छोटानागपुर में घपले ही घपले

छोटानागपुर में सामंतों व ठेकेदारों द्वारा आदिवासियों-कामगारों का शोषण नयी बात नहीं है. अब इन शोषकों के साथ एक नया वर्ग आ जुटा है, वह है बिहार सरकार के आला अधिकारियों का अमला. पलामू व जमशेदपुर में ऐसे तत्वों की कारस्तानियों के साथ-साथ जादूगोड़ा (जमशेदपुर) में व्याप्त रेडियोधर्मिता के संबंध में हरिवंश की छानबीन. पलामू […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 29, 2016 11:31 AM

छोटानागपुर में सामंतों व ठेकेदारों द्वारा आदिवासियों-कामगारों का शोषण नयी बात नहीं है. अब इन शोषकों के साथ एक नया वर्ग आ जुटा है, वह है बिहार सरकार के आला अधिकारियों का अमला. पलामू व जमशेदपुर में ऐसे तत्वों की कारस्तानियों के साथ-साथ जादूगोड़ा (जमशेदपुर) में व्याप्त रेडियोधर्मिता के संबंध में हरिवंश की छानबीन.

पलामू
पलामू (बिहार) आदिवासी बहुल इलाका है. विकास की दृष्टि से सबसे पिछड़ा व सामंती युग में जीता हुआ जिला. उरांव, कोरवा, खोरवा व चेरो मिल कर यहां कुल आबादी के चालीस फीसदी से अधिक है.यहां उच्च वर्ग के लोग सामंत हैं. इन लोगों का मुख्य काम खेती के साथ-साथ ठेकेदारी भी है. बिना काम किये करोड़ों का मुनाफा. चुनाव के दिनों में ये सामंत वोट दिलाने का भी ठेका लेते हैं. बड़े सामंतों की जड़ गांवों में छोटे सामंतों तक फैली है. इन लोगों को प्रशासन व सरकार से मदद मिलती है. असम के राज्यपाला भीष्म नारायण सिंह के सुपुत्र मनातू के मवार आदि लोगों के कारनामे तो जगजाहिर हैं. ब्लॉक, सबडिवीजन स्तर से ले कर जिला स्तर तक प्रशासन में ऐसे ही सामंती, हठी व अनुदार विचारवाले लोगों का प्रभुत्व है. कमोबेश आज पूरे छोटानागपुर में ऐसी ही स्थिति है. शोषण और सरकारी उपेक्षा के शिकार छोटानागपुर में आदिवासियों का जीवन मुहाल है.

सरकार कितना ही प्रचार करा ले कि उसने बंधुआ मजदूरों को मुक्ति दिला दी है, लेकिन जब तक पलामू में सामंत हैं, सरकार का सारा प्रचार झूठा साबित होगा. देश में शायद सर्वाधिक बंधुआ मजदूर यहीं हैं. सामंतों के पास यहां जितने अस्त्र-शस्त्र हैं, पुलिस के पास भी उतने नहीं हैं.

इस इलाके में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ता मेघनाथ का मानना है कि यहां बंधुआ मजदूरी होने के प्रमुख तीन कारण हैं. न्यूनतम मजदूरी दर का लागू न किया जाना. अभी भी 2 या 3 सेर अनाज दैनिक मजूरी दी जाती है. इधर उधार की प्रथा बड़ी ही क्रूर है. 100 रुपये की मूल राशि बढ़ कर 1100 रुपये हो जाती है. 12 रुपये की राशि चार साल में 500 रुपये हो जाती है. इससे भी गंभीर समस्या है, आदिवासियों को भूमि से बेदखल करना. राजपूत व ब्राह्मण गरीबों की जमीनों को गैरकानूनी ढंग से हथिया रहे हैं. रंका थाने के रथबझुआ गांव में एक आदमी के पास कुछ वर्षों पूर्व 30 एकड़ भूमि थी. अब उसके पास मात्र तीन एकड़ है. होमिया गांव में एक पंडित ने पूरे गांव की जमीन दान में ले ली है.

मेघनाथ बताते हैं कि गांव के जिन लोगों ने उन्हें ऐसे अत्याचारों की सूचना दी, उन्हें आतंकित किया गया. पलामू जिले के मीराल थाने के कारो गांव में रामवदन कोरवा को वहां के सरपंच ने गले में गमछा लगा कर मार डालने की कोशिश की. संयोग से मेघनाथ उधर से गुजर रहे थे. इन्होंने बीच-बचाव किया. रामवदन के मुंह से खून भी निकला. रंका थाने में ऐसे अनेक गांव हैं, जैसे बेता, चूहिया, तुड़ीमुरा, जहां सामंती युग आज भी कायम है. पुलिस इन्हीं सामंतों की मददगार है.

आदिवासियों पर अब तक सामंत ही अत्याचार करते थे. अब सरकार भी अत्याचारियों की सूची में शामिल हो गयी है. बांध या खदान निर्माण के उद्देश्य से सरकार भी बरबस आदिवासियों से उनकी आवासीय भूमि हथिया रही है.जंगलों पर आदिवासियों का जीवन निर्भर है. लकड़ी, व्यवसाय, साल पत्ता, साल का बीज, महुआ, फूल, बीड़ी रोजगार के द्वारा उनकी आजीविका चलती थी. जंगल से दूर इन्हें विस्थापित कर सरकार बिना वैकल्पिक रोजगार का प्रबंध किये उनकी रोजी-रोटी छीन रही है.

फिलहाल सरकार किसी भी तरह पलामू में कुटकू डैम को पूरा कराने पर आमादा है. इसके बन जाने से करीब 19,700 एकड़ जमीन पानी में डूबेगी. मंडेरिया पंचायत के 17 गांव साफ हो जायेंगे. लात पंचायत के 13 गांव बिल्कुल अलग-थलग पड़ जायेंगे. इस पंचायत को दो तरफ से नदी, एक तरफ से टाइगर प्रोजेक्ट घेर लेगा. इस प्रकार कुल 12000 की आबादी विस्थापित होगी. इस डैम का फायदा पड़ोसी जिले औरंगाबाद व गया को मिलेगा,जहां के राजनीतिज्ञ ज्यादा शक्तिशाली हैं. पलामू का नसीब इससे नहीं बदलेगा. आरंभ से इस डैम पर अनुमानित खर्च 113.77 करोड़ रुपये था. ठेकेदारों व बिहार सरकार के अधिकारियों की कृपा से 1982 में यह बढ़ कर 214.15 करोड़ रुपये हो गया, हालांकि मुख्य नहर का निर्माण अभी आरंभ भी नहीं हुआ है.

इस सरकारी कदम के खिलाफ ‘कुटकू डूब क्षेत्र मुक्ति संगठन’ ने आंदोलन आरंभ किया है. संगठन की मांग है कि इन्हें जमीन के बदले जमीन दी जानी चाहिए. महाराष्ट्र में ऐसे जिन लोगों को विस्थापित किया गया है. उन्हें ‘कमांड इलाके’ में सिंचाई की जमीन दी गयी है. पलामू में सामंतों के पास से भूमि हदबंदी कानून के तहत काफी ‘सरप्लस भूमि’ निकल सकती है. उसे विस्थापित लोगों को दिया जाये. सरकार के पास काफी बेनामी जमीन है. उसे भी इन लोगों को दिया जा सकता है. इन सबके अतिरिक्त डैम के अंदर बहुत-सी जमीन निकलेगी. इसे भी इन्हें ही दिया जाये. आंदोलनकारी डैम बनने के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि उससे विस्थापित होनेवाले लोगों के लिए उचित मुआवजा व विकल्प के लिए संघर्षरत हैं.

अभी सरकार मुआवजे में नकद राशि दे रही है. इस नकद राशि को प्राप्त करने में आदिवासियों को सरकारी मुलाजिमों को पैसे खिलाने पड़ते हैं. दो तिहाई पैसे तो बिचौलिये ही खा जाते हैं, जितने लोगों ने अब तक पैसे लिये हैं, उनमें से मात्र 30 लोगों ने थोड़ी बहुत भूमि खरीदी है, लेकिन सरकारी रपट में दिखाया गया है कि 209 लोगों ने जमीन खरीदी है. जमीन की एवज में मिलनेवाले पैसे को मंजूर आदिवासी खा-पी जाते हैं, फिर उन्हें बंजारों की तहत घूमना पड़ता है.
मार्च में आंदोलनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट को इस अन्याय की इत्तला दी. जस्टिस पीएन भगवती ने ‘स्टे ऑर्डर’ दिया. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा ‘स्टे ऑर्डर’ दिया. लेकिन बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद वहां बुलडोजर चला, लोगों को विस्थापित किया गया. शांतिपूर्ण प्रदर्शन व विरोध करनेवालों को गिरफ्तार व परेशान किया गया.
आंदोलनकारियों का कहना है कि वे जब भी सरकारी अधिकारियों से बात करेंगे, सार्वजनिक स्थल पर जनता के बीच करना चाहेंगे. इस संघर्ष में स्थानीय आदिवासी छात्र, भारत नौजवान सभा, नारी चेतना समिति, छात्र युवा संघर्ष समिति के लोग सक्रियता से हिस्सा ले रहे हैं.
भय-आतंक के बीच जीते लोग
जादूगोडा
जादूगोडा नाम अकसर सुर्खियों में रहता है. कभी अखबारों में यहां से होनेवाली कथित यूरेनियम तस्करी की चर्चा रहती है, तो कभी-कभार यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लि. की खबरें. भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग के नियंत्रण में कार्यरत इस संस्थान की स्थापना 1967 में की गयी थी. जमशेदपुर से तकरीबन 50-60 किमी दूर स्थित यह आदिवासी बहुत इलाका है.
यूरेनियम अयस्क के खनन, उसके पिंडों को कूटने-पीसने का काम यहां होता है. यूरेनियम एक उच्च रेडियोधर्मिता पदार्थ है. पिछले कुछ वर्षों से यहां के निवासियों में फैल रही बीमारियों, नवजात शिशुओं के विकृत होने की घटनाओं से प्रतीत होता है कि यहां रेडियोधर्मिता का प्रभाव बढ़ रहा है.

13 फरवरी 1980 को यहां एक बच्चे का जन्म हुआ. उसके बायें हाथ का पूर्ण विकास नहीं हुआ था. एक सफाई मजदूर के यहां जन्मे एक बच्चे के हाथ नहीं थे. एक ऐसा बच्चा भी पैसा हुआ, जिसका शरीर सामान्य था, पर उसका सिर आलू की तरह था. आंख, नाक, कान, मुंह स्पष्ट नहीं थे, इन स्थानों पर सिर्फ छेद थे. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस यूरेनियम प्लांट के ईद-गिर्द बसे आदिवासी गांवों में अपंग बच्चे अक्सर जन्मते हैं. यहां काफी लोग टीबी के शिकार हैं. कुछ बच्चे ल्यूकेमिया से पीड़ित हैं. कुछ लोग हड्डियों के विभिन्न रोगों से पीड़ित हैं. उनके अंग टेढ़े-मेढ़े हो गये हैं.

ये गंभीर बीमारियां अचानक यहां क्यों बढ़ गयी हैं? पत्रकार कवि कुमार के अनुसार रेडियोधर्मिता के कारण यह सब हो रहा है. यूरेनियम अयस्क से ‘यलो केक’ बनाने के दौरान यहां पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था नहीं है. बिना दस्ताने पहने मजदूर इसे उठाते हैं. घर व कॉरपोरेशन में मजदूर एक ही कपड़ा पहने काम करते हैं.

कॉरपोरेशन के अंदर ‘एक्जास्ट फैन’ और ‘डस्टफैन’ भी काम नहीं कर रहे हैं. स्लैग की डंपिंग संस्थान से करीब 2 किमी दूर ग्रामीण इलाकों में होती है. इसे ट्रेलिंग पौंड कहते हैं. 8-10 किमी में यह फैला है. आसपास के बाशिंदों पर इसका प्रभाव पड़ता है.रेडियोधर्मी स्लैग को डंप करने का सवाल आज दुनिया में उठ रहा है. लोग आवासीय इलाकों में ही नहीं, समुद्र में भी इसे फेंकने का विरोध कर रहे हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार इसे लेड के बक्सों में सील कर, भूमि में काफी खुदाई कर गाड़ दिया जाना चाहिए. या बीच समुद्र में ये बक्से फेंके जाने चाहिए.
टेलिंग पौंड से निकलनेवाले नाले में भी स्लैग बहता है. आगे चल कर यह नाला गारा नदी व स्वर्णरेखा से मिल जाता है. इससे जल प्रदूषित होता है. आसपास बसे लोग इसका इस्तेमाल भी करते हैं.टेलिंग पौंड के पास एक बोर्ड लगा है. उस पर लिखा है. ‘प्रवेश निषेध रेडियो ऐक्टिव एरिया’. इससे कुछ ही दूरी पर चाटीकोचा गांव है. यह गांव रेडियोधर्मिता क्षेत्र के घेरे में है. डूंगरीडीह, लखई व टिलाईटाड़ गांव भी आसपास ही बसे हैं.
टेलिंग पौंड के पास पोलीथीन की थैलियां, रेडियोधर्मिता क्षेत्र में काम करनेवाले मजदूरों के कपड़े, खाली शीशियां फेंकी जाती हैं. बच्चे खेल में इनका इस्तेमाल करते हैं.कॉरपोरेशन यलो केक (यूरेनियम से निर्मित) को हैदराबाद भेजता है. वहां से पुन: ‘प्रोसेस’ करने के लिए रेफीनेट केक को यहां लाया जाता है. इसे लाने में भी विशेष सुरक्षा नहीं बरती जाती. इसे हैदराबाद से निकट स्थित स्टेशन राखा माइंस लाया जाता है. इसकी पैकिंग भी प्राय: ठीक से नहीं होती. सिर्फ ड्रमों पर ‘रेडियो एक्टिव’ लिखा होता है. चढ़ाने-उतारने में लूज पैकिंग के कारण यह गिरता-बिखरता है. बच्चे इसे उठा कर खेलते हैं.

इस क्षेत्र में रेडियोधर्मिता है, इसे सिद्ध करने के लिए यहां के निवासी नौ वर्षीय मुन्ना का बार-बार जिक्र करते हैं. इस बच्चे को प्राइमरी मेगाकोलन रोग है. यह बच्चा पाखाना नहीं कर पाता. इसके पेट में छेद कर डॉक्टरों ने एक थैली बांध दी है, जिसमें पाखाना निकल कर जमा होता है. यह बच्चा न बोल पाता है, न चल पाता है. जानकार लोगों का कहना है कि ऐसी अधिकतर बीमारियां रेडियोधर्मिता के कारण होती है.

कवि कुमार का कहना है कि संस्थान में कार्यरत हेल्थ फिजिक्स लेबोरेटरी में मजदूरों के शरीर पर रेडियोधर्मिता के प्रभाव की समय-समय पर जांच की जाती है. पर जांच-परिणाम किसी को बताये नहीं जाते. डॉक्टरों एवं चिकित्सा व्यवस्था की कमी की ओर भी कॉरपोरेशन के लोग ध्यान आकर्षित करते हैं. हालांकि कॉरपोरेशन के अधिकारियों के अनुसार यहां रेडियोधर्मिता सीमा से अधिक नहीं है व मजदूरों की सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखा जाता है.

अधिकारियों के अनुसार यहां रेडियोधर्मिता की मात्रा 0.4 है. पेड़-पौधे व हरे-भरे बागीचों को दिखा कर वे पूछते हैं कि यहां प्रदूषण का प्रभाव किधर दिखता है. इन लोगों के अनुसार लोगों में यूरेनियम-रेडियोधर्मिता आदि की पर्याप्त वैज्ञानिक जानकारी नहीं है. इसके कारण ही लोग मिथ्या प्रचारों पर विश्वास कर लेते हैं.

यहां के निवासी सचमुच रेडियोधर्मिता के खतरे से भयभीत व आतंकित हैं. लोगों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने एवं खतरनाक चीजों के संबंध में जानकारी देने का कार्य तत्काल होना चाहिए. कम से कम जादूगोडा में यूरेनियम कॉरपोरेशन के वैज्ञानिक विभिन्न माध्यमों से सरल भाषा में यूरेनियम रेडियेशन संबंधित तथ्यों को बता सकते हैं. इससे लोगों में फैली अवैज्ञानिक गलतफहिमयां दूर होंगी. फिलहाल यहां के बाशिंदों का विश्वास अर्जित करने के लिए आवश्यक है कि बाहर के डॉक्टरों से यहां के लोगों की जांच करायी जाये व उस डॉक्टरी रिपोर्ट को सार्वजनिक बनाया जाये.

यहां से छोड़ी जानेवाली सलफ्यूरिक एसिड गैस से लोगों को अधिक परेशानी है. जब भी इसे छोड़ा जाता है, लोगों का दम घुटता है. छटपटाहट होती है. आंख में जलन होती है. उलटी होती है. संस्थान में काम करनेवाले एक कर्मचारी के अनुसार ‘गैस छोड़ना बम से आक्रमण करने के समान होता हैं.’ इचड़ा गांव का पर्वत पाल बताता है कि गैस के प्रभाव के कारण हम लोगों का हरा धान काला हो जाता है. उसके अनुसार गैस पीड़ितों की संख्या टिलाइटाड़ में सबसे अधिक है.

संस्थान के अधिकारियों के अनुसार यह गैस हानिकारक नहीं है. औद्योगिक इकाइयों में इसका सर्वत्र इस्तेमाल हो रहा है. फिलहाल गैस छोड़ना बंद कर दिया गया है.जादूगोड़ा से यूरेनियम की तस्करी के संबंध में अधिकारियों का कहना है कि यह बात गलत है. यूरेनियम का भाव 700-800 रुपये किलो है. अगर कोई तस्करी करता है, तो सोने-चांदी की क्यों नहीं करेगा? उसमें मुनाफा अधिक है. प्रबंधन के अनुसार, जहां कहीं भी जादूगोडा से यूरेनियम की तस्करी की खबर आती है, माल पकड़ा जाता है, वहां से ये लोग ‘सैंपुल’ मंगा कर जांच करते हैं.

यूरेनियम के नाम पर पकड़ी गयी सामग्री में दूसरे विस्फोटक होते हैं. 1974 में टिलाईटाड़ का कानू राम इस तस्करी में पकड़ा गया था. उसके पास यूरेनियम मिला. उसको इसकी सजा मिली.लेकिन यूरेनियम का महत्व सामरिक कारणों से है. जानकार सूत्रों के अनुसार इसे अवैध ढंग से नेपाल के रास्ते पाकिस्तान भेजा जाता है. जमशेदपुर के पहले हिंदी दैनिक ‘नया रास्ता’ के संपादक शंकर लाल खिरवाल के संबंध में लोग बताते हैं कि उन्हें यूरेनियम की तस्करी व इसमें लगे लोगों की जानकारी थी. इस कारण उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी पत्नी की जीभ काट दी गयी. इसके बाद से तस्करी के संबंध में जान कर भी लोग चुप व सहमे रहते हैं.

मजदूरों का दर्द सुननेवाला कोई नहीं है
जमशेदपुर
बिहार की सरकार को चला रहे है- घूसखोर अधिकारी, ठेकेदार और उनके आका राजनीतिज्ञ. ‘ईमानदार’ मुख्यमंत्री या मंत्री नाक रगड़ कर मर जायें, लेकिन वैसे लोगों का बाल भी बांका नहीं कर सकते. शासकों की नकेल ऐसे ही लोगों के हाथों में है. सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत एक सही आदेश, जो सरकार मजदूरों के हक में जारी न कर सके, उसके रहने का क्या औचित्य है? मजदूर भी ऐसे मजदूर, जिन्हें तीन-चार दिनों से कभी एक बार पेट भर भोजन मिलता हो, वरना चाय, पानी-भात व सड़ी डबल रोटी पर गुजारा करना पड़ता है.

जमशेदपुर में एक जगह है, जुगसलाई मकदम. दूर से आप देखें, तो भ्रम होगा कि यह काले पत्थरों का पहाड़ है. लेकिन टिस्को का यह कचड़ा स्थल है. कोयले का लगभग 500 टन कचड़ा यहां प्रतिदिन गिरता है. करीब 3 हजार मजदूर यहां रोजाना कोयला चुनने आते है. करीब 20-25 एकड़ में यह फैला है. टिस्को की ट्रकें, वैगन गरम-गरम कोयले के बेकार अंशों को यहां ला कर गिराते हैं. वस्तुत: इसमें आग होती है. इससे धुआं निकलता होता है. मजदूर इस पर टूट पड़ते हैं. पूरे इलाके में मजदूरों की जगह नियत है. सुबह से ही मजदूर प्रतीक्षारत रहते हैं, जो मजदूर जहां बैठा है, अगर ‘माल’ वहीं गिरता है, तभी वह इसे चुनता है. कभी-कभी ऐसा होता है. एक दिन में एक जगह पर अनेक ट्रक आये, दूसरी जगह ट्रक आये ही नहीं. उस स्थान पर सुबह से प्रतीक्षारत मजदूर भूखे-प्यासे लौट जाते हैं. बिना कुछ कमाये रात में भूखे पेट सोने के लिए.

ये सभी मजदूर आदिवासी व स्थानीय हैं, जिस रूप में इनका शोषण हुआ व हो रहा है, उसकी मिसाल नहीं है. मजदूरों में बच्चे, बूढ़े तो होते ही हैं, महिलाएं भी कोयला चुनने आती हैं. अक्सर इनके साथ इनके नवजात शिशु भी होते है. बगल में उसी गरम कोयले पर बच्चों को रख कर ये कोयला चुनने को विवश हैं. इन बच्चों का बचपन नहीं होता, जवानी नहीं आती, सिर्फ बुढ़ापा व मौत से ही इनका साबका होता है. जुगसलाई मकदम में अनेक ऐसे बच्चे मिलेंगे, जिनकी पीठ जल गयी है. फफोले पड़े है, मवाद बह रहा है, मक्खियां भिन्ना रही हैं.

बच्चे आग की बिछावन पर बिलबिला रहे हैं और मां-बाप, भाई-बहन आग में से गरम कोयले चुन रहे हैं. दूर-दूर तक न पानी है, न नल. गंदे काले पानी का सेवन इन मजदूरों को करना पड़ता है. चुने कोयले पर उन्हें ठेकेदार के पहरेदारों को पैसा देना पड़ता है. अगर कोई आंख बचा कर निकलने का दुस्साहस करे, तो उसकी खैर नहीं. चुने हुए एक बोरे कोयले पर तीन रुपये, टोकरी पर डेढ़ रुपये की दर से ठेकेदार महसूल वसूल करते हैं.


इस कोयले में छाई भी होती है. उसे अलग से बेचा जाता है. इसमें तीन प्रकार की छाई होती है, जो प्रति ट्रक 1200, 1800 व 2400 रुपये भाव से बिकती है. इसका इस्तेमाल गुल बनाने के लिए होता है, प्रतिवर्ष टिस्को इसे ठेके पर ठेकेदारों को सौंपता है. मिला-जुला कर तीन-चार मुख्य ठेकेदार हैं, जो इसे प्रतिवर्ष हथिया लेते हैं. इन ठेकेदारों में प्रमुख हैं, हबीबुल्ला, एमटी हुसैन व हारुन रसीद ऐंड कंपनी. 1983-84 में वह ठेका एमटी हुसैन को प्रतिमाह 1.77 लाख रुपये पर टिस्को ने दिया था. वर्ष 84-85 में यह बढ़ कर 9 लाख 92 हजार प्रति माह हो गया.
यह कोयले का व्यापार है. इस कारण आवश्यक है कि इसके लिए ‘कोल ट्रेडिंग लाइसेंस’ लिया जाये. बिना इसके यह कारोबार अवैधानिक है. इससे राज्य का वित्तीय नुकसान होता है. यह लाइसेंस लेने के बाद मजदूरों के लिए पानी की व्यवस्था करनी पड़ेगी. उनकी देखभाल की जिम्मेदारी ठेकेदार पर होगी, अत: ठेकेदार यह लाइसेंस नहीं लेते. बिक्री कर रजिस्ट्रेशन भी नहीं कराया गया है. इस कारण बिहार सरकार को प्रतिवर्ष बड़ा घाटा हो रहा है. ट्रकों पर तीन तरह का माल लदता है, जिसका भाव प्रति ट्रक 1200, 1800 व 2500 रुपये हैं, लेकिन ठेकेदार द्वारा चालान 250 रुपये प्रति ट्रक का ही दिया जाता है. इससे कर की बचत होती है. बिहार सरकार को घाटा होता है. यह सरासर अवैधानिक है, लेकिन बिहार सरकार के स्थानीय अधिकारियों की कृपा से यह सब खुलेआम हो रहा है.

कानूनन टिस्को अगर किसी को माल बेचता है, तो उसकी जिम्मेदारी है कि वह बिक्री कर वसूले. टिस्को यह कर नहीं वसूलता है. जब बिक्री करवालों ने टिस्को से जवाब-तलब किया, तो टिस्को ने बताया कि हम लोग बचा हुआ ‘बेकार कोयला राख’ नहीं, ‘सिंडर राख’ बेचते हैं. इस पर कर नहीं लगना चाहिए. लेकिन टिस्को जो टेंडर करता है, उसमें इसे ‘सिंडर राख’ नहीं बताया जाता. बिक्री करवालों के अनुसार यह ‘सिंडर’ है. तो इस पर और अधिक कर लगेगा. फिलहाल बिक्री करवालों ने 8 लाख रुपये का ‘एसेसमेंट’ ठेकेदार पर बकाये के रूप में किया है. लेकिन ठेकेदार कोई मामूली नहीं, उस पर बिहार सरकार के अधिकारियों का वरदहस्त है, क्योंकि अधिकारियों व उनके आकाओं के पास ठेकेदारों से नियमित रकम पहुंचती है.

पहले इसी भांति टिस्को का ‘आइरन स्लैग’ का भी कूड़ा फेंका जाता था. वहां भी आदिवासी मजदूरों का शोषण होता था. बाद में कुछ लोगों के प्रयास से टिस्को कंपनी ने उसे टोकन कीमत एक रुपये प्रतिमाह पर ‘आइरन स्लैग’ का भी कूड़ा फेंका जाता था. वहां भी आदिवासी मजदूरों का शोषण होता था. बाद में कुछ लोगों के प्रयास से टिस्को कंपनी ने उसे टोकेन कीमत एक रुपये प्रतिमाह पर ‘आइरन स्लैग’ पिकर्स ऐंड लेबरर्स को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड’ को सौंप दिया, जो इस को-ऑपरेटिव सोसाइटी के सदस्य हैं, वे ही यहां चुनने का काम करते हैं. पहले यहां भी मजदूरों का इसी प्रकार शोषण होता था. अब सोसाइटी इसे इकट्ठा कर नीलाम करती है. फिलहाल, सोसाइटी के पास एक करोड़ का फंड इकट्ठा हो गया है, जिससे वे लोग नया उद्योग आरंभ करना चाहते है. सोसाइटी मजदूरों के जीवन में नयी खुशहाली आ गयी है. इस को-ऑपरेटिव सोसाइटी का अध्यक्ष एसडीओ (सिविल, बिहार सरकार) होता है. इस सोसाइटी के बन जाने से बिचौलिये परेशान हैं. उनकी आय का मुख्य स्रोत बंद हो गया. इन बिचौलियों की पहुंच बिहार सरकार के अधिकारियों, नेताओं व मंत्रियों तक है.

इसी पद्धति पर जुगसलाई मकदम में ‘कोल स्लैग’ चुनने के लिए भी सोसाइटी बनाने की पहल काफी दिनों से हो रही है, पर बिचौलिये इसे नहीं होने दे रहे है. टिस्को के अध्यक्ष एवं प्रबंधक निदेशक रूसी मोदी इसे भी टोकन कीमत एक रुपये प्रतिमाह पर सोसाइटी को देने को तैयार है. महज को-ऑपरेटिव सोसाइटी के गठन की औपचारिकता बाकी है. पिछले दो वर्ष से पटना में को-ऑपरेटिव सोसाइटी के रजिस्ट्रार के पास सोसाइटी गठन का मसविदा भेजा गया है. इस मसिवदे पर उन्हें अब तक दस्तखत करने का समय नहीं मिला है, जिसका करोड़ों का माल है, वह एक रुपये टोकेन पर मजदूरों की सोसाइटी को देने को तैयार है, लेकिन बिहार सरकार के नुमाइंदे व ठेकेदार इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं. उन्हें फ्रिक है, अपनी लाखों की आमदनी का.

बिहार में जमशेदपुर एकमात्र ऐसा शहर है, जो साफ-सुथरा व व्यवस्थित है. यह टाटा के सौजन्य से हुआ है. इन मजदूरों के कल्याण के लिए भी टिस्को की ओर से ही पहल हुई है, पर बिहार सरकार के नुमाइंदे इसे नहीं देना चाहते हैं.मजदूरों की इस लड़ाई को लड़ रहे हैं, युवा कांग्रेस (इं) जमशेदपुर के भूतपूर्व अध्यक्ष एसआर छब्बन. कांग्रेस (इं) की सरकार हो और कांग्रेस (इं) का एक महत्वपूर्ण कार्यकर्ता वर्षों से इस लड़ाई को लड़े, डीसी कुमारेश चंद्र मिश्र भी इस कार्य को तत्परता से पूरा करना चाहे, फिर भी को-ऑपरेटिव रजिस्ट्रार दस्तखत न करे, यह आश्चर्यजनक है. जुगसलाई मकदम में पिछले 10 वर्षों से काम करती एक बुढ़िया ने कहा, ‘सरकार के लिए सबसे अच्छा रास्ता है, हम सब गरीबों को इकट्ठा करे व गोलियों से भुनवा दे. यह दर्द अब सहा नहीं जाता.’

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