श्रीलंका की नयी सरकार
-हरिवंश- श्रीलंका में यूनाइटेड नेशनल पार्टी की सरकार विधिवत गठित हो चुकी है. जातीय उन्माद, आक्रामक तेवर और फैलती नफरत की आग पर काबू पाने को सामान्य बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं. जिन 71 मंत्रियों को ‘जनाधिपति मंदरिया’ (राष्ट्रपति निवास) में शपथ दिलायी गयी, उनमें से 22 कैबिनेट मंत्री 49 राज्य मंत्री हैं. […]
-हरिवंश-
इस मंत्रिमंडल में आठ नये लोगों को शामिल किया गया है. यूनाइटेड नेशनल पार्टी के महासचिव रंजन विजयरत्न को विदेश मंत्री बनाया गया है. राष्ट्रपति ने तीन विभाग अपने पास रखे हैं. सुरक्षा, योजना और बौद्ध धर्म की हिफाजत के लिए गठित नया विभाग. हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक मामलों की देखरेख के लिए भी उन्होंने दो मंत्री नियुक्त किये हैं. शपथ ग्रहण के बाद प्रेमदास ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि मंत्रियों के विभागों में फेरबदल संभव है. जो ठीक कार्य नहीं करेंगे, उनकी छुट्टी कर दी जायेगी. उन्होंने अपने सहयोगी मंत्रियों से भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करने की गुजारिश की.
चुनाव में सत्तारूढ़ यूनाइटेड नेशनल पार्टी को कुल 225 सीटों के सदन में 125 सीटें मिली हैं. वस्तुत: पुरानी व्यवस्था के तहत अगर चुनाव होते, तो इस दल को असानी से दो-तिहाई सीटें प्राप्त हो जातीं. आनुपातिक चुनाव प्रणाली के कारण विरोधी नेता सिरिमाओ भंडारनायके की श्रीलंका फ्रीडम पार्टी को 67 सीटें मिलीं. इस चुनाव प्रणाली के सौजन्य से ही फ्रीडम पार्टी को इतनी सीटें प्राप्त हुईं, वरना सीधे मुकाबले में उसका सफाया संभव था.
चुनाव में सत्तारूढ़ दल को मिले बहुमत से स्पष्ट हो गया है कि उसे जन समर्थन प्राप्त है. विरोधी दलों के नेता पूर्व राष्ट्रपति जयवर्द्धन पर हमेशा यह गंभीर आरोप लगाते रहे कि नाजुक स्थिति का बहाना बना कर वह संसद-राष्ट्रपति का कार्यकाल बढ़ा कर बिना जनादेश के शासन कर रहे हैं. राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार प्रेमदास को जितवा कर जयवर्द्धन सम्मान विदा हुए. इसके आनुपातिक चुनाव प्रणाली लागू कर संसद के चुनाव संपन्न कराये गये. चूंकि अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने भी पुष्टि की है कि चुनाव में धांधली नहीं हुई. इस कारण सत्ता पक्ष नैतिक रूप से मजबूत हुआ है.
ये चुनावी परिणाम श्रीलंका की सिंहली और तमिल समस्या के लिए महत्वपूर्ण हैं. इस चुनाव में वामपंथियों की बुरी तरह पराजय हुई है. वामपंथियों के गंठबंधन को महज तीन सीटें मिली हैं. उसके सभी नामी नेता चुनाव हार गये हैं. कभी श्रीलंका की राजनीति में वामपंथियों की ताकत काफी बढ़ी हुई थी. इनकी हार वामपंथी संगठन जेवीपी की पराजय मानी जा रही है. इस चुनाव में यूएनपी अपनी स्थिति पुख्ता करने में कामयाब रही है. तमिलों के संगठन सीलोन कामगार कांग्रेस से इसने गंठबंधन किया था. श्रीलंका के उत्तर-पूर्व हिस्से में इरोस को कामयाबी मिली है. इन क्षेत्रों में तमिलों ने तमिल ईलम मुक्ति मोरचे के चीतों (एलटीटीई) द्वारा दिये गये चुनाव बहिष्कार का नारा ठुकरा दिया.
साथ ही भारत-श्रीलंका समझौते की अंधभक्त तुल्फ को भी तमिल मतदाताओं ने समर्थन नहीं दिया. मध्यमार्गी इरोस के 13 उम्मीदवारों को विजयी बना कर तमिल लोगों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे नया नेतृत्व चाहते हैं. उधर सिंहलियों के बीच भारत-श्रीलंका समझौते के बावजूद प्रचार होता रहा कि भारत की विशाल पलटन तमिल उग्रवादियों को वश में क्यों नहीं कर रही? यह भी प्रचार किया गया था कि श्रीलंका में उपद्रव यहां भारत की सेना के बने रहने का बहाना रहेगा. लेकिन चुनाव में जयवर्द्धन सरकार द्वारा अपनायी गयी नीति-रीति पर लोगों ने ठप्पा लगा कर सार्वजनिक रूप से अपनी इच्छा स्पष्ट कर दी है.