संघर्ष की राजनीति का अंत

-हरिवंश- यह न संत लोगोंवाल की जीत है, न प्रधानमंत्री राजीव गांधी की. जिन हजारों बेकसूर सिखों-हिंदुओं ने कुरबानी दे कर इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जड़ को अपने रक्त से सींचा, यह उनकी शहादत की विजय है. जिस बीज को भगत सिंह, उधम सिंह आदि ने अपना रक्त दिया था, वही पौधा आज पेड़ बन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 30, 2016 3:08 PM

-हरिवंश-

यह न संत लोगोंवाल की जीत है, न प्रधानमंत्री राजीव गांधी की. जिन हजारों बेकसूर सिखों-हिंदुओं ने कुरबानी दे कर इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जड़ को अपने रक्त से सींचा, यह उनकी शहादत की विजय है. जिस बीज को भगत सिंह, उधम सिंह आदि ने अपना रक्त दिया था, वही पौधा आज पेड़ बन कर सूखता दीख रहा था. हजारों बेगुनाह सिखों ने पुन: इसकी जड़ को मजबूत बनाने के लिए स्वयं को उत्सर्ग किया और वयस्क भारत ने स्वतंत्रता के बाद यह सर्वाधिक करारा झटका भी झेल लिया. कुछ लोग यह मानने लगे थे कि पंजाब समस्या का कोई समाधान नहीं निकलनेवाला है. देश की अखंडता धर्मनिरपेक्षता को इससे सर्वाधिक गंभीर खतरा था.

लेकिन चार वर्ष से चल रहे इस संकट के बाद भी यह अविश्वास- दंगे शहरों तक ही सीमित रहे, पंजाब के गांवों में सिख व हिंदू किसान कंधे से कंधा मिला कर काम करते रहे. रोटी-खून का उनका रिश्ता बना रहा. बिहार और उत्तरप्रदेश से लाखों दिहाड़ी मजदूर पंजाब के गांवों में जा कर काम करते रहे. आम लोगों का वह रिश्ता-सद्भाव व आस्था ही इस देश की एकता-अखंडता के सबसे बड़े प्रहरी हैं.

पंजाब संकट के समाधान में संत हरचंद सिंह लोगोंवाल ने साहसिक कदम उठाया है. राष्ट्र के जीवन में उनकी यह दिल्ली यात्रा ऐतिहासिक घटना है. क्योंकि पंजाब में निहित स्वार्थवाले लोग अब भी संशंय व फिरकापरस्ती का वातावरण बनाने में लगे हैं. ऐसे माहौल में लोगोंवाल का दिल्ली आना और प्रधानमंत्री से मिल कर समझौता करना, लोंगोवाल के साहस व सूझबूझ का ही परिचायक हैं. समझौते का यह दस्तावेज उन बहुसंख्यक सिखों की ‘दिली ख्वाहिश’ की अभिव्यक्ति है, जो अपने वतन में अमन-चैन से रहना चाहते हैं. हिंदू-सिख एकता की मुहिम लोंगोवाल ने संगरुर से शुरू की थी. दिल्ली से हुआ यह करार उसकी व्यावहारिक परिणति है.

समझौते के अनुसार चंडीगढ़ पंजाब को मिलेगा. सेना के भगोड़े सैनिकों को अन्यत्र नौकरियां दी जायेगी और आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के उन पहलुओं को, जो केंद्र-राज्य से संबंधित हैं, सरकारिया आयोग को सौंप दिया गाया है. 11 सूत्री समझौते में दोनों पक्षों के बीच तकरार के अधिक-से-अधिक मुद्दों को शामिल किया गया है. चंडीगढ़ के पंजाबी इलाके को पंजाब में, हिंदी बहुल इलाके को हरियाणा में शामिल किया जायेगा. 26 जनवरी 1986 को एक साथ यह बंटवारा होगा. विशेष अदालतें सिर्फ विमान अपहरण व युद्ध करने संबंधी मामलों को ही देखेगी. बाकी सभी मामले सामान्य अदालत को सौंप दिये जायेंगे. संविधान की धारा 25 पर दोनों पक्ष मौन रहे. रावी-व्यास से एक जुलाई 1985 तक पंजाब, हरियाणा व राजस्थान के किसान, जितना पानी पाते रहे, उतना पाते रहेंगे. एक ट्रिब्यूनल इसकी जांच करेगा वह छह माह में अपना निर्णय दे देगा. दोनों पक्ष इस निर्णय को मानने के लिए बाध्य होंगे.

1 अगस्त 1982 के बाद मारे गये निर्दोषों को मुआवजा देने की बातचीत तय हो गयी है. दंगे की जांच करनेवाला आयोग बोकारो व कानपुर में हुए दंगों की जांच भी करेगा. अकाली दल व संबंधित लोगों की राय-मशविरे के आधार पर अखिल भारतीय गुरुद्वारा विधेयक भी लाया जायेगा. साथ ही पंजाब से अलगाववादी-विरोधी कानूनों को हटा लिये जाने पर भी सहमति हुई है.

यह समझौता तब तक नहीं हो सका, जब तक आतंकवादियों व पुलिस की गोली से बेकसूर लोग मारे जाते रहे. टकराव व उन्माद के वातावरण में कोई समझौता हो भी नहीं सकता था. दुनिया के कुछ देश मान बैठे थे कि आतंकवाद भारत में स्थायी हो गया है. मुट्ठीभर आतंकवादियों को अमरीका, कनाडा में प्रशिक्षण दे कर पैसे की मदद दे कर, पश्चिमी दुनिया के कुछ बड़े देश भारत को तबाह होते देखना चाहते थे. वे भूल गये थे कि जो सिख देश की आजादी के लिए सबसे अधिक जूझे, वे इतनी आसानी से देश को तबाह होते नहीं देख सकते.

यह घर का झगड़ा था, जिसे हमने सलटा लिया है. इस समझौते का सुखद पहलू है कि अंतत: बातचीत व सहमति के आधार पर ही हल निकाला जा सका है, लेकिन इस पूरे संकट से उबरने की प्रक्रिया में हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. यह मौका है, धर्म व राजनीति के संबंध में स्वस्थ बहस आरंभ करने का. शंकराचार्य हों या मुख्यमंत्री या कोई धर्माचार्य, यह बात हमेशा-हमेशा के लिए साफ हो जानी चाहिए कि धर्मनिरपेक्ष मुल्क में धर्म सापेक्ष राजनीति को हम नहीं पनपने देंगे.


इस देश का जन्म ही भयंकर परिस्थितियों में हुआ था. धार्मिक उन्माद, बांगलादेश का संकट, कश्मीर समस्या, असम समस्या
इन सबसे गंभीर चुनौती इस देश के सामने उत्पन्न हुई पंजाब समस्या से. लेकिन इसे झेलने में भी हम कामयाब रहे हैं. वस्तुत: वयस्क भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है- विषमता, धार्मिक उन्माद और क्षेत्रीयता. इन सबका एक ही हल है- देश का आर्थिक विकास और गैरबराबरी दूर करना.

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