-हरिवंश-
मसौढ़ी (पटना) की घटना है. एक जोतदार को एक विशेष ‘कोर्ट’ में हाजिर होने का परवाना मिला. भयभीत-सशंकित जोतदार बताये गये स्थल पर पहुंचा. देखा, उसके घर जो नौकर है, वह मुख्य न्यायाधीश की कुरसी पर आसीन है. दंड मिला- अदालत में उपस्थित लोगों के सामने शारीरिक प्रताड़ना व आर्थिक जुरमाना, शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं. ऐसी अदालतें नक्सलवादी अदालतों के रूप में विख्यात हैं. वहां मुजरिम की अनुपस्थिति में भी फैसले होते हैं. उन पर अमल भी होता है. बताते हैं कि इस इलाके में न्याय अतिवादियों द्वारा होता है और उनका फैसला सर्वमान्य होता है. विरोध निषिद्ध है. इस अदालत के निर्णय के बाद कहीं और अपील की गुंजाइश नहीं.
पटना से गया तक का अंचल नक्सलवादियों के प्रभुत्व में है. अधिकारी भी इसे स्वीकारते हैं. एक प्रमुख कांग्रेसी मंत्री ने बातचीत में बताया कि पूरे क्षेत्र में अतिवादियों ने अपने डीआइजी, एसपी व सिपाही नियुक्त कर सामानांतर संगठन गठित कर लिया है. सरेआम ये लोग अस्त्र-शस्त्र समेत घूमते हैं. ये अस्त्र-शस्त्र प्राय: पुलिस से लूटे जाते हैं. पटना के आसपास के इलाकों में आदमी को छह इंच छोटा करना का मुहावरा प्रचलित है.
पटना जिले में अतिवादी गतिविधियों से प्रभावित क्षेत्र है – मसौढ़ी, विक्रम, पाली, नौबतपुर, फतुहा, पुनपुन व धनुरुआ. उन क्षेत्रो के अधिकांश पिछड़े लोग किसानसभा के झंडे के नीचे एकजुट हैं. किसानसभा की मांगें मजूरी बढ़ाने, न्यूनतम मजदूरी लागू करने से संबंधित हैं. इस क्रम में किसानसभा के सदस्य जुलूस, बैठकें, हड़तालों का आयोजन आदि करते रहे हैं.
पटना जिले में 67.1 फीसदी जनसंख्या कृषि में संलग्न है. इसमें 51.6 फीसदी कृषक मजदूर हैं, लेकिन इस क्षेत्र में 68.4 फीसदी भूमि सीमांत कृषकों के पास है. अंगरेजों के जमाने से यहां जमींदारी प्रथा चली आ रही है. जमींदारों में अधिसंख्य उच्च वर्ग के लोग हैं. जमींदारों की रियाया मुख्यतया दो प्रकार की होती थी. यादव, कुर्मी, कोईरी भी जोतदार थे. बड़े-छोटे व सीमांत कृषकों की कृषि के लिए कहार, चमार, मुसहर और दुसाधों के बीच ही मजूर मिलते थे. इस इलाके का पहला बड़ा सर्वे 1907 में हुआ. उस समय गैरमजरुआ (जिन जमीनों का कोई मालिक नहीं था) जमीनें काफी थीं. उन पर हकदार के रूप में रैयतों के नाम चढ़े व खेत के मालिक हो गये. जमींदारी उन्मूलन के बाद इस तरह इधर एक अतिरिक्त ताकतवर वर्ग उभरा.
देश के प्रमुख शोध संस्थान, एएन सिन्हा संस्थान की ओर से आयोजित एक सर्वेक्षण के अनुसार इस इलाके में भूस्वामियों के पास 87.1 फीसदी भूमि हदबंदी कानून से अधिक है. यह आकलन नक्सलवादियों से प्रभावित क्षेत्र का है. इस ‘बेशी भूमि’ के मालिक मात्र तीन परिवार के लोग हैं. इन लोगों ने मात्र 100 एकड़ भूमि ’बेशी भूमि’ के रूप में घोषित कर स्वत: सीमांत कृषकों के बीच वितरित की है.
सोन नहर के निर्माण में नौबतपुर, विक्रम, पाली ब्लॉकों में वर्ष में कई फसल उपजाने व काटने का अवसर किसानों को मिला. खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त नकदी फसल (ईख आदि की खेती) बड़े पैमाने पर होने लगी. जमीन के दाम आसमान चढ़ गये. बड़े किसानों की स्थिति सुधरी, लेकिन गरीब मजदूरों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. यही कारण है कि 1970 के दशक में भी इस इलाके में अशांति रही.
किसानसभा की प्रतिक्रिया में बड़े किसानों का भी संगठन बना – ‘ब्रह्मर्षि सेना’. ये लोग बदले की कार्रवाई करते हैं. संगठन के लिए संपन्न कृषकों से प्रति माह चंदा इकट्ठा किया जाता है. इन लोगों को पटना के राजनीतिज्ञों से भी शह मिलती है.यहां जो कुछ हो रहा है, यह न पूर्ण रूप से वर्ग संघर्ष है, न वर्ण संघर्ष. दोनों का मिलाजुला रूप है. इस क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उससे एक फर्क अवश्य आया है. बेसहारा लोगों की दैनिक मजदूरी बढ़ी है. इनका संगठन मजबूत हुआ है और अत्याचार-शोषण कम हुआ है. दलितों में आत्सम्मान का भाव जगा है. लेकिन शासन का अत्याचार बढ़ा है. पुलिस आतंक से लोग डरते हैं, क्योंकि संपन्न कृषकों व पुलिस के बीच सांठगांठ है.
केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय से लगभग एक साल पहले एक उच्चस्तरीय समिति इस इलाके में आयी थी. इलाके का दौरा करने के बाद समिति ने सरकार से तत्काल लोगों के सामाजिक-आर्थिक सुधार के न्यूनतम कार्यक्रम आरंभ कराने का अनुरोध किया था. उनका निष्कर्ष था कि यहां समस्या सामाजिक व आर्थिक है, कानूनी नहीं.