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बांझ हो गयी है हमारी राजनीति

-हरिवंश- छठे दशक की घटना है. दूसरा आम चुनाव आसन्न था. उन्हीं दिनों गोवा मुक्ति संग्राम के नायक मधु लिमये, गोवा जेल से रिहा हो कर बंबई लौटे थे. पूरे रास्ते में उनकी अगवानी के लिए लोग उमड़ पड़े थे. उन दिनों महाराष्ट्र एकीकरण समिति की अगुवाई में अलग मराठा राज्य के लिए उग्र आंदोलन […]

-हरिवंश-

छठे दशक की घटना है. दूसरा आम चुनाव आसन्न था. उन्हीं दिनों गोवा मुक्ति संग्राम के नायक मधु लिमये, गोवा जेल से रिहा हो कर बंबई लौटे थे. पूरे रास्ते में उनकी अगवानी के लिए लोग उमड़ पड़े थे. उन दिनों महाराष्ट्र एकीकरण समिति की अगुवाई में अलग मराठा राज्य के लिए उग्र आंदोलन चल रहा था. बंबई में युवा मधु लिमये की अगवानी में लाखों लोगों की उल्लासित भीड़ इकट्ठा थी. स्वागतार्थियों की उस भीड़ को संबोधित करते हुए मधु लिमये ने अलग मराठा राज्य के लिए चल रहे तत्कालीन आंदोलन के विरुद्ध भाषण दिया.

स्वागतार्थी उग्र हो गये. उन्होंने पत्थर फेंकना आरंभ किया. मधु जी आहत हुए. लेकिन अपनी बात पर डटे रहे. वह मंच से भी नहीं उतरे. भीड़ स्वत: छंटती गयी. घायल मधु लिमये चंद सौ लोगों की सभा संबोधित कर अर्द्धरात्रि में घर लौटे.मधु जी लोकसभा चुनाव के लिए भी खड़े हुए. मराठावाद-क्षेत्रीयता के खिलाफ वह अपनी पूर्व मान्यताओं पर उसी दृढ़ता से डटे रहे. धारा के विरुद्ध सही बात पर अड़े रहने के साहस और संकल्प के कारण उनकी हार तय थी. लेकिन गोवा मुक्ति संग्राम के नायक ने अपनी मान्यताओं के साथ समझौता नहीं किया. उन्हीं दिनों कलकत्ता से लोकसभा के लिए समाजवादियों के उम्मीदवार थे दिनेश दासगुप्त. देसी भाषा के सवाल पर अंगरेजी के खिलाफ वह कलकत्ता के अहमन्य बुद्धिजीवियों से वोट मांग रहे थे. उनकी हार भी निश्चित थी. चुनाव में इन दोनों की पराजय के बाद डॉ राममनोहर लोहिया ने दोनों को ‘शानदार हार के लिए बधाई’ का तार भेजा.

ये दृष्टांत उन्हें अटपटे लगेंगे, जो आज किसी भी कीमत पर सत्ता में टिके रहने के षडयंत्र में शामिल हैं या येन केन प्रकारेण सत्ता पाने के लिए लालायित हैं. तब राजनीति मुद्दों के इर्दगिर्द घूमती थी, व्यक्तियों के अहं और निजी पसंद के अनुरूप नहीं. पचास, साठ और सत्तर के उत्तरार्द्ध तक कमोबेश देश की राजनीति में वैचारिक शून्यता नहीं थी. सत्ता की ललक ने वक्ती समझौते की भूख नहीं जगायी थी. हालांकि भारतीय राजनीति में चिंतन की ताजगी या असली मुद्दों पर बहस छेड़ने का काम समाजवादियों ने ही किया.

तीसरे लोकसभा चुनाव में ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया के खिलाफ डॉ लोहिया ने सुखो रानी मेहतरानी को खड़ा किया. तब श्रीमती सिंधिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही थीं. पूरे देश में ‘महारानी बनाम मेहतरानी’ का मुद्दा चर्चा का विषय बन गया. यह कोई शिगूफा नहीं था. महारानी प्रतीक थीं. राजे-राजवाड़ों के सोच, विलासिता, देश के आभिजात्य, द्विजत्व और धन-बल की. मेहतरानी सुखोरानी देश के हजारों वर्ष से पिछड़े दलितों, देशी भाषा, स्वदेशी तकनीक, स्त्रियों की गुलामी और तत्कालीन भद्र व्यवस्था के प्रति संपूर्ण नकार का प्रतीक चिह्न बन गयी थीं. डॉ लोहिया पूरे देश में घूम-घूम कर कहा करते थे कि हजारों वर्ष से जमी चट्टानें सुखो रानी के मुद्दे पर टूटेंगी नहीं, तो दरकेंगी जरूर.

उस दौर में समाजवादियों की नीतिगत बातें या उपदेश महज दूसरों के लिए नहीं थे. 1954 में त्रावणकोर कोचीन में तनुपिल्लै की सरकार ने निहत्थे किसान प्रदर्शनकारियों पर गोली चलायी, तो लोहिया ने अविलंब घटना की न्यायिक जांच और सरकार से इस्तीफे की मांग की. वह चाहते थे कि आचरण-कार्य मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता के आधार पर लोग कांग्रेस और सोशलिस्ट सरकार के बीच फर्क करें.

ऐसी बात नहीं थी कि मुद्दों पर राजनीति करने के काम पर समाजवादियों का ही एकाधिकार था. समाजवादियों के आचरण में कमजोरी और चूक के अनेक दृष्टांत हैं, पर भारतीय राजनीति में मुद्दों पर बात करने-बहस करने में उनकी उल्लेखनीय भूमिका रही है. तब कांग्रेस, साम्यवादी और जनसंघी भी अपनी-अपनी आस्थाओं-मान्यताओं के बल वोट मांगते थे. कांग्रेस, सोशिलस्ट फोरम का अस्तित्व, जनसंघ में मानव एकात्मवाद की बहस, साम्यवादियों के बीच बुर्जुआ राजनीति के प्रति नफरत और स्वतंत्र पार्टी का जन्म ही इस तथ्य के प्रमाण हैं कि मुद्दों और ईमानदार सोच के आधार पर राजनीति में समीकरण बनते-बिगड़ते थे. ‘गरीबी हटाने’, राजे-रजवाड़ों का प्रिवीपर्स खत्म करने’ और ‘बैंकों के राष्ट्रीयकरण’ जैसे मुद्दों ने ही श्रीमती इंदिरा गांधी को घाघ कांग्रेसियों के खिलाफ ताकत दी.

बिहार आंदोलन के सवाल पर कांग्रेस में फूट, मोहन धारिया का इस्तीफा और चंद्रशेखर-रामधन आदि की बगावत मुद्दों के प्रति ईमानदार सोच और प्रतिबद्धता की ही कड़ी थी, जो भारतीय राजनीति में लगातार क्षीण हो रही थी, पर शेष थी.

मुद्दों को नकाब बना कर तिकड़म की रजनीति, अपवित्र सांठगांठ और छल-कपट की राजनीति श्रीमती गांधी और संजय गांधी की देन है. लेकिन जनता पार्टी ने तो आदर्श-मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता की राजनीति से ही लोगों की आस्था खत्म कर दी. रातोंरात लोगों के आदर्श-प्रतिमान बदल गये. उल्टी नीतियां अपनायी गयीं. नीतियां नारों तक सीमित रह गयीं. सिद्धांत वक्ती राजनीतिक गंठजोड़ की भूलभूलैया में खो गये. नर-नारी समता, निजी संपत्ति का सीमा निर्धारण, पिछड़ी जातियों, आदिवासियों को विशेष सुविधाएं देने यानी एक वैकिल्पक राजनीति की बात भुला दी गयी. इसके बाद अपवित्र गंठजोड़ आरंभ हुए और भारतीय राजनीति बांझपन का शिकार हो गयी. ऐसे दौर में न नये विचार पनपते हैं और न नये मुद्दे उभरते हैं. हां, बीच-बीच में आरिफ मुहम्मद खां जैसे एकाध लोग अवश्य यह साबित करते रहे हैं कि मू्ल्यपरक राजनीति का दौर अभी खत्म नहीं हुआ है. लेकिन यह अपवाद है. वैचारिक स्खलन के ऐसे दौर में राजनीतिक दलों में आपसी टकराव अहं और वर्चस्व के लिए होते हैं, ईमानदार सैद्धांतिक मतभेद के आधार पर नहीं.

पिछले एक दशक के दौरान देश में अनगिनत समस्याएं पैदा हुई हैं. पूरी व्यवस्था उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्गीय के हाथों का खिलौना बन नयी है. आभिजात्य लोगों के संरक्षण-पोषण की चौकसी करनेवाली व्यवस्था की निगाह में आम आदमी हाशिये पर चला गया है. पंजाब में सैकड़ों बेगुनाह लोगों का वध हो रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री-मंत्रियों-नेताओं की मुस्तैदी से चौकसी हो रही है. एक नेता की हत्या होती है, तो हजार सवाल उठाये जाते हैं, पर पंजाब में शिशुओं की अनगिनत हत्याओं के बाद भी राजनीतिक सन्नाटे को कोई आवाज नहीं भेद रही है. आजादी के चालीस वर्षों बाद हरिजनों को मंदिर में प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. महंगाई के कारण देश की 60 फीसदी महिलाओं को चूल्हा जलाने की समस्या है. लेकिन इन मुद्दों पर भारतीय राजनीति में अब बहस-मुबाहसे का दौर खत्म हो गया है.

मौजूदा राजनीति का किस कदर पतन हुआ है, इसके लिए एक ही ताजा उदाहरण पर्याप्त है. बिहार के जहानाबाद में 19 हरिजनों-दुसाधों की हत्या सवर्णों-ताकतवर लोगों ने की. हत्यारे गिरोहों को सत्ता दल के विभिन्न खेमे प्रश्रय देते हैं. लेकिन बिहार विधानसभा के बजट सत्र में मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद और विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा की आपसी राजनीति को ले कर ही तीन-चार दिनों तक शोरगुल होता रहा्, जहानाबाद के मरे हरिजनों-दुसाधों की ओर न सत्ता दल की निगाह गयी और न विरोधी दलों की. आखिर ऐसी राजनीति और विधानसभा की प्रासंगिकता क्या रह गयी है?

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