-हरिवंश-
बिहार का ‘बंबई’ धनबाद है. देश के राजनीतिज्ञों को बंबई से पैसा मिलता है, तो बिहार के राजनेताओं की आमदनी का मुख्य स्रोत कोयलांचल है. यहां तरह-तरह के गैरकानूनी धंधे चल रहे हैं. सार्वजनिक क्षेत्रों की खुली लूट हो रही है. लेकिन सरकार कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है. कारण, सरकार के लोग व अधिकारी इससे लाभान्वित हो रहे हैं व इसमें आकंठ डूबे हैं.
वैसे तो छोटानागपुर क्षेत्र ही संसाधनों के मामले में देश का सबसे संपन्न भाग है, लेकिन इन संसाधनों का उपयोग देश व राज्य के विकास के लिए नहीं हो रहा है. धनबाद माफिया के बारे में तो पूरे देश में खूब लिखा जा चुका है, लेकिन संसाधनों का दुरुपयोग करने, निजी लाभ उठाने व महीने में औसतन 30-40 लाख रुपये बिना काम किये अर्जित करनेवाले लोग अभी तक कानून, सरकार व प्रेस की निगाह से ओझल हैं.
धनबाद में सलरी यानी कोयले व पानी का घोल बनाने के जहां संयंत्र है, वहां व्यापक पैमाने पर लूट हो रही है. सरकार को इससे करोड़ों का घाटा हो रहा है. मंत्रियों व अधिकारियों का वरदहस्त होने से धंधा करनेवाले बिना झिझक इस काम में लगे है. स्टील प्लांट व भट्ठेवाले सबसे बढ़िया कोयला इस्तेमाल करते हैं. यहां नान-कुकिंग कोयला अधिक होता है, इस कारण घटिया किस्म के कोयले को बढ़िया बनाने के लिए वाशरी प्लांट में भेजा जाता है. सलरी, कोयले व पानी का घोल है. इस प्रक्रिया में सबसे अच्छा कोयला ऊपर चला जाता है.
इसमें वीट्रेन होता है, जो कोयले का सर्वश्रेष्ठ अंश माना जाता है. निम्नस्तर का कोयला यानी पथरीला भाग बैठ जाता है. ऊपरवाले हिस्से को फिर सेटलिंग टैंक में भेजा जाता है. वहां इसे 3-4 दिन तक छोड़ दिया जाता है. फिर वाल्व खोल कर पानी बहा दिया जाता है. नियमानुसार कोयले के स्थिर हो जाने के बाद ही बाल्ब खोलना चाहिए. लेकिन जिन्हें सलरी का ठेका मिला है. वे अंदर वाशरी के भ्रष्ट अधिकारियों को मिला कर पहले ही ‘बाल्ब’ खुलवा लेते है. इससे उच्च स्तर का अधिकांश कोयला बह कर बाहर निकल जाता है. बाहर आसपास की भूमि में यह फैल जाता है.
बाहर तैनात ठेकेदार के लोग इसे इकट्ठा कराते है. फिर गुल बनवाते हैं. इसके उत्पादन पर प्रतिटन खर्च 180 रुपये के आसपास पड़ता है. लेकिन बाजार में इसका मूल्य हैं 950 रुपये प्रतिटन. इस कोयले में राख मुश्किल से 8 फीसदी होती है. अत: उपयोग की दृष्टि से यह बहुत ही बढ़िया कोयला है. बीसीसीएल के एक इंजीनियर ने बांध बनाने का सुझाव दिया था. ताकि सलरी बाहर न बहे व इसका लाभ बीसीसीएल को ही मिले. बाद में निहित स्वार्थवाले लोगों ने उसका स्थानांतरण ही करा दिया.
इसमें सबसे पहला व प्रासंगिक सवाल है कि सलरी अगर प्लांट से बाहर जाता है, तो भी वह केंद्र सरकार की ही चीज है. क्योंकि कोयला खदानें केंद्र सरकार की परिधि में हैं. इस कारण राज्य सरकार को उसे किसी और को ठेके पर देने का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन ‘अति सक्षम’ बिहार सरकार ने इसके लिए एक नया रास्ता निकाल लिया है. इसे ‘फ्लोटिंग मिनरल’ नाम दे कर सरकार ने इस कार्य को झरिया के परमेश्वर कुमार अग्रवाल को 1979 से ठेके पर सौंपा है.
अग्रवाल यह धंधा ‘मेसर्स वेस्ट प्रोडक्ट रिक्लेमर (जी) लिमिटेड’ कंपनी के नाम पर करते हैं. बिहार सरकार व परमेश्वर कुमार अग्रवाल के बीच 23.8.1979 को जिला निबंधक कार्यालय, गिरीडीह में हुए करार संख्या 6006 के अनुसार सलरी इकट्ठा करने का ठेका उन्हें मिला. रॉयल्टी की दर तय की गयी, 40 पैसे प्रतिटन. यही नहीं, यह नाममात्र पैसा किस्तों में अदा करने की छूट भी उन्हें प्राप्त हुई. इस करार के मुताबिक बिहार सरकार ने ‘दुग्धा कोयला वाशरी’ में सलरी इकट्ठा करने का ठेका अग्रवाल को दे दिया. इस प्रकार अग्रवाल व बिहार सरकार के बीच कुल दो करार हुए.
इन दोनों करारों से अग्रहवाल को पाथरडीह, दुग्धा, कठारी व कारगली वाशरी प्लांट से सलरी इकट्ठा करने का अधिकार मिल गया. आरंभिक दो खदानों का प्रबंध बीसीसीएल द्वारा होता है. तथा कारगली व कठारी की देखरेख सीसीएल करता है. अग्रवाल ने इन खदानों के आसपास की जमीनों के असली हकदारों को परेशान किया. इस कार्य में उन्होंने अपने लठैतों व पहलवानों की मदद ली. दुग्धा पंचायत के मुखिया ने कुछ वर्षेां पूर्व अग्रवाल के खिलाफ एक फौजदारी मुकदमा भी दायर किया था. सलरी जब बाहर बहता है, तो काफी दूर तक फैल जाता है. आसपास के खेतों में भी पहुंच जाता है. ठेकेदार इसे इकट्ठा कराते हैं. अत: खेत में बुवाई बगैरह का काम नहीं हो पाता, न ही खेत मालिकों को बदले में कुछ मिलता है. खेत मालिक इसका विरोध करते हैं, तो उन्हें डराया-धमकाया जाता है.
मेसर्स वेस्ट प्रोडक्ट रिक्लेमर (जी) लिमिटेड को प्रतिमाह बिना कोई खास प्रयास के अथाह आमद है. इस आमद पर आय कर या अन्य आवश्यक कर अदा नहीं किये जाते. इस काले धन से बड़े-बड़े नेता-अधिकारी लाभान्ति हो रहे हैं. इस कंपनी का बीसीसीएल, सीसीएल व राज्य सरकार के अधिकारियों व राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क है. इस कंपनी पर कई मंत्रियों का वरदहस्त है.
इस धंधे में लगे लोगों की पुलिस अधिकारियों व स्थानीय अधिकारियों से भी सांठ-गांठ है.
कुछ बड़े पुलिस अधिकारियों के भाई-भतीजे सलरी निकालने के इस धंधे में लगे भी हैं. जो सलरी राज्य सरकार ने 40 पैसे प्रतिटन के ठेके पर दिया था. बाद में कीमत बढ़ा कर उसे 40 पैसे से 2.50 रुपये किया गया. फिर खदान आयुक्त की रिपोर्ट पर इसे 2.50 रुपये से बढ़ा कर 62 रुपये किया गया. थोड़े परिश्रम के बाद यही बाजार में 950 रुपये प्रतिटन के भाव से बिक रहा है.
चंद्रशेखर सिंह के मुख्य मंत्रित्व काल में पुन: 10 वर्षों के लिए यह ठेका श्री अग्रवाल को मिला. पूर्व में खदान आयुक्त ने सरकार को लिखा था कि तत्काल 40 पैसेवाले करार को निरस्त किया जाये व यह राशि बाजार में प्रचलित भाव के अनुसार तय की जाये. तत्कालीन खदान मंत्री बुद्धदेव सिंह ने भी आरंभ में अग्रवाल को पुन: लीज पर यह ठेका दिये जाने का विरोध किया. साथ ही अग्रवाल को दंडित करने व संशोधित दर के अनुसार पीछे का बकाया भुगतान वसूल करने संबंधी कार्रवाई का सुझाव दिया.
इसके बाद भी तत्कालीन ‘ईमानदार’ मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह के समय पुन: यह ठेका परमेश्वर अग्रवाल को किन्हीं खास कारणों से मिला. 30 जून 1984 को बिहार सरकार के सहायक निदेशक, खदान (निगरानी एवं भ्रष्टाचार निरोध विभाग) ने दुग्धा कोयला वाशरी का निरीक्षण किया. जांच के दौरान उन्होंने पाया कि बोकारो स्टील प्लांट के सेक्टर नंबर एक के पास मेसर्स वेस्ट प्रोडक्ट रिक्लेमर (जी) लिमिटेड के तीन डिपो हैं. जहां ब्रिकिट (पिसे हुए कोयले को ईंट) की कीमत 241 रुपये प्रतिटन लिखी थी. वहां खड़े एक ट्रक संख्या यूएचएच 492 से तहकीकात करने पर निदेशक महोदय को पता चला कि वास्तविक कीमत 550 रुपये से अधिक है.
यहां से औसतन 20 ट्रक कोयला लेकर रोज रवाना होते हैं. स्टॉक रजिस्टर में कंपनी ने काफी कम मात्रा में सप्लाई दिखायी थी. कोई रिकॉर्ड ढंग से रखा नहीं मिला, ताकि अधिकारी जांच निरीक्षण कर सके. वाशरी प्लांट से बाहर आये सलरी में जब पानी कम हो जाता है, तो गुल तैयार किया जाता है. इसका उपयोग जलाने के लिए होता है, जिसे परमेश्वर अग्रवाल ने ‘ब्रिकिट’ नाम दिया है. यह नाम भ्रम उत्पन्न करता है. निदेशक महोदय की दृष्टि में यह कोयला घरेलू कोयले (गुल) से भिन्न नहीं है, अत: ‘ब्रिकिट’ नाम पर यह धंधा गलत है.
सहायक निदेशक ने पाया कि इस धंधे का संचालन एक होटल के कमरे से भी होता है. वहां से कंपनी के कागजात के साथ कुछ लोग रहते हैं. यही लोग तुरंत दूर-दराज का फर्जी रोड परमिट बना देते हैं. सहायक निदेशक को प्राप्त जानकारी के अनुसार ये कागजात 100 से 150 रुपये अदा करने पर किसी भी ट्रक को मिल जाते है. ऐसे ट्रकों को भी जो अनधिकृत रुप से घरेलू कोयला कलकत्ता, पंजाब, दिल्ली, वाराणसी आदि ले जाते हैं.
इस तरह के काम में कोयलांचल में काफी लोग लगे हैं. ये प्रभावी लोग हैं. व्यवस्था में महत्वपूर्ण जगहों पर कार्यरत हैं. इनके पास पैसे की ताकत है. वे अपनी आमदनी पर न कर देते हैं. न सरकार को सही सूचना. इस पैसे के बल पर स्थानीय स्तर से ले कर ऊपर तक ये लोग अपनी समानांतर सरकार चला रहे हैं. वस्तुत: माफिया का तात्पर्य भी यही है. सरकार व कानून को अनदेखा कर मनमानी ढंग से काम करना ही इनका पेशा है.