सांसदों को जनहित की चिंता नहीं है!

-हरिवंश- स्वतंत्र भारत की संसद करीब 35 वर्ष की जवान उम्र में ही बूढ़ी हो गयी है. उसकी धमनियों में अब परिवर्तन का लहू ही नहीं है. इस बेजान संसद में लगता है सांसदों के पास मुद्दे ही नहीं बचे हैं. हालांकि ‘लोकसभा में संसद सदस्यों’ के संबंध में सर्वे करनेवाली एक समिति का निष्कर्ष […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 24, 2016 2:03 PM

-हरिवंश-

स्वतंत्र भारत की संसद करीब 35 वर्ष की जवान उम्र में ही बूढ़ी हो गयी है. उसकी धमनियों में अब परिवर्तन का लहू ही नहीं है. इस बेजान संसद में लगता है सांसदों के पास मुद्दे ही नहीं बचे हैं. हालांकि ‘लोकसभा में संसद सदस्यों’ के संबंध में सर्वे करनेवाली एक समिति का निष्कर्ष है कि इस लोकसभा में अधिक शिक्षित सदस्य हैं. डॉक्टर हैं, इंजीनियर, प्रशासक और अभिनेता हैं, फिर भी यह शिक्षित संसद निर्जीव है. मौजूदा संसद में ‘वाक आउट’ फैशन बन गया है. गंभीर मसलों पर जीवंत चर्चा अब नहीं होती. सांसदों की निगाह में या तो प्राथमिकताएं बदल गयी हैं या उनमें दृष्टि ही नहीं है. आज देश के एक बड़े हिस्से में भुखमरी है, अकाल है, लेकिन 21वीं सदी की मनमोहक चर्चा करनेवाले हमारे सांसदों को आधुनिकीकरण, कंप्यूटीकरण और तकनीकीकरण की चिंता सता रही है.

लोकतंत्र का प्रमुख पाया यानी संसद ही जब निरर्थक हो जाये, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के शव को कंधे पर ढोने का स्वांग कब तक चलेगा? साठ और सत्तर के दशक में भी सत्ता पक्ष में दो तिहाई सदस्य होते थे, लेकिन विरोध पक्ष के चंद प्रखर सांसदों के हाथ में ही सरकार की नकेल रहती थी. पूरी सरकार को कठघरे में खड़ा करनेवाले तत्कालीन चंद विरोधी सांसद लोकमुद्दों को ही उठाते थे. आज मुद्दे अनगिनत हैं, लेकिन उन पर चर्चा नहीं होती. क्योंकि जो मुद्दे हैं, वे ऐसे भारत से संबंधित हैं, जहां भयंकर गरीबी है, अशिक्षा है, शोषण है और इजारेदार राजनेता इन्हीं लोगों के बल जिंदा हैं. लेकिन हमारे मौजूदा सांसद इस भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करते.

संसद का शीतकालीन अधिवेशन चल रहा है. नवंबर के शुरू में ही एक गंभीर खबर अखबारों में छपी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की एक रपट के अनुसार पिछले वर्ष करीब 4 अरब रुपये स्विट्जरलैंड के बेनामी खातों में भारतीय नागरिकों ने जमा कराये. इस बैंक में भारत के समृद्ध और नवधनिकों ने कुल 13 अरब 32 करोड़ रुपये जमा किये हैं. यह महज एक विदेशी बैंक में जमा भारतीय पूंजी का लेखा-जोखा है. अगर हांगकांग, मैनहटन, नेपाल, न्यू जरसी, फिलाडेलफिया आदि के बैंकों में जमा भारतीय पूंजी को जोड़ा जाये, तो कुल रकम स्विट्जरलैंड में जमा राशि (1332 करोड़ रुपये) से कई गुना ज्यादा होगी, उल्लेखनीय है कि 1984-85 तक विदेशों से ऋण और मदद में कुल मिला कर भारत के तीस हजार करोड़ के आसपास पूंजी मिली है.

स्पष्ट है कि जितनी पूंजी बाहर से अंदर आयी, उतनी ही अंदर से बाहर गयी. लेकिन सरकार ‘गरीबी हटाओ’ का नाटक कर रही है. इससे भी गंभीर बात है कि जब देशी पूंजी ‘नवधनिकों’ द्वारा विदेशों में भेजी जाती है, तो अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है. पश्चिमी ताकतें ऐसे ही अवसरों की ताक में रहती हैं, ऐसे संकटपस्त हालात से उबरने के नाम पर इन्हीं नवधनिकों के सहारे ये दानी पश्चिमी देश, विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को अपने पास गिरवी रख लेते हैं. तोड़फोड़ करते हैं और पंगु बना देते हैं. पुराने उपनिवेशों के संभ्रांतों ने इन्हीं नवधनिकों के सहारे मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राजील, वेनेजुएला को पंगु पना दिया है. इन देशों के संपन्न तबकों ने विदेशों में इतने पैसे जमा किये हैं कि इन देशों की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है.


समाज सुधार या खरी बात करनेवाले लोगों से भी राजनेताओं-सांसदों को परहेज है. उड़ीसा के हाजी मोइउद्दीन अहमद आधुनिक सोच के बूढ़े इंसान हैं. भारतीय प्रशासनिक सेवा के अवकाशप्राप्त अधिकारी श्री अहमद ने एक उड़ीसा दैनिक में दो लेख लिखे और उर्दू में एक परचा, इन लेखों में मुसलमान मुल्लाओं, कट्टरपंथियों और धार्मिक नेताओं द्वारा शोषण और मुसलमानों को पिछड़ा बनाये रखने की दूषित साजिश का परदाफाश किया गया है. इस लेख के छपते ही उड़ीसा में तूफान आ गया. मुल्लाओं और सत्ता पक्ष के मुसलिम राजनेताओं ने खुल्लमखुल्ला जिहाद बोल दिया.

कुछ लोगों ने श्री अहमद को ही साफ करने का संकल्प किया. एक बैठक में कुछ अतिवादी लोगों ने श्री अहमद से सफाई मांगने के लिए एक समिति भी बनायी. आखिर इस ‘लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष’ देश में संविधान नहीं! सत्ता के संरक्षण में पलनेवाले अपराधी गिरोह क्या विरोधियों को जिबह करेंगे. व्यक्तिगत आजादी, विवेक और समाज को सही रास्ते पर ले चलने की बात करनेवाले सत्तर के दशक तक सक्रिय थे, आज उन्हें दबा दिया गया है. मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के नाम पर हम आगे जरूर बढ़े हैं, पर सोच में हम पिछड़े हैं और सामंती बर्बरता के पुराने युग में लौट रहे हैं. सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़नेवाला न कोई संगठन है, न समर्पित लोग. ऐसी स्थिति में संसद में ऐसे सवाल न उठे, तो इस चौतरफा चुप्पी का निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है.


ये दोनों मुद्दे ‘लोक’ से नहीं जुड़े हैं, ऐसी दलील देनेवाले भी हैं. लेकिन सूखा-अकाल का सवाल तो सार्वजनिक है. उड़ीसा के कालाहांडी में पिछले 20 वर्षों से लगातार सूखा है. पिछले साल नौ राज्यों में बारिश की कमी के कारण, जो अकाल पड़ा, उसके शिकार लोगों की संख्या नौ करोड़ से कम नहीं है. पिछले आठ महीनों में 500 आदिवासी मरे हैं. राजस्थान सरकार के अनुसार वहां दो करोड़ 70 लाख लोग अकाल के साये में हैं. लागतार तीसरे साल पड़नेवाले सूखे से संकट पैदा हो गया है. तीन करोड़ से भी अधिक मवेशी मौत के कगार पर हैं. कुंओं में पानी की सतह 30 से 60 फुट नीचे चली गयी है.
कर्णाटक में भी भयानक सूखा है. कई जगहों पर पीने, नहाने तथा खाना पकाने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है. गुजरात के राजकोट में हाल बेहाल है. वहां टैंकरों से पानी ढोया गया. 1985 में महाराष्ट्र के एक जिले में 25000 पशु मर गये. जानवर कौड़ी के मोल बिके. भूख के कारण आदिवासियों की निरंतर मौतें हो रही हैं, फिर भी अवाम की संसद चुप है, क्योंकि उसकी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं.

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