-हरिवंश-
वहां भी अनेक जेल तोड़ कर कैदी मुक्त करा लिये गये हैं. बासिल की तरह रंगून का इंसिन जेल भी आंदोलनकारियों ने तोड़ डाले. 28 अगस्त को इंसिल जेल के 5000 कैदी ललकारते हुए जेल से बाहर निकल आये बीबीसी के अनुसार सैनिकों ने जेल से निकलते लगभग 1000 कैदियों को मार डाला. लुई सोलहवें की भांति तानाशाह ने विन के भागने की खबर आयीं. फ्रांस क्रांति में पादरियों की अप्रतिम भूमिका रही. बर्मा में भी जन क्रांति की मशाल बौद्ध भिक्षुओं और छात्रों के हाथ में है. फ्रांस की जन-क्रांति के गर्भ से तानाशाही और सैनिक शासक और निरंकुश तानाशाह उदित हुए हैं, पर अभी यह अस्थायी दौर है.
हर क्रांति में सत्ता फुटबॉल की गेंद की तरह कई गुटों के हाथ लगती है, पर उसमें स्थायित्व का अभाव होता है. खुद बर्मा में ने विन के जाने के बाद अनेक लोग गद्दी पर बैठे, पर उन्हें जन आक्रोश के सामने झुक कर गद्दी खाली करनी पड़ी. बर्मा की राजधानी रंगून से लोग भाग रहे हैं. शहर में पुलिस-प्रशासन का नामोनिशान नहीं है. सड़क की खामोशी आंदोलनकारियों की बुलंद आवाज से टूटती है. विदेशी दूतावासों के लोग रंगून से भाग चुके हैं. सबसे पहले अमेरिका, जापान और रूसी दूतावासों के लोग रंगून छोड़ कर चले गये.
17 सितंबर को भारतीय और पाकिस्तानी दूतावास के लोगों को लाने के लिए इंडियन एयर लाइंस का एक चार्टर्ड विमान रंगून भेजा गया. भारत सरकार ने वहां की स्थिति को देखते हुए अपने दूतावास के लोगों को बुलाने का निर्णय लिया. बांगलादेश, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका ने भी भारत से अपने-अपने दूतावासों के लोगों को सुरक्षित निकालने का अनुरोध किया. वैसे रंगून हवाई अड्डा लगभग बंद है.
भारतीय विमान के चालकों को वहां पहुंचने पर सख्त हिदायत दी गयी कि आप हवाई अड्डे से कतई बाहर न निकलें. सैनिक तानाशाहों द्वारा सत्ता हथियाने के पूर्व रंगून हवाई अड्डे से निकलनेवाला यह अंतिम विमान था. भारत-पाक दूतावासों के 55 लोग इस विमान में रंगून से आये.
इस विमान से लौटे भारतीय दूतावास के एक अधिकारी की पत्नी के अनुसार रंगून श्मशान बन चुका है. 17 सितंबर को ही रंगून के 4000 विद्यार्थियों और बौद्ध भिक्षुओं ने उग्र जुलूस निकाला. उनके हाथों में अस्त्र-शस्त्र थे. वे लोग निरपराध जनता की हत्या के लिए दोषी लोगों को दंडित करने की मांग कर रहे थे. उस दिन ऐसा लगा कि अब हम कतई यहां से बाहर नहीं निकल पायेंगे.
‘पिछले तीन महीनों से रंगून लगभग बंद है. प्रदर्शनकारियों का जुलूस और सैनिकों की गाड़ियां ही सड़कों पर दिखती हैं. सभी कार्यालय, बैंक, दुकानें, स्कूल, कॉलेज और यहां तक कि अस्पताल बंद हैं. नौजवानों के अतिरिक्त रंगून की सड़क पर निकलने का साहस कोई नहीं करता. हां! ऐसी स्थिति में अराजकता का कयास स्वाभाविक है, पर लुटेरे-अपराधी बड़े पैमाने पर लूटपाट करने में विफल रहे हैं. क्योंकि नौजवानों और बौद्ध भिक्षु चौकसी कर रहे हैं. दवा के अभाव में रोगी मर रहे हैं. डाक विभाग की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है. खुद बर्मा के निवासी रंगून छोड़ कर अपने-अपने गांव लौट गये हैं. चीजों के भाव आसमान छू रहे हैं. चीनी 30 रुपये प्रति किलो बिक रही है.
मूंगफली का तेल 70 रुपये प्रति किलो हो गया है. पेट्रोल खत्म हो गया है. बाजार बंद रहते हैं. रंगून शहर से दूर जहां छिटपुट बाजार लगते हैं, वहां महंगी सब्जी मिलती है. पानी और बिजली की आपूर्ति का कोई भरोसा नहीं है. दूतावास आपातस्थिति के लिए पानी एकत्र कर रहे हैं. भारतीय विमान अपने लोगों के लिए 3500 किलोग्राम जीवनोपयोगी चीजें और जीवनरक्षक दवाएं ले कर रंगून गया था. भारतीय विमान चालकों को रंगून हवाई अड्डे पर एक गिलास पानी तक नहीं मिला.’
रंगून से लौटनेवाले या भाग निकलनेवाले लोग इन सारी बातों की तसदीक करते हैं. कमोबेश रंगून जैसी स्थित ही पूरे देश में है. बर्मा को इस अराजक स्थिति तक ले जाने का श्रेय वहां के शासकों को है. जनरल ने विन के कुशासन ने बर्मा की इस जनक्रांति का रास्ता प्रशस्त किया.1962 में ने विन ने बर्मा की सत्ता हथिया ली. तब से 26 वर्ष तक वह मनमाने ढंग से राज करते रहे. उनका जीवन अन्य तानाशाहों की तरह रंगरेलियों से भरा थी. उन्होंने सात सादियां की. एक महिला से दो बार शादी की. अपने शासनकाल में उन्होंने बर्मा को बाहरी दुनिया से लगभग काट दिया. इस बीच बर्मा का जो उच्च-मध्य वर्ग उभरा, उसके अधिकांश लोग पश्चिमीं देशों में पलायन कर गये. बर्मा के लगभग 10000 डॉक्टर, इंजीनियर आज अमेरिका में रह रहे हैं.
हालांकि बर्मा में संसद, सरकार, नौकरशाही और राजनीतिक दल मौजूद थे, लेकिन इनमें जान नहीं थी. सारी सत्ता एक पार्टी ‘बर्मीज सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी’ के हाथों में भी कुछ खास लोगों की चौकड़ी का आधिपत्य था. सेना के कुछ वरिष्ठ और ने विन के विश्वसनीय अधिकारियों के हाथों में सत्ता केंद्रित हो गयी थी. जो भी अपना अलग अस्तित्व कायम करने का प्रयास करता, वह तत्काल इस चौकड़ी की आंखों में खटकने लगता था. विरोधियों को अप्रभावी बनाने में ने विन क्षण भर भी देर नहीं करते थे. 26 वर्ष तक वह बंदूक के साये में देश पर शासन करते रहे.
ने विन के शासन में बर्मा का विकास बिल्कुल बंद हो गया. रंगून आज भी अंगरेजों का शहर लगता है. समाजवादी बर्मा में ने विन के सहयोगियों-साथियों की ही अर्थक्रांति हुई, लेकिन देश में सामाजिक-आर्थिक विषमता बढ़ी. महंगाई से लोगों का जीवन दूभर हो गया. इस आर्थिक संकट और ने विन के दमनात्मक शासन का ही परिणाम है. वर्मा की मौजूदा जनक्रांति. प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से बर्मा काफी संपन्न रहा है. इस कारण ने विन की सरकार मामूली निर्यात और बाहरी आर्थिक सहायता के बल देश को 26 वर्ष तक किसी तरह चलाती रही. 1987 तक सरकारी निर्यात घट कर शून्य हो गया और विदेशी सहायता बहुत कम हो गयी. इस तरह ने विन की सरकार को निर्यात खत्म होने और विदेश से सहायता बंद होने से गंभीर चोट पहुंची.
इस अर्थसंकट से कल्याणकारी सेवाएं और बर्मा का आंतरिक विकास अवरुद्ध हो गये. शिक्षा, स्वास्थ्य के मद में ही कटौती हुई. राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था ने औद्योगिक उत्पादन और कृषि विकास को चौपट कर दिया. देश में भी खाद्यान्न की कमी निरंतर बढ़ती गयी. सरकारी भंडार खाली हो गये. विदशी ऋण बढ़ कर 40 मिलियन डॉलर हो गया. राज्य के प्रभावी लोगों द्वारा प्रायोजित अवैध बाजार और तस्करी द्वारा बाहर से लाये गये सामानों के बाजार बढ़ते गये. पचास से अस्सी फीसदी तक खुदरा चीजें तस्करी के बाजारों में ही उपलब्ध होती थीं. इस अर्थसंकट से निकलने के लिए निरंकुश सरकार के पास कोई विकल्प नहीं था. क्योंकि इस समानांतर कालाबाजारवाली अर्थव्यवस्था का जन्मदाता वहां का शासक वर्ग ही था.
जिस अनुपात में बर्मा के आम लोगों का जीवन तबाह होता गया, उसी अनुपात में शासकों का विलास-वैभव बढ़ता गया, जब चीजों के भाव आसमान छूने लगे, तो पिछले नवंबर में बर्मा सरकार ने अचानक 100, 50 और 20 कयात (बर्मा की मुद्रा इकाई) के नोटों का विमुद्रीकरण कर दिया. हाल में पुन: विमुद्रीकरण की अफवाह उड़ी, तो लोगों ने अपनी पूरी कमाई बैंकों में डाल दी. अचानक बैंक बंद हो गये. इससे पैसा निकालना मुश्किल हो गया. उधर महंगाई में प्रत्याशित वृद्धि हुई है. इस तरह लोग अजीब संकट में फंस गये हैं. इससे लोगों में आक्रोश बढ़ा.
शहरी मध्य वर्ग की कमर टूट गयी. इस तबाही के विरोध में छिटपुट प्रदर्शन हुए. उसे राजमद में पगलाये ने विन ने निरंकुशता से कुचल दिया. निर्यात ठप होने, विदशी ऋण चुकाने, बढ़ा अप्रत्याशित कर्ज-भार और विदशी मुद्रा कोष के खाली होने से स्थिति अनियंत्रित हो गयी. पिछले वर्ष अमेरिका ने करीब 20 लाख डॉलर ऋण और सैनिक सहायता बर्मा को दी. लेकिन ने विन की सरकार इस अर्थसंकट से उबर नहीं सकी. इस वर्ष जनवरी में चावल और खाद्य पदार्थों के भाव चौगुने बढ़ गये.
26 वर्ष पूर्व बर्मा से पर्याप्त मात्रा में चावल निर्यात होता था, वही बर्मा अब चावल के लिए दूसरे देशों के सामने झोली फैला रहा है. बर्मा से तेल भी निर्यात होता था, लेकिन वह भी बंद हो गया. कभी एशिया का यह सबसे समृद्ध देश था. लेकिन ने विन की नीतियों के कारण इसकी प्रति व्यक्ति आय घट कर महज 125 डॉलर रह गयी. 1960 में बर्मा की प्रति व्यक्ति आय 670 डॉलर थी. फिलहाल बर्मा की प्रति व्यक्ति आय अफगानिस्तान से भी कम है. मुद्रास्फीति 100 प्रतिशत तक पहुंच गयी. इस गंभीर अर्थसंकट के साथ ही सैनिक शासकों का आतंक बढ़ता गया. अति केंद्रीयकृत सरकारी अर्थव्यवस्था के पहरेदार ही कालाबाजार के संरक्षक बन गये थे. जान-बूझ कर ने विन इस तथ्य से मुंह मोड़े रहे.
परिणामस्वरूप जीवन उपयोगी चीजों और दवाओं की निरंतर आपूर्ति सरकारी बाजार से कालाबाजार में होती रही. जो चीजें समाजवादी सरकार की दुकानों पर उपलब्ध नहीं रहती थीं, वे मनमाने भाव पर कालाबाजार में खुलेआम बिकती थीं. लेकिन बर्मा की बढ़ती गरीबी के मूल कारणों से वहां के लोग वाकिफ थे. दुनिया के सबसे निर्धन देशों में से एक बर्मा में 80 फीसदी लोग साक्षर हैं. अत: सरकार द्वारा प्रायोजित और सरंक्षित कुकर्मों के प्रति लोगों में आक्रोश बढ़ रहा था. चूंकि बर्मा के शासकों का जन सामान्य से रिश्ता बहुत पहले कट चुका था. इस कारण जनता में उबलते क्रोध की आहट उन्हें बहुत देर से मिली.
जन सामान्य के इस स्वत: स्फूर्त आक्रोश ने विलासिता के मद में चूर शासकों के ताबूत में कील ठोंकने का काम किया. देशव्यापी बंद-जुलूस प्रदर्शन से ने विन घबड़ा गये. बंदूक और सेना के आतंक के बल वह इस जनक्रांति को नियंत्रित करने में विफल रहे. अंतत: 23 जुलाई को उन्हें गद्दी खाली करनी पड़ी. इसके बाद उनके पलायन की खबरें आयीं. ताजा समाचार के अनुसार वह लापता हैं.
इतिहास का यह एक अजीब संयोग है कि तानाशाह अपनी ताकत का कभी अंत नहीं देखते, अंत में सात्विक जन आक्रोश के कारण बसने के लिए उन्हें बित्ते भर जमीन की तलाश मे दुनिया में भटकना पड़ता है. ने विन के हटते ही बर्मा के संसद की आपात बैठक हुई. इस बैठक में सेन व्लीन राष्ट्रपति बनाये गये. संसद ने लोगों को आर्थिक राहत दे कर लुभाने के लिए दर्जनों नये कदम उठाने की घोषणा की. वस्तुत: शासकों की ऐसी मूर्खता का लंबा इतिहास है. फ्रांस की क्रांति में जब लोगों ने भूख से व्याकुल हो कर रोटी की मांग की, तो लुई सोलहवें ने जन दबाव में राहत कार्यक्रमों की लंबी फेहरिस्त पेश कर दी. रूस में जब जार शासकों की गद्दी खिसकने लगी, तो उन्हें भूखे-गरीब लोगों की सुध आयी.
सेन व्लीन की सरकार ने वर्मा के लिए भी यही आजमाया रास्ता चुना. लेकिन ऐसे शासक भूलते हैं कि जब सचमुच जन आक्रोश उबलता है, मर्द-औरत-नौजवान-शिशु सड़क पर उतरे आते हैं, तो उन्हें राजशक्ति नहीं दबा सकती. ऐसी स्थिति में क्षणिक प्रलोभनों से वह लोग नहीं डिगते. यथार्थ तो यह है कि तीसरी दुनिया के कमोबेश अधिकतर शासक ने विन की तरह ही जनता की पीठ पर ही सवारी गांठ कर चल रहे हैं, लेकिन जब जनता की सहन शक्ति-धैर्य चुके जाते हैं, तो इतिहास डगमगाने लगता है, बर्मा में भी यही हो रहा है.
पीछे के दरवाजे से सत्ता में आये सेन व्लीन, कांट के इस कथन को भूल गये कि आततायी शासकों के विरुद्ध क्रांति नैसर्गिक और स्वभाविक प्रक्रिया है. व्लीन अति खूंखार किस्म के सैनिक शासक थे. उनकी निर्दयता के किस्से बर्मा की गली-कूचों में भी गूंज रहे थे. ने विन के अति विश्वस्त और क्रूर शासक के रूप में उनकी ख्याति है, उनके राष्ट्रपति बनने की खबर ने आग में घी डालने का काम किया. इस वर्ष मार्च महीने में हुए छात्र आंदोलन को कुचलने का श्रेय व्लीन को ही है. 1962 में वह उस सैनिक टुकड़ी के प्रधान थे. जिसने तत्कालीन छात्र आंदोलन को कुलचने के लिए 22 छात्रों की निर्मम हत्या की थी.
1985 से ही व्लीन शासक पार्टी के महासचिव थे. 1974 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और बर्मा के अति सम्मानित राजनेता ऊ थांत के शव की अंतिम क्रिया को लेकर विवाद आरंभ हुआ. रंगून विश्वविद्यालय के छात्र उन्हें अपने यहां दफनाना चाहते थे. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. छात्रों और बौद्ध भिक्षुओं ने इस संबंध में जब आंदोलन किया, तो उन पर गोली चलाने और उन्हें दबाने का काम 1974 में व्लीन ने ही किया था. इस कारण सेन व्लीन के गद्दीनशीन होते ही लोग ने विन के दलाल के खिलाफ फिर सड़कों पर निकल आये. बमुश्किल 17 दिन गद्दी खाली करनी पड़ी. राष्ट्रपति बनते ही उनके पूर्व कारनामों के लिए उन्हें फांसी देने संबंधी पोस्टर बर्मा के लगभग सभी शहरों की दीवारों पर चिपका दिये गये.
अचानक उनके प्रति जन आक्रोश द्विगुणित हो गया. इसके शासक घबड़ा गये. अंतत: 20 अगस्त को माउंग माउंग (बर्मा के माउंग का पर्याय छोटा भाई है) बर्मा के नये राष्ट्रपति बने. माउंग माउंग इंग्लैंड और अमेरिका में शिक्षा पा चुके हैं. बर्मा के वह अटार्नी जनरल रह चुके हैं. वह उ नू के सहयोगी भी रह चुके है. 1964-70 के बची माउंग माउंग बर्मा के मुख्य न्यायाधीश रहे. अंगरेजों से बर्मा को स्वतंत्र कराने के लिए रंगून में जो मुट्ठी भर नेता उभरे, उनमें माउंग भी थे. वह दूसरे सैनिक व्यक्ति थे, जो ने विन की सरकार में रह चुके थे. उनके राष्ट्रपति बनते ही बौद्ध भिक्षुओं और छात्रों के आंदोलन में और तेजी आयी. चूंकि आंदोलनकारी बहुदलीय लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं. इस कारण वह नये शासकों को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं. 23 अगस्त को माउंग के राष्ट्रपति बनने के विरोध में बर्मा में उत्तर मंडाले से ले कर दक्षिण तोवाई तक में विशाल जुलूस निकाले गये.
मंडाले में करीब तीन लाख लोगों ने जुलूस में शरीक हो कर माउंग के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की. तोवाई में भी तकरीबन दो लाख लोग सड़कों पर उतर आये थे. पूरे देश में हुए ऐसे प्रदर्शनों में बर्मा के प्रसिद्ध डॉक्टर, वकील, संगीतज्ञ, लेखक, अभिनेता और मशहूर मुसलमान व बौद्ध नेता शरीक हुए. माउंग ने इस ‘जनाक्रोश की आग स्नेह-प्यार के पानी से बुझाने का वादा किया.’
इस बीच बर्मा की राजनीति में एक अप्रत्याशित घटना हुई. 26 वर्षों बाद बर्मा के पूर्व प्रधानमंत्री ऊ नू राजनीतिक मंच पर वापस लौट आये. 81 वर्षीय ऊ नू ने कहा कि हालांकि डकैती के द्वारा मुझसे सत्ता छीन लीन गयी थी, लेकिन अब भी वैधानिक प्रधानमंत्री मैं ही हूं. निर्वाचित प्रधानमंत्री ऊ नू ने राजनीतिक दल ‘डेमोक्रोसी ऐंड पीस आर्गनाइेशन’ स्थापित करने की घोषणा की. नयी पार्टी बनाने के बाद ऊ नू ने एक दलीय संविधान को चुनौती दी. 1962 से ही एक एकाकी जीवन गुजार हे थे. सत्ता से ने विन द्वारा हटाये जाने के बाद उन्होंने बोध गया में शरण ली. वह काफी दिनों तक सांची में भी रहे. जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तिगत मित्र ऊ नू निर्गुट आंदोलन के जन्मदाता माने जाते हैं. 1980 में बर्मा लौटने पर उन्होंने तत्कालीन सरकार को राजनीति से निरपेक्ष रहने का लिखित आश्वासन दिया. मृदुभाषी ऊ नू धार्मिक अध्ययन में समय व्यतीत कर रहे थे. चूंकि ऊ नू बर्मा के काफी सम्मानित नेता हैं, इस कारण उनके दल में जनरल टिन यू और मान मिंग माउंग भी शामिल होने के लिए सहमत हो गये.
जनरल टिन यू लोकप्रिय वरिष्ठ सैनिक अधिकारी रहे हैं. माउंग पूर्व निर्वाचित राष्ट्रपति हैं. 1976 में ने विन ने रक्षा मंत्री के पद से टिन यू को बरखास्त कर दिया था, लेकिन टिन यू ने जल्द ही ऊ नू के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया. बर्मा के दो प्रमुख लोकप्रिय विरोधी नेताओं अंग गी और सुश्री अंग सन सू की ने ऊ नू को कामयाब नहीं होने दिया. सुश्री अंग सन को विरासत में लोकप्रियता अपने पिता से मिली है. बर्मा के इतिहास में अब तक के सबसे चमत्कारिक व्यक्तित्व रहे हैं, अंग सन. बर्मा के स्वतंत्र होने के कुछ ही दिनों बाद मंत्रिमंडल बैठक से बाहर आते समय उनकी हत्या कर दी गयी. उनके नाम- व्यक्तित्व का जादुई प्रभाव बर्मा निवासियों पर है.
इस कारण सुश्री अंग सन में लोग भावी बेनजीर भुट्टो और फिलीपीन की राष्ट्रपति कोरोजन एक्विनो की तसवीर तलाश रहे हैं. दिल्ली और इंग्लैंड में अध्ययन करने के बाद अंग सन ने ऑक्सफोर्ड के ही एक प्रध्यापक से शादी कर ली थी. कुछ दिनों पूर्व वह अपनी बीमार मां को देखने बर्मा आयीं, इस बीच वहां आंदोलन आरंभ हुआ, और वह इसमें शरीक हो गयीं. हालांकि बर्मा में वह बहुत कम दिन रही हैं. वहां की समस्याओं से वह पूरी तरह वाकिफ भी नहीं हैं. लेकिन अपने पिता की पूंजी को भुनाने के लिए वह तत्पर हैं.
पूर्व ब्रिगेडियर 70 वर्षीय अंग गी ने अपने देश के पतन के संबंध में एक लंबा पत्र ने विन को लिखा. इसके बाद वह बंदी बना लिये गये. बाद में जन दबाव के कारण उन्हें मुक्त किया गया. 14 सितंबर को इन विरोधी नेताओं ने तत्कालीन राष्ट्रपति माउंग माउंग को पत्र लिख कर आम चुनाव कराने का उनका आश्वासन ठुकरा दिया. अंग गी ने रंगून अस्पताल के सामने आत्मदाह की धमकी दी. उधर बर्मा की सड़कों पर प्रदर्शन और विरोध के जुलूस दोगुने उत्साह से निकल रहे थे. इन प्रदर्शनों में सेना के लोगों ने भी भाग लिया.
इस घोर राजनीतिक संकट में सेना द्वारा सत्ता पर काबिज होने की आशंका और बढ़ गयी थी. 18 सितंबर होने की आशंका की पुष्टि भी हो गयी. सेना ने सामान्य स्थिति कायम होने पर बहुदलीय चुनाव कराने और जनतंत्र को पुनर्जीवित करने का आश्वासन दे कर सत्ता हथिया ली. सैनिक शासन के आदेश पर रक्षा मंत्री और सेना के प्रधान सा माउंग ने हस्ताक्षर किया है. कानून और व्यवस्था कायम करनेवाली समिति के वह अध्यक्ष भी घोषित किये गये हैं. सैनिक शासन संबंधी घोषणा में यह भी उल्लेख किया गया है कि लोकतंत्र में विश्वास करनेवाली पार्टियां अपना चुनाव प्रचार आरंभ कर दें.
लेकिन बर्मा की जनता शासकों के झांसे में आने के लिए तैयार नहीं है. सैनिक शासन की घोषणा के साथ ही इसके विरोध में लाखों की तदाद में स्वत:स्फूर्त आयोजित जुलूसों में लोग शामिल हुए. प्रदर्शनकारियों ने लोगों से हथियार ले कर घर से बाहर आने का आह्वान किया. सड़कों पर पेड़ काट कर अवरोध बना दिये, ताकि सेना गश्त न लगा सके. पिछले सप्ताह ही सेना को बैरकों में वापस भेजा गया था.
सैनिक शासन के विरोध में 19 सितंबर को बर्मा के कोने-कोने में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. कर्फ्यू का उल्लंघन कर हजारों लोगों ने जुलूस निकाले. रंगून, मंडाले आदि शहरों में निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर सेना के जवानों ने अंधाधुंध गोली चलायीं. इस गोलीबारी में तकरीबन 150 लोग मारे गये. एक अपुष्ट समाचार के अनुसार पूरे देश में तकरीबन 1000 लोगों को सेना ने मार डाला है.
सेना का आक्रामक रुख देख कर आंदोलनकारियों ने सड़क पर न उतरने का फैसला किया है. सेना के जवान विद्यार्थियों और बौद्ध भिक्षुओं के अड्डों पर छापे मार रहे हैं. भारी तादाद में आंदोलनकारी विद्यार्थी पड़ोसी देशों में जा घुसे हैं. सेना द्वारा गठित नयी सरकार में न तो राष्ट्रपति नियुक्त किये गये हैं और न ही प्रधानमंत्री. तख्ता पलटनेवाले अधिकारी जनरल सा माउंग ने जो सरकार गठित की है, उसमें सेना के अधिकारियों की ही प्रमुखता है. नौ केंद्रीय मंत्रियों में से महज एक गैरसैनिक मंत्री हैं. देश के सातों राज्यों में सेना के सात डिवीजन और उनके प्रमुख सरकार का कार्यभार संभाल चुके हैं.
पिछले तीन महीने से बर्मा में सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन की कमान छात्रों और बौद्ध भिक्षुओं के हाथ में है. देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उग्र प्रदर्शनों के दौरान करीब 3000 लोग मारे गये हैं. लेकिन आंदोलनकारी झुकने के लिए तैयार नहीं हैं. बर्मा से लौटे लोगों ने बर्मावासियों के अदभुत संकल्प का बखान किया है. घायल प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करने के लिए जब सेना के जवान रंगून अस्पताल पहुंचे, तो नर्सों और डॉक्टरों ने उन्हें अस्पताल में घुसने नहीं दिया. सैनिकों ने क्रोध में तीन नर्सों और दो डॉक्टरों की हत्या कर दी.
सरकार की ऐसी हरकतों ने आंदोलन में जान डाल दी. करीब चार करोड़ लोगों के देश में सरकारी कर्मचारी, इंजीनियर, मजदूर सभी सरकार को पछाड़ने के लिए कमर कस चुके हैं. बर्मा के लगभग 40 शहरों से बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी के नेता भाग चुके हैं. उनके कार्यालय बंद पड़े हैं. कुछ शहरों का शासन बौद्ध भिक्षुओं और जन समिति के वरिष्ठ लोगों ने संभाल लिया है. रेल और हवाई जहाज की सेवाएं ठप हैं. पूरे देश में आंदोलनकारियों ने समानांतर व्यवस्था कायम कर ली है. अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं हैं. कारखानों में उत्पादन बंद हैं. लोगों को अब सरकार की मुद्रा पर भरोसा नहीं रहा. सरकार की ओर से मुसलमानों-बौद्धों में दंगे भड़काने की विफल कोशिश हुई. लेकिन सरकार के फूट पैदा करनेवाले प्रयास सफल नहीं हुए.
बर्मा की स्वाधीनता में रंगून विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इस आंदोलन का नेतृत्व भी रंगून विश्वविद्यालय के छात्र कर रहे हैं. आंदोलनकारी नेताओं की पुकार पर लाखों लोग सड़क पर उतर आते हैं. वस्तुत: बर्मा एक नयी सुबह की कगार पर है. नये इतिहास बनानेवाले शायद मार्क्स के इस कथन से वाकिफ हैं कि इतिहास का निर्माण मनुष्य ही करते हैं, मगर मनचाहे ढंग से वे उसका निर्माण नहीं कर सकते, वे यह काम उन परिस्थितियों में नहीं करते, जिन्हें उन्होंने स्वयं चुना हो, बल्कि उन परिस्थितियों में करते हैं, जिनका उन्हें प्रत्यक्षत: सामना करना पड़ता है और जो उन्हें अतीत से प्राप्त और हस्तांतरित होती है. शायद इसी कारण इस जनक्रांति की विचारधारा और लक्ष्य स्पष्ट नहीं है.
अगर यह जनक्रांति सफल होती है, तो बर्मा की पुरानी समस्याओं के निदान का रास्ता निकल सकता है. पिछले 40 वर्ष से बर्मा की प्रमुख ‘करेन’ जाति के लोग बर्मा सरकार के खिलाफ बगावत का झंडा उठाये हुए हैं. उनकी समानांतर सरकार काम कर रही है. कचिन समुदाय के लोग भी ने विन सरकार से नाखुश थे. अरब, तुर्क, पस्तून और दूसरे मुसलमानों के वंशज रोहिंगा (लगभग दो लाख) बांगलादेश में रह रहे हैं. इन्होंने भी समानांतर सरकार बना ली है. करीब तीन लाख भारतीय मूल के लोग हैं. पहले यहां के व्यापार पर इनका कब्जा था. इन्हें खदेड़ने के लिए ने विन सरकार ने 1963 में उद्योग-व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इससे बर्मा में विभिन्न समुदाय सरकार विरोधी हो गये.
बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक पगोडे इस अभिनव क्रांति के मुख्य केंद्र बन गये हैं. करुणा और अहिंसा के प्रचारक शांत बौद्ध भिक्षु अब सैनिक तानाशाही को पछाड़ने के लिए लोगों से हथियार ले कर सड़क पर उतरने का आह्वान कर रहे हैं. यह अपूर्व घटना है. बहुत पहले माओ ने लिखा था कि क्रांति कोई दबाव देने अथवा लेख लिखने या तसवीर बनाने या उम्दा कढ़ाई करने जैसी चीज नहीं है. क्रांति कोई नफीस, शांत और शिष्ट, नम्र, दयालु, सुशील, संयत और उदार चीज नहीं हो सकती. क्रांति एक विद्रोह है, एक हिंसात्मक कार्रवाई है, जिसके जरिये एक वर्ग दूसरे वर्ग का तख्ता उलट देता है. बर्मा के क्रांतिकारी अब हिंसक क्रांति की मुद्रा में आ गये हैं.