दो सौ साल बाद फ्रांस की क्रांति की याद

-हरिवंश- 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ‘ईश्वरीय व्यवस्था’ राजतंत्र को ध्वस्त कर मानव इतिहास की धारा बदल दी. जिन सनातन संस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाना निषिद्ध था, उनके नुमाइंदे-पादरी, सामंत और बादशाह लोक आक्रोश में रेत महल की तरह बिखर गये. इससे पूर्व इतिहास राजवंशों और राजमहलों के इर्द-गिर्द घूमता था, लेकिन इस क्रांति के बाद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 1, 2016 3:06 PM

-हरिवंश-

1789 की फ्रांसीसी क्रांति ‘ईश्वरीय व्यवस्था’ राजतंत्र को ध्वस्त कर मानव इतिहास की धारा बदल दी. जिन सनातन संस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाना निषिद्ध था, उनके नुमाइंदे-पादरी, सामंत और बादशाह लोक आक्रोश में रेत महल की तरह बिखर गये. इससे पूर्व इतिहास राजवंशों और राजमहलों के इर्द-गिर्द घूमता था, लेकिन इस क्रांति के बाद दुनिया में इतिहास के नायक बदल गये. मामूली, साधनविहीन और समाज में हाशिये पर रह रहे लोगों ने तख्त और ताज बदल दिये. इसके बाद दुनिया में लोकतंत्र की जो सुखद हवा बही, उसने सामंतवाद को ही ध्वस्त कर दिया. 200 वर्षों बाद भी आज जो परिवर्तन का सपना देखते हैं, उन्हें फ्रांसीसी क्रांति की विराट सपनों-समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व से प्रेरणा मिलती है. पिछले दो सौ वर्षों में इस क्रांति ने दुनिया को कैसे प्रभावित किया, इस संबंध में हरिवंश का लेखा-जोखा.
1789 की फ्रांसीसी क्रांति के संदर्भ में वर्ड्सवर्थ ने लिखा था :
जीवित होना वरदान था उस काल में
पर स्वर्गिक था, नौजवान होना.
(ब्लिस वाज इट इन दैट डान टु बी एलाइव बट टु बी यंग वाज वेरी हेवन)
सचमुच उस क्रांति का प्रत्यक्षदर्शी होना अद्भुत था, जिसने मानव इतिहास की धारा बदल दी. जिन लोगों ने इसमें शिरकत की, उन्होंने ‘स्वाधीनता, समानता और बंधुत्व’ का विराट सपना देखा, जिसके इर्द-गिर्द नये समाज-नयी व्यवस्था के ताने-बाने बुने गये.
ज्ञात मानवीय इतिहास में पहली बार ‘राजतंत्र की ईश्वरीय इकाई’ के खिलाफ बगावत हुई. यह उस व्यवस्था के खिलाफ चौतरफा विद्रोह था, जिसके अंतर्गत बादशाह लुई (सोलहवां) अहंकार से मुनादी करा सकता था कि ‘मैं ही राजा हूं. चूंकि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, इसलिए दैवी अधिकार के कारण मैं इस पद पर विराजमान हूं.

लेकिन फ्रांस क्रांति ने 800 वर्ष पुराने राजतंत्र को ध्वस्त कर दिया. बागी जनता ने इतिहास की धारा पलट दी और यह साबित कर दिया कि राजा, राज्य नहीं है, बल्कि प्रजा ही असली शक्तिस्रोत है. विश्व इतिहास की इस युगांतकारी घटना ने आगत भविष्य में सत्ता के खिलाफ संघर्ष को लोकोन्मुख बनाया. अर्द्ध निद्रा में अपने भव्य महल में लेटे लुई (सोलहवें) ने जब क्रांतिकारियों का घोष सुना, तो उसने अपने सहायक से पूछा कि ‘क्या यह विद्रोह है?’ उसके सहायक ने जवाब दिया, ‘नहीं! जहांपनाह, यह क्रांति है.’


वाकई इस क्रांति के पूर्व छिटपुट विद्रोहों से मानवीय संघर्ष का इतिहास भरा पड़ा है. लेकिन यह पहली ‘क्रांति थी, जिसकी अपनी सामाजिक-आर्थिक नीतियां और मांगें थीं. वसाई राजमहल की फिजूलखर्ची और विदेशी युद्धों के कारण जब राजकोष खाली होने लगा, तो गांव के कृषक, जमींदारों और गिरिजाघर के पादरियों पर नये-नये कर लगाये गये. अशक्त रियाया को भी ‘ईश्वरीय बादशाहत’ ने नहीं बख्शा. बादशाह का हुक्म बजानेवालों का आतंक अलग था. रिश्वत लिये बगैर प्रजा का दुख भी वे नहीं सुनते थे. उद्योग-धंधों पर भी तरह-तरह की पाबंदियां थोप दी गयीं.

इस कारण राजतंत्र से व्यापारी भी नाराज हो गये. राजा के मदांध चाकरों ने वकीलों और समाज के प्रभावी वर्ग को भी गुलाम बनाने की कोशिश की. इससे राजतंत्र के अहं के विरुद्ध चर्चों और सामंतों ने भी अपना मानस बना लिया. अपनी सुख-सुविधाएं त्याग कर फ्रांस के राजमहल को इन लोगों ने कर देने से इनकार कर दिया. इसके बाद सर्वशक्तिमान सोलहवें लुई का सुदृढ़ प्रशासकीय किला भहरा कर गिरने लगा.


महंगाई के कारण निम्न मध्य वर्ग और मजदूरों का जीवन तबाह हो गया था. 1789 के मध्य तक पेरिस में एक मजदूर को अपनी आय का कुल 80 फीसदी खाद्य पदार्थों पर व्यय करना पड़ता था. यह महंगाई दैवी और अज्ञात कारणों से नहीं बढ़ी, बल्कि फ्रांस के राजमहल की अहम्मन्यता ने लोगों को भूखा रहने के लिए विवश कर दिया था. राजमहल की विलासिता और वैभव प्रदर्शन में वृद्धि हो रही थी. इस भूख ने जब विद्रोह की आग को प्रज्वलित किया, तो 1614 के बाद पहली बार राजा ने ‘इस्टेट-जनरल’ (संसद) की बैठक बुलायी, तीन वर्ग इस संसद के मुख्य नुमाइंदे थे- पादरी, सामंत और कामंस यानी सर्वसाधारण. लेकिन आभिजात्य व्यवस्था के तहत ‘कामंस’ उपेक्षित थे. पादरी और सामंत ही प्रभावी थे. सर्वशक्तिमान राजतंत्र इनके इर्द-गिर्द ही घूमता था.

लेकिन 1789 की इस संसद में आम लोगों (कामंस) ने यथास्थिति और सामंतों-चर्चों के आतंक में जीने से इनकार कर दिया. उस वर्ष फसलें भी खराब हुई थीं. इससे कृषकों के बीच भी विद्रोह की चिनगारियां सुलग रही थीं. इन अनुकूल परस्थितियों में आम लोगों के प्रतिनिधियों ने ‘हर सदस्य को एक वोट’ देने की मांग की, ताकि संसद में सामंतों-चर्चों के मुकाबले कामंस लोगों की स्थिति पुख्ता हो सके. लेकिन सामंत और चर्च अपना वंशगत आभिजात्य त्यागने के लिए तैयार नहीं थे. इस कारण ‘कामंस’ ने नेशनल एसेंबली की घोषणा कर दी.

भला ईश्वर का स्वघोषित प्रतिनिधि राजा सर्वसाधारण की ऐसी हरकतें कैसे बरदाश्त कर सकता था. उसने फौज के बल उस भवन में ताले डलवा दिये, जहां संसद की बैठक हो रही थी. तब कामंस बगल के अक भवन में गये, जहां टेनिस खेला जाता था. इस हॉल में ही 20 जून 1789 को इन लोगों ने शपथ ली, जो ‘टेनिस कोर्ट शपथ’ के नाम से मशहूर है. उन्होंने फ्रांस का नया संविधान बनाने का संकल्प किया. राजतंत्र की निगाह में यह अपूर्व दुस्साहस और विद्रोह था.


लेकिन इस बगावत के बीज खुद राजतंत्र ने बोये थे. इन घटनाओं के वर्ष भर पहले से ही बड़े पैमाने पर असंतोष की चिनगारियां भड़क रही थीं. गांवों-शहरों, कस्बों में सामाजिक तनाव था. इस्टेट जनरल की बैठक के ठीक एक सप्ताह पूर्व राजकीय आदेश के तहत सरकारी फौज ने सैकड़ों आंदोलनकारी मजदूरों को भून दिया था. बाद में उन दिनों की चर्चा करते हुए इतिहासकार ऐलक्सि ने लिखा, ‘वह समय आशा और निराशा का था. तत्कालीन फ्रांस का समाज एक भ्रष्ट समाज था, लेकिन उसमें जीवंतता शेष थी. नये प्रयोगों के प्रति उसमें उत्सुकता थी. उसकी जिजीविषा भी अद्भुत थी. इस आस्था के बल ही सर्वधारण लोगों ने अपनी संसद गठित कर ली.’

दरअसल, यह जनसंसद राजतंत्र के ताबूत में कील साबित हुई. मदांध राजतंत्र ने इसे घृणा के भाव से देखा. राजा ने ऐसे सुधारों से जुड़े मंत्रियों को बरखास्त कर दिया. लोकप्रिय वित्त मंत्री नेकर की बरखास्तगी ने तो आग में घी डालने का काम किया. इस जनाक्रोश को कुचलने के लिए पेरिस और वसाई में व्यापक बंदोबस्त किये गये.

इस प्रशासकीय आतंक के खिलाफ 12 जुलाई 1789 को पेरिस की जनता सड़कों पर उतर आयी. इस विद्रोह को कुचलने के लिए राजकीय फौज भेजी गयी, लेकिन उसे मैदान छोड़ कर भागना पड़ा. इसके बाद तो जनता का आक्रोश फूट पड़ा. जनता ने हथियार उठा लिये. बाजार लूट लिये गये. राजतंत्र की प्रतीक अट्टालिकाओं पर हमले हुए. सरकारी कार्यालयों में आग लगा दी गयी. बरखास्त मंत्रियों के समर्थन में शेयर बाजार और थियेटर बंद रहे. इस जनाक्रोश की आग में राजतंत्र के परखचे उड़ गये.

दो दिनों बाद विद्रोह की इस आग की लौ राजमहल तक पहुंचने लगी. 14 जुलाई 1789 को पेरिस के पूर्व स्थित बास्तिल दुर्ग पर जनता ने धावा बोल दिया. इस शानदार दुर्ग को जेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, लोगों के बीच यह अफवाह फैली थी कि दुर्ग के तहखाने में बारूद रखा हुआ है. जनता खुद बड़े पैमाने पर अस्त्र उठाने के लिए उतावली थी. इस कारण उसने राजतंत्र के सबसे मजबूत प्रतीक पर धावा बोला. बूर्बों वंश का प्रतीक यह किला लोक आक्रोश में ध्वस्त हो गया. इस जेलखाने के गवर्नर ने आत्मसमर्पण कर दिया. भीड़ ने उसकी बलि दे दी. किले के पहरुए भी क्रूरतापूर्वक मार डाले गये.

बास्तिल दुर्ग का पतन दरअसल, राजतंत्र के पतन की कहानी है. राजकीय और सामंती क्रूरता का प्रतीक था यह गढ़ और इस गढ़ पर धावा बोलनेवाले थे, ‘संसकुलोतेज’ (यानी जूता न पहननेवाले लोग). जूताविहीन साधारण लोगों के सात्विक आक्रोश में ईश्वरीय राजतंत्र छिन्न-भिन्न हो गया. बास्तिल का पतन सृजनशील ध्वंस का गौरवमय अध्याय है. समरथ और प्रभुता के खिलाफ साधनविहीन लोगों के सफल संघर्ष का प्रतीक!
यूरोप में आज भी बास्तिल दुर्ग के पतन के सवाल पर इतिहासकारों-राजनेताओं में मतांतर है. इस क्रांति के 200 वर्ष बाद भी इतिहासकारों का एक खेमा इस घटना को बर्बर करार देता है और इसे उस हिंसा का आरंभिक बिंदु मानता है, जिसने आगे चल कर फ्रांस की व्यवस्था को तबाह कर दिया. ऐसे लोगों का तर्क है कि बास्तिल दुर्गा पर हमले के बाद महज सात बंदी छुड़ाये गये, लेकिन इसके अनेक सरकारी सुरक्षाकर्मी क्रूरतापूर्वक मार डाले गये.

दरअसल, राजतंत्र की समर्थक और सीमित दृष्टि इस ऐतिहासिक घटना को नजरअंदाज करती है. अठाहरवीं शताब्दी तक क्रांति के शास्त्र में हिंसा सनातन रही है. हालांकि उस युगांतकारी घटना का यह भयावह पक्ष है. हिंसा आदिम प्रवृत्ति है. यह जुगुप्सा पैदा करती है. इसमें कोई दो राय नहीं कि मानव प्रगति के इतिहास में इससे बचना आवश्यक है.

लेकिन दुनिया के सामने यह तथ्य तो 20वीं शताब्दी में पहली बार महात्मा गांधी ने उजागर किया कि क्रांति अहिंसक भी हो सकती है. वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अहिंसक क्रांति की न सिर्फ कल्पना की, बल्कि उसे साकार बनाया. बाद की घटनाओं से यह पुष्टि भी हुई कि निर्गुण सशस्त्र क्रांति की जगह सगुण अहिंसक क्रांति के परिणाम स्थायी और चमत्कारी होते हैं. साम्यवादी व्यवस्था के तहत आज जो कुछ उलट-फेर हो रहा है, उसके मूल में कहीं-न-कहीं इस सनातन हिंसा के लक्षण दीख जाते हैं. फ्रांस क्रांति के संदर्भ में ही इतिहासकार वर्निगाड ने कहा था, हिंसक क्रांति अपनी संतानों का ही भक्षण करती है.’ पिछले दिनों चीन में जो कुछ हुआ, उसमें भी इस कथन की सत्यता सिद्ध होती है. फ्रांस क्रांति के दौरान हुई दुर्घटनाओं ने भी इस कथन को सही साबित किया. लेकिन बास्तिल के पतन का एक विलक्षण पहलू है, जिसे अनदेखा करना नामुमकिन है.

राजा, पहले ईश्वर का उत्तराधिकारी माना जाता था. उसके दैवीय अनाचार के खिलाफ मामूली जनता का सार्थक आक्रोश बास्तिल के बहाने प्रकट हुआ. इसके बाद तो पेरिस पर राजा का शासन नहीं रहा. ला फ्रायड के नेतृत्व में लूटपाट रोकने और व्यवस्था कायम करने के लिए नागरिक समिति गठित की गयी. राजा को विवश हो कर, क्रांति की टोपी पहननी पड़ी. लेकिन परदे के पीछे जनता को कुचलने के लिए कुचक्र होते रहे. जब राजा की यह मंशा सार्वजनिक हुई, तो 5 अक्तूबर 1789 को पेरिस की गरीब महिलाओं का एक जुलूस रोटी की मांग करता वसाई राजमहल की ओर रवाना हुआ. औरतों के इस जुलूस ने राजमहल को घेर लिया. इस प्रतिरोध में राजमहल के अनेक अंगरक्षक मारे गये. राजा, रानी को यह भीड़ पेरिस पकड़ लायी.

इसके बाद फ्रांस के गांव-गांव में पेरिस दोहराया जाने लगा. राजा के नुमाइंदों के खिलाफ जनाक्रोश भड़का. पुरानी अदालतें स्थगित कर दी गयीं. जन-प्रतिनिधि शासन करने लगे. आतंक के पर्याय और पुरानी व्यवस्था के विशिष्ट लोग देश छोड़ कर भागने लगे. हजारों की तादाद में सामंत और पादरी फ्रांस छोड़ कर भाग निकले. कुछ मार डाले गये. लुई (सोलहवें) के दो भाई भी देश छोड़ कर भाग गये.

फ्रांस के राजतंत्र के पांव उखड़ते देख यूरोप के राजाओं में खलबली मच गयी. इस ईश्वरीय व्यवस्था के खिलाफ बगावत करनेवालों को सजा देने के लिए यूरोप के अनेक राजतंत्रों ने फौज के खिलाफ धावा बोल दिया. फ्रांस की क्रांतिकारी जनता ने इस चुनौती को स्वीकार किया. मानवीय इतिहास में पहली बार ‘झोपड़ियों’ की सुरक्षा के लिए ‘महलों’ पर जनता ने धावा बोला. बाहरी राजतंत्रों के खिलाफ इस युद्ध में फ्रांस को कामयाबी मिली.

इस जन विजय के बाद यूरोप में राजतंत्र और सामंतवाद का पतन आरंभ हुआ. फ्रांस की क्रांति ने एकाधिकार और राजतंत्र को दफना दिया. सामंती अकड़ कर हमला बोला. इस तरह यूरोप में लोकंतत्र की लहर आयी. वामपंथी इतिहासकार इसे फ्रांस की सामाजिक क्रांति की संज्ञा देते हैं, जिसमें शहरी बुर्जुआ वर्ग ने सामंती ताकतों और भू-स्वामियों को उखाड़ फेंका.

19वीं शताब्दी की विश्व राजनीति पर फ्रांस क्रांति का गहरा असर पड़ा. ठीक उसी तरह 20वीं शताब्दी को रूस क्रांति ने प्रभावित किया. अमेरिका की स्वतंत्रता और मेक्सिको क्रांति (1911) का प्रेरणास्रोत भी फ्रांस की क्रांति थी. फ्रांस क्रांति से उपजी समता की भूख रूस, चीन आदि साम्यवादी देशों को प्रेरित करती रही. 20वीं शताब्दी के महान राजनेता लेनिन, ट्रॉटस्की, माओ, कास्त्रो, चे ग्वेरा इसे युगांतकारी घटना मानते रहे. गांधीजी के अनुसार इस क्रांति ने दुनिया को निर्भय बनाया.

राष्ट्रीयता का आधुनिक स्वरूप फ्रांस क्रांति की ही देन है. भारत में उन दिनों टीपू सु्लतान ने ‘जैकोवियन क्लब’ का गठन किया. बंगाल के राजा राजाराम मोहन राय इस क्रांति के आईने में सुखद मानव भविष्य तलाशते रहे. जवाहरलाल नेहरू ने ‘विश्व इतिहास की झलक’ में लिखा कि अचंभित यूरोप पर अचानक बिजली की तरह फ्रांस की गाज गिरी. पूरे यूरोप में इस क्रांति ने आशा एवं विश्वास के एक नये युग का सूत्रपात किया. बेल्जियम, स्वीटजरलैंड, नीदरलैंड, जर्मनी और इटली में ‘जैकोवियन क्लब’ गठित किये गये. अपनी मृत्यु के कुछ वर्षों पूर्व चाउ-एन-लाई से एक पत्रकार ने सवाल किया कि 1789 की फ्रांसीसी क्रांति पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? तो जवाब में चाऊ ने कहा कि अभी इतना समय नहीं गुजरा कि उस क्रांति का सही मूल्यांकन किया जा सके.

क्रांतिकारियों और उदारवादियों को फ्रांसीसी क्रांति ने शब्दावली और परिवर्तन का सपना दिखाया. साम्यवादी व्यवस्था की तरह पूंजीवादी व्यवस्था भी फ्रांस क्रांति से अछूती नहीं रही. 17वीं-18वीं शताब्दी में आर्थिक उत्पादन पर सामंती वर्चस्व था. बादशाह, पादरी और जागीरदार ही सामंती उत्पादक शक्तियों की धुरी थे. इनके कमजोर पड़ते ही औद्योगिक पूंजीपतियों ने लाभ उठाया और पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली मजबूत हुई. फ्रांस क्रांति पर यह आरोप भी लगता रहा है कि सामंतवाद को हटा कर पूंजीवाद को प्रतिष्ठित किया. सामंतों की जगह बड़े व्यापारियों-पूंजीपतियों ने ले ली. मार्क्स ने बाद में लिखा कि 1789 की फ्रांस क्रांति ने सामंतवाद का नाश किया और स्वाधीन जागीरदारों के वर्ग को जन्म दिया. उस क्रांति के दौरान एक प्रमुख नारा लगा, ‘नो एरस्टिोक्रेट (सामंत), नो वीटो (विशेषाधिकार).’

फ्रांस में वर्ग विशेषाधिकार खत्म करने और समता साकार करने की पृष्ठभूमि जिन दार्शनिकों ने तैयार की, उनमें वोल्तेयर, रूसो और मांटेस्क्यू उल्लेखनीय हैं. वोल्तेयर और रूसो की कृतियों ने लोगों को झकझोर दिया. इनकी कृतियों के बाद ही यह कथन लोकप्रिय हुआ कि कलम तलवारों से ज्यादा ताकतवर है. अगर इन दार्शनिकों ने अपूर्व जागरण पैदा नहीं किया होता, तो शायद ही फ्रांस में असंतोष का स्वरूप कुछ और होता.

वोल्तेयर ने तो अपनी मृत्यु से चंद दिनों पूर्व ही पेरिस के नुवयुवकों से कहा था, ’नौजवान भाग्यशाली हैं. वे महान घटनाओं के गवाह बनेंगे?’ वोल्तेयर और रूसो की मृत्यु 1778 में हुई. उनकी मृत्यु के ग्यारह वर्षों बाद फ्रांस में क्रांति हुई. वोल्तेयर और रूसो की तरह सेंट साइमन और फूरिये ने अपनी वैचारिक प्रखरता से क्रांति के दौरान लोगों को जागरूक बनाया. सेंट साइमन ने लिखा, ‘मानवता का स्वर्ण युग पीछे नहीं है. वह आनेवाला है. हमारे पूर्वजों ने उसे नहीं देखा, किंतु हमारे बच्चे एक दिन देखेंगे.

ड्यूक सामंती वंश में पैदा हो कर भी सेंट साइमन ने सुखद मानव भविष्य की खातिर बगावत का झंडा उठाया. आज फ्रांस क्रांति की 200वीं वर्षगांठ मनाते हुए लोग यह पक्ष भूल रहे हैं कि इस क्रांति के लिए किन-किन अनाम लोगों ने कैसी मुसीबतें झेलीं. अपना सर्वस्व होम किया. त्याग और बलिदान की इस खाद पर ही फ्रांसीसी क्रांति की नींव पड़ी. भूखे रह कर क्रांति के प्रति प्रतिबद्ध लोगों ने व्यवस्था विरोधी विचारों की अलख जगायी और उसे फैलाया. जेल से छूटने के बाद एक बार सेंट साइमन के सामने जबरदस्त आर्थिक कठिनाई आयी, लेकिन उसने अपने मित्रों को अपने ग्रंथों के प्रकाशन के लिए अनुरोध किया, ‘मैं भूख से मर रहा हूं. पंद्रह दिनों से मैंने एक रोटी और पानी पर गुजारा किया, मैं बिना आग के (जाड़ों में) काम करता हूं. सिवाय कपड़ों के, मैं सब कुछ बेच चुका हूं और बिक्री से प्राप्त कुछ पैसे भी कापी के खर्चे के लिए बचा रखा है… मैं मदद चाहता हूं, जिसमें मैं अपना काम जारी रख सकूं.’

आज मारग्रेट थैचर या उनके अनुदार सहयोगी जब फ्रांस क्रांति को घृणा भाव से देखते हैं, तो उन्हें सेंट साइमन जैसे अनेक अनाम लोगों की कुरबानी याद नहीं आती, इतिहासकारों का एक वर्ग भी फ्रांस क्रांति को हिकारत की नजर से देखता है. उसकी नजर में मानव मुक्ति के नाम पर शुरू हुई यह क्रांति मानव भक्षी बन गयी. 1789 के महज चार लाख कैदी बंद कर दिये गये थे. इसमें से लाखों बूढ़े, अशक्त और बीमार थे. स्वाधीनता की अलख जगानेवाली क्रांति लाखों लोगों को परतंत्र बना गयी. क्रांति समर्थकों ने तर्क दिया कि स्वतंत्रता के दुश्मनों के लिए आजादी नहीं है. उस दौर में प्रति माह हजारों लोगों को फांसी दी गयी. इनमें से किसी को भी बचाव अधिकार (राइट ऑफ डिफेंस) नहीं दिया गया. हाल में एक इतिहासकार ने यह ढूंढ़ निकाला है कि क्रांति के बाद आगामी दस वर्षों में लगभग पांच लाख लोग मारे गये. खुद लुई सोलहवें को संसद में 310 के मुकाबले 380 लोगों ने दोषी पाया और 21 जनवरी 1793 को उसे गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया. (गिलोटिन फांसी देने का एक यंत्र था, जिसका आविष्कार डॉ. जोसेफ गिलोटिन ने किया था) रानी को भी फांसी दी गयी. राजघराने के अनेक राजकुमारों, पादरियों और संभ्रांत लोगों को प्राणदंड दिया गया. इतिहासकार फ्रांसीसी क्रांति के इस दौर को ‘आतंककाल’ की संज्ञा देते हैं. इस आतंक के जनक दांते और राबिसपियरे को भी अंतत: फांसी पर चढ़ा दिया गया.

फ्रांस क्रांति के आलोचकों का यह नजरिया खंडित है. फ्रांस की क्रांति लोक आक्रोश का प्रस्फुटन थी. बाद में जब हिंसक तत्व उस पर काबिज हो गये, तो उसका चरित्र बदल गया. ‘साध्य और साधन’ के संदर्भ में गांधी के कथन से हिंसक क्रांतियों में होनेवाले उतार-चढ़ाव को ज्यादा स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है. हिंसा और आतंक की कोख से अनाचार और अराजकता जन्म लेती है. रूस की क्रांति के गर्भ से ही स्तालिन जैसा क्रूर शासक पैदा हुआ, जिसने लाखों लोगों का गुपचुप कत्ल करवा दिया. पता नहीं चीन की क्रांति ने परदे के पीछे कितने गुमनाम लोगों का भक्षण किया, लेकिन हाल में जिन हजारों छात्रों को गोली मार दी गयी, वह 1950 की हिंसक चीनी क्रांति की अनिवार्य परिणति है. चेकोस्लोवाकिया, हंगरी और पोलैंड में भी साम्यवाद के हिंसक ताप में हजारों स्वाधीन नेता जेल गये. दरअसल, हिंसा की नींव पर ‘समता, ‘स्वतंत्रता और बंधुत्वह्ण के आदर्श प्रस्फुटित नहीं हो सकते. यही कारण है कि उदात्त आदर्शों के लिए शुरू हुई क्रांतियां अकसर पथभ्रष्ट हो कर क्रूर सत्तातंत्र या तानाशाही व्यवस्था में तब्दील हो गयीं. क्रांतियों का यह प्रति क्रांतिकारी चरित्र उसके हिंसक गर्भ से जनमता है. क्रांति के दौरान जो अराजकता फैली, उसने नेपोलियन बोनापार्ट के उभरने की पृष्ठभूमि तैयार की.

तत्कालीन फ्रांस में भी राबिसपियरे और दांते ने स्तालिन की भूमिका ग्रहण कर ली. फ्रांस क्रांति की यह शोकांतिका अंदरूनी सत्ता संघर्ष से उपजी. क्रांति पश्चात जब देश को 83 क्षेत्रीय यूनिटों में बांट दिया गया, तो सत्ता संघर्ष की लड़ाई छिड़ गयी. गिरोडिन और जैकोबियन के बीच मतभेद हो गया. दोनों क्रांति के प्रति समर्पित थे. लेकिन उसके तौर-तरीकों और लक्ष्य ले कर उनके बीच गहरा मतभेद था. गिरोडिन (इस समूह के अनेक सदस्य गिरोडिन विभाग में कार्य करते थे) लोगों को फ्रांस के तटीय इलाके से समर्थन मिल रहा था. अंगरेजी परंपरा और संस्कृति इनके आदर्श थे. दूसरी तरफ जैकोबियन (पेरिस के जैकोबियन मठ में इनकी बैठकें होती थीं) उग्रवादी प्रवृत्ति के क्रांतिकारी थे. जैकोबियनों के सत्तारूढ़ होते ही फ्रांस की राज व्यवस्था में गति आयी. स्थिर मुद्रा, मजदूरी नियंत्रण और आर्थिक स्थायित्व के लिए इन लोगों ने ठोस कार्य किये. इनके पूर्ववर्ती क्रांतिकारी शासक इसमें विफल रहे. एक कारीगर ने 1795 में लिखा, ‘राबिसपियरे के समय में असीमित खून बहा, लेकिन रोटी की कमी नहीं हुई.’ जैकोबियन हिंसक क्रांति के वफादार सिपाही थे.

मामूली रहन-सहन और सादा खाना. तड़क-भड़क से दूर जमीन पर रात गुजारनेवाले जैकोबियन शासकों ने अस्थिर फ्रांस को हिंसा के बल पर स्थिर शासन देने की कोशिश की. फ्रांस के मध्य भाग में इन्हें ठोस समर्थन मिल रहा था. इस तरह उदारवादी और क्रांतिकारी दोनों रुझान के लोग फ्रांस क्रांति में उभरे. 1791 और 1793 में दोनों धाराओं के लोगों ने अलग-अलग संविधान बनाये. लेकिन दोनों में से किसी ने भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं दिया. आधुनिक फ्रांस ने क्रांति के दौरान निर्मित संविधानों से बहुत कुछ ग्रहण किया है. प्रशासनिक ढांचा और कानून को लिपिबद्ध करने की परंपरा क्रांतिकारियों ने आरंभ की. आधुनिक फ्रांस ने उसमें से काफी चीजें ग्रहण की है. फ्रांस का तिरंगा झंडा और राष्ट्रीय गीत भी क्रांति की देन हैं. फ्रांस के दौरान ही दक्षिणपंथी और वामपंथी शब्द विकसित हुए. आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के लिए जब नेशनल एसेंबली की बैठक हुई, तो प्रेसिडेंट के बायीं तरफ क्रांतिकारी बैठे और दायीं तरफ की कुरसियां अनुदार लोगों ने ग्रहण कीं. उन दिनों से ही वामपंथी और दक्षिणपंथी शब्द चल निकले.


फ्रांस क्रांति के दो सौ वर्षों बाद भी समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के सपने अधूरे हैं. यह एक विचित्र संयोग है कि जब दुनिया फ्रांस क्रांति की 200वीं वर्षगांठ मना रही है, उस समय चीन में स्वतंत्रता की मांग करनेवाले छात्र टैंकों से कुचले गये. दो सौ वर्षों पूर्व अनाचार का प्रतीक बास्तिल दुर्ग लोक उफान में टूट गया, लेकिन 200 वर्षों बाद भी चीन के थ्यानमेन चौक पर आजादी की मूर्ति प्रतष्ठिति करनेवाले मिटा दिये गये. दुनिया के अनेक विकसित-विकासशील देशों के संदर्भ में आज भी इतिहास 1789 के फ्रांस या 1989 के चीन से आगे नहीं बढ़ा है.

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