-हरिवंश-
11 वर्षों बाद हुए यह चुनाव कई संदर्भों में विशिष्ट हैं. पाकस्तिान के शासकों की पुरानी पीढ़ी के तिकड़मबाज नेताओं से जनता ने छुटकारा पाने की कोशिश की है. महिलाओं के विरुद्ध धर्मांध मुल्ला-मौलवियों की चीख के बावजूद बेनजीर भुट्टो की पार्टी को पाक की जनता ने भरपूर समर्थन दिया है. वस्तुत: यह चुनाव अनुदार व पीछे धकेलू शक्तियों और आधुनिक समाज गढ़ने के पैरोकारों के बीच भी हुआ. चुनाव परिणामों के आधार पर पाकिस्तान की राजनीति में संभावित परिवर्तनों का हरिवंश द्वारा विश्लेषण.
लाहौर और इसलामाबाद से प्रकाशित होनेवाले अंगरेजी दैनिक ‘पाकिस्तान टाइम्स’ ने चुनाव के ठीक पूर्व सुर्खियों में यह खबर छापी कि ‘जनता ने इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद के पक्ष में फैसला दे दिया.’ बरगलानेवाली यह भ्रामक खबर शासन में पदारूढ़ कट्टरपंथियों के इशारे पर प्रकाशित की गयी. इस अखबार ने यह निष्कर्ष 14 नवंबर को लाहौर में इस दल द्वारा आयोजित बड़ी रैली के आधार पर निकाला. हकीकत यह है कि बेनजीर की हर रैली- सभा इस बार अभूतपूर्व हुई. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सभा में शिरकत करनेवालों में एक अजीब स्वत: स्फूर्त उमंग-उत्साह था. पाकिस्तान गये पत्रकारों को यह दृश्य देख कर 1977 में हुए भारत के आमचुनावों की याद ताजा हो आयी.
पंजाब प्रांत में 114 सीट, सिंध में 46 सीट, पश्चिमी सीमाप्रांत में 25 सीट, बलूचस्तिान में 11 सीट, अफगान सीमावाले क्षेत्र में आठ और इसलामाबाद में एक सीट के लिए मतदान हुआ. इस चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने 182 और इसलामिक गंठजोड़ ने 172 उम्मीदवार खड़े किये थे. कुल 1,273 उम्मीदवार मैदान में थे. जमायत-ए-उलेमा इसलाम ने 40, अवामी नेशनल पार्टी ने 29 और पाकस्तिान नेशनल पार्टी ने 14 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेता एक से अधिक जगहों से चुनाव लड़े. बेनजीर भुट्टो लरकाना, लाहौर और कराची से चुनाव लड़ीं. तीनों जगहों से वह भारी बहुमत से चुनाव जीतीं. उनकी मां नुसरत भुट्टो भी दो जगहों से चुनाव लड़ीं. उन्हें भी दोनों सीटों पर कामयाबी मिली.
पाकिस्तान के भविष्य के संदर्भ में इस चुनाव का बड़ा निर्णायक महत्व है. ‘लोकतंत्र बनाम तानाशाही’ के सवाल पर संपन्न हुए इस चुनाव में असली लड़ाई पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद (आइडीए) के बीच ही थी. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मरहूम भुट्टो की याद के साये में अपनी चुनावी रणनीति संचालित की. इस दल की कमान बेगम नुसरत भुट्टो और उनकी पुत्री बेनजीर भुट्टो के हाथों में थी. राष्ट्रपति इशाक खां और सेना के प्रमुख जनरल मिर्जा असलम बेग ने बार-बार आश्वासन दिया था कि मतदाताओं के निर्णय की कद्र की जायेगी और शांतिपूर्ण व सहज तरीके से सत्ता हस्तांतरण संपन्न होगा.
लेकिन ऐसे आश्वासनों के बावजूद पाकिस्तान की भुक्तभोगी जनता को शासकों की बातों-आश्वासनों पर भरोसा नहीं रह गया था. उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से कि मतदाताओं को चुनाव के वक्त राष्ट्रीय पहचान पत्र दिखाना होगा, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को झटका लगा. इस दल ने दावा किया कि इस निर्णय से उसके तकरीबन 60 लाख समर्थक मतदान करने से वंचित रह गये. भूमि सुधार और गरीबों के पक्ष में प्रभावी कदम न उठाये जाने के कारण पाकिस्तान में अभी भी सामंती तत्वों का बोलबाला है. चुनावों के ठीक पूर्व 15 नवंबर को पाकिस्तान के चालीस उलेमाओं ने बेनजीर के खिलाफ एक फतवा जारी कर दिया.
इन लोगों के अनुसार पाकिस्तान एक महिला के नेतृत्व में कभी तरक्की नहीं कर सकता. बेनजीर भुट्टो की पश्चिम में हुई पढ़ाई के संदर्भ में उलेमाओं का सवाल था कि उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वह शासन इसलामी रास्ते से चलाना चाहती हैं या आधुनिकता के गड्डे में गिराना चाहती हैं. पीपुल्स पार्टी की विरोधी पार्टी, इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद ने उलेमाओं के इस फतवे का पुरजोर समर्थन दिया. इन चुनाव परिणामों से ही यह रास्ता भी तय तय होना है कि पाकिस्तान भविष्य में आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहता है या कट्टरपंथियों, मौलवियों के कब्जे में मध्ययुग की याद दिलानेवाले राष्ट्र के रूप में उभरना चाहता है. निश्चत रूप से बेनजीर की विजय से लोकतांत्रिक संस्थाएं पाकिस्तान में मजबूत होंगी, लेकिन सेना के भ्रष्ट अफसर, जिन्हें सत्ता का स्वाद मिल चुका है, लोकतंत्र के बिरवे को कहां तक बढ़ने देते हैं, यह गौर करने की चीज होगी.
बेनजीर भुट्टो ने आरंभ से ही अपनी सभाओं में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के मुद्दों को उठाया. अपनी हर तकरीर में उन्होंने पाकिस्तान की पीछे धकेलू शक्तियों पर प्रहार किया. खैबर से कराची तक गरीब, दलित और सामंतों के जुल्म के शिकार लोगों को मौलिक अधिकार देने की बात उठायी. भुट्टो द्वारा दिये गये ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के नारे का इस चुनाव में भी काफी असर रहा. इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद के नेताओं ने इस नारे के जवाब में पाकिस्तान को ‘कल्याणकारी राज्य’ बनाने का नारा दिया. इस दल के प्रवक्ताओं ने कहा कि हम निजी क्षेत्र को तरजीह देंगे और देश के कायापलट के लिए अनेक सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम लागू करेंगे. इन लोगों ने बेनजीर भुट्टो और उनके दल पर आरोप लगाया कि ये लोग विदेशी ताकतों के हाथों में खेल रहे हैं. देश को तबाह करना इनका एकमात्र मकसद है.
इन लोगों के अनुसार बेनजीर की विजय के बाद देश में अमेरिका समेत विदेशी ताकतों का हस्तक्षेप बढ़ जायेगा और पाकिस्तान का आणविक प्रतिष्ठान कहुटा अमेरिकी निरीक्षण के लिए खोल दिया जायेगा. पाकस्तिान टाइम्स अखबार ने भी पाकस्तिान पीपुल्स पार्टी और उसके नेताओं के खिलाफ माहौल बनाने की पुरजोर विफल कोशिश की. पाकिस्तान मीडिया की दलील थी कि पश्चिमी प्रचारतंत्र बेनजीर भुट्टो की छवि को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत कर रहा है, क्योंकि बेनजीर पश्चिमी देशों के स्वार्थों को पूरा करेंगी. कुछ दूसरे अखबारों ने यह भी कहा कि अगर बेनजीर सत्ता में आयेंगी, तो वह रूस, भारत और यहूदी ताकतों के हाथों में खेलेंगी.
गोर्बाचौफ की भारत यात्रा और मालदीव में भारत की शक्ति इजहार के बारे में भी पाकिस्तान को इन चुनावों की चर्चा हुई. इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद के लोगों ने यह भी नारा दिया कि ‘विदेश में भारत और देश में बेनजीर’ पाकस्तिान के असली दुश्मन हैं. पाकस्तिान के पूर्व प्रधानमंत्री और मुसलिम लीग के प्रधान मुहम्मद खां जुनेजो को पाकस्तिान पीपुल्स पार्टी ने करारा जवाब दिया. जुनेजो की पराजय कट्टरपंथी तत्वों के लिए गहरा झटका है.
वस्तुत: यह चुनाव मरहूम भुट्टो और जिया उल हक के पक्षधरों के बीच लड़ा गया. अस्वाभाविक मौत मरे ये दोनों नेता चुनाव चर्चा के केंद्र बिंदु बने रहे. ‘लोकतंत्र बनाम इसलामीकरण’ के साथ-साथ ‘जन शासन बनाम सैन्य शासन’ की खूबियों पर बहस करनेवालों ने इस बार स्वायत्तता, अर्थनीति, विदेश नीति, रक्षा सेवा और इसलामीकरण के मुद्दों पर भी चर्चा की.
इसलामिक डेमोक्रेटिक एलायंस (जिसमें मुसलिम लीग का आधिपत्य था) ने इन सवालों पर यथास्थिति बनाये रखने और जिया की परंपरा को ही आगे बढ़ानेवाला रुख अपनाया. पीपुल्स पार्टी के आधारभूत समर्थक शहरी व देहात के मध्य वर्ग, गरीब और महिलाएं थीं, लेकिन इस बार दल ने भू-सामंतों और उद्योगपतियों की भी मदद ली. इस बार बेनजीर और उनके समर्थकों ने निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देने की बात की और राष्ट्रीयकरण से इनकार किया. ‘70 के दशक में पीपुल्स पार्टी के शासन के दौरान पाकिस्तान में कुछ उद्योगों का राष्ट्रीयकरण हुआ था. घोटाले करानेवाले पूंजीपतियों को हथकड़ी लगा कर सड़कों पर घुमाया गया था. इससे यह वर्ग भुट्टो की पार्टी के खिलाफ षडयंत्र में शामिल हो गया. लेकिन अब पीपुल्स पार्टी के नेता इन तत्वों को साथ ले कर चलना चाहते हैं. इस कारण भूमि सुधार और गरीबों को जमीन देने की उनकी बात में अब पुरानी विश्वसनीयता नहीं रही.
इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद के मुख्य समर्थक उच्च शहरी मध्य वर्ग, धार्मिक उलेमा, व्यापारी और पूंजीपति हैं. इस कारण आठ दलों का संगठन इत्तेहाद निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देने का बार-बार आश्वासन देता रहा. पीपुल्स पार्टी महाशक्तियों के साथ समान संबंध कायम करने की पक्षधर है. साथ ही यह पार्टी अफगानस्तिान के मसले पर जिनेवा समझौता लागू करना चाहती है. कश्मीर समस्या के सही समाधान, तीसरी दुनिया के पिछड़े देशों के साथ हमदर्दी की नीति अपनाना चाहती है. हालांकि असलियत यह है कि पाकस्तिान में जो भी पार्टी सत्ता में आती है, वह अमेरिका के चंगुल से अपने को मुक्त नहीं कर सकती. इसलामिक जम्हूरी इत्तेहाद इसलामीकरण की नीति पर चलने और फिलीस्तीन, कश्मीर और अफगानस्तिान को स्वतंत्र कराने के लिए जिहाद बोलेगी.
देश की सुरक्षा के मुद्दे पर भी इन पार्टियों ने अलग-अलग राय व्यक्त की. हालांकि किसी भी दल ने यह कहने का साहस नहीं किया कि गरीबों के उत्थान के लिए वह हथियारों के बढ़ते खर्च में कटौती करेगी. तीसरी दुनिया के देशों में रक्षा का मुद्दा सीधे राष्ट्रीयता से जुड़ गया है. बड़ी खूबी के साथ हथियार विक्रेता देश इस भावना को उभार कर अपनी तिजारत कर रहे हैं. पाकिस्तान में भी दोनों प्रमुख प्रतिस्पर्द्धी दलों ने देश को अधुनातन अस्त्रों से सुसज्जित करने का चुनावी वादा किया.
‘इसलामीकरण’ के नाजुक सवाल पर भी इन दलों ने साफ-साफ बातें नहीं कीं. पीपुल्स पार्टी यह भावना नहीं उभरने देना चाहती थी कि वह इसलामीकरण के खिलाफ है. इस कारण इस दल के लोगों ने इसलाम के ऊंचे आदर्शों पर चलने की बात बार-बार दोहरायी. जबकि इसलामिक जम्हूरी ने कुरान और सर्वोच्च इसलामिक कानूनों पर चलने की घोषणा की. इसके बावजूद बेनजीर भुट्टो को व्यापक समर्थन मिला.
बेनजीर भुट्टो की खास समर्थक महिलाएं थीं. पाकिस्तान के कुल मतदाताओं में से 50 फीसदी के लगभग महिलाएं हैं. पीपुल्स पार्टी ने महिलाओं से भेदभाव करनेवाले हदूद अध्यादेश समेत ऐसे सभी कानूनों को खत्म करने की घोषणा की है.पुरातनपंथी तत्वों ने 1971 से 77 के बीच पीपुल्स पार्टी की सरकार द्वारा किये गये अत्याचारों को पुन: प्रकाशित किया. भुट्टो की ऐसी तसवीरें प्रकाशित की गयीं, जिसमें वह महिलाओं से घिरे हाथ में एक गिलास लिये हुए थे. नुसरत भुट्टो की तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड के साथ नाचते हुए तसवीर भी खूब प्रचारित की गयी. इस प्रचार का मकसद धार्मिक उन्माद पैदा करना था, पर चुनाव परिणामों से इन तत्वों को धक्का पहुंचा है.
चुनावों के तत्काल बाद एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए बेनजीर भुट्टो ने कहा कि पंजाब प्रांत में हमारी पार्टी के खिलाफ खास चुनाव क्षेत्रों में सुनियोजित ढंग से धांधली की गयी है, फिर भी हमें चुनाव परिणाम स्वीकार हैं. पीपुल्स पार्टी ने सिंध में 46 में से 31 सीटें हथिया ली हैं. उसे देश के चारों प्रांतों में कमोबेश कामयाबी मिली है. इसी कारण बेनजीर ने दावा किया है कि उनकी पार्टी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है.
चुनाव परिणामों के पूर्व ही मरहूम भुट्टो की पार्टी और उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो के प्रति लोगों का झुकाव स्पष्ट हो गया था. इस कारण बेनजीर के प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर अटकलबाजियां आरंभ हो गयी थीं. धार्मिक कट्टरपंथियों के एक वर्ग की दलील थी कि महिला होने के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं. लेकिन जनमत का तेवर देख कर राष्ट्रपति गुलाम इशाक ने कहा कि वह किसी महिला को देश का प्रधानमंत्री नामजद करने के खिलाफ नहीं है, न ही संविधान में किसी महिला प्रधानमंत्री बनने की मनाही है.
संवाददाताओं से बातचीत के दौरान उन्होंने स्पष्ट किया कि कुछ लोगों का खयाल है कि इसलाम के तहत कोई महिला प्रधानमंत्री नहीं बन सकती. लेकिन संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. उनसे पूछा गया कि क्या वह किसी महिला को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे, तो उनका जवाब था कि संविधान के तहत राष्ट्रपति ऐसे किसी भी चुने गये प्रतिनिधि को सरकार गठित करने के लिए न्योता दे सकता है, जिसको उसकी दृष्टि में सदन का विश्वास मिलने की पूरी संभावना हो.
पाकिस्तान के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए नामांकित करेंगे, जिसे राष्ट्रीय एसेंबली में बहुमत का समर्थन हो. इस प्रावधान में हेरफेर की काफी संभावनाएं हैं, लेकिन राष्ट्रपति इशाक के पास विकल्प नहीं है. किसी भी ऐसे षडयंत्र के खिलाफ फिलहाल पाकिस्तान की जनता का आक्रोश भड़क सकता है. पाकिस्तानी सेना के प्रधान जनरल असलम बेग ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि चुनाव परिणामों के निर्णय को हम कबूल करेंगे. लेकिन सेना के सर्वोच्च अधिकारियों का एक वर्ग मुसलिम लीग का समर्थक है. चुनाव परिणामों के तत्काल बाद बेनजीर भुट्टो ने राष्ट्रपति से मांग की कि वह उनकी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें. खान अब्दुल वली खां और दूसरे लोगों से उन्हें मदद मिलने की संभावना है.
इस चुनाव को शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराने के लिए सैनिक प्रशासन ने मुस्तैदी से काम किया. पहली बार इस चुनाव में न्यायिक सेवा के लोगों को गड़बड़ी करनेवालों को तत्काल जगह पर दंड देने के लिए तैनात किया गया था.पिछले साढ़े ग्यारह वर्ष से बेनजीर जिया और पाकिस्तान की फौजी सत्ता के प्रति जो लंबी लड़ाई लड़ रही थीं, उसका लाभ उनके दल को मिला है. अपने पिता की मौत के तत्काल बाद उन्होंने कहा था कि वह लोकतंत्र की वापसी तक संघर्ष करती रहेंगी.
जिया की हुकूमत उन्हें हर तरह से शिकस्त देने की विफल कोशिश करती रही. जिस बहादुरी और साहस से उन्होंने तानाशाही व फौजी शक्तियों का मुकाबला किया, वह उल्लेखनीय है.सत्ता संभालने के बाद उनकी राजनीतिक चतुराई की परीक्षा होगी. हालांकि पार्टी घोषणापत्र जारी करते समय उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पार्टी बैर भाव से बदले की कार्रवाई नहीं करेगी. लेकिन स्पष्ट बहुमत के अभाव में उन पर हर तरह से दबाव पड़ेगा. इन दबावों से वह किस तरह निबटती हैं, पाकिस्तान की आगामी राजनीति इसी पर निर्भर करेगी. उनके आलोचक कहते हैं कि उनमें चतुर शासक के गुण नहीं हैं, बल्कि वह निरंकुश और जिद्दी हैं.
अगर वह निरंकुश बन कर पाकिस्तान पर शासन करती हैं, तो देश टूटने का भी खतरा है. चूंकि किसी भी दल को पाकिस्तान के सभी प्रांतों में समान लोकप्रियता-समर्थन नहीं मिला है, इससे जातीय वैमनस्य-बैरभाव को प्रोत्साहन मिल सकता है. पाकिस्तान में शिया-सुन्नी विवाद तो है ही, हाल के चुनावों में मोहाजिरों को मिली कामयाबी से पाकिस्तान के समाज का अंदरूनी बैरभाव उजागर हो गया है. मोहाजिर, स्वतंत्रता के उपरांत भारत से गये मुसलमानों की पार्टी है. इस दल के 13 प्रत्याशी चुनाव जीते हैं. पाकिस्तान के समाज को समान रूप से जोड़नेवाली कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है, बेनजीर के दल को यह शून्य भी भरना है. पाकिस्तानी समाज में जो एक-दूसरे के प्रति टूट-द्वेष है, उसका लाभ सेना के कट्टर तत्व उठा सकते हैं. वे एक-दूसरे को आपस में लड़ा कर अपना वर्चस्व पुन: स्थापित कर सकते हैं.
कुछ राजनीतिक टीकाकारों के अनुसार बेनजीर भुट्टो के दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने का एक कारण स्पष्ट है. भुट्टो ने गरीबों के साथ दल का जो तादात्म्य स्थापित किया था, बेनजीर भुट्टो उसे बनाये रखने में विफल रही हैं. उच्च मध्य वर्ग, पूंजीपतियों और धार्मिक मुल्लाओं का समर्थन पाने के लिए उन्होंने दल के कार्यक्रमों में भी हेरफेर किया है. उन्होंने कुछ सामंतों को भी अपने दल का टिकट दिया. इससे गरीबों की पार्टी के रूप में जो उनकी पहचान बनी थी, वह कायम न रह सकी.