-विशेष रिपोर्ट-
मिर्जापुर के दक्षिणांचल के आदिवासी सरकार और उद्योगपतियों के सौजन्य से अपनी ही भूमि में बेघर हो गये हैं. औद्योगिकीकरण की लहर ने मूल बाशिंदों की आजीविका तबाह कर दी है. जंगल विभाग ने बलात उनकी भूमि हथिया ली है. प्रदूषण विस्थापन और बेरोजगारी की मार इन पर अलग है. विकृत विकास के दुष्परिणामों और आर्थिक समृद्धि की झूठी कल्पना से मोहभंग के बाद अब ये संगठित हो कर सड़कों पर उतर आये हैं. इस अंचल से लौटने के बाद हरिवंश की रिपोर्ट. तसवीरें राजेंद्र तृषित ने ली हैं.
विस्थापन का यह कार्यक्रम इतना ताबड़तोड़ चला कि हजारों परिवारों के लोग हमेशा के लिए एक-दूसरे से बिछड़ गये. ट्रकों पर बलात लाद कर लोगों को जहां-तहां भेज दिया गया. उसी आपाधापी में झुकिया अपने परिवार से बिछड़ गयी. दूर जंगल के किसी गांव में उसे ठौर मिला, तो अब जंगलवारों ने धारा 4 के अंतर्गत जमीन छोड़ने की नोटिस दे दी है. पुलिस अलग सता रही है.
दुद्धी पड़ाव मैदान में गांधी जी के श्राद्ध दिवस पर आयोजित 12 फरवरी की सभा में भूमि हकदारी मोरचे के सभी संयोजक, गांवों के प्रतिनिधि, ब्लॉक प्रमुख, विभिन्न दलों के नेता, वनवासी सेवा आश्रम के प्रेम भाई, भूमि हकदारी मोरचा के संयोजक प्रताप नारायण, राम सिंह आदिवासी महेशानंद भाई आदि शामिल थे. सभा की विशेषता यह थी कि हर गांव से आये पीड़ित लोगों ने अपनी टूटी-फूटी भाषा में शासन द्वारा किये जोर-जुल्म का बखान किया. वक्ताओं ने देश के मुखिया या व्यवस्था की लानत-मलामत नहीं की, बल्कि सीधे और दो टूक शब्दों में अपनी पीड़ा बतायी.
इस सर्वदलीय सम्मेलन में कांग्रेस के नकछेदी राम (ब्लॉक प्रमुख) ने कहा कि 20-सूत्री कार्यक्रम का लाभ गांवों तक नहीं पहुंच रहा है. पर्यावरण खतरे में है. मूरता गांव के पूर्व प्रधान रामलेखावन ने कहा कि धारा 20 का खौफ दिखा कर जंगल विभाग ने हमारा जीवन तबाह कर दिया है. इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत प्रशासन की ओर से हरिजनों के लिए घर बनाया गया, कुछ ही दिनों में ऐसे घर गिर गये. नगवां गांव के प्रधान ने कहा कि जंगल विभाग ने हमारे पूरे गांव को ही जंगल अधिनियम की धारा 4 और 20 के अंतर्गत ‘सुरक्षित जंगल’ घोषित कर दिया है. प्रेम भाई ने कहा कि प्रतिवर्ष सरकार को इस अचल वन संपदा से 500 करोड़ की आमद हो रही है, इसलिए इस अंचल के विकास के लिए कैमूर विकास प्राधिकरण बनाया जायें.
स्थानीय रोजगारों में लोगों को हकदारी मिले, यही भूमि हकदारी का मकसद है. भाजपा मिर्जापुर के अध्यक्ष वीरेंद्र जी ने ललकारा कि 1988 का वर्ष दक्षिणांचल को नया जिला बनाने का वर्ष मनाया जाये. इसके बिना विकास संभव नहीं है. उनका तर्क था कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत जब तक जमीन का रेकॉर्ड दुरुस्त न हो जाये, किसी का विस्थापन नहीं किया जा सकता. फिर भी राज्य सरकार, प्रशासन और जंगल महकमे के लोग वनवासियों को उजाड़ रहे हैं.
पुश्तैनी जमीन का हक मांगने, विस्थापन रोकने, विकास में सहभागी बनने और दूषित पर्यावरण को दुरुस्त करने के क्रम में पिछले दो वर्षों से कैमूर के दक्षिणांचल में ऐसे जबरदस्त आयोजन हो रहे है. इन आयोजनों, प्रदर्शनों और संघर्ष के पीछे अनबोले लोगों का अनकहा दर्द है. इस संचल की वर्तमान पीड़ा की दास्तां आजाद भारत के जन्म से ही शुरू होती है.
बुंदेलखंड, छोटानागपुर और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित कैमूर पर्वतमाला में 433 गांव हैं. ये गांव मिर्जापुर जिले के दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसील में है. तकरीबन 4 लाख की आबादी है. राबर्ट्सगंज सोन नदी के इधर है और कैमूर सोन नदी के उधर. 9.23 लाख एकड़ में फैले इस अंचल में अपार प्राकृतिक संसाधन हैं. यह संसाधन ही इस क्षेत्र की तबाही का कारण बन गये है. इन संसाधनों को देख कर पूंजीपति, सरकार और ठेकेदार गिद्ध की तरह इस अंचल में मंडराने लगे है. सरकार की परिकल्पना इसे देश की ऊर्जा राजधानी बनाने की है.
लेकिन राजस्व अधिनियम के अंतर्गत इस इलाके में भूमि सर्वे और स्थायी बंदोबस्त (सेट्लमेंट) आज तक नहीं हुआ है. गजट में भी उल्लेख है कि इस सूबे का कोई रेकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. जो भी कागजात उपलब्ध हैं, वे ‘नजरी पैमाइश’ के आधार पर तैयार किये गये हैं. यहां के आदिवासी ‘शिफ्टिंग कल्टीवेशन’ करते हैं. किसान जिस भूमि को एक वर्ष जोतते थे, अगले दो वर्ष उसे परती रखते थे, तीसरे वर्ष पुन: जोतते थे. इस कारण भी रेकॉर्ड नहीं रहा. राजा या जमींदारों के शासन में भी रेकॉर्ड नहीं बनाये गये. अनुमान के आधार पर रकबा बंदोबस्त किया जाता रहा. भूमि राजस्व अधिनियम के तहत कागजात, खसरा-खतौनी, जिल्द बंदोबस्त आदि तैयार नहीं किये गये.
आदिवासी जंगल और कृषि पर निर्भर थे. सोन पर पुल नहीं था, इस कारण बाहरी संपर्क नहीं था. इस तरह मिर्जापुर में बैठे अधिकारी बिना यहां आये लोगों का भविष्य अपनी कलम से तय करने लगे. जब उत्तरप्रदेश काश्तकारी कानून (टिनेंसी ऐक्ट) लागू हुआ, तो जमींदारी स्वत: खत्म हो गयी. काश्तकार जमीन के मलिक बन गये. लेकिन इस क्षेत्र में आगरा काश्तकारी अधिनियम में मौरूसी संपत्ति के हक का प्रावधान नहीं था.
परिणामस्वरूप लाखों आदिवासी, जो सैकड़ों वर्ष से इन पहाड़ी गांवों में रह रहे हैं, जिन लोगों ने जंगलों को साफ-सुथरा बना कर कृषि योग्य भूमि तैयार की, खुदगर्ज नौकरशाहों की एक कलम से अपनी पैतृक संपत्ति से बेदखल कर दिये गये. सर्वे या बंदोबस्त का काम नहीं हुआ और आदिवासियों के हक दर्ज नहीं किये गये. उत्तरप्रदेश काश्तकारी बंदोबस्त के अंतर्गत इन्हें जो लाभ स्वाभाविक प्रक्रिया के अंतर्गत मिलते, उनसे इन्हें वंचित कर दिया गया. कातिबों की लेखनी ने आदिवासियों को अपनी परंपराओं-आस्थाओं, स्मृतियों और सांस्कृतिक धरोहर से एक झटके में अलग कर दिया.
उन्मत शासकों को फिर भी संतोष नहीं हुआ. सरकार ने आदेश दिया कि परती जमीनों की देखरेख जंगल विभाग कड़ाई से करे. अंधे जिलाधीश ने बगैर जांच पड़ताल के बंजर या परती पड़े भूमि के सभी टुकड़ों को जंगल महकमा को सौंप दिया. इस तरह जंगल विभाग आदिवासियों की पैतृक भूमि का मालिक बन बैठा. अपने ही मुल्क में वे आदिवासी शरणार्थी बन गये, जिन्होंने अंगरेजों के खिलाफ बगावत की थी. 1856 में इधर अंगरेजों ने कोयला खदानों को खोदना आरंभ किया, तो वनवासी इस बाहरी हस्तक्षेप से बिदक गये.
धीर सिंह-वीर सिंह नामक दो भाइयों ने सत्रह अंगरेजों का मुंड पात कर उन्हें खड्ड में डाल दिया. कहते हैं यहां रमकोरवा वनवासी मुखिया अंगरेजों से भी कर लेते थे. महात्मा गांधी के आंदोलन में हजारों की तादाद में ऐसे आदिवासी कूद पड़े. निपढ़, गंवार और देहाती-किस्मत राम, रामदेव, शनिचरण दुआ जैसे हजारों आदिवासियों ने गांधी के साथ अपना जीवन दांव पर लगा दिया. इनमें से आज भी कई जीवित हैं और गांधी की चर्चा चलते ही इनकी आंखों से अनियंत्रित अश्रुधारा फूट पड़ती है. इन स्वतंत्रता सेनानियों में से अनेक गांधीवादी तो गांधी से मिले भी नहीं हैं. बस उनका नाम और कौल सुन कर सर्वस्व होम कर दिया. ऐसे निरक्षर लोगों को लखनऊ के आधुनिक नबाब स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानते.
स्थानीय नौकरशाह इन्हें जलील करते हैं और अब तो इन्हें जमीन-घर से भी बेदखल कर दिया गया है. इस तरह धीर सिंह और वीर सिंह की औलाद और गांधी के सच्चे उत्तराधिकारियों को आजाद भारत के रहनुमाओं ने फिर गुलाम बना लिया है. सदियों से जंगलों से ये जलावन, गोंद, चिरौंजी आदि लाते रहे हैं, अब जंगल में घुसने पर इनकी धर-पकड़ होती है. ऐसे निर्दोष लोगों पर जंगल विभाग ने सैकड़ों मुकदमे चला रखे हैं. लेकिन पूंजीपतियों और नौकरशाहों से वन विभाग के अधिकारियों का तालमेल बढ़िया है. जंगल के असली हकदार जंगल के दुश्मन करार दिये गये हैं और उन्मूलन करनेवाले उसके रक्षक बन बैठे हैं.
कहते हैं, मुसीबत का आगमन अकेले नहीं होता. सो इस अंचल के बाशिंदों की दुर्दशा का अंतहीन सिलसिला चला. 1960 में रिहंद बांध बना. चुर्क में सीमेंट कारखाना लगा. रिहंद बांध से एक लाख एकड़ भूमि डूब गयी. 108 गांव नष्ट हो गये. लाखों लोग उजाड़ दिये गये. 55 हजार परिवार तबाह हो गये. कुछ को बलात पंजाब या बाहर भेज दिया गया. हजारों का अता-पता नहीं है, आज भी उन गांवों के लोग अपने पुराने गांवों को याद कर विचलित हो जाते हैं. डूबे खेतों में एक खास किस्म के सुगंधित धान की खेती थी. मशूहर मीठे आमों के बगीचे थे.
ऊपजाऊ खेत थे. सरकार ने इन उजड़े लोगों को बसाने का आश्वासन दिया, लेकिन भूमि बंदोबस्त के कागजात ही नहीं थे, तो हकदारी या मुआवजा क्या मिलता. ‘अधिया पर ढेला ढोने’ की कहावत चरितार्थ हुई. मनमाने तौर से जंगल महकमा की जमीन प्रति परिवार साढ़े तीन से 10 बीघा के हिसाब से वितरित कर दी गयी. पता चला कि सरकार द्वारा वितरित ऐसे प्लाटों के पहले से ही पांच-छह हकदार थे. इस तरह एक ही सरकार ने एक ही भूमि के टुकड़े पर छह दावेदार खड़े कर दिये. (1) मौरूसी वनवासी काश्तकार (2) रिहंद डूब से विस्थापित व्यक्ति (3) भूदान आदाता (4) 20 सूत्री कार्यक्रम का पट्टेदारी भूमिहीन (5) जंगल विभाग (6) ग्राम समाज.
इसके बाद सरकार ने पुन: तय किया कि इस अंचल की कुल 9.23 लाख एकड़ भूमि में से 7.89 लाख एकड़ भूमि का जंगल अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत जंगल की भूमि घोषित कर दिया जाये. यह भी प्रस्ताव आया कि इसे ‘आरक्षित जंगल’ बना दिया जाये. इसके बावजूद सर्वे रेकॉर्ड-बंदोबस्त कानून को अपडेट नहीं किया गया. पगलाये और विक्षिप्त मानसिकता के कानून निर्माता यह सुनिश्चित करना बार-बार जानबूझ कर भूल गये कि सदियों से रहनेवाले, आदिवासियों के हक का सवाल, देश के दूसरे बाशिंदों की तरह क्यों नहीं सुलझाया जा सकता है?
एक तरफ तो आदिवासियों को बेदखल करने की प्रक्रिया जारी रही, दूसरी ओर औद्योगिकीकरण की लहर तेज होती गयी. इस अंचल में पांच सुपरथर्मल स्टेशन, चार सीमेंट कारखाने, एक अल्मूनियम कारखाना, एक कार्बन ब्लैक कारखाना, रसायन कारखाना, अनेक कोयला खदानें ओर छोटे-मोटे कारखाने खुल गये हैं.
एक ओर औद्योगिकीकरण की तेज रफ्तार, दूसरी ओर बार-बार वनवासियों को उखाड़ फेंकने के सरकारी फरमान! इन दोनों के बीच बड़ा गहरा रिश्ता है. आदिवासियों से जंगल को सुरक्षित बचाने का कथित अभियान चला कर कलकत्ता-बंबई के उद्योगपतियों को बिजली, कोयला और प्राकृतिक संसाधन मुहैया कराये जा रहे हैं. विकास के काम से जुड़ी जो सरकारी एजेंसियां इधर आयीं, उन्होंने भी पाया कि भूमि सर्वेक्षण और पर्यावरण को शुद्ध बनाये बिना यहां विकास नहीं हो सकता. 1972 में राष्ट्रीय कृषि आयोग इस इलाके में आया. 1986 में राष्ट्रीय बंजर-बेकार भूमि विकास बोर्ड की अध्यक्ष श्रीमती कमला चौधरी आयीं. इन लोगों ने इस क्षेत्र के विकास के लिए सरकार को महत्वपूर्ण सुझाव दिये. लेकिन सरकार ठोस कदम उठाने के बजाय नये-नये आयोग-समिति का ही गठन करती रही.
इसी बीच 1981 में जंगल अधिनियम में संशोधन किया गया. जंगल के कानूनों को सख्त बनाया गया. सरकारी गजट में अधिसूचना जारी हुई. इन गांवों से 200 कि.मी. दूर बैठ कर मिर्जापुर से ही जंगल बंदोबस्त अधिकारी ने सरकारी फरमान पर अमल के आदेश जारी किये. अनपढ़-भोले-भाले और शहर से दूर बसे आदिवासी इन सरकारी आदेशों से वाकिफ नहीं थे. जब उन्हें पुलिस जबरन पुश्तैनी खेत-घर से बेदखल करने लगी, तो वे अचकचा गये. शासन की निगाह में वे बलात कब्जाधारी (इनक्रोचर) बन गये. पुलिस के डंडे उन पर बरसने लगे.
जमीन के असली हकदार का भविष्य पुलिस और जंगल अधिकारी तय करने लगे. मजिस्ट्रेटों के उड़नदस्ते बनाये गये. मजिस्ट्रेट ही, सजा देनेवाला, जांच करनेवाला, कानून का पालन करनेवाला और न्यायकर्ता यानी सर्वेसर्वा बन गया. 1983 में उत्तरप्रदेश राजस्व परिषद के अध्यक्ष माहेश्वर प्रसाद समिति ने भी इस इलाके की समस्याओं के संबंध में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी. श्री प्रसाद ने लिखा कि इस आदिवासी इलाके में सरकारी अन्याय के प्रति जन आक्रोश है, जो कभी भी भड़क सकता है और कानून व्यवस्था के लिए संकट पैदा कर सकता है.
इस बीच बनवासी सेवा आश्रम गोविंदपुर के संचालक प्रेम भाई ने अपने स्तर से कोशिश आरंभ की. ऐसे उग्र अन्याय-शोषण के बावजूद अगर इस अंचल में गांधीवादी तरीके से अहिंसक आंदोलन चल रहा है, तो इसका श्रेय गांधी और जेपी के अनुयायी प्रेम भाई और प्रताप नारायण को है. 1982 में वनवासी सेवा आश्रम ने एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की. इस याचिका पर 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन आदेश दिये. (1) दुद्धी तथा राबर्ट्सगंज के सभी गांवों में भूमि सर्वेक्षण की प्रक्रिया पूरी होने तक किसी भी वनवासी, हरिजन, पिछड़ी जाति के किसी व्यक्ति को विस्थापित-बेदखल न किया जाये (2) सर्वेक्षण भूमि-विवाद की प्रक्रिया 20.9.83 तक पूरी की जाये (3) इस विवाद को निपटाने के लिए एक उच्चस्तरीय न्याय प्राधिकरण गठित किया जाये.
लेकिन माहेश्वर प्रसाद समिति और सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अप्रैल 1986 तक कुछ नहीं हुआ. अंतत: अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए 7 मई 1987 को प्रताप नारायण के संयोजकतत्व में भूमि हकदारी मोरचा का गठन हुआ. गांव-गांव में बड़ी तेजी से इसका प्रसार हुआ. 400 गांवों में इसकी इकाइयां हैं. दशकों से पीड़ित लोगों को एक सशक्त मंच मिला.
इसी बीच आंदोलन की सुगबुगाहट देख कर 5 अगस्त 1986 को उत्तरप्रदेश सरकार ने सचिव हरगोविंद डबराल (आइएएस) के नेतृत्व में एक विशिष्ट एजेंसी के गठन की घोषणा की. उनके तहत पांच आइएएस अफसरों, पांच अभिलेखन इकाइयों तथा 750 सर्वे कर्मचारियों की नियुक्ति की घोषणा हुई, एक करोड़ रुपये का बजट बनाया गया. समयबद्ध कार्यक्रम तय नहीं किया गया. जब दो माह तक भी डबराल और उनका लश्कर मौके पर नहीं पहुंचे, तो मोरचे ने दुद्धी-बीजपुर बंद, चक्का जाम और जेल भरो आंदोलन आरंभ किया.
2-3 अक्तूबर 1986 को दुद्धी, रेणुकूट, बीजापुर में सड़क और रेल पथ अहिंसक रूप से अवरुद्ध किये गये. जगह-जगह हुए प्रदर्शन में पीएसी ने हजारों वनवासियों की पिटाई की. बीजपुर मोरचा के संयोजक शिवराम का हाथ तोड़ दिया गया. आदिवासियों से अभद्र व्यवहार किया गया. इन लोगों की मांग थी कि माहेश्वर प्रसाद समिति की रिपोर्ट, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश लागू किये जायें. सरकारी कानून को लागू कराने की मांग भला अंधे नौकरशाहों को कैसे नहीं खटकती.
इस बीच पुन: वनवासी सेवा आश्रम के लोग सर्वोच्च न्यायालय गये. उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा उठायी गयी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए नवंबर 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मसले पर ऐतिहासिक निर्णय दिया. सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार बंदोबस्त, सर्वे और रेकॉर्ड बनाने का समयबद्ध काम होना चाहिए. सभी को दावा करने का अवसर मिलना चाहिए. अदालत के द्वारा दिये गये आदेश के कार्यान्वयन की जांच-परख के लिए ‘बोर्ड ऑफ कमिश्रर’ की नियुक्ति की जाये. राज्य सरकार को जिला कानून सहायता समिति को 5 लाख रुपये देने, पांच अनुभवी सहायक जिला जजों की नियुक्ति जैसे अनेक महत्वपूर्ण आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दिये.
लेकिन ढाक के वही तीन पात. केंद्र-राज्य सरकार के आदेश, सर्वोच्च न्यायालय की सख्त हिदायत के बावजूद नौकरशाहों का अड़यिल रवैया पहले जैसा ही है. इसी अड़यिल रवैये के खिलाफ 12 फरवरी 1988 को दुद्धी में आयोजित विशाल सभा ने भूमि हकदारी मोरचा के माध्यम से स्थानीय प्रशासन को 7 सूत्रीय प्रस्ताव दिया और इसके समयबद्ध कार्यान्वयन के लिए अल्टीमेटम भी.
मीडिया की चकाचौंध से परे भूमि संघर्ष मोरचा के प्रताप नारायण बताते हैं कि कैमूर घाटी में चल रहे आदिवासियों के संघर्ष को रविवार (21-27 सितंबर ’86, उदयन शर्मा) की आमुख कथा से ही नया आयाम मिला. सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की गंभीरता देखते हुए तत्काल राज्य सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने के स्पष्ट आदेश दिये. कांग्रेस सांसद राम प्यारे पन्निका अपनी सभाओं में घूम-घूम कर रविवार में प्रकाशित तथ्यों के संबंध में कुप्रचार करने लगे. इससे आंदोलन को और बल मिला. क्योंकि श्री पन्निका की छवि इस अंचल में साफ-सुथरी नहीं है. प्रताप नारायण को मीडिया से शिकायत है कि इस पिछड़े अंचल में चल रहे संघर्ष को राजनीतिक अफवाहों की तुलना में कम महत्व मिलता है. लोकायन ने इस अंचल में सांगोपांग काम किया है और लोक संघर्ष को नया आयाम दिया है. नरेंद्र नीरव जैसे कुछ स्थानीय पत्रकारों ने दक्षिणांचल में चल रहे ऐसे आंदोलनों की तह में जा कर सामाजिक अन्याय के मुद्दों को उजागर किया है, लेकिन प्रशासन पर इन प्रयासों का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा.
सर्वोच्च न्यायालय के सख्त आदेश के 15 माह बाद भी एक भी गांव का बंदोबस्त पूरा नहीं हुआ है. इस संबंध में प्रताप नारायण कहते हैं. ‘सर्वे एजेंसी में सेवामुक्त अधिकारियों को भेजा गया है. ये लोग अपने पारिवारिक दायित्व मसलन लड़की की शादी के लिए धन इकट्ठा कर रहे हैं. इन लोगों के सेवा रेकॉर्ड में कुछ दर्ज नहीं होना है, क्योंकि ये रिटायर्ड हैं. इसलिए बेफिक्र हैं. इस दुर्गम अंचल में नियुक्त होने के एवज में इन्हें 30 फीसदी अधिक वेतन अलग मिलता है. 16 गाड़ियां मिली हैं.’ इन अधिकारियों की रुचि लंबे समय तक काम लटकाये रखने में है. सर्वेवालों ने मुख्य सचिव से शिकायत की है कि भूमि हकदारी मोरचेवालों के कारण सर्वे में विलंब हो रहा है.
असलियत कुछ और है. अधिकारी पद-पैसे का दुरुपयोग कर रहे हैं. आगामी 10 सालों के लिए थोक सर्वे स्टेशनरी पहले ही खरीद ली गयी है. यह अलग प्रश्न है कि तब तक अनेक उपकरणों में जंग लग जाये या वे खराब अथवा गायब हो जायें. जाहिर है कमीशन के लिए ऐसा किया गया. रेकॉर्ड आफिसर इस पिछड़े अंचल में भी 5000 रुपये प्रतिमाह किराया दे कर रहते हैं. रेणुकूट में भी 5000 रुपये प्रतिमाह पर सरकारी दफ्तर की जगह ली गयी है. गाड़यिों में बीवी-बच्चों के साथ ये अफसर तफरीह करते है. सहायक रेकार्ड अधिकारी गांववालों को समय दे कर नहीं पहुंचते. पेशकार पैसे ले कर पेशी की अगली तारीख बताता है. सरकारी वाहन होने के बावजूद ये सरकारी कर्मचारी गांवों में नहीं जाते. दुद्धी या राबर्ट्सगंज से ही मामला निबटाते हैं. पचासों कि.मी. पैदल चल कर आये लोग अकसर निराश लौटते हैं. मौरूसी हक दर्ज कराने के लिए प्रति परिवार 300 से 3000 रुपये तक रकम घूस ली जा रही है.
प्रताप नारायण तत्काल नया जिला बनाने की मांग करते हैं. यह मांग पुरानी है. उनकी पीड़ा है कि इस मांग के बाद उत्तरप्रदेश सरकार ने हरिद्वार, मऊ और कुशीनगर तीन नये छोटे-छोटे जिलों का गठन किया. लेकिन मिर्जापुर में नया जिला नहीं बना. चूंकि अब विकास की धुरी जिलाधीश कार्यालय के इर्द-गिर्द घूमती है. इसलिए 250-300 कि.मी. दूर बैठा आदमी जिलाधीश महोदय का दर्शन नहीं कर पाता, इससे इस अंचल का विकास ठप्प है. जिला ग्रामीण विकास प्राधिकरण का कार्यालय मिर्जापुर में है. इस कारण दक्षिणाचंल के 433 गांवों में विकास की रोशनी नहीं पहुंचा पा रही. यहां बड़े-बड़े जागीरदार हैं. उत्तरप्रदेश के एक शक्तिशाली मंत्री का बड़ा और मशहूर कृषि फार्म यहीं है. ऐसे गांवों पर स्थानीय प्रशासन मेहरबान रहता है. उन गांवों के विकास और तामझाम के नाम पर फिजूल व्यय किया जाता है, लेकिन जरूरतमंद आदिवासियों को साठ के दशक से ही बेवजह तंग किया जा रहा है.
1961 में नेहरू जी चुंबकीय व्यक्तित्व और आश्वासन से कुछ लोगों ने रिहंद बांध के लिए बेहतर भविष्य का सपना संजोये अपने घर-बार खाली कर दिये थे. फिर भी कुछ लोगों को जबरन भगाया गया. प्रशासन द्वारा एक तरफ यह ऐलान हो रहा था कि ‘अपना सामान निकाले, घर खाली करें.’ उधर रिहंद का पानी छोड़ दिया गया. गांव डूबने लगे. अब रिहंद बांध से उजड़े लोग पूछते हैं कि हमारी नियति क्या दूसरों के विकास के लिए कुर्बानी देना है? जो औद्योगिकीकरण-विकास स्थानीय लोगों को सुख-चैन, समृद्धि और सुरक्षा न दे, महानगरों के लिए बिजली, पूंजीपतियों के उद्योगों के लिए संसाधन और ऊर्जा आपूर्ति की कॉलोनी बन जाये, तो इससे बढ़ कर नव उपनिवेशवाद की बदसूरत शक्ल कुछ और नहीं हो सकती. मूल निवासियों का आर्थिक-सांस्कृतिक क्षय और सामाजिक विभाजन इस दूषित ‘विजन’ का प्रतिफल है. विस्थापन और दूषित पर्यावरण इस ‘विजन’ से जन्मी आधुनिक महामारी हैं.
औढ़ी, अनपरा, डिबुलगंज, परासी, पिपरी, बेलवादह आदि गांवों के विस्थापित परिवार पिछले 8-9 वर्षों से भटक रहे हैं. ग्राम प्रधान काशी राम तल्खी से पूछते हैं कि बाहरी अधिकारी, औद्योगिक इकाइयों के प्रबंधक आखिर हम मूल बाशिंदों को ही दो नंबर का नागरिक क्यों समझते हैं? चिकित्सा के लिए इन संस्थानों के अस्पतालों में हमें क्यों नहीं सुविधाएं मिलतीं? घायल या मरते व्यक्ति को 250 कि मी. दूर मिर्जापुर-बनारस ले जाने के लिए हम मजबूर हैं. इनके द्वारा संचालित स्कूलों में हमारे बच्चों को दाखिला नहीं मिलता, आखिर अपनी ही धरती पर उजाड़ कर हमारे अस्तित्व को मिटाने की कोशिश क्यों हो रही है! बाहर से आये अफसर अपने बेटे-बेटियों के नाम से इन जगहों का नामकरण करते हैं, आर्थिक और सांस्कृतिक मोरचे पर लगभग हमें पंगु बना दिया गया है.
दूषित होते पर्यावरण से यहां के बाशिंदों के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया है. हिंडालकों और कानोड़िया कारखानों से नदियों का जल दूषित हो रहा है. सीमेंट और कोयले की परतें जगह-जगह जम जाती हैं, मवेशी दूषित पानी को पी कर बीमार पड़ते और मर जाते हैं. शहीद दिवस (30 जनवरी) के अवसर पर इस वर्ष भूमि हकदारी मोरचा की ओर से बढ़ते प्रदूषण के खिलाफ डाला में बड़ा प्रदर्शन हुआ. महेशानंद के अनुसार प्रदूषण के कारण इस अंचल में मिर्चे की तिक्तता खत्म हो गयी है. आम व अमरूद की मिठास नहीं रही. डाला में कारखाने की चिमनी से निकलनेवाले धुएं से लगभग 50 गांवों में पशु-पक्षी, कृषि एवं जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. टीबी के रोगी बढ़ रहे हैं.
सुनहले भविष्य और ‘राष्ट्रीय समृद्धि’ का चकमा दे कर बार-बार लोगों को उजाड़ने, विस्थापित करने, दर-दर भटकने और अंतत महानगरों में मजदूर के रूप में गुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर करनेवाली व्यवस्था को स्थानीय लोग देशी साम्राज्यवाद की संज्ञा देते हैं, तो भला उनका क्या कसूर है!