छोटे साहब के लिए असली चुनौती इंडियन पीपुल्स फ्रंट
पिछले सात वर्षों के दौरान मध्य बिहार में इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने पुख्ता जनाधार बना लिया है. इस कारण वह बिहार सरकार और कांग्रेस के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन गया है. दूसरी ओर फ्रंट की लोकप्रियता ने बाकी पारंपरिक विरोधी दलों को भी अप्रासंगिक बना दिया है. दरअसल फ्रंट की लोकप्रियता का कारण यह […]
पिछले सात वर्षों के दौरान मध्य बिहार में इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने पुख्ता जनाधार बना लिया है. इस कारण वह बिहार सरकार और कांग्रेस के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन गया है. दूसरी ओर फ्रंट की लोकप्रियता ने बाकी पारंपरिक विरोधी दलों को भी अप्रासंगिक बना दिया है. दरअसल फ्रंट की लोकप्रियता का कारण यह है कि मौजूदा राजनीतिक संस्कृति को नकार कर उसने समाज के हाशिये पर कठिन जिंदगी के बोझ से कराह रहे लोगों और उनकी समस्याओं के अनुरूप जन राजनीति विकसित की है. मध्य बिहार घूमने के बाद हरिवंश. तसवीरें ली हैं कृष्णमुरारी किशन ने.
यह विचित्र संयोग है कि फ्रंट आज जिस लोक राजनीति की बुनियाद पर मध्य बिहार में ताकतवर बन कर उभरा है, उसकी नींव समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने डाली थी. सामंतवाद का विरोध, भूमि वितरण, आर्थिक समानता दूर करने, पिछड़ों को साठ सैकड़ा आरक्षण देने और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष जैसे अनेक बुनियादी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए मध्य बिहार में समाजवादियों और अविभाजित साम्यवादियों ने संघर्ष किया. जेल भरो आंदोलन चलाये. महंगाई और मजदूरी के सवाल पर लोगों को गोलबंद करने की कोशिश की. लेकिन अपने अंतर्विरोध और प्रतिबद्धता में खोट के कारण ये दल विफल तो हो गये. पर, इस इलाके में बदलाव के बीज बो गये. आज कुछ समाजवादी या साम्यवादी तल्ख होकर जब कहते हैं कि मध्य बिहार में क्रांति की भूमि हमने उर्वर बनायी, तो इनके इस विधवा विलाप में सच्चाई के अंश है. आइपीएफ के इस आंदोलन में आज अनेक पूर्व समाजवादी और साम्यवादी सक्रिय हैं.
लेकिन पिछले सात वर्षों से सुनियोजित ढंग से काम करने के बावजूद आइपीएफ की ताकत का जायजा राजनेता या अखबारनवीस नहीं लगा सके थे. गत 10 मार्च को पटना में जब आइपीएफ ने माकपा (एमएल, विनोद मिश्र गुट) के साथ मिल कर अभूतपूर्व रैली निकाली, तो अचानक यह रैली बुद्धिजीवियों, जोड़-तोड़ में माहिर राजनेताओं के लिए कौतूहल का विषय बन गयी. प्रकारांतर से आइपीएफ की ताकत देख कर दूसरे दलों के राजनेता अचंभित रह गये. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार जेपी आंदोलन के बाद पटना में ऐसी स्वत:स्फूर्त विशाल रैली नहीं हुई. तकरीबन सात घंटों तक शहर में आवागमन ठप पड़ा रहा. इस रैली की अनोखी बात यह थी कि इसमें लगभद 30 फीसदी महिलाएं थीं. 35 से 40 वर्ष के बीच के लोगों की बहुलता थी. पटना की सड़कों पर सुबह से ही नारे गूंज रहे थे. ‘आइपीएफ की है ललकार, नया भारत, नया बिहार’, ‘जनता के आवे पलटनिया, हिलेला झकझोर दुनिया’ गांव-देहात से ‘मैले-कुचैले देहाती’ उमड़ पड़े थे. सिर पर खाने की पोटली और बगल में बच्चे को दबाये औरतों की मौजूदगी से आइपीएफ के नेता भी अचंभित थे.
चुनावी गणित के राजनीतिक विशेषज्ञों में इस विशाल रैली को देख कर चुनावी अटकलबाजी तेज हो गयी. पिछले चुनावों के दौरान मध्य बिहार की तकरीबन 21-22 विधानसभा सीटों पर फ्रंट ने पहली बार चुनाव लड़ा था. 13 जगहों पर उसने विजयी दलों को अच्छी टक्कर दी. हिलसा में उसका प्रत्याशी मामूली मतों से पराजित हो गया था. लेकिन आज फ्रंट की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ चुका है. मध्य बिहार की लगभग 60-70 विधानसभा सीटों और 8-10 लोकसभा सीटों पर प्रत्याशियों के चयन में आइपीएफ निर्णायक भूमिका की स्थिति में पहुंच गया है. यह क्षेत्र मतदान केंद्रों पर जबरन कब्जा के लिए कुख्यात रहा है. सामंतों की सशस्त्र टोलियां मनपसंद प्रत्याशी के पक्ष में फरजी मत डालती रही हैं.
अगर इस बार आइपीएफ के कार्यकर्ता जबरन मतदान कि खिलाफ मैदान में उतर आये, तो कांग्रेस के एक स्थानीय वरिष्ठ नेता के अनुसार अगर राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और यादव (रामलखन सिंह-रामजयपाल सिंह यादव के समर्थक) गोलबंद हो गये, तो आइपीएफ को एक भी सीट नहीं मिलेगी. पिछले एक-दो वर्षों के दौरान नोन्हीं-नगवां जैसे गांवों में जो नरसंहार हुए हैं, उनमें यादव डाकू गिरोहों का ही हाथ रहा है. चुनाव के दौरान आसानी से ये गिरोह सत्ताधारियों से हाथ मिला सकते हैं. 1984 के लोकसभा चुनावों में भाकपा उम्मीदवार रामाश्रय प्रसाद सिंह यादव (जहानाबाद) फ्रंट, मजदूर-किसान संग्राम समिति के समर्थन से ही कांग्रेस के किंग महेंद्र को पराजित कर विजयी हुए थे.
आज फ्रंट को अपने व्यापक जनाधार का एहसास है और उसमें एक नया आत्मविश्वास है, सुनियोजित ढंग से उसने अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार किया है. उसका मकसद राजनीतिक समस्याओं से जूझने के साथ-साथ अपसंस्कृति के खिलाफ सशक्त मुहिम चलाना भी है. फ्रंट के अपने सांस्कृतिक दल हैं और सहयोगी संगठन भी. कलकत्ता सम्मेलन (1984) के बाद इंडियन स्टूडेंट को-ऑर्डिनेशन कमेटी (आइएससीसी), जन संस्कृति मंच (जसम) और ऑल इंडिया को-ऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ ट्रेड यूनियन (इआइसीसीटीयू) जैसे अनेक संगठन फ्रंट से जुड़े. फ्रंट से जुड़े इन संगठनों के नियमित प्रकाशन हैं. इनके माध्यम से फ्रंट का संवाद अपने समर्थकों से निरंतर बना हुआ है.
‘60 और ’70 के दशकों में कभी समाजवादी नये विचारों के प्रणेता माने जाते थे और बुनियादी मुद्दों पर बहस चलाते थे. मैनकाइंड और जन आदि का प्रकाशन इसी उद्देश्य के तहत होता था. बाद में इनका प्रकाशन स्थगित हो गया. दूसरे राजनीतिक दलों का वैचारिक बहस से परहेज था. बिहार में इस शून्य के आइपीएफ ने पाटा है. फ्रंट ‘जनमत’ साप्ताहिक के माध्यम से सामान्य पाठकों तक गंभीर सवालों को लेकर पहुंचता है. इसमें विदेश नीति, अर्थनीति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से हो रहे समझौते से जुड़े गंभीर सवाल होते हैं. हालांकि जनमत संपादक मंडल के अनुसार यह साप्ताहिक स्वतंत्र हैं.
फ्रंट का सहयोगी आबसू (ऑल बिहार स्टूडेंट्स यूनियन) नयी पीढ़ी प्रकाशित कर रहा है. जो छात्रों के बीच धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा है. कभी समाजवादी युवजन सभा ने जिन बुनियादी मुद्दों पर छात्र को जगत को आंदोलित किया था, उसी ढर्रे पर ‘आबसू’ चलने की कोशिश कर रहा है. बिहार में अध्यापकों की लंबी हड़ताल के दौरान ‘आबसू’ ने पटना विश्वविद्यालय में जन अदालत आयोजित की. तीन दिनों तक इस अदालत में शिक्षक हड़ताल के संबंध में कार्यवाही चलती रही. इसमें छात्र अध्यापक और बुद्धिजीवी बड़े पैमाने पर शरीक हुए और अपना-अपना पक्ष रखा. ऑल बिहार स्टूडेंट्स यूनियन के साथ-साथ फ्रंट ने बिहार हरिजन आदिवासी स्टूडेंट्स यूनियन का भी गठन किया है. हरिजन-आदिवासी छात्रों के बीच यह संगठन काफी सक्रिय है.
किसान मजदूरों को वाजिब हक दिलाने के लिए फ्रंट अपने जन्म से ही लड़ता रहा है. किसानसभा, फ्रंट की रीढ़ है. मध्य बिहार में किसानों के बीच सबसे सशक्त संगठन यही है. इन किसानों को जागरूक बनाने के लिए फ्रंट किसान समाचार प्रकाशित करता है. फ्रंट के मध्य बिहार में अपने आंदोलन का मुद्दा तीन समस्याओं तक सीमित किया. इज्जत, रोटी और आजादी. ये मुद्दे सर्वोपरि माने गये. मध्य बिहार सामंती मूल्यों का सबसे मजबूत गढ़ रहा है.
फ्रंट की सक्रियता से जब पिछड़ों में समता की भूख आलोड़ित होने लगी, तो तनाव और खूनी संघर्ष की दर्जनों घटनाएं हुईं. रोटी के सवाल पर न्यूनतम मजदूरी, भूमि वितरण और गैरमजरूआ जमीन-तालाबों पर आर्थिक रूप से पिछड़े, शोषण से दबे-कुचले लोगों को हक दिलाने के लिए फ्रंट और किसानसभा ने आंदोलन चलाया. सामंतों की सशस्त्र फौज से टक्कर लेने में माकपा (एम. एल. विनोद मिश्र गुट) के हथियारबंद दस्ते ने फ्रंट की मदद की. इस तरह घेराव, प्रदर्शन और जुलूस में फ्रंट को किसान सभा और माकपा (एमएल) की मदद मिलती रही. हजारों-लाखों की तादाद में मजलूम फ्रंट के बैनर-झंडे तले एकजुट होने लगे. मध्य बिहार में इनका संघर्ष न्यनूमत मजदूरी, जमीनों पर पट्टे का अधिकार, परती बेनामी एवं सरकारी जमीनों पर कब्जा, मजदूरी के एवज में फसल बिक्री की रोकथाम से संबंधित था. फ्रंट को इन आंदोलनों में उसके सहयोगी संगठन पर हर संभव मदद देते रहे हैं. आबसू और बीएचएएसयू के अतिरिक्त बिहार प्रदेश किसानसभा, जल श्रमिक संघ, प्रगतिशील महिला मंच (देहात की महिलाओं के लिए) भी फ्रंट के सहयोगी संगठन हैं.
वैसे तो फ्रंट का देशव्यापी जाल है, लेकिन मध्य बिहार जैसी पुख्ता स्थिति कहीं नहीं है. मध्य बिहार में मिली सफलता से उत्साहित होकर अब यह मध्य वर्ग के बीच पैठने की कोशिश कर रहा है. फ्रंट के संबंध में आम धारणा है कि यह सर्वाधिक पिछड़ी जातियों का संगठन है. इसके 90 फीसदी समर्थक यादव, कोइरी, कुरमी, बढ़ई, लुहार आदि हैं. लेकिन यादवों-कुरमियों का संपन्न तबका इसका विरोधी है. यादवों का संपन्न व ताकतवर तबका पहले लोक दल के साथ जुड़ा था, अब वह कांग्रेस के साथ है. कुरमियों के साथ भी ऐसा ही है. लेकिन गरीब कुरमी या यादव फ्रंट के समर्थक हैं. द्विज जातियों के लोग भी फ्रंट के साथ जुड़ रहे हैं. गया के एक किसान का आरोप है कि फ्रंट के हथियारबंद दस्ते से आतंकित होकर ही लोग इसके साथ जुड़ रहे हैं. इस पर सामानांतर जन अदालत बैठाने और शुल्क वसूलने का भी आरोप है. एक अपुष्ट आरोप यह भी है कि लाइसेंसधारी हथियारों के मालिकों से ये लोग जबरन हथियार हथिया लेते हैं. ऐसी आलोचनाओं के बावजूद बिहार की दूसरी जातियों-संगठनों में जातिगत समीकरण या दबाव के तहत जो कार्य-फैसले होते हैं, उनसे फ्रंट मुक्त है.
फ्रंट के राजनीतिक पदाधिकारी विभिन्न जातियों-पृष्ठभूमि से आये लोग हैं. दूसरे दलों की तुलना में इसके कार्यकर्ता मर्यादित और जागरूक हैं. फ्रंट को नजदीक से जानेवाले एक राजनीतिक कार्यकर्ता के अनुसार जब फ्रंट पर यह आरोप लगाने लगा कि यह नया लोक दल है, तो इसने ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन की शुरुआत की. ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष से उसका तात्पर्य जाति या वर्ण व्यवस्था में जो बुराइयां हैं, उनसे एकजुट होकर लड़ने से है. उपेक्षित कुम्हार, बढ़ई, लुहार यानी आर्टिसन क्लास फ्रंट का आधार है. बिहार में हजारीबाग जिला ‘आर्टिसन बेल्ट’ माना जाता है, वहां फ्रंट की स्थिति काफी मजबूत है. किसान सभा के समर्थक हैं. छोटे किसान, पिछड़ी जातियां और हरिजन. शहरों में रिक्शाचालकों और टमटम चालकों के बीच भी फ्रंट का संगठन कार्यरत है. मध्य बिहार में समाजवादी और साम्यवादी काफी मजबूत रहे हैं. इनके आंदोलनों का यही इलाका गढ़ रहा है. बाद में जब समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन कमजोर हो गये, तो इन दलों की स्थिति भी कमजोर हो गयी. फ्रंट को इसका लाभ मिला है. उत्तर बिहार के मधुबनी, समस्तीपुर, चंपारण, सिवान में भी इनका विस्तार हो रहा है. दक्षिण बिहार में हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद और जमशेदपुर में इसकी गतिविधियां बढ़ रही हैं.
सत्ताधारी इस इलाके में फ्रंट की बढ़ती गतिविधियों से वाकिफ हैं. अति वामपंथी क्रांति की अवधारणा में ‘आधार क्षेत्र’ का महत्व बड़ा निर्णायक रहा है. मध्य बिहार सपाट मैदानी इलाका है. उससे सटे कैमूर, सासाराम, मिर्जापुर और हजारीबाग पहाड़ी इलाके में हैं. इन दोनों के आधार बनाने से ‘किसान-कर्मचारी’ एकता भी बन सकती है. फ्रंट के नेताओं का यह लक्ष्य है, लेकिन सरकार इसे दमनात्मक रवैये से निबटाना चाहती है.
आइपीएफ को इन क्षेत्रों में वामपंथी संगठनों से ही गंभीर चुनौती मिल रही है. मजदूर-किसान संग्राम समिति, पार्टी यूनिटी और माओइस्ट को-ऑर्डिनेशन सेंटर (एमसीसी) इसके प्रतिद्वंद्वी हैं. डॉ विनयन का प्रतिबंधित संगठन ‘मजदूर-किसान संग्राम समिति’ गया-जहानाबाद और पटना के कुछ हिस्सों में काफी ताकतवर है. पार्टी यूनिटी पलामू में मजबूत है. इस अंचल में माओइस्ट को-ऑर्डिनेशन सेंटर का भी दबदबा है. फ्रंट के लोगों की धारणा है कि ये संगठन आइपीएफ को शिकस्त देने की कोशिश करेंगे, ताकि भूमिगत क्रांति के साथ-साथ राजनीति की इनकी नयी रणनीति विफल हो जाये.फ्रंट स्थानीय स्तर पर लोगों की समस्याओं के खिलाफ आक्रामक आंदोलन चलाता रहा है. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में पलामू जैसे पिछड़े इलाके में फ्रंट ने 10 हजार से अधिक लोगों का जुलूस निकाला. इस वर्ष जून-जुलाई में इस इलाके में बड़े पैमाने पर खूनी संघर्ष होने की आशंका है. तेंदू पत्ता के मौसम में फ्रंट और पार्टी यूनिटी के लोगों की योजना है कि इसे बाहर न जाने दिया जाये. ‘जंगल का उत्पाद, जंगल के भूखें को लिए है’ इस मान्यता के तहत फ्रंट जंगल उत्पादों को बाहर ले जाने का विरोध करता रहा है. हजारीबाग के कुछ इलाके में तो दिन में भी पुलिस जाने का साहस नहीं करती. कई बार जंगल से काटी गयी लकड़ी, वाहन आदि में आग लगायी जा चुकी है. पुलिस के जवान हजारीबाग के जंगलों में मारे गये हैं. प्रशासन का आरोप है कि फ्रंट के हथियारबंद दस्ते ही हिंसक कार्रवाई कर रहे हैं. हजारीबाग के आदिवासियों-पिछड़ों के बीच आज तक विकास की पहली किरण भी नहीं पहुंची है. इस कारण प्रशासन-सरकार के प्रति उन लोगों के मन में घृणाभाव है. यह घृणाभाव ही फ्रंट की पूंजी और शक्ति स्रोत है.
भारतीय राजनीति का यह एक अजीब दुर्भाग्य रहा है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्राय: सभी राजनीतिक दल जनसंघर्षों और बुनियादी मुद्दों से लगातार कटते गये हैं. इस कारण उनका लोकोन्मुख स्वरूप और जनतांत्रिक ढांचा बिखर गया है. दूसरी ओर क्रांतिकारी रूझानवाले अति वामपंथी संगठन संसदीय राजनीति से परहेज करते रहे हैं. आइपीएफ ने इन दोनों शक्तियों को मिला कर चलने का संकल्प किया है. इसकी लोकप्रियता के मूल में यह अभिनव प्रयोग है. बुनियादी सवालों पर लोगों को गोलबंद करने के साथ-साथ संसदीय प्रक्रिया में सहभागिता इसका उद्देश्य है.
हालांकि धुर वामपंथी या दूसरे संगठन के लोगों को आशंका है कि संसदीय तौर-तरीके से फ्रंट कुछ खास ग्रहण नहीं कर पायेगा, क्योंकि भारत की व्यवस्था की पाचन शक्ति तेज है. वह बड़े-बड़े विद्रोहियों के आदर्श को पतन में बदलने की क्षमता रखती है. मजदूर-किसान संग्राम समिति के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार जिस संसदीय व्यवस्था में भाकपा-माकपा के भूपेश गुप्त, हीरेन मुखर्जी, ज्योतिर्मय बसु, ए.के. गोपालन जैसे मुखर नेता बदलाव न ला सके, उसमें फ्रंट के कुछ विधायक या चंद सांसद चुन कर पहुंच जायें, तो कुछ नया कर पायेंगे. यह संभव नहीं लगता.
नक्सलवादी आंदोलन की विफलता ने धुर वामपंथियों को नये सिरे से रणनीति बनाने के लिए बाध्य किया. सफाये की राजनीति और भूमिगत गतिविधियों के कारण धुर वामपंथी ताकतों का फैलना बंद हो गया था. एक पूर्व नक्सली के अनुसार हाल में आंध्रप्रदेश के पीपुल्स वार ग्रुप के नेता मुकु सुब्बा राव का आत्मसमर्पण अर्थपूर्ण घटना है. श्री राव, श्रीक्राकुलम विद्रोह के दिनों से भूमिगत थे. वह एम-टेक से तेज-तर्रार विद्यार्थी थे और आंध्र के सबसे खौफनाक नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के भाष्यकार (आइडोलॉग) बन गये थे. लेकिन दशकों तक क्रांति के लिए जीवन समर्पित करने देने के बाद उन्हें लगा कि महज भूमिगत और गुरिल्ला सरीखी गतिविधियों से देश में क्रांतिकारी स्थिति निर्मित नहीं हो सकती. बिहार के मुसहरी (मुजफ्फरपुर), भोजपुर में सहार आदि नक्सलवादी आंदोलन के प्रथम चरण के केंद्र थे, लेकिन यह आंदोलन विफल रहा. 1980 के लगभग इस विफलता ने माकपा (एमएल) को पुरानी रणनीति बदलने के लिए बाध्य किया.
इसी सोच के तहत जनसंगठन पर जोर दिया गया. 1980 में किसानसभा का गठन किया गया. इस संगठन का पहला चर्चित कार्यक्रम नरही पिरही गांव (पटना) में हुआ. वस्तुत: जहां भी भूमिगत कार्य होते थे, वहां सार्वजनिक रूप से जनतांत्रिक प्रतिरोध के लिए नये संगठन की जरूरत महसूस की गयी. फ्रंट के एक सक्रिय कार्यकर्ता के अनुसार इंडियन पीपुलस फ्रंट का गठन ऐसे ही सोच का परिणाम है. वस्तुत: नक्सलवादी टीकाकारों की दृष्टि में भूमिगत क्रांतिकारी राजनीति का ही अगला पड़ाव है, इंडियन पीपुल्स फ्रंट. गांव के स्तर पर किसान सभा इसकी रीढ़ है और किसान सभा का संबंध सीपीआइ (एम.एल. विनोद मिश्र गुट) से है. फ्रंट को सबसे अधिक कठिनाई अपने जैसे दूसरे संगठनों से निबटने में आ रही है. हालांकि फ्रंट के लोग पार्टी यूनिटी, एमसीसी और एमकेएसएस को दिग्भ्रमित मानते रहे हैं, लेकिन मध्य बिहार में इन संगठनों का आधार भी मजबूत है. खासतौर से डॉ विनयन की छवि और साख अलग है. अगर ये संगटन उसके विरोध में उठ खड़े होते हैं, तो फ्रंट को चुनाव में निश्चित ही अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी.
फ्रंट का नाम कुछ गांवों में खौफ भी पैदा करता है. हाल में सासाराम के कुछ गांवों में असरदार लोगों की हत्या कर दी गयी. राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अनुसार चूंकि इन लोगों की लोकप्रियता फ्रंट को बढ़ने देने में आड़े आ रही थी, इसी कारण उन्हें खत्म कर दिया गया. इन आरोपों-प्रत्यारोपों में कितनी सच्चाई है, यह अलग सवाल है. लेकिन फ्रंट के प्रति कुछ गांवों में अब भी दुविधा और संशय है. निश्चित रूप से महज संघर्ष, हिंसा, प्रदर्शन और उग्र रूझान के बल पर कोई संगठन अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता. समाजवादी, साम्यवादी, नक्सली आंदोलन इनके उदाहरण हैं. ऐसे संगठनों का जीवन दो या तीन दशकों से अधिक नहीं होता, फ्रंट के भाष्यकार इस तथ्य से वाकिफ हैं.