घुटने टेक दिये हैं व्यवस्था ने

-हरिवंश- यह अनोखा देश है. इस देश का प्रशासिनक प्रधान अपनी आंखों से उन मूलभूत बुनियादों पर प्रहार देखता है, जिन पर इस संघ की बुनियाद टिकी है. फिर वह चंद शब्दों को प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुप्पी साध लेता है. सर्वसमर्थ व्यक्ति ही जब असमर्थता जताने लगे, तो लोग अराजकता को विकल्प के रूप में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 30, 2016 10:17 AM

-हरिवंश-

यह अनोखा देश है. इस देश का प्रशासिनक प्रधान अपनी आंखों से उन मूलभूत बुनियादों पर प्रहार देखता है, जिन पर इस संघ की बुनियाद टिकी है. फिर वह चंद शब्दों को प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुप्पी साध लेता है. सर्वसमर्थ व्यक्ति ही जब असमर्थता जताने लगे, तो लोग अराजकता को विकल्प के रूप में चुनते हैं. आखिर राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और इनके अमले जब संविधान कानून का क्रियान्वयन या उसकी रक्षा करने में अपनी असफलता का सार्वजनिक इजहार करते हैं, तो इससे क्या स्पष्ट होता है? पहली बात है, खुद को व्यवस्था का बंदी बता कर अपनी छवि बनाये रखने की ललक, लोगों को विश्वास दिलाना कि बड़े ओहदे पर आसीन होने के बाद भी परिवर्तन और बदलाव के प्रति प्रतिबद्धता बरकरार है. दूसरी महत्वपूर्ण बात है, अपनी असमर्थता की आड़ में अक्षमता को छिपाने की कोशिश.

ज्ञानी जैल सिंह अजमेर गये थे. पुष्कर स्थित प्रसिद्ध रंगजी के मंदिर में उन्हें जाना था. मंदिर में घुसने से पूर्व उन्होंने दरियाफ्त किया कि यहां कौन-सा मंदिर ऐसा है, जिसमें हरिजन प्रवेश पर पाबंदी है. पता लगा, उसी मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक है, जिसमें उन्हें जाना है. ज्ञानी जी वहां नहीं गये. उन्होंने खेद के साथ कहा, ‘कमाल है, आज भी ऐसा होता है.’ ‘ज्ञानी जैल सिंह एक स्वतंत्र व्यक्ति की हैसियत से अगर यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते, मंदिर का बहिष्कार करते, तो बात समझ में आती. जनता की रहनुमाई करनेवाला अगर कोई व्यक्ति इस स्थिति में मात्र शाब्दिक आक्रोश व्यक्त करता, तो इसे निरर्थक गुस्सा करार दिया जाता, लेकिन संविधान का प्रहरी और राष्ट्र का अध्यक्ष जब इस अक्षम्य घटना पर एक वाक्य उवाच कर मौन धारण कर ले, तो सामने भयानक भविष्य के अलावा कुछ और नहीं दीखता.

छुआछूत सामाजिक अपराध है. कानून की दृष्टि से जीवन में जो लोग छुआछूत मानते हैं, वे अपराधी हैं. उनके लिए दंडात्मक प्रावधान है, लेकिन देश की कार्यपालिका के प्रधान के सामने सरासर कानूनी प्रावधानों का माखौल उड़ाया जाये और वह अपने गुस्से का सार्वजिनक प्रदर्शन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ले, तो इसे आप क्या कहेंगे. यह स्थिति तो वैसी ही हुई कि कुख्यात अपराधी पुलिस आइजी के सामने अपना अपराध कबूल करे और आइजी आंखें तरेर कर कहे, तुम अपराधी हो और कोई कार्रवाई न करे. छुआछूत को मिटाने का इस देश के रहनुमाओं ने सपना देखा था. सच्चाई तो यह है कि इस सपने की हत्या से भारत के भविष्य की हत्या होगी. छुआछूत, सांप्रदायिकता और आर्थिक विषमता इस देश के सबसे बड़े शत्रु हैं. इनमें से किसी एक के साथ भी समझौता आत्मघाती होगा.

प्रधानमंत्री गुजरात और कर्णाटक के सूखा क्षेत्रों में हो रहे राहत कार्यों का निरीक्षण करने गये. गड़बड़ करते हुए रंगे हाथ उन्होंने अधिकारियों को पकड़ा. झुंझला कर बोले, फिर चुप ! इसे टीवी पर दिखाया गया. पिछले वर्ष वह मध्यप्रदेश में आदिवासी इलाके में गये थे. वहां आदिवासियों ने सरकारी अधिकारियों के सामने बताया कि ये लोग कमीशन ले कर कर्ज और राहत देते है. प्रधानमंत्री अधिकारियों पर बिगड़े, फिर चुप हो गये. इससे भ्रष्टाचार में लिप्त रहनेवालों का मनोबल बढ़ा है.

पिछले दिनों कलकत्ता में हुगली पर बन रहे पुल का एक हिस्सा गिर गया. 1972 से इसमें काम लगा है. अब तक 100 करोड़ की पूंजी इसमें लग चुकी है. आरंभ में 59 करोड़ में ही इसे बना लेने का अनुमान था. फिलहाल यह अधूरा है. इस पर अभी लोग आते-जाते नहीं, फिर भी ढांचा साबूत खड़ा नहीं रह पाया. कल्पना की जा सकती है कि आवाजाही शुरू हो गयी होती, तो किस कदर भयानक दुर्घटना होती, जो पुल अपना भार नहीं संभाल पा रहा. उस पर से रोजाना तकरीबन 90 हजार वाहन कैसे गुजरते? बिना किसी दबाव के पुल का ढांचा गिरने के पीछे कुछ चीजें साफ हैं. हमारे देश में राजनेताओं नौकरशाहों से मिल कर ठेकेदार सरकारी कोष लूटते हैं. निर्माण कार्यों में घटिया चीजें लगाते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. आखिर क्या है कि अंगरेजों के जमाने के 100 वर्ष से भी पुराने पुल साबूत हैं, काम कर रहे हैं और स्वतंत्र भारत में अरबों की लागत से बनी चीजें महीने भर इस्तेमाल के बाद ही बैठ गयी हैं. वास्तविकता तो यह है कि अपराधियों और लुटेरों के सामने हमारी व्यवस्था ने आत्मसर्पण कर दिया है.

पटना में भी गंगा पर लंबा पुल बना है. इस पुल का उल्लेख करते समय वहां के बाशिंदे यह बताने से नहीं चूकते कि विश्व का यह सबसे बड़ा पुल है. लेकिन पुल बनने के कुछ ही दिनों बाद एक मिनी बस पुल की बाड़ से टकरायी और मिनटों में नीचे चली गयी. बस में सवार 59 लोगों में से एक की लाश भी पहचानने लायक नहीं रही. पिछले दिनों एक और ट्रक पुल की बाड़ तोड़ कर गंगा नदी में गिर कर अलोप हो गया. बिहार सरकार के एक मंत्री ने पुल कमजोर होने के आरोप में जवाब दिया कि ‘बाड़ आदमी रोकने के लिए बनायी जाती है न कि बस-ट्रक’.

सार्वजनिक पैसों और जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ करनेवाले तत्वों के विरुद्ध कारगर कर्रवाई का न होना वर्तमान माहौल की स्वाभाविक परिणति है. कारण, व्यवस्था की कुंजी अपराधियों के हाथ सौंपी जा चुकी है. आखिर कानून के रक्षक ही, जब अपनी लाचारी का ढिंढोरा पीटेंगे, तो भला अपराधियों कालाबाजारियों की हौसला अफजाई नहीं होगी ! कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सपना देखा था कि स्वतंत्र भारत में कालाबाजारियों को सरेआम चौराहों पर फांसी दी जायेगी. बहरहाल आज कालाबाजार करनेवाले और अपराधी पग-पग पर आम जनता को फांसी पर चढ़ा रहे हैं.

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