अवैध हथियारों का जखीरा है बिहार
-हरिवंश- बिहार के राजनेता माओ के इस कथन पर यकीन करते हैं कि सत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है. चुनावों के ठीक पूर्व राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए राजनेता बड़े पैमाने पर अवैध हथियार बनवाते हैं. इस बार भी लोकसभा चुनावों के पूर्व ऐसे हथियार बन रहे हैं. अवैध हथियारों के इस […]
-हरिवंश-
मगध साम्राज्य के तीन प्रमुख विहार थे नालंदा, उदंतपुरी (बिहार शरीफ) और वज्रासन (गया). कभी काम, मद और ईर्ष्या की ताप में दहकते राजा-रंक इन विहारों में भटकते थे. नालंदा महाविहार की दिग-दिगंत तक गूंज थी. चीन, तिब्बत के ज्ञानपिपासु इन बौद्ध विहारों में जीवन का मर्म तलाशते थे. उदंतपुरी के अनेकानेक बौद्ध मठों को देख कर ही बख्तियार खिलजी ने इसका नामकरण किया था बिहार शरीफ. कालांतर में गया वज्रासन कहलाने लगा. लेकिन समृद्ध संस्कृति के तीनों केंद्र नालंदा, बिहार शरीफ और गया अब नये शास्त्रों के सृजनस्थल नहीं रहे. इन इलाकों में अब ‘शास्त्रों’ की जगह अवैध शस्त्र बन रहे हैं. बिहार आंदोलन के प्रमुख नेता रामचरण बताते हैं कि इन शस्त्रों के कारण ही इन इलाकों में पग-पग हिंसा-तनाव है. रामचरण के अनुसार आगामी चुनावों के दौरान इन इलाकों में यह हिंसा भयावह शक्ल अख्तियार करनेवाली है, क्योंकि दो-तीन माह पहले से ही बिहार में चुनावी जंग की तैयारी शुरू हो गयी है. यह तैयारी सार्वजनिक रूप से नहीं हो रही. इसका स्वरूप भी राजनीतिक नहीं है. सार्वजनिक सभाओं, गोष्ठियों, बहस-मुबाहसे जैसे लोकतांत्रिक आयोजनों से इसका कोई सरोकार नहीं है.
अवैध हथियारों के बल चुनाव जीतने की इस तैयारी में कमोबेश हर राजनीतिक दल शरीक हैं. मतदान केंद्रों पर जबरन कब्जा और नाबालिगों द्वारा मतदान की घटनाएं इस राज्य में 1966-67 के दौरान ही आरंभ हो गयी थीं, लेकिन गोहार (सशस्त्र अपराधियों की टुकड़ी) ले कर मतदान केंद्रों पर धावा बोलना, विरोधियों को मार भगाना, हत्या करना और अपने पक्ष में मतदान की घटनाओं ने तो अब चुनावों की निष्पक्षता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है. इस जानलेवा संघर्ष के खौफ के कारण हरिजन और समाज के कमजोर वर्ग, भयवश मतदान केंद्रों पर नहीं फटकते, लेकिन इनके मत डाल दिये जाते हैं, जो प्रत्याशी के जीत-हार के लिए निर्णायक होते हैं. मध्य बिहार में ही चुनावों के दौरान सर्वाधिक अवैध हथियार इस्तेमाल किये जाते हैं. क्योंकि पटना, नालंदा, भोजपुर, रोहतास, गया, औरंगाबाद और जहानाबाद में अनुसूचित जातियों के लोग 15 से 28 फीसदी के बीच हैं, जबकि दूसरे राज्य में इनकी संख्या 14.5 फीसदी है.
समाज में सर्वाधिक कमजोर इसी तबके के लोग हैं, इस कारण हथियारों के भय से ये लोग मतदान केंद्रों से अलग रहते हैं. अवैध आयुधों के बल होनेवाली इन मुठभेड़ों में बिहार की ताकतवर जातियां एक-दूसरे से सत्ता हथियाने की जंग लड़ती हैं. इस सशस्त्र चुनाव संघर्ष में कोई भी एक जाति या समूह के आका पुरुष या उनके स्वजनों का हित-स्वार्थ जहां सध रहा होता है, वहां उनके अपराधियों की फौज दलगत बिल्ला लगा कर राजनीतिक दुश्मनों को पछाड़ने के लिए मुस्तैद रहती है. क्षेत्र और स्थानीय राजनीति के अनुसार अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग जातीय ठेकेदार हैं. संबद्ध इलाके के मतदान केंद्रों पर अपने संरक्षक दल के हितों की रक्षा इनका सर्वोपरि लक्ष्य होता है. मतदान केंद्रों पर जबरन कब्जा कर चुनाव जीतने का भी एक और उल्लेखनीय पहलू है. बिहार की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से जो द्विज और मध्यवर्णी जातियां लाभ ले रही हैं, उस घेरे में वे दूसरों को घुसने न देने के लिए हमेशा चौकस रहती हैं. इस कार्य में उन्हें पटना में बैठे राजनेता मदद करते हैं. इस तरह पटना में आसीन विभिन्न दलों के बड़े राजनेताओं का संबंध हर इलाके के जातीय ठेकेदारों-अपराधियों और चुनाव में कामयाब बनाने का ठेका लेनेवाले गिरोहों से बन गया है. राजधानी से प्रखंड स्तर तक इस समानांतर व्यवस्था के चौकीदार अधुनातन अवैध अस्त्र-शस्त्र एकत्र करते हैं. इन गैरकानूनी शस्त्रों से भय पैदा कर राजनीतिक ताकत हथियाने की कोशिश होती है.
इन अवैध शस्त्रों का निर्माण भी बिहार में ही होता है. चुनावों के पूर्व इस धंधे में तेजी आ जाती है. आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर रखते हुए विभिन्न दलों ने पुन: थोक के भाव अवैध हथियार बनाने के ऑर्डर दे दिये हैं. यह कार्य काफी सावधानी से हो रहा है. चुनावों में इस्तेमाल किये जानेवाले अवैध हथियारों के क्रय का निर्णय बड़े नेता करते हैं, लेकिन वे खुद सामने नहीं आते. अपने विश्वस्त अपराधी ‘राजनेता’ को वे यह दायित्व सौंपते हैं. इन अपराधी राजनेताओं का ताल्लुक अवैध हथियारों के बिचौलियों और निर्माताओं से है. ये अपराधी राजनेता भी खुद थोक ऑर्डर दे कर बिचौलिये कारीगरों की क्षमता, दक्षता, कुशलता को मद्देनजर रखते हुए विभिन्न कारीगरों के बीच काम का बंटवारा करते हैं.
अवैध हथियारों का यह जाल इतना मजबूत और गोपनीय है कि आधुनिक प्रबंधन के विशेषज्ञ इसे जान कर हैरत में पड़ जायें. कुछ कारीगर इतने कुशल हैं कि उनके बनाये अवैध हथियारों और विदेश में निर्मित हथियारों में फर्क करना नामुमकिन है. लेकिन जो हथियार बनानेवाले हैं, वे महज अपना पेट भरने के लिए यह खतरनाक धंधा शुरू करते हैं. बाद में वे व्यवस्था के दुष्चक्र में फंस जाते हैं और कोशिश के बावजूद इस चक्र से नहीं उबर पाते. एक सर्वे के अनुसार पटना, नालंदा, गया, मुंगेर, औरंगाबाद और जहानाबाद के तकरीबन 70 फीसदी कुशल लोहार और बढ़ई ऐसा कार्य करने के लिए विवश हैं. लगभग 30 फीसदी गैर लोहार-बढ़ई भी अब इस धंधे में रम गये हैं. नालंदा-गया में कुछ कुरमी, बेलदार, कोइरी और बांस खोर (भंगी) युवक भी इस धंधे में हाथ आजमा रहे हैं. चुनावों के ठीक पहले अवैध हथियारों के थोक ऑर्डर मिलते हैं. आम दिनों में यह धंधा मंदा चलता है. लेकिन ‘बाबू लोग (सामंत), बदमाश, नक्सलाइट और विद्यार्थी लोग डिमांड करते रहते हैं. नक्सलाइट तो अच्छे कारीगर पकड़ कर ले जाते हैं. थोक भाव में हथियार बनवाते हैं, खुद भी बनाना सीखते हैं, फिर कारीगर को कुछ ले-दे कर छोड़ देते हैं. बदमाश डरा-धमका कर भी बनवा लेते हैं. बाबू लोग (सामंत) अपने संरक्षक और राजनेताओं की मदद और अपनी सुरक्षा के लिए बनवाते हैं. जमीन हथियाने के लिए भी सामंत इन हथियारों का इस्तेमाल करते हैं.’ यह कहना है नालंदा के एक देहाती कारीगर का.
नालंदा-गया के सुदूर देहात में यह सुराग पाना लगभग असंभव है कि ऐसे हथियार कहीं निर्मित हो रहे हैं. बड़े पैमाने पर अवैध हथियारों के निर्माण के कारण नालंदा को शस्त्र विशेषज्ञ ‘बर्मिंघम ऑफ इंडिया’ कहते हैं. इंग्लैंड के बर्मिंघम शहर में भारी मात्रा में हथियार बनते हैं. नालंदा में भी अवैध हथियार उद्योग ‘कॉटेज इंडस्ट्री’ की तरह फल-फूल रहा है. इस संवाददाता ने नालंदा-गया के अनेक गांव घूमे. सड़क से दूर घोर देहात में बसे गांवों में कारीगरों के अति विश्वस्त रामचरण के साथ उनके घर गया. उनकी आरंभिक शर्त थी कि उनके नाम पता, गांव के नाम का कहीं हवाला नहीं दिया जाये, क्योंकि गंध लगते ही पुलिस तबाह कर देती है. इन कारीगरों में से अधिकांश की माली हालत ऐसी नहीं है कि गिरफ्तार होने पर वे जल्द जमानत करा सकें. कारीगर अपनी बैठक, घर या झोपड़ी में जहां आपका स्वागत करते हैं, वहीं हथियार भी बनाते हैं, पर आपको आभास तक नहीं हो सकता.
नालंदा के रूपसपुर गांव में रह रहे बुजुर्ग कारीगर रामनाथ ने कबूल किया, ‘इस बार चुनावों के लिए कांग्रेस की ओर से उसे चार हजार कट्टा-पिस्तौल बनाने का थोक ऑर्डर मिला है. चूंकि इतना हथियार कोई एक कारीगर नहीं बना सकता, इस कारण कई कारीगर के बीच बांट दिया गया है. यह ऑर्डर बिचौलिये की मार्फत मिला है. औसतन प्रति कट्टा-पिस्तौल 150 रुपये इन कारीगरों को मिलते हैं. जबकि बिचौलिये प्रति कट्टा-पिस्तौल 300-400 रुपये के बीच वसूलते हैं. चुनावों के एक माह पूर्व इन्हें बना कर सौंप देना है. नक्सलाइट भी खूब हथियार बनवा रहे हैं. दूसरे दलों के लोग भी हमारे पास आते हैं, पर अभी हम इन दो का ही काम कर रहे हैं.’
सिद्धहस्त कारीगर रामनाथ अपना दुखड़ा रोता है, ‘धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का’. अगर हम अवैध हथियार बनाने से इनकार करते हैं, तो हमें धमकी दी जाती है. बाबू लोग पुलिस से गिरफ्तार कराने की धौंस देते हैं. नक्सलाइट और चोर-डाकू हत्या की धमकी देते हैं. दूसरी ओर रोजी-रोटी का संकट है. जमींदारी प्रथा के तहत हल, फार, हरीश, लगना, कुदाल, बेलचा, हंसुआ, बाल्टी, रेहट की जंजीर, कलछुल, तावा-कड़ाही आदि कृषिगत औजार और घरेलू उपभोग की चीजें हम तैयार करते थे. किसान हमसे ये चीजें खरीदते थे. अब सब बदल गया है. टाटा कुदाल बनाता है. बड़े-बड़े उद्योग कृषिगत औजारों का निर्माण करते हैं. घरेलू चीजें भी कारखाने में बनने लगी हैं. इन उद्योगपतियों-कारखानों को सरकार कोयला, लोहा और बिजली आदि सस्ते दर पर उपलब्ध कराती है. इस कारण उनकी लागत भी कम है. स्वाभाविक है, ऐसी स्थिति में हम उनके मुकाबले टिक नहीं सकते.’
इस कारीगर की बातों में दम है. बिहार में लगभग 60 लाख बढ़ई और लोहार हैं. इनका पारंपरिक धंधा लगभग चौपट हो गया है. प्राचीन सामाजिक प्रथा के अनुसार अब भी इन्हें ‘पंच पवनिया’ के अंतर्गत माना जाता है. लोहार, बढ़ई, कुम्हार, नाई और पंडित ‘पंच पवनिया’ माने जाते हैं. इन्हें गांवों के किसान वर्ष में एक बार पसेरी प्रथा के तहत कुछ अनाज देते हैं. बदले में इन्हें पूरे वर्ष खटना पड़ता है. चूंकि किसान अब अधिकतर कृषि उपकरण बाजार से खरीद लेते हैं, इस कारण बढ़ई-लोहार से उनका संपर्क टूट रहा है. कुछ किसान काम पूरा करा कर भी उन्हें भरपूर मजदूरी नहीं देते. इस तरह लगभग 23 लाख बढ़ई-लोहार बंधुआ मजदूर के रूप में गुजारा कर रहे हैं. बार-बार मांग के बावजूद सरकार इन दक्ष कारीगरों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करने में विफल रही है.
पिछले कुछ दशकों के दौरान बिहार में जो सामाजिक समीकरण बदले हैं, इससे समाज में तनाव बढ़ा है. हिंसा बढ़ी है. सामूहिक नरसंहार हो रहे हैं. मध्य बिहार तो युद्धस्थल बन गया है. ऐसे माहौल में इन परंपरागत शिल्पियों को धौंस दिखा कर हथियार बनवाये जा रहे हैं. गया के एक गांव में नौजवान कारीगर भोला ने अपने एक सहकर्मी गणेश की व्यथा सुनायी. कुछ वर्षों पूर्व इस गांव के सामंतों ने गणेश पर अवैध अस्त्र बनाने के लिए दबाव डाला. पहले उसने मना किया. बाद में उसके घर में कट्टा बरामद किया गया. पुलिस उसे जेल ले गयी. सामंतों ने स्थानीय पुलिस चौकी से मिल कर ऐसा किया. घर में गणेश की इकलौती बहन रह गयी. मां-बाप पहले ही गुजर गये थे. उसकी अनुपस्थिति में सामंतों ने उसकी बहन के साथ बलात्कार किया. जेल से लौट कर वह प्रतिशोध में हथियार बनाने लगा. नक्सलियों से संपर्क कर उसने उन सामंतों की हत्या करवायी, फिर मुफ्त में उनकी सेवा करने लगा. हाल में पुलिस ने उसे अवैध शस्त्र बनाते हुए गिरफ्तार कर लिया है.
महज सामंत या नक्सली तत्व ही अवैध हथियार नहीं बनवाते, बल्कि पुलिस भी अवैध हथियार बनवाती है. कुछ वर्षों पूर्व गया जिले के एक पुलिस चौकी के ऑफिसर इंचार्ज ने बड़े पैमाने पर अवैध अस्त्र बनवाये. इन अवैध शस्त्रों का इस्तेमाल पुलिस अपने हितों के अनुकूल करती रही है. कभी किसी के घर में अवैध हथियार बरामद होने का झूठा प्रचार कर पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. या कभी अपराधियों से मोल-भाव कर बेच देती है. पुलिस द्वारा मारे गये कथित अपराधियों-नक्सलवादियों के पास से बरामद अवैध हथियार सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किये जाते हैं. आरोप है कि जन आक्रोश या प्रशासनिक जांच से बचने के लिए फरजी मुठभेड़ों में मारे गये लोगों के शवों के पास पुलिस ऐसे अवैध हथियार रख देती है.
1984 में चुनाव के दौरान गया जिले के रामपुर गांव में परमानंद कारीगर को बिहार के एक तत्कालीन दबंग मंत्री ने 300 पिस्तौल बनाने का ऑर्डर दिया. नवंबर 1984 में यह मौखिक आदेश मंत्री के विश्वस्त लोगों ने दिया. मंत्री को अवैध पिस्तौलों की यह संख्या अपर्याप्त लगी, इस कारण दोबारा उन्होंने खुद परमानंद को बुलाया और कहा कि ‘कुछ औरा बना दो’. लेकिन काम हो जाने के बाद परमानंद को महज 800 रुपये ही बतौर मजदूरी दिये गये. अभी तक उसका पैसा बकाया है. मंत्री महोदय के लोगों से जब पैसा मांगने जाता है, तो उसे डांट-डपट कर भगा दिया जाता है. उक्त महोदय पुन: सत्येंद्रनारायण सिंह मंत्रिमंडल के वरष्ठि सदस्य हैं. मध्य बिहार में समानांतर व्यवस्था चलाने का अकसर उन पर आरोप लगता रहा है.
गया के ही बाजितपुर गांव में एक 28 वर्षीय मोहन कारीगर से मुलाकात हुई. बीए पास करने के बाद मोहन पटना के कई नेताओं के इर्द-गिर्द नौकरी के लिए चक्कर काटता रहा, लेकिन उसे हताश अपने शहर लौटना पड़ा. वहां उसने मोटर पुरजों की एक दुकान खोली, ग्राइडिंग आदि का काम शुरू किया. लेकिन आज उसका असली धंधा अवैध हथियार बनाने का है. वह बताता है कि महज 25 दिन पूर्व उसे थोक हथियार बनाने का ऑर्डर मिला है. एक बिचौलिये के माध्यम से यह ऑर्डर आया है. चुनावों के पूर्व कांग्रेस के लिए उसे 2500 कट्टा-पिस्तौल बनाने हैं. जनता दल के एक संपर्क सूत्र से 1000 कट्टा बनाने का ऑर्डर इंडियन पीपुल्स फ्रंट के एक नेता ने दिया है. ‘ इस नौजवान के अनुसार, ‘अवैध हथियारों के लिए कमोबेश सभी लोग पैसा चुका देते हैं. लेकिन हमारी जान हमेशा सांसत में रहती है.’ तल्ख हो कर मोहन कहता है, ’वैध सरकार के लिए हम अवैध हथियार बनाते हैं.’
गया के ही एक दूसरे ब्लॉक में इस नौजवान कारीगर के मित्र सुमन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 500 और कांग्रेस ने 1200 कट्टा बनाने का ऑर्डर दिया है. सुमन के अनुसार अगले एक-दो माह में दूसरे राजनीतिक दलों से भी थोक ऑर्डर मिलने के आसार हैं. उल्लेखनीय है कि मध्य बिहार में कांग्रेस, भाकपा और इंडियन पीपुल्स फ्रंट का व्यापक व मजबूत आधार है. अनेक गांवों में तो आटा चक्की की दुकानों या सुदूर खेतों में स्थित झोपड़ियों में यह धंधा बेखटके चल रहा है. लेथ मशीन, वेल्डिंग मशीन, नली, झक्कन, स्प्रिंग, मुट्ठा, कील आदि उपकरण ऐसे स्थानों पर छिपाये जाते हैं, जहां पुलिस को गंध न लग सके. भूसे की टाल में चीजें छिपा कर रखी जाती है और पुलिस जांच कर खाली हाथ लौट आती है.
कट्टा और पिस्तौल के अतिरक्ति ये कारीगर बंदूक, राइफल, सिक्सर के साथ-साथ 315, 12 और 16 नंबर के हथियार भी बनाते हैं. ऐसे कारीगरों द्वारा निर्मित एक राइफल लगभग 1200 रुपये में उपलब्ध है, जबकि प्रति राइफल लागत 400 रुपये है. बंदूक 1000 रुपये में मिल जाती है, जबकि उस पर खर्च 200-300 रुपये के बीच आता है. चुनावों के दौरान लोग कट्टा-पिस्तौल ही बनवाना बसंद करते हैं, क्योंकि इन पर लागत कम आती है. राइफल, बंदूक दूर तक मार करती है, लेकिन कट्टा का असर कुछ दूर तक ही होता है. चुनावों के दौरान मतदान केंद्रों पर ही हथियार इस्तेमाल किये जाते हैं. इस कारण चुनाव के लिए दूर तक मार करनेवाले हथियार अनुपयोगी साबित होते हैं. कुछ कारीगरों ने तो ऐसे खतरनाक हथियार बनाये हैं, जो पुलिस के पास नहीं है. ये कारीगर स्टेनगन, मशीनगन, लाइट मशीगन और चेनगन भी बनाते हैं.
चेनगन बड़ा खतरनाक हथियार है. 9 इंच चौड़ा और 14 इंच लंबा. इसके मैगजीन में 750 गोलियां डाली जा सकती हैं. नालंदा के एक गांव में 1987 में हुए एक भूमि विवाद में उसका प्रयोग किया गया था. नवादा में ही बुधौली महंत के खिलाफ इस अस्त्र का इस्तेमाल किया गया. इसमें ट्रिगर नहीं लगाया जाता है. फ्री ह्वील चैन रहता है, जो फायरिंग के दौरान स्वत: घूम जाता है. 1987 में किये गये निजी सर्वेक्षण के अनुसार मध्य बिहार, नालंदा, गया और मुंगेर में कुल 1639 अवैध अस्त्रों के निर्माण की इकाइयां कार्यरत थीं. 1988 में पुन: इन्हीं लोगों ने दोबारा सर्वे किया. इस सर्वे के अनुसार बिहार में 1170, नालंदा में 488, गया में 225 और मुंगेर में 204 अवैध अस्त्र बनाने की इकाइयां कार्य कर रही थीं.
दरअसल, ऐसी अधिकतर इकाइयों में मुंगेर में प्रशिक्षित कारीगर काम करते हैं. मुंगेर में कुल 38 पंजीकृत बंदूक के कारखाने हैं, जिनमें प्रशिक्षित और अशिक्षित कारीगर कुल आठ हजार मजदूर खटते हैं. लेकिन ये स्थायी मजदूर नहीं हैं. बंदूक की कुल लागत का दसवां हिस्सा भी इन्हें मजदूरी के रूप में प्राप्त नहीं होता. मजदूरी भी प्रतिदिन की दर से नहीं दी जाती, बल्कि बंदूक बनाने का ठेका दे दिया जाता है. काम पूरा करने के बाद उसकी लागत का एक पूर्व निर्धारित हिस्सा मजदूरों को भुगतान किया जाता है. वर्ष में महज दो माह ऐसे मजदूरों को काम मिलता है. इनकी पत्नियां परिवार चलाने के लिए बीड़ी बनाने का काम करती हैं.
अंगरेजों ने बिहार में दो जगहों पर बंदूक बनाने के कारखाने लगाये. मुंगेर और सारण में. लेकिन सारण में बंदूक बनाने का कारखाना बंद हो गया. अब मुंगेर में कुल 38 बंदूक के कारखाने चल रहे हैं, जिनमें 34 का लाइसेंस बढ़ई और लोहार लोगों के पास है. चार कारखाने दूसरी जातियों के लोग चलाते हैं. इनमें कार्यरत अधिकतर मजदूर भी बढ़ई और लोहार ही हैं. जिन दिनों इन कारीगरों को काम नहीं मिलता, विवश होकर ये लोग अवैध अस्त्रों के निर्माण में लग जाते हैं.
जब अपराध बढ़ते हैं, तो सार्वजनिक दबाव के तहत कभी-कभार पुलिस धर-पकड़ करती है. 7 मई 1985 को नालंदा में छापे मार कर पुलिस ने 90 राइफल, छह बंदूकें और 20 बम बरामद किये. 1987 में नालंदा की पुलिस ने दावा किया कि पिछले पांच वर्षों के दौरान विभिन्न छापों में बंदूक बनाने के 180 कारखाने पकड़े गये. इसी अवधि में 400 तैयार और 900 निर्माणाधीन बंदूक, राइफल और पिस्तौल की बरामदगी हुई. नालंदा इस मामले में कुख्यात है. 1979-1984 के दौरान यहां पुलिस के अनेक जवानों की हत्या अपराधियों ने की. एक पुलिस उपाधीक्षक भी मारे गये. 1980 में राष्ट्रपति शासन के दौरान अवैध हथियारों को जब्त करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया, लेकिन उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली. 1980 के अंत में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र ने दावा किया कि ‘अवैध हथियार उन्मूलन के क्रम में मध्य बिहार में 46 राइफलें, 330 बंदूकें, 427 पिस्तौल-रिवॉल्वर, एक स्टेनगन और 233 बम बरामद करने के साथ-साथ पुलिस ने बंदूक बनाने की 21 मिनी फैक्टरियों को जब्त किया है.’
नालंदा में गोला-बारूद का वैध धंधा करनेवाले भी बड़े पैमाने पर अवैध हथियारों और कारतूसों की तस्करी में लगे हुए हैं. दरअसल, हथियारों के लाइसेंस प्राप्त डीलर भारी मात्रा में कारतूस मंगा कर अवैध तत्वों को सौंपते रहे हैं. 10 जून 1988 को तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एसएन राय ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में उल्लेख किया कि ‘बिहार शरीफ की अनेक फर्में (जो लाइसेंस ले कर गोला-बारूद के धंधे में लगी हैं) बड़े पैमाने पर अवैध हथियारों-कारतूसों की खरीद-फरोख्त के धंधे में संलग्न हैं. सरकारी लाइसेंसों के आधार पर इन लोगों ने 315 किस्म की राइफलों और 38 किस्म के रिवॉल्वरों के लिए भारी मात्रा में कारतूस मंगाये हैं.
‘गोला-बारूद का धंधा करने के लिए, जिलाधीश से ‘नो ऑब्जेक्शन’ सर्टिफिकेट लेना पड़ता है. लेकिन इन लोगों ने फर्जी सर्टिफिकेट ले कर ऐसे कार्य किये. इन्होंने विभिन्न लोगों को निर्धारित कोटा से अधिक मात्रा में कारतूसों की आपूर्ति की है. पुलिस ने महानिदेशक ने इस घटना की तब जांच करायी, जब उन्हें बिहार के बाहर से भारी मात्रा में नालंदा में हथियार-कारतूस पहुंचने की सूचना मिली.
चुनावों के पूर्व हो रही सामरिक तैयारी से निबटने के लिए राज्य की पुलिस एक विशेष अभियान चलाने की योजना बना चुकी है. इस योजना के तहत नक्सली तत्वों और अपराधियों के अवैध हथियार बरामद किये जायेंगे. सरकार की यह भी योजना है कि कुख्यात अपराधियों को ‘अपराध नियंत्रण अधिनियम’ के तहत चुनावों के पूर्व गिरफ्तार कर लिया जाये. हर जिले में पुलिस और नागरिक प्रशासन को ऐसे लोगों की सूची बनाने की हिदायत दी गयी है. इससे कांग्रेस और जनता दल दोनों में खलबली है, क्योंकि दोनों दलों के वरिष्ठ नेता चुनावों के लिए ही अपराधियों को पालते-पोसते रहे हैं.
लेकिन सरकार की यह योजना महज दिखावटी है. राजनेताओं-अपराधियों के गंठजोड़ के कारण यह प्रशासनिक निर्णय क्रियान्वित नहीं हो सकेगा. पहले भी विभिन्न सरकारों के ऐसे निर्णय कागजों तक सीमित रह गये और चुनावों के दौरान हिंसा हुई. इस कारण इस बार की योजना कारगर हो पायेगी, यह नामुमकिन है. दूसरे, मध्य बिहार में असामाजिक तत्वों और विभिन्न नक्सली गुटों की स्थिति काफी मजबूत है. पुलिस सूत्रों के अनुसार वर्ष 1988 में औरंगाबाद, जहानाबाद, गया, नालंदा, नवादा और पलामू में पुलिस की 100 राइफलें लूट ली गयी हैं, जो अब तक नहीं मिल सकी हैं. हाल में जहानाबाद के एक गांव में पुलिस ने छापा मारा तो घास, अनाज और भूस के ढेरों के नीचे छुपाये गये काफी हथियार मिले.
मध्य बिहार में पग-पग पर इस अवैध शस्त्र सत्ता का आतंक स्वत: स्पष्ट है. एक तरफ अपराधियों की सत्ता है, तो दूसरी तरफ सामंतों और नक्सलियों की अलग-अलग सशस्त्र टुकड़ियां हैं. इनकी खोजबीन में चौकस केंद्रीय बलों के हजारों सशस्त्र जवान हैं. इन सबका शक्ति स्रोत है वैध-अवैध हथियार. इस कारण जो निहत्थे हैं, बेबस हैं. उनका जीवन इन विभिन्न शस्त्र गिरोहों के पास बंधक है.