भोजपुर के किसानों में कुलबुलाहट
-हरिवंश- बिहार के रोहतास, भोजपुर, औरंगाबाद, पटना और गया जिलों की अर्थव्यवस्था सोन नहरों पर ही निर्भर है. 100 वर्ष पुरानी ये नहरें अब जर्जर अवस्था में हैं. इस कारण भोजपुर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तबाह हो रही है. पिछले कुछ वर्षों से इन नहरों के आधुनिकीकरण की लगातार मांग हो रही थी. लेकिन सरकार ने […]
-हरिवंश-
बिहार के रोहतास, भोजपुर, औरंगाबाद, पटना और गया जिलों की अर्थव्यवस्था सोन नहरों पर ही निर्भर है. 100 वर्ष पुरानी ये नहरें अब जर्जर अवस्था में हैं. इस कारण भोजपुर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तबाह हो रही है. पिछले कुछ वर्षों से इन नहरों के आधुनिकीकरण की लगातार मांग हो रही थी. लेकिन सरकार ने इसे अनसुना कर दिया. अब इन प्रभावित क्षेत्रों के लोगों ने विवश हो कर आंदोलन का रास्ता अख्तियार कर किया है. इस आंदोलन की आग में घी का काम किया है, रिहंद-सिंगरौली और अनपरा में निर्मित्त और निर्माणाधीन सुपर थर्मल पावरों ने. इन विशाल प्रोजेक्टों के कारण सोन नहर में जितना पानी पहले आता भी था, उतना भी नहीं आयेगा. सरकार द्वारा इस अंचल के लोगों को भुखमरी के कगार पर ढकेलने की साजिश के बारे में हरिवंश की रिपोर्ट. तसवीरें ली हैं कृष्णामुरारी किशन ने.
जल संसाधन मंत्रालय की अविवेकपूर्ण नीति और राज्य सरकार की उदासीनता के कारण बिहार के मशहूर अंचल और ऊपजाऊ क्षेत्र भोजपुर इलाके की करीब 25 लाख एकड़ जमीन जल्द ही अनुपजाऊ हो जायेगी. नौकरशाहों की दृष्टिहीनता के कारण रोहतास, भोजपुर, औरंगाबाद, पटना और गया आदि जिलों की तकरीबन एक करोड़ आबादी अकाल, अभाव और गरीबी के भयानक दुष्चक्र में धकेली जा रही है. एक तरफ योजना आयोग और कृषि मंत्रालय सिंचाई क्षेत्र में निरंतर बढ़ोत्तरी की बढ़ चढ़ कर बातें करते हैं, दूसरी ओर एक प्राचीन व अंगरेजों के समय की सुव्यवस्थित सिंचाई योजना को तहस-नहस करने की नींव, सरकारी नीतियों द्वारा डाल दी गयी है.
अंगरेज, बागी भोजपुर से अच्छी तरह वाकिफ थे. कुंवर सिंह के नेतृत्व में सफल विद्रोह इसी भोजपुर इलाके में हुआ था. यहां के बाशिंदों के स्वाभिमान, अक्खड़पन और निष्ठा से कायल तत्कालीन शासकों ने इस इलाके के विकास के लिए सिंचाई योजना आरंभ की. सोन घाटी में सर्वप्रथम 1869-74 में ‘डेहरी एनीकट सिंचाई’ योजना का निर्माण किया गया. जंगलों, झाड़-झंखाड़ों को साफ कर मजबूत और चौड़ी सोन नहरें बनायी गयीं. इनमें नौका परिवहन भी होता था. माल की ढुलाई होती थी. नहर में मत्स्यपालन और ऐसे अनेक सहायक उद्योगों पर लाखों लोग निर्भर थे. सोन नदी मध्यप्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. पहले इस उद्रगम से जल का निरंतर प्रवाह सोन नहरों में होता था. बाद के दिनों में मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश में रिहंद परियोजना, सिंगरौली, ओबरा, अनपरा, बैढ़न में वृहद ताप विद्युत परियोजनाएं आरंभ की गयीं. इन परियोजनाओं के परिणामस्वरूप उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश निर्धारित सीमा से अधिक जल का उपयोग करने लगे. बिहार में जल प्रवाह कम हो गया. नहरों में पानी की मात्रा कम हो गयी और निरंतर अबाध प्रवाह अवरुद्ध हो गया. इससे सीधे-सीधे भोजपुर की खेती और कृषकों की माली हालत चौपट होने लगी.
दूसरी तरफ नहरों की पेटी सफाई न होने के कारण भरती गयी और नहरों की गहराई कम होती गयी. रख-रखाव में कमी और निगरानी के अभाव में 100 वर्ष पुरानी नहरों के दोनों तटबंध टूटते-गिरते रहे. पानी के प्रवाह में कमी के कारण लोग जगह-जगह इसकी खुदाई भी करने लगे. इससे नौका परिवहन बंद हो गया. मत्स्यपालन पर आजीविका चलानेवाले भुखमरी के शिकार हो गये. इस दो तरफा मार से बेहाल इस अंचल के किसानों में आक्रोश फूटना स्वाभाविक था. 1983 में सोन सिंचाई सुरक्षा समिति के सचिव और पूवर विधायक बद्री सिंह ने इस अनागत संकट के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री को पूरा ब्योरा लिख भेजा. लेकिन यह समस्या अनसुनी ही रही. इस इलाके में पानी का सीधा संबंध पेट से है. अत: सरकार के खिलाफ छिटपुट आंदोलन आरंभ हुए. वक्ताओं ने यह मुद्दा उठाया कि ‘पंजाब-हरियाणा समस्या के मूल में जल विवाद है. इस कटु अनुभव के बावजूद केंद्र सरकारी, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार सरकारों के माध्यम से इस समस्या का निबटारा क्यों नहीं कर रही.’ लेकिन यह आक्रोश व्यापक आंदोलन का रूप न ले सका. इस बीच जल संकट बढ़ने से कृषि उपज घटती गयी.
पिछले एक-दो वर्षों से इस मुद्दे पर भोजपुर की जनता एकजुट हो रही है. नये सिरे से लोगों को एकजुट करने और इस समस्या को संघर्ष के द्वारा सुलझाने का अभियान बिहार आंदोलन के कुछ निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने किया. 1974 के आंदोलन के मशहूर युवा नेता शिवानंद तिवारी, वशिष्ठ नारायण, सरयू राय, नीतीश कुमार, विजय कृष्ण आदि ने इसमें पहल की. शिवानंद जी और सरयू राय इसी इलाके के हैं. बिहार आंदोलन के दिनों में तेज-तर्रार प्रतिबद्ध, निष्ठावान और सुलझे विचारोंवाले शिवानंद तिवारी से लोगों को बहुत उम्मीद थी. लेकिन परंपरागत अर्थों में राजनीति की मुख्य धारा से, कुरसी-पद की लड़ाई से वह अलग हो गये. शिवानंद जी और सरयू राय जैसे लोगों की अगुवाई में इस संघर्ष ने नया मोड़ लिया है. ये लोग गांव-गांव पैदल घूम कर लोगों की उनकी दुर्दशा का कारण बताते हैं. बैठकें करते हैं और ज्यादा समय इन गांवों में गुजार रहे हैं. रघुपति और हरि नारायण जी भी गांव-गांव घूम कर इस मुद्दे पर लोगों को एकजुट कर रहे हैं.
बिहार आंदोलन के एक लड़ाकू सिपाही इस पूरे संघर्ष को ही एक नयी आशा भरी दृष्टि से देखते हैं. उनका कहना है कि एक लंबे समय बाद बिहार आंदोलन के समर्पित लड़ाकू सिपाही एकजुट हो रहे हैं. अगर भोजपुर में सोन नहरों पर आसन्न संकट की लड़ाई निर्णायक मोड़ लेती है, तो निरंतर सड़ रहे बिहार में परिवर्तन की एक किरण प्रस्फुटित होगी. चूंकि भोजपुर राजनीतिक रूप से काफी जागरूक क्षेत्र रहा है. इसलिए इस आंदोलन के गर्भ में असीमित संभावनाएं हैं. मशहूर लड़ाकू और आदर्श की प्रतिमूर्ति रामानंद तिवारी इसी अंचल के बाशिंदे थे, जिन्होंने सिपाही के रूप में अंगरेजों के खिलाफ 42 में बगावत की और 1967 में रांची के भयानक दंगों में बिहार के महत्वपूर्ण मंत्री होते हुए भी बलवाइयों के बीच निहत्थे कूद पड़े थे.
इस तरह संघर्ष की स्वस्थ परंपरा इस क्षेत्र की परंपरागत पूंजी रही है. सबसे उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि बिहार आंदोलन के जो चुनिंदे, निष्ठावान पाक-साफ सिपाही मौजूदा राजनीति से उकताये हैं. वे ही इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं. आंदोलन में शिरकत करनेवाले किसान अपनी इस पृष्ठभूमि से वाकिफ हैं. हर सभा में किसान वक्ता व आंदोलनकारी सरकार से आग्रह करते हैं कि उन्हें कंगाली के कगार पर न धकेला जाये. 11 मार्च को बिहार विधानसभा के सदस्य नीतीश कुमार, रघुपति गोप, जगदानंद, लक्ष्मण राय, रामनारायण राम, रघुवंश प्रसाद सिंह, सैयद असगर हुसैन, राधाकृष्ण किशोर आदि ने भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय को इस संबंध में विस्तृत पत्र भेजा है.
लेकिन सरकारी महकमों-मंत्रालयों में ऐसे शिकायती पत्रों का कोई अर्थ नहीं है. इस कारण विवश हो कर इस इलाके के किसानों ने व्यापक संघर्ष का कार्यक्रम बनाया, जो इलाका कभी पूरे वर्ष हरा भरा रहता था, सोना उगलता था, उस उजड़ते अंचल के लोगों के पास आंदोलन के सिवा अब कोई विकल्प भी नहीं हैं.
1971 में सोन नहर आधुनिकीकरण आयोग गठित हुआ था, जिसने सोन नहरों की अविलंब सफाई, किनारे के बाड़ों को सीमेंट से पक्का करने और किनारों पर पक्की सड़कें बनाने आदि की सिफारिशें की थीं. इसे आधुनिक बनाने के लिए विश्व बैंक ने 1300 करोड़ रुपये की मदद की पेशकश भी की थी. लेकिन बिहार सरकार आधुनिकीकरण का प्रारूप ही तैयार न कर सकी. इस कारण विश्व बैंक ने हाथ खींच लिया.
पिछले वर्ष धन की लहलहाती फसल के लिए रोहिणी नक्षत्र में सोन नहरों में पानी नहीं बहा. इससे उत्पादन में तकरीबन 40-45 फीसदी गिराट आयी और किसानों मजदूरों का जीवन तबाह हो गया.इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने भी इस संकट से उबरने के लिए व्यापक संघर्ष की योजना बनायी है. इसके तहत विक्रमगंज और आरा में प्रदर्शन और विरोध में सभाएं आयोजित की गयीं. भविष्य में आंदोलन के अनेक कार्यक्रम भी तय किये गये.
वस्तुत: इन नहरों के निर्माण के समय अंगरेज विशेषज्ञों ने उल्लेख किया था कि 100 वर्ष बाद इन नहरों की बड़े पैमाने पर मरम्मत और पुननिर्माण आवश्यक होगा, अन्यथा इन्हें मिट्टी से भर देना होगा. सौ वर्ष बाद किसानों से राजस्व वसूली भी बंद होनी थी. महज सात वर्षों में 200 करोड़ रुपये लगा कर अंगरेजों ने इन नहरों का निर्माण किया था.
1868 से 1874 के बीच डिहरी में सोन नद पर 12,469 फुट लंबा एनीकट बना कर वहां से सोन नद के दोनों ओर नहरें निकाली गयी थीं. तब सोन और इसकी सहायक नदियों के पूरे जल का उपयोग सिंचाई के लिए इन नहरों द्वारा ही होता था. सोन की प्रमुख सहायक नदी रिहंद है, लेकिन रिहंद जलाशय का जब निर्माण आरंभ हुआ, तो तत्कालीन बिहार सरकार ने सोन नहरों में जल प्रवाह बाधित होने के सवाल को लठाया. उस समय बिहार सरकार को आश्वस्त किया गया कि सोन नहरों में पर्याप्त जलापूर्ति के लिए रिहंद जलाशय से 6000 क्यूसेक पानी का प्रवाह नियमित और निरंतर बरकरार रहेगा. इस योजना के अनुरूप ही वहां विद्युत निर्माण के लिए बेसलोड यूनिट की स्थापना की गयी, जो 24 घंटे चालू रहनेवाला था. इससे 6000 क्यूसेक पानी का निरंतर प्रवाह कायम रहता. लेकिन पानी का यह प्रस्तावित निरंतर बहाव कभी नहीं रहा. खरीफ और रबी की फसलों के समय पानी का संकट अक्सर बढ़ जाता है. उत्तरप्रदेश के अधिकारी बगैर सूचना पानी छोड़ देते हैं. इससे किसानों का नुकसान ही होता है.
इसके बाद और अधिक सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए बिहार सरकार ने इंद्रपुरी में एक बराज का निर्माण किया. इससे तीन लाख एकड़ और अतिरक्ति भूमि में सिंचाई सुविधा उपलब्ध हुई. इसी बीच मध्यप्रदेश के बाणसागर के समीप सोन की मुख्यधारा को बांध कर जलाशय बनाने की योजना बनी. साथ ही सोन की सभी नदियों पर जलाशय बना कर सिंचाई और विद्युत निर्माण की नयी-नयी योजनाएं आरंभ हुईं. इससे प्रभावित राज्यों में विवाद बढ़ा. अंतत: जल के उचित बंटवारे के लिए बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों के बीच ‘बाणसागर समझौता’ हुआ.
समझौते में तीनों राज्यों के बीच औसत वार्षिक जल की मात्रा आंक कर बंटवारा किया गया. इसमें बिहार को 77.5 लाख एकड़ फुट जल आवंटित किया गया. इसमें यह भी उल्लेख किया गया कि सोन में पानी की मात्रा कम होने की स्थिति में भी सोन की पुरानी नहरों के लिए 50 लाख एकड़ फुट पानी की आपूर्ति हमेशा बनी रहेगी. इससे संकट के दिनों में भी भोजपुर के किसान प्रभावित नहीं होंगे.
लेकिन पिछले दस वर्षों से बिहार को दिये गये आश्वासन के अनुसार जल नहीं मिल रहा है. उत्तरप्रदेश सरकार ने विद्युत निर्माण के लिए बेसलोड इकाई को बदल कर पीकिंग इकाई कर दिया. इस विधि के अंतर्गत काम आवश्यकतानुसार निर्धारित घंटों के लिए ही होता है. अब उत्तरप्रदेश सरकार ने इस सीजनल इकाई में बदलने की निर्णय किया है. यानी बरसात के दिनों में जब जल प्रवाह जरूरत से ज्यादा रहेगा, जब जल संग्रह की जरूरत नहीं रहेगी, तभी यह इकाई काम करेगी. ऐसी स्थिति में रिहंद से प्रवाहित होनेवाला जल सोन नहरों के लिए उपयोगी साबित नहीं होगा, क्योंकि बरसात के दिनों में वैसे ही पर्याप्त जल उपलब्ध रहता है.
यह जल संकट अभी और गहरायेगा. बाणसागर बांध के निर्माण हो जाने पर सोन की मुख्यधारा अवरुद्ध हो जायेगी. ऐसी स्थिति में सोन नहर क्षेत्र की 22.5 लाख एकड़ भूमि बंजर और रेगस्तिान में बदल जायेगी? इससे पूरे बिहार की अर्थव्यवस्था डगमगा जायेगी. सोन नहरें बिहार में कृषि एवं सिंचाई व्यवस्था की रीढ़ हैं. आजादी के बाद अरबों रुपये की लागत से अब तक सरकार जितनी सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध करा सकी है, उतने क्षेत्र की सिंचाई तो सौ बरस पुरानी सोन नहर प्रणाली से ही हो रही है. राज्य के कुल उत्पादन का करीब एक तिहाई भाग इसी इलाके से आता है. यह पूरे बिहार की समृद्धि-प्रगति से जुड़ा प्रसंग है. मयूराक्षी, दामोदर, गंगा, कर्मनाशा और सोन के बड़े हिस्से के उपयोग से बिहार पहले से ही वंचित है. परिणामस्वरूप संथाल परगना, हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, पलामू और पश्चिमी रोहतास कृषि में पिछड़े हैं.
वस्तुत: सोन का आधुनिकीकरण बिहार के लिए अति आवश्यक है. इस संबंध में बिहार सरकार की अन्य संस्थाओं से भी बातचीत हुई थी. अब तो सोन नहरों की बुनियाद अस्तित्व पर ही संकट आ खड़ा हुआ है.इसके अतिरक्ति सिंगरौली में अनेक सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट निर्माणाधीन हैं. कुछ कार्य भी कर रहे हैं. बिहार को बगैर बताये इस अंचल से सुपर थर्मल पावर स्टेशनों के लिए पानी की आपूर्ति आरंभ कर दी गयी है. विशेषज्ञों के अनुसार जब सभी सुपर थर्मल पावर और औद्योगिक इकाइयां इस क्षेत्र में कार्य करने लगेंगी, तो बिहार में सोन नहरों के लिए रिहंद जलाशय से एक बूंद पानी मिलना भी नामुमकिन होगा. इस तरह सोन घाटी के किसानों की खेती अब मानसून पर निर्भर हो जायेगी.
प्रथम सिंचाई आयोग की रिपोर्ट में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि 1966-67 के भीषण अकाल में भी सोन नहरों में पर्याप्त जलापूर्ति बनी रही और बोये गये क्षेत्र और उत्पादन पर ज्यादा असर नहीं पड़ा. इधर के किसान अकाल से प्रभावित नहीं हुए. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान जलाभाव के कारण नहरों के अंतिम छोर तक भी पानी नहीं पहुंच पा रहा है. परिणाम स्वरूप एक आकलन के मुताबिक सोन अभिसिंचित क्षेत्र के लगभग 12 लाख एकड़ क्षेत्र में फसलों के उत्पादन में लगभग 25 फीसदी तक कमी आ गयी है. यानी प्रचलित दर पर तकरीबन 58 करोड़ रुपये का नुकसान प्रतिवर्ष इस इलाके के किसान उठा रहे हैं. यदि जल प्रवाह ठप हो गया, तो सिंचाई कर के रूप में सरकार को 5.50 करोड़ रुपयों की वार्षिक हानि अलग से होगी.