चीन में परिवर्तन की बयार

-हरिवंश- लोकतंत्र और आजाद प्रेस की मांग के साथ ही शासकों के भ्रष्टाचार के खिलाफ चीनी छात्रों के जिहाद से बंद साम्यवादी व्यवस्था की चूलें हिल गयी हैं. दरअसल चीन में परिवर्तन की यह लहर अचानक प्रस्फुटित नहीं हुई, बल्कि इसके उत्स गहरे हैं. साम्यवादी व्यवस्था की लौह प्राचीर में लोकशक्ति का यह स्वत:स्फूर्त उफान […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 29, 2016 1:11 PM

-हरिवंश-

लोकतंत्र और आजाद प्रेस की मांग के साथ ही शासकों के भ्रष्टाचार के खिलाफ चीनी छात्रों के जिहाद से बंद साम्यवादी व्यवस्था की चूलें हिल गयी हैं. दरअसल चीन में परिवर्तन की यह लहर अचानक प्रस्फुटित नहीं हुई, बल्कि इसके उत्स गहरे हैं. साम्यवादी व्यवस्था की लौह प्राचीर में लोकशक्ति का यह स्वत:स्फूर्त उफान हाल के इतिहास की अभिनव घटना है. चीन में चल रहे इस आंदोलन का ब्योरा दे रहे हैं, हरिवंश.

70 वर्षों बाद चीन में तारीख की पुनरावृत्ति.

4 मई 1919 को पेचिंग के कुछ हजार छात्रों ने तत्कालीन रिपब्लिकन सरकार के एक जापान समर्थक चीनी मंत्री का घेराव किया. साम्राज्यवादियों और उनके देसी पालतुओं के खिलाफ आयोजित इस प्रदर्शन के गर्भ से जो आंदोलन प्रस्फुटित हुआ, उससे ही 1921 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ. तब छात्रों ने सड़कों पर नारे लगाये थे, ‘विज्ञान की प्रगति और लोकतंत्र चाहिए. मार्क्सवाद तब टटका दर्शन था. उन दिनों वैज्ञानिक सोच और समतावादी समाज इसके आकर्षक पहलू माने जाते थे. 4 मई 1919 के छात्र आंदोलन ने ही चीनी समाज को कन्फ्यूशसवाद-ताओवाद का चोगा उतार कर आधुनिकता का जामा पहनने के लिए बाध्य किया. चीनी समाज सामंतवाद के डगर से उतर कर माओवाद बनाम मार्क्सवाद बनाम साम्यवाद की राह पर आगे निकला. उसके बाद से प्रतिवर्ष 4 मई 1919 को हुए छात्र आंदोलन की स्मृति में चीन के कोने-कोने में जलसे-समारोह होते रहे हैं.

लेकिन 70 वर्षों बाद 4 मई 1989 के इस परंपरागत समारोह के अवसर पर चीन में इतिहास ने खुद को दोहराया. इस बार जब छात्र 1919 में हुए आंदोलन की पुण्य स्मृति में शरीक हुए, तो उन्हें लगा कि लोकतंत्र और वैज्ञानिक प्रगति के जो नारे 1919 में लगे, वे अधूरे हैं. साम्यवाद और इसके भाष्यकार नेताओं ने चीनी समाज के साथ छल किया है. चीन में न लोकतंत्र है, न खुला प्रेस और न देश के कर्णधारों में ईमानदारी और प्रतिबद्धता. भ्रष्टाचार के घुन बंद समाज-व्यवस्था को खोखला कर चुके हैं. छात्रों के इस सोच और निराश मन:स्थिति से चीन में जो आंदोलन भड़का, उसने दैत्याकार साम्यवादी तंत्र की चूलें हिला दी हैं.

यह स्वत:स्फूर्त छात्र आंदोलन चीन में जंगल की आग की तरह फैला और बहुत ही कम समय में पूरे देश में जुलूस-प्रदर्शन और धरना से सरकार असहाय महसूस करने लगी है, अंतत: 19 मई को चीनी अधिकारियों ने पेचिंग में मार्शल लॉ की घोषणा की. खबर है कि पार्टी महासचिव चाओ जयांग ने छात्र आंदोलन कुचलने के सवाल पर इस्तीफा दे दिया है. सख्ती से इस आंदोलन को दबाने की घोषणा राष्ट्रपति यांग शंगखुन ने की है.

प्रधानमंत्री ली द्वारा मार्शल लॉ की घोषणा और धमकी को चीन के छात्र आंदोलन ने हास्यास्पद बना दिया. इस घोषणा के तत्काल बाद इस आंदोलन की लपटें उग्र रूप से चीन के अन्य प्रांतों और गांवों तक पहुंच गयीं. चीन की जिस सर्वग्रासी तानाशाही व्यवस्था में विरोध का स्वर डूब गया था, वहां राजशक्ति के सामने जनशक्ति का ऐसा गौरवपूर्ण बेमिसाल ऐतिहासिक घटना है. टियानमेन चौक पर 3000 से अधिक छात्र भूख हड़ताल पर लगातार बैठे रहे, उनमें से एक हजार की हालत नाजुक हुई. डॉक्टर ऐसे छात्रों को उपचार के लिए अस्पताल ले जाते रहे, पर स्वस्थ होने के बाद पुन: ये छात्र अस्पताल से आंदोलन स्थल पर लौट आते. संघर्ष की इस जिजीविषा ने ही पूरे चीनी समाज को आंदोलित कर दिया है.

20 मई को जब पेचिंग में सेना घुसने लगी, तो लोग अपने घरों से सड़कों पर निकल आये. महिलाओं-बच्चों ने सड़कें जाम कर दीं. सेना की ट्रकों पर सवार सैनिकों को शहर में नहीं घुसने दिया गया. लोग सेना के वाहनों पर सवार हो कर सैनिकों को ही समझाने-बुझाने लगे. अंतत: सेना उस दिन बैरक में लौट गयी. सेना के एक बड़े अधिकारी ने जनशक्ति के समक्ष अपनी इस पराजय को गर्व से कबूल किया.

उसी दिन शांगहाय में एक तरफ तीन लाख लोगों ने छात्रों के समर्थन में सभा की, तो दूसरी ओर शहर के मुख्य चौक पर दो लाख लोगों की भीड़ प्रधानमंत्री ली से त्यागपत्र की मांग करती रही. उस दिन लगभग चीन के 20 बड़े शहरों में छात्रों के समर्थन में बड़े प्रदर्शन हुए. हाथ में उठायी तख्तियों में छात्रों ने उल्लेख किया था कि ‘हमें लोकतंत्र चाहिए. हमें बादशाहों के बादशाह (तंग की ओर इशारा) की जरूरत नहीं.’ चांगसा में भी ऐसी ही स्थिति थी. शीआन में तो मजदूरों ने चंदा देकर छात्रों को पेचिंग भेजा. सरकारी मीडिया द्वारा किये जा रहे कुप्रचार के खिलाफ आंदोलनकारी छात्रों ने भूमिगत हस्तलिखित परचे और अखबार निकालने शुरू किये हैं. ऐसे ही एक अखबार ने यह खुलासा किया कि नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के बहुसंख्यक उपाध्यक्षों ने चाओ के हटाये जाने का विरोध किया. फिर भी चीन के मदांध शासकों ने उनकी लोकतांत्रिक राय ठुकरा दी. विश्व के दूसरे भागों में कार्यरत चीनी छात्रों ने भी प्रदर्शन और धरना दे कर इस आंदोलन को समर्थन दिया है.

21 मई को प्रधानमंत्री ली ने पुन: छात्रों को पांच बजे तक टियामेन चौक खाली करने की धमकी दी. लेकिन छात्रों ने उनकी यह धमकी भी नजरअंदाज कर दी. साथ ही शांत और संयमित होकर धरना जारी रखने का निर्णय किया. उस दिन सैनिकों ने सड़क जाम कर पेचिंग पहुंचनेवालों पर पाबंदी लगा दी. लगभग 1500 सैनिक, स्वचालित अस्त्रों से लैस होकर पेचिंग स्टेशन पर पहरा देने लगे. देश के दूसरे हिस्सों से हजारों की तादाद में छात्र पेचिंग पहुंच रहे थे, इससे भयभीत शासकों ने पेचिंग को देश के दूसरे हिस्से से काट देने का निर्णय किया.

22 मई को अघटित, घटित हुआ. चीन की सेना ने सरकार के आदेश की परवाह न कर बगावत कर दी. मार्शल लॉ क्रियान्वयन मुख्यालय से लगभग 100 वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजा, जिससे पेचिंग में मार्शल लॉ का विरोध किया गया था. इस पत्र में यह भी उल्लेख था कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी विद्यार्थियों और उसकी मांगों का समर्थन करती है. यह भी खबर है कि चीन के विदेश मंत्रालय समेत आठ प्रमुख केंद्रीय मंत्रालय और अनेक राज्य सरकारें ली सरकार के खिलाफ हो गयी है. 22 मई को ही 500 पत्रकारों ने इस आंदोलन के समर्थन में टियानमेन चौक तक मार्च किया. और भूख हड़ताल करनेवालों को समर्थन दिया.

इस रिपोर्ट में लिखे जाने तक चीन के छात्र आंदोलन की अनेक खबरें-अफवाहें छन कर बाहर आ रही है. हालांकि चीनी शासकों ने इस आंदोलन की खबरें बाहर न जाने देने की भरपूर कोशिश की, पर उनका यह प्रयास विफल रहा. 23 मई की खबर के अनुसार चीनी छात्रों के रहनुमा चाओ जयांग अभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदर (महासचिव) के रूप में अपने पद पर कायम हैं. उस दिन चीन में प्रधानमंत्री ली के खिलाफ लगभग 10 लाख लोगों का विशाल जुलूस निकला, जिसने उनसे पद त्याग की मांग की. चीन में सामाजिक शक्तियों का जो ध्रुवीकरण उभर रहा है, उसके अनुसार विद्यार्थी, अध्यापक, सरकारी कर्मचारी, बौद्धिक और सेना के अफसर ली सरकार के खिलाफ एकजुट हो गये हैं. सेना और जनता के आपसी हित-स्वार्थ एक हैं. हजारों किलोमीटर दूर से आये छात्र बगैर व्यवस्था परिवर्तन का घोष सुने लौटना नहीं चाहते.

लेकिन हू यावो बैंक की अंत्येष्टि और उनकी स्मृति से प्रेरित इस आंदोलन के प्रति चीनी शासकों की राय स्पष्ट रही है. उल्लेखनीय है कि पार्टी के पूर्व प्रधान हू को 1987 में उदार होने के आरोप में अपदस्थ कर दिया गया था. वह छात्र आंदोलन के प्रति भी उदार थे. इस कारण छात्र उनकी मौत के बाद सड़कों पर उतर आये. प्रधानमंत्री ली फंग ने पेचिंग से देश के कोने-कोने में फैलती इस आग को अति खतरनाक बताया. मार्शल लॉ लागू करने के दिन ली ने यह बयान भी दिया कि ‘कुछ मुट्ठी भर लोग’ आंदोलन और भूख हड़ताल करनेवालों के माध्यमों से सरकार पर दबाव डाल रहे हैं.

अपनी मांग कबूल करवाने के लिए उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं. मौजूदा चीनी व्यवस्था के शिखर पुरुष और सूत्रधार तंग श्याओ फिंग उन लोगों के खिलाफ कठोर कदम उठाने के हिमायती हैं, जो ‘जनता के दिमाग में विष उड़ेल रहे हैं और राष्ट्रीय उथल-पुथल, तोड़-फोड़ के सहारे राजनीतिक स्थिरता भंग करना चाहते हैं.’ आरंभ में पार्टी के महासचिव चाओ ने भी कहा, ‘यदि स्थिरता ही नष्ट हो जाती है, तो क्या हासिल किया जा सकता है. क्या इससे वैज्ञानिक प्रगति और लोकतंत्र हासिल किये जा सकते हैं.’

लेकिन कक्षाओं का बहिष्कार कर पेचिंग के टियानमेन चौक पर लाखों की संख्या में धरना देनेवाले, भूख हड़ताल करनेवाले छात्रों के लिए मान-मनौव्वल का दौर निकल गया है. उन्हें चीनी समाज के उन मजदूरों, कर्मचारियों और बौद्धिकों का समर्थन मिल रहा है, जो व्यवस्थागत परिवर्तन के पक्षधर हैं. दरअसल, इस आंदोलन को रुग्ण चीनी व्यवस्था से ऊर्जा मिल रही है. यह विस्फोट न अचानक हुआ है और न ही सुनियोजित है. चीनी व्यवस्था की अंदरूनी विसंगतियों का यह बाह्य विस्फोट है.

1919 में लोकतंत्र, आजादी और वैज्ञानिक प्रगति की जिस भूख ने छात्रों को उद्वेलित किया, वही भूख फिर व्यवस्था बदलाव के लिए छात्रों को उकसा रही है. रूस के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त की चीनी समाज पर अलग प्रभाव है. 1917 में भी रूसी क्रांति के बाद चीन में छात्रों ने ‘मिस्टर डेमोक्रेसी’ और ‘मिस्टर साइंस’ के नारे लगाये थे. अब स्तालिन के रूस में खुलेपन की जो हवा बह रही है, उससे चीनी छात्र भी सिहरन महसूस कर रहे हैं. हाल में रूस में हुए चुनावों की खबर से चीन में उत्तेजना की सी स्थिति थी. हालांकि चीनी टेलीविजन ने रूस के चुनावों की खबरों को भरसक दबाने-ढंकने की विफल कोशिश की, लेकिन चीनी शासक भूल गये कि साम्यवाद की प्राचीर बदलाव की हवा नहीं बांध सकती.

गोर्बाचौफ के सुधारों से चीन में भी परिवर्तन की हवा बही है. साम्यवाद का परंपरागत ढांचा चीनी समाज की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, इस कारण वह बिखर रहा है. इस आंदोलन में चीनी छात्रों के नारे हैं, ‘सुविधाभोगी वर्ग का खात्मा हो’ ‘मीडिया सच का प्रतिबिंब बने’, ‘दलीय लोकतंत्र और आजादी बहाल हो’ और ‘भ्रष्टाचार का खात्मा हो’. इस तरह बहुदलीय लोकतंत्र, आजाद प्रेस और शासकों के भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में छात्र उमड़ पड़े हैं. चीनी पर्यवेक्षकों का खयाल है कि 1949 में हुए पार्टी सम्मेलन के बाद पेचिंग में छात्रों का यह सबसे बड़ा जमावड़ा है.

लाखों छात्रों द्वारा लगाये जा रहे उपरोक्त नारों से ही आंदोलन का मकसद स्पष्ट हो जाता है. साम्यवादी चीन में लोग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, सुविधाभोगी वर्ग और विशिष्ट वर्ग (शासकों) को प्राप्त सुविधाओं के खिलाफ जिहाद छेड़ चुके हैं. तीसरी दुनिया के स्वेच्छाचारी शासकों को इस आंदोलन से सबक लेना चाहिए. समता के लोक लुभावक नारे के बल पर साम्यवाद में विशिष्ट वर्ग की जो तानाशाही पनप आती है, उसकी विकृति ही विद्रोह का खाद बनती है. गोर्बाचौफ ने रूस में व्यवस्थागत आमूल-चूल परिवर्तन की पहल कर इस सुलगती आग को निकल जाने का रास्ता ढूंढ़ा है. पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त के बल वह साम्यवादी व्यवस्था से उपजी विकृतियों को खत्म करना चाहते हैं. ऐसे माहौल में भला चीन अपनी साम्यवादी व्यवस्था से उपजे दुर्गुणों के साथ कैसे रह सकता है?

चीनी समाज का यह ठहराव हू की मृत्यु के बाद 15 अप्रैल को टूटा. फिर 17 अप्रैल 1989 को साम्यवादी दल के मुख्यालय पर विराट प्रदर्शन हुआ. 22 अप्रैल को डेढ़ लाख छात्रों ने टियानमेन चौक पर प्रदर्शन किया. उस प्रदर्शन में विद्यार्थियों ने यह नारा भी लगाया कि,‘साम्यवादी दल में अब कोई यकीन नहीं करता’. पेचिंग के छात्रों के एक समूह ने तो यह भी नारा दिया कि ‘अब साम्यवाद में भी किसी को आस्था नहीं रही.’ दरअसल, चीन के अनुभव ने स्पष्ट कर दिया की साम्यवाद की जड़ें पूंजीवादी व्यवस्था की तरह ही विकृत और विषमतामूलक हैं.

एक तरफ इस आंदोलन ने चीनी समाज की अंदरूनी व्यवस्था को स्वर दिया है, तो दूसरी ओर चीन के सुलझे शासकों की समझदारी का परिचय भी. चीनी नेताओं को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि लगातार कई दिनों तक लाखों-लाख छात्र सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर सत्याग्रह-प्रदर्शन करते रहे, पर उनके विरोध को तीसरी दुनिया के तानाशाहों की भांति कुचलने का प्रयास नहीं किया गया. पुलिस-सेना और जनता के बीच सौहार्दपूर्ण और समझदारी का ऐसा रिश्ता बहुत कम देशों में है. छात्रों ने भी विवेक और संयम से काम लिया. यहां तक कि 30 वर्षों बाद जब चीन-रूस की मैत्री में गरमाहट आ रही थी, छात्रों के प्ररेणास्रोत गोर्बाचौफ रूस-चीन संबंधों में एक नये युग का सूत्रपात कर रहे थे, उस समय भी लाखों की इस भीड़ को जबरन नहीं भगाया गया. इस छात्र आंदोलन के कारण अनेक बार गोर्बाचौफ के पूर्व निर्धारित संवाददाता सम्मेलन, अभिनंदन समारोह और कार्यक्रम स्थगित और परिवर्तित करने पड़े. आंदोलनकारी छात्र नेताओं ने गोर्बाचौफ की प्रशंसा की और उन्हें अपने कार्यक्रम में आमंत्रित भी किया. दूसरी ओर गोर्बाचौफ ने चीनी छात्रों के इस आंदोलन को अपरोक्ष रूप से सराहा.

इस आंदोलन की अगुवाई करनेवालों में छात्र नेता वुरकेसी की भूमिका उल्लेखनीय है. 21 वर्षीय वुरकेसी पेचिंग नार्मल विश्वविद्यालय के छात्र हैं. उसके पिता कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिबद्ध कॉडर हैं. उन्होंने अपने पुत्र को बार-बार विद्रोही तेवर छोड़ने के लिए कहा. वुरकेसी के अनुसार, ‘वह प्रतिदिन मेरे लिए रोते-चिल्लाते हैं. लेकिन मैं इस संघर्ष का परिणाम भुगतने के लिए अब तैयार हूं. ‘वुरकेसी के अनुसार यह भी अफवाह है कि शासक, राजनीतिक अपराध के लिए मेरे पिता को 10 वर्षों की सजा या मौत की सजा दे सकते हैं. वुरकेसी बताते हैं कि छात्रों के पास ‘संपूर्ण परिवर्तन’ के लिए ‘उत्साह और अपूर्व धैर्य है. वुरकेसी का तर्क है कि चीनी लोगों में अभी भी गुलामी की मनोवृत्ति है. इसे परिवर्तित करने के लिए वह और उसके दोस्त जन आकांक्षा के अनुरूप सरकार का गठन चाहते हैं. पेचिंग के कुल 70 कॉलेजों में से अधिसंख्य के छात्र मानते हैं कि ‘हमारे नेता कम्युनिस्ट नहीं हैं. ये लोग पुराने सामंती व्यक्ति हैं, जो जनता से डरते हैं और हमसे घृणा करते हैं.’

हकीकत तो यह है कि चीन में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार घुन की तरह लग गया है. बड़े-बड़े साम्यवादी आकाओं के सुपुत्र-स्वजन व्यवस्था का सर्वश्रेष्ठ लाभ उठा रहे हैं. यह वर्ग सामान्य चीनियों को हिकारत की नजर से देखता है. पूंजीवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो दुर्गुण हैं, उससे गंभीर रूप में भ्रष्टाचार साम्यवादी व्यवस्था में व्याप्त है. ब्रेजनेव के पुत्र-दामाद तक ही यह मामला सीमित नहीं है. चीन के ‘ग्रेटवाल’ को लांघ कर भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार चीनियों को भी तबाह कर चुका है. इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण मांग साम्यवादी चीन से भ्रष्टाचार मिटाने की है.

हू यावो बैंग ने चीन में बड़े लोगों के पुत्रों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का आवाहन किया, तो उन्हें सत्ता से धकिया कर बाहर कर दिया गया. तंग श्यायो फिंग के पुत्र तंग पुतेंग एक ट्रस्ट के प्रभारी हैं, जिसे घरेलू और बाहरी व्यवस्था से पर्याप्त लाभ मिल रहा है. चाओ जयांग के पुत्र ताजुन, हनान आइसलैंड के ‘विशेष अर्थ क्षेत्र’ के प्रभारी हैं, जिन्हें काफी वाणिज्यिक लाभ मिल रहे हैं. प्रधानमंत्री ली फंग के पुत्र भी हनान आइसलैंड के लाभप्रद पद पर विराजमान हैं. तंग और चाओ के निकट रिश्तेदार हथियारों के सौदागर भी हैं, जिन्हें काफी लाभ मिलता है.

चीनी अर्थव्यवस्था भी नाजुक दौर से गुजर रही है. मुद्रास्फीति बड़ी तेजी से बढ़ी है. एक गंवई परिवार की औसत आय 80 रैंब (मुद्रा इकाई) है लेकिन महज एक विद्यार्थी को पढ़ने के लिए प्रतिमाह 90 रैंब देना पड़ता है. छात्रावास के एक-एक कमरे में 15-15 छात्र रह रहे हैं. पहली बार चीन में एशियान डेवलपमेंट बैंक की वार्षिक बैठक पेचिंग में अप्रैल के अंतिम सप्ताह में हुई. उसी में चीन के राष्ट्रपति यांग शंगखुन ने कहा कि बिना परिवर्तन और खुलेपन के, आर्थिक विकास संभव नहीं. चीनी व्यवस्था ठहराव की जकड़न में है.

हाल में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों से सबसे अधिक चीन के विद्यार्थी और प्रध्यापक ही प्रभावित हुए थे. खाद्य पदार्थों से सरकारी राहत वापस ले ली गयी थी. इससे खाद्य पदार्थों की कीमत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. तर्क दिया गया कि किसान अधिक पैदावार कर काफी कमाई कर सकते हैं, लेकिन अध्यापकों छात्रों को लगा कि उनकी आय बढ़ती कीमतों के अनुपात में अपर्याप्त है. विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की आय प्रतिमाह 35 डॉलर के लगभग है. इनका दुख है कि पेचिंग के होटलों में वेटर की हैसियत से काम करनेवालों की आय प्रतिमाह 70 डॉलर है. चीन में प्राध्यापकों का पेशा प्रतिष्ठित माना जाता रहा है, लेकिन आर्थिक दबावों के कारण प्राध्यापक इस पेशे से भाग कर दूसरे पेशे में जाने लगे थे. शिक्षा के मद में भी सरकार ने काफी कटौती की थी. 1986 में इस मद में महज 15 फीसदी राशि की बढ़ोतरी की गयी, लेकिन उसी वर्ष कुल सरकारी खर्चे में 25 फीसदी की बढ़ोतरी की गयी थी. इस तरह प्राध्यापकों-छात्रों में काफी समय से विरोध की आग सुलग रही थी.

चीन में इस छात्र आंदोलन की अगुआई कर रहे पेचिंग फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट यूनियन (बी एस एफ यू) और ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट (ए सी एफ एस यू). इन दोनों संगठनों को सरकारी मान्यता प्राप्त है, लेकिन दो गैर सरकारी छात्र संगठन ‘द एलायंस ऑफ स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन इन पेचिंग’ और ‘पेचिंग यूनिवर्सिटी टेंपरेरी स्टूडेंट यूनियन’ भी इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं. इनकी मांग है कि सरकारी नुमाइंदों से छात्र प्रतिनिधयों की जो बातचीत हो, उसे दूरदर्शन पर दिखाया जाये. गैर मान्यता प्राप्त संगठनों को मान्यता दी जाये. इससे चीनी सरकार घबड़ा गयी है, क्योंकि मजदूरों में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के प्रति भी अरसे से गुस्सा है. उन्हें सरकारी कर्मचारी और कुछ सैनिक भी समर्थन दे रहे हैं.

इस आंदोलन ने साम्यवादी अर्थतंत्र की सीमाएं स्पष्ट कर दी हैं कि बेरोजगारी का निदान इस अर्थतंत्र के पास भी नहीं है. इस आंदोलन की सही खबर शांगहाय के निष्पक्ष अखबार वर्ल्ड इकॉनामिक हेरल्ड ने प्रकाशित की, तो 10 अप्रैल का उसका अंक जब्त कर लिया गया. 10 अप्रैल के अंक में चीनी बुद्धिजीवियों ने इस छात्र आंदोलन के संबंध में अपने निष्पक्ष विचार प्रकट किये थे. हेरल्ड का तर्क था कि यह सरकारी पत्र नहीं है, इस कारण हम निष्पक्ष सामग्री प्रकाशित कर सकते हैं. बाद में इसके संपादक को बरखास्त कर दिया गया. इस पत्र के संपादक पर आरोप था कि व्यवस्था से नाखुश बुद्धिजीवियों के वह केंद्रबिंदु बन गये हैं. इन बुद्धिजीवियों में फैंग लिज भी शामिल हैं, जिन्होंने कहा है कि सर्वहारा क्रांतिकारी वर्ग नहीं होता, बल्कि बौद्धिक वर्ग ही परिवर्तन की अगुआई करता है. लिज का सिद्धांत दरअसल, मार्क्स के साम्यवाद की मूल नींव पर ही प्रहार है.

पिछले कुछ वर्षों से पश्चिमी उपभोगवाद की राह पर पांव रखनेवाले चीनी युवकों को पश्चिम की अपसंस्कृति का शिकार माना जाने लगा था. समीक्षकों का कयास था कि जींस, अंगरेजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दर्शन के पीछे पागल बने इन छात्रों का सामाजिक सरोकार घट रहा है. लेकिन ‘बंदूक की नली से सत्ता का उद्भव’ माननेवाली साम्यवादी व्यवस्था में चीनी समाज-खास कर युवकों ने हिंसा का दर्शन त्याग कर अहिंसक रास्ता अख्तियार किया है. भूख हड़ताल और धरना दे कर देश की अंतरात्मा जगाने की कोशिश की है. अपने ऐसे कार्यों से चीनी छात्रों ने गांधीवाद की बढ़ती प्रासंगिकता पर मुहर लगा दी है.

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