुलना में इन्हें (बिहारियों) अवसर प्राप्त नहीं हैं. विकास के लिए इन्हें समान अवसर नहीं दिये गये हैं. इस कारण ये आवाज उठाते हैं कि ‘बिहार, बिहारियों के लिए’… बिहार के अधिकांश अधिकारी बंगाली हैं. इस कारण जब तक बंगाल से बिहार को अलग नहीं किया जाता, इस प्रदेश का विकास नहीं हो सकता.’

चंपिया के अनुसार ‘छोटानागपुर-संथाल परगना के साथ भी यही बात है. जब तक बिहार से इसे अलग नहीं किया जाता है, इस क्षेत्र का विकास असंभव है.’यह सही है कि उत्तर बिहार के लोग छोटानागपुर की समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं. श्रीमती गांधी के जमाने में रामदुलारी सिन्हा गृह राज्य मंत्री थीं. तब कोल्हान आंदोलन चल रहा था. रांची के एक संवाददाता सम्मेलन में ‘कोल्हान’ से संबंधित एक सवाल जब उनसे पूछा गया, तो उन्होंने बगल में बैठे अधिकारी से पूछा कि ‘कोल्हान किधर है?’ रामदुलारी जी बिहार की हैं, बिहार की राजनीति से उनका जुड़ाव कई दशकों से है, फिर भी तत्कालीन गृह राज्यमंत्री को ‘कोल्हान’ की जानकारी नहीं, बिहार के पूरे राजनेताओं के साथ है. संवेदना व सौहार्द्र के स्तर पर वे दक्षिण बिहार के लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ पाये हैं. सरकारी अधिकारी छोटानागपुर को चरागाह समझते हैं.
छोटानागपुर में आदिवासियों का हर स्तर पर शोषण होता है. बाजार में उनका शोषण महाजनों व व्यापारियों द्वारा होता है. ये लोग एक ओर आदिवासियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को सस्ते दर पर खरीदते हैं, दूसरी ओर अपना माल महंगा बेचते हैं. आदिवासी अपनी चीजों की कीमत से वाकिफ नहीं होते. उदाहरण के दौर पर आदिवासी नमक के पांच या दस गुने तौल के बराबर चिरंजी के बीजों का विनिमय करते हैं, या बहुत ही सस्ते में बेच देते हैं. यह बीज महानगरों में प्रति किलो 80 रुपये की दर से बिकता है. उधार लेनेवाले आदिवासियों को बहुत अधिक ब्याज देना पड़ता है. ब्याज रुपये में न देकर वस्तुओं के रूप में अदा किया जाता है. साल भर के लिए ब्याज दर 125 फीसदी है. यह शोषण ‘दिकू’ लोगों द्वारा होता है.

रिचर्ड जस्टिन स्वर्गीय रामजयपाल सिंह के करीबी मित्र रहे हैं. चाईबासा में रहते हैं. संविद सरकार में मंत्री भी थे. उनका कहना है कि ‘‘सर्वप्रथम आदिवासियों पर अपनी पहचान नहीं थोपिए. मानव बनिए, तब उनसे रागात्मक संबंध हो सकता है. बाहरी लोगों ने आदिवासियों के साथ समानता के आधार पर व्यवहार नहीं किया.’’ आजादी के तुरंत बाद हिंदुस्तान में आदिवासियों के विकास के लिए ‘आदम जाति सेवा मंडल’ का गठन हुआ. डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके सचिव थे. उनकी पहल पर नारायण जी उतर बिहार से इस सेवा मंडल में आये. इस मंडल द्वारा सैकड़ों स्कूल खोले गये. इन स्कूलों में नारायण जी ने अपने ही क्षेत्र के लोगों को रखा. नारायण जी ने रामदास साहू को चाईबासा भेजा. वह ‘जीवनदानी’ बन कर आदिवासियों के बीच काम करने आये. के. बी. सहाय छात्रावास में वह भंडारी थे. आज रामदास साहू के पास 10 लाख रुपये से अधिक की संपत्ति है. नारायण जी के पास स्वयं अथाह संपत्ति है. भारत सरकार ने नारायण जी को आदिवासी समस्याओं का विशेषज्ञ माना और बोमडीला (असम) भी भेजा.

‘आदिवासियों का जीवन जमीन से जुड़ा है. छोटानागपुर में कोल्हान ऐसा क्षेत्र है, जहां मुगलों या अंगरेजों का शासन नहीं हुआ. 1830 के आसपास यहां अंगरेज आये, तो उन्हें आदिवासी सरदारों से समझौता करना पड़ा. यही विल्किंसन कानून कहलाया. इसी कानून के तहत यहां शासन होता था. स्वतंत्र भारत के लोग अगर अभी भी छोटानागपुर को चरागाह समझेंगे, तो इस क्षेत्र का विकास कैसे होगा.’

आदिवासियों की सहज-सीमित संस्कृति पर ‘दिकू’ (बाहरी लोगों) लोगों का प्रत्याक्रमण हुआ. इसमें मिशनरियों से लेकर राजनीतिक दलों एवं अन्य स्वार्थवाले तत्व शरीक थे. विकास के ‘संवेदनहीन’ रास्ते ने आदिवासियों की रीढ़ तोड़ दी. बाहरी प्रतिमानों -आदर्शों को इन पर लादा गया. परिणाम, न तो ये पूर्णतया ‘प्राचीनता’ से मुक्त हो सके और न ही ‘नवीन’ हो सके. इस संक्रमणकाल में अनेक विकृतियां उभरीं– पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण, लूटमार डकैती. जो शब्द कभी इधर सुने नहीं जाते थे, अब वे साक्षात कर्मों में तब्दील हो रहे हैं.

रोजगार की तलाश में हजारों आदिवासी बंधुआ मजदूर बन कर बाहर जाने को विवश हैं. आदिवासियों के सर्वांगीण विकास के लिए कोई सुनियोजित योजना सरकार के पास नहीं है. प्रशासन के स्तर पर भी ‘कानूनों में एकरूपता’ का प्रयास कभी नहीं हुआ. कोल्हान क्षेत्र में अंगरेजों ने ‘मुंडा-मानकी’ प्रथा को प्रोत्साहित किया. मुंडा, गांव का वंशानुगत प्रधान होता है, मानकी 5-6 गांवों का एक प्रमुख होता है. इन्हें राजस्व वसूलने व अपराध नियंत्रित करने के अधिकार दिये गये. वसूल होनेवाले लगान का एक निश्चित प्रतिशत कमीशन के रूप में ‘मुंडा’ व ‘मानकी’ को मिलता है. अंगरेजों के साथ से ही कोल्हान क्षेत्र के लिए अलग से ‘कोल्हान अधीक्षक’ का पद भी है. पूरे बिहार में अपने ढंग का यह अनोखा पद है. एक तरफ यह प्राचीन व्यवस्था कायम है. दूसरी तरफ सरकार ने इसके समानांतर अलग शासन पद्धति लागू की. इससे आपस में संघर्ष आरंभ हुआ.

स्वतंत्रता के बाद पंचायती राज्य योजना इधर लागू हुई. इससे एक ही जगह सत्ता को दो केंद्र हो गये. ग्राम प्रधान और सरपंच तथा मुंडा और मानकी. सरकारी कारिंदों ने इनके कार्यक्षेत्र का विभाजन नहीं किया. इस कारण आपस में ही इनसे संघर्ष होने लगे. विकास का काम पंचायतों के माध्यम से होने लगा. मुंडा व मानकी लोगों को लगा कि उनके परंपरागत अधिकार हड़पे जा रहे हैं. सरकार की इस नासमझी से आदिवासी आपस में ही लड़ने लगे. यह सिर्फ कोल्हान में ही नहीं हुआ, बल्कि पूरे छोटानागपुर में ऐसा ही हो रहा है.

आजादी के बाद जनजातियों के विकास के नाम पर इस क्षेत्र के लिए अरबों रुपये की राशि आवंटित हुई. लेकिन अधिकांश पैसा सरकारी अधिकारी व ठेकेदार हड़प गये. कागज पर दिखाया गया कि सुदूर गांवों में कुएं, नल आदि लगाये गये हैं, पर वास्तविकता यह है कि ये पैसे अधिकारियों, ठेकेदारों व राजनेताओं की जेब में गये. इन शोषकों का उत्स पटना सचिवालय में है. यही कारण है कि अब सीधे-सादे आदिवासी यह सोचने पर मजबूर हो गये हैं कि सरकार महज पंजाब व असम के ‘आंदोलनकारियों की मांगें’ ही सुनती है.

आदिवासियों में उग्रवादी तबके भी सक्रिय हैं. इन्हें बाहर से मदद मिलती है. रांची और हजारीबाग जिलों में पिछले दिनों अनेक बैंक लूटे गये. आदिवासियों के अंदर जो अंधविश्वास है. उसे दूर करने की भी कोशिश नहीं हो रही है. आदिवासियों के बीच अंधविश्वासों व कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करेनवाले संगठन भी नहीं हैं. इस क्षेत्र में बड़े राजनेताओं ने शराब की अवैध भट्ठियां खोल कर शराबखोरी को बढ़ावा दिया है. आदिवासी शराब पी कर हिंसक होते हैं. रांची जिले के सुदूर गांवों में औसतन 15 से 18 हत्याएं प्रतिमाह होती हैं. पिछले माह खूंटी के जंगल में एक ही परिवार के पांच व्यक्तियों को गरदन काट कर मार डाला गया. पिछले एक-दो वर्ष से इधर ‘चोर-डाकू काटो अभियान’ व ‘डायन काटो’ अभियान चल रहे हैं.

आदिवासी हत्या कर स्वयं पुलिस चौकी पहुंच जाते हैं. हाल ही में नामकुम व डोरंडा में भी डायन होने की आशंका में दो वृद्ध महिलाओं की हत्या कर दी गयी. पिछले सप्ताह रनिया थाने की एक 60 वर्षीय वृद्ध आदिवासी महिला को चाईबासा के पास मार डाला गया. मारनेवाले आदिवासियों को आशंका थी कि वह डायन है. आदिवासियों के बीच जो सामाजिक बुराइयां हैं, जब तक उन्हें दूर करने का प्रयास नहीं होता, तब तक छोटानागपुर की समस्याएं नहीं सुलझेंगी. आदिवासी आपस में लड़ते रहेंगे. मिशनरियां व दिकू उन्हें अपने हितों के लिए इस्तेमाल करेंगे और इन सबसे मुक्ति के लिए आदिवासी युवक ‘उग्र’ होंगे. इन उग्र युवकों को को दिग्भ्रमित करने का प्रयास बाहरी शक्तियों द्वारा होता रहेगा.


आदिवासियों में भी अनेक समुदाय है. उनकी संस्कृति, रहन-सहन, सोच व जीवन शैली अलग-अलग हैं. इनमें एक-दूसरे के प्रति अंधविश्वास भी है. अत: झारखंड राज्य या मात्र केंद्र शासित प्रदेश बना देने से इनकी समस्याएं नहीं सुलझ सकती हैं.

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