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बिहार का अनोखा राज्यपाल

-हरिवंश- राजनीतिक वनवास की लंबी अवधि गुजार कर बिहार के राज्यपाल बने गोविंद नारायण सिंह बहुत ही कम समय में देशव्यापी चर्चा और विवाद के केंद्र बन गये हैं. राजनेताओं की तरह धड़ल्ले से वह बयान देते हैं. लेकिन खुद को ‘हेड ऑफ द स्टेट’ (कानून का रखवाला) और राज्य का ‘कस्टोडियम’ मानते हैं. वह […]

-हरिवंश-

राजनीतिक वनवास की लंबी अवधि गुजार कर बिहार के राज्यपाल बने गोविंद नारायण सिंह बहुत ही कम समय में देशव्यापी चर्चा और विवाद के केंद्र बन गये हैं. राजनेताओं की तरह धड़ल्ले से वह बयान देते हैं. लेकिन खुद को ‘हेड ऑफ द स्टेट’ (कानून का रखवाला) और राज्य का ‘कस्टोडियम’ मानते हैं. वह कानून की बात करते हैं, लेकिन निजी आचरण में खुद संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन आवश्यक नहीं मानते. तुनुकमिजाजी और सामंती कार्यशैली उनकी उल्लेखनीय विशेषताएं हैं. बयान दे कर मुकरने में भी वह नेताओं को मात कर चुके हैं. राज्यपाल के रूप में उनके हंगामेदार बयानों और विवादास्पद कामों का हरिवंश और जयशंकर गुप्त द्वारा सिलसिलेवार विवरण और परदे के पीछे की अंदरूनी घटनाओं का खुलासा. तसवीरें ली हैं कृष्णमुरारी किशन ने.

मेरी तो यहां के विश्वविद्यालयों (बिहार) में आइएएस को कुलपति बनाने के बजाय सेना के ब्रिगेडियरों को कुलपति बनाने की इच्छा है. (संवाददाता सम्मेलन, पटना)

मैं आप लोगों के बीच ही जिंदा रहनेवाला हूं. लोगों से मिल कर उनकी व्यथा सुन और समझ सकूं, ऐसी व्यवस्था करूंगा. अब राजभवन का दरवाजा आम लोगों के लिए भी खुल गया है. (संवाददाता सम्मेलन, पटना).

मैं स्वयं आवारा छात्र था. हड़ताल कराने के कारण कई बार रिस्टीकेट हुआ. आप राजनीति कीजिए, मगर मूल लक्ष्य पढ़ाई को ही रखें. (पटना विश्वविद्यालय के छात्रों-अध्यापकों के बीच)

मनुष्य को लज्जित-अपमानित हो कर जीना चाहिए या प्राण त्याग कर देना चाहिए. (पटना विश्वविद्यालय के छात्रों से सवाल)

भाई यह (राजभवन) मेरे लिए परियों का देश है. इतने बड़े भवन की तो हमने कल्पना भी नहीं की थी. हमारे घर में खपरैल मकान है, हमें वहीं शांति मिलती है. (संवाददाता सम्मेलन)

आतंकवाद, माफिया या नक्सलवाद को नरमी से नहीं, कड़ाई से दबाया जा सकता है. इन्हें यदि बिहार की राजनीति से प्रभावित पुलिस नहीं सुलझा सकती, तो केंद्र की भी सहायता ली जा सकती है. नक्सलवाद तो वह है, जिसमें गरीब व निरीह लोगों द्वारा बड़े लोगों से प्रतिशोध लिया जाये, लेकिन बिहार में इसका उलटा होता है. (रांची के एक समारोह में)

देश में आज ऐसी पत्रकारिता को अधिक महत्व मिल रहा है, जिसमें संपादक की मनोभावना व समाचारपत्र की नीति का ही महत्व रह गया है, निर्माणात्मक पत्रकारिता का कम. (रांची में आयोजित एक समारोह में).

बहुत ही कम समय में अपने ऐसे बयानों से बिहार के राज्यपाल गोविंद नारायण सिंह ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का सार्वजनिक इजहार कर दिया है. महज राजप्रमुख की संवैधानिक भूमिका से ही वह संतुष्ट नहीं दीखते हैं. बिहार की धरती पर पांव रखने के बाद से ही अखबारों की सुर्खियों में ऐसे अयाचित बयानों के कारण वह छाये हुए हैं. लेकिन सिर्फ बिहार में ही वह अपना आक्रामक तेवर नहीं दिखाते. हाल में वह निजी दौरे पर मध्यप्रदेश गये थे. वहां भी उन्होंने अपनी अतृप्त इच्छा को बेहिचक स्वर दिया. लेकिन कुछ ही घंटों बाद इसकी गंभीरता समझने या समझाये जाने के बाद उन्होंने अपना रुख बदल दिया.

22 अप्रैल को वह ‘एकांतवास’ के लिए आदि शंकराचार्य की गुरुस्थली ओंकारेश्वर गये थे. रास्ते में वह इंदौर में ठहरे. अगवानी के लिए आये पत्रकारों को उन्होंने बताया कि ‘13 फरवरी को सतना के रामपुर भोलान गांव में मैं था. वहां सतना कलक्टर ने हमारे पास आ कर कहा कि प्रधानमंत्री आपसे बात करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री से फोन पर बात की. उन्होंने बताया कि आपको बिहार का राज्यपाल बनाया जाता है. हमने पूछा कि मध्यप्रदेश के बारे में आपके क्या विचार है? उन्होंने कहा कि हम अर्जुन सिंह के बारे में सोच रहे हैं, इस पर हमने प्रधानमंत्री से कहा कि आपको बताये देते हैं कि अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के सबसे कमजोर मुख्यमंत्री साबित होंगे. वह बात हमने कही थी और आज भी कह रहे हैं.’

राज्यपाल के ऐसे बयानों से उनके स्वागतार्थी सकते में आ गये. लेकिन वह इतना कह कर ही चुप नहीं हुए. पत्रकारों ने फिर छेड़ा कि ‘अर्जुन सिंह तो काफी भीड़ इकट्ठा कर सकते हैं’, तो उनका हाजिर जवाब था कि ‘राज्य में कोई भी आदमी एक-दो लाख गुंडे इकट्ठे कर सकता है, पर वह चुनाव नहीं जीत सकता. राज्य में साढ़े सात करोड़ की जनसंख्या है, लेकिन हर आदमी से आप पूछेंगे, तो अर्जुन सिंह को कोई भी साफ-सुथरा नहीं कहेगा. राज्य में इस बार चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार होगा. अर्जुन सिंह इस भ्रष्टाचार में दलदल तक फंसे हैं. उनकी विश्वसनीयता लोगों को पता है.’ आगे उन्होंने यह भी फरमाया कि प्रधानमंत्री ने अर्जुन सिंह को मध्यप्रदेश भेज कर गलती की है. 1988 में 1984 नहीं होगा. इस बार संसद में कांग्रेस को राज्य से 40 सीटें नहीं मिलेंगी.

पत्रकारों के अतिरिक्त राज्यपाल महोदय का यह अभिभाषण सरकारी अधिकारी भी सुन रहे थे. सभी सकते में थे. राज्यपाल महोदय के धाराप्रवाह प्रवचन के बीच ही इंदौर कांग्रेस के अध्यक्ष गंगाराम तिवारी ने बीच में ही टोका कि इंदौर में झुग्गी-झोपड़ीवालों के बाशिंदे अर्जुन सिंह के कट्टर समर्थक हैं. इस पर राज्यपाल महोदय ने बताया कि ‘भाई! कोई भी आदमी यहां से झुग्गी-झोपड़ीवालों को बस में आ कर ले जाये और केरवा में अर्जुन सिंह का महल दिखा लाये, तो फिर देखें कि कैसे वोट अर्जुन सिंह पा लेते हैं.’

उस बैठक में एक पत्रकार ने कहा कि अर्जुन सिंह को हटा देने से नुकसान होगा, तो राज्यपाल महोदय का प्रत्युत्तर था, ‘किसी भी बेईमान व्यक्ति को हटा देने से कोई नुकसान नहीं होगा.’ किसान आयोग के बारे में उन्होंने तपाक से कहा कि ‘वह तो अभी गर्भ में ही है. देखिये आगे क्या होता है?’

इसी बीच राज्यपाल महोदय की बातों की गंभीरता देखते हुए इंदौर कांग्रेस के अध्यक्ष ने उन्हें फिर टोका, तो उन्होंने कहा, ‘हम सोच-समझ कर बोल रहे हैं. अखबारवाले छापेंगे, तो क्या गलत है.’ अपनी इस यात्रा में राज्यपाल महोदय ने मध्यप्रदेश में हवाई जहाज से राजनीतिक यात्रा करनेवालों की भी चर्चा की. उनका इशारा मोतीलाल वोरा और माधवराव सिंधिया की ओर था. राज्यपाल महोदय की टिप्पणी थी कि इन राजनेताओं पर अवश्य किसी का वरदहस्त है. इससे मध्यप्रदेश में नेतृत्व के प्रश्न को लेकर फिर अटकलें लगायी जा रही हैं.

लेकिन इस बातचीत के 36 घंटे बाद ही वह एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक से बातचीत के दौरान अपने अधिकतर विवादास्पद बयानों से मुकर गये. उन्होंने अस्वीकार किया कि मैंने अर्जुन सिंह के खिलाफ कुछ कहा है. बाद में यह भी बताना वह नहीं चूके कि मध्यप्रदेश की राजनीति से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है.

विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार दिल्ली से राज्यपाल को उनके बयानों की गंभीरता बतायी गयी, इसके बाद ही उन्होंने अपना रुख बदल लिया. इंदौर हवाई अड्डे पर उनकी अगवानी के लिए आयी भीड़ उनके ऐसे विस्फोटक बयानों से स्वत: छंटती गयी, लेकिन राज्यपाल की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा.

ओंकारेश्वर में एकांतवास के बाद भी राज्यपाल महोदय ने अपने राजनीतिक विचारों पर पाबंदी आवश्यक नहीं समझी. दिल्ली लौटने के पूर्व 25 अप्रैल को उन्होंने भोपाल हवाई अड्डे पर अपने खास समर्थकों को बताया कि दिल्ली दरबार में अर्जुन सिंह की पूछ खत्म हो गयी है. वह अमिताभ बच्चन और मदर टेरेसा के दम पर टिके हुए हैं. इसके बाद उन्होंने विषयांतर किया और अपने समर्थकों को राष्ट्रकवि दिनकर की चार लाइनें भी सुनायीं.

ऐसी चर्चा है कि उन्होंने अपने खास लोगों को यह भी बताया कि राज्यपाल पद पर उन्हें घुटन महसूस हो रही है. महीने में दस दिन से अधिक वह राष्ट्रपति की अनुमति के बगैर बिहार से बाहर नहीं जा सकते. एक पत्रकार को उन्होंने यह भी बताया कि पार्टी से जुड़े बगैर भी राज्यपाल राजनीति में सक्रिय रह सकते हैं.

स्वाभाविक था कि बिहार के राज्यपाल के ऐसे बयानों से राजनीतिक क्षेत्रों में सरगरमी फैलती. 26 अप्रैल को मध्यप्रदेश के रायपुर संभाग के कांग्रेसियों ने अर्जुन सिंह के खिलाफ बयान देने और संवैधानिक मर्यादा भंग करने के आरोप में प्रधानमंत्री से राज्यपाल को तत्काल हटाने की मांग की है.

लेकिन मध्यप्रदेश प्रकरण तो हाल की घटना है. इसके पूर्व 68 वर्षीय गोविंद नारायण सिंह अपने अनोखे कामों-बयानों से बिहार में अलग चर्चा के विषय बने हुए हैं. अपने उग्र तेवर, अक्खड़पन और जिद के कारण वह राज्य सरकार के लिए भी सिरदर्द साबित हो रहे हैं.

बिहार राजभवन में पांव रखते ही वह सक्रिय हो गये. पदग्रहण करने के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने राजभवन के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की. पहले झटके में प्रथम पंक्ति के चार लोगों को अवकाश ग्रहण करने के लिए या अवकाश पर जाने के लिए मजबूर किया. अपने निजी सचिव जी.आर. बसाक और उप सचिव पंचानंद झा को अवकाश ग्रहण करने का आदेश भी दिया. इसके बाद राज्यपाल भवन के अधीक्षक ए.के. सिंह की बारी आयी. उन्हें काम करने से भी रोका गया. राज्यपाल ने पुलिस से राजभवन की चोरी गयी चीजों को तलाशने के लिए कहा. कैप्टन सिंह के गांव और पटना के घरों में तलाशी ली गयी. इस तलाशी में राज भवन से गायब कुछ बरतन बरामद हुए. उनके खिलाफ पुलिस में एफआइआर दर्ज की गयी. लेकिन 8000 रुपये भुगतान करने पर उन्हें छोड़ दिया गया और इस्तीफा ले लिया गया.

इसके बाद राज्य सरकार से डेपुटेशन (प्रतिनियुक्ति) पर राज्यपाल भवन में आये राज्यपाल के निजी सचिव धीरेंद्र सिंह, वरिष्ठ निजी सहायक के.पी. सिंह को वापस राज्य सरकार के पास भेज दिया गया. राज्यपाल ने अपनी भतीजी मधु को ही निजी सचिव नियुक्त किया. 1981 से राज्यपाल के निजी सहायक रहे शमीम अनवर की भी छुट्टी कर दी गयी. रसोइया बेंडिक्ट एंथनी को पहले गिरफ्तार किया गया, फिर उसकी बरखास्तगी हुई. लेकिन राज्यपाल का यह सफाई उन्मूलन अभियान यही नहीं खत्म हुआ. पराकाष्ठा तो तब हुई, जब चार रसोइयों और बेयरों को रातोंरात चपरासी बना दिया गया.

राज्यपाल के सफाई अभियान के शिकार उनके प्रधान सचिव ए.आर. एडीगे भी हुए. श्री एडीगे भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ, सक्षम व अनुभवी अधिकारी हैं. ऐसी चर्चा है कि एक बार राज्यपाल ने उन्हें बुलाया और कहा कि प्रधानमंत्री को वह गोपनीय पत्र भेजना चाहते हैं. उन्हें एक विश्वसनीय स्टेनोग्राफर चाहिए. इसके पूर्व नये राज्यपाल को यह सूचना मिल गयी थी कि केंद्र सरकार को राज्यपाल द्वारा भेजी जानेवाली गोपनीय रपट की एक प्रति तत्काल राज्य सरकार के पास पहुंच जाती है.

इसके बाद नये राज्यपाल ने अपनी रणनीति बनायी. विश्वस्त सूत्रों के अनुसार राजभवन में गड़बड़ियां पहले से ही थी. कीमती सामान गायब थे. संपत्ति संबंधी रेकॉर्ड, दुरुस्त नहीं थे. राजभवन में कर्मचारियों के दो खेमे थे. राज्यपाल ने चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को मिला कर यहां के घपलों की जानकारी ली और तत्काल हरकत में आ गये.

लेकिन सामंती कार्यशैली के कारण उनके शुद्धीकरण अभियान ने उन्हें परेशानी में डाल दिया. प्रधान सचिव एडीगे भावी नाजुक स्थिति का अनुमान लगा कर छुट्टी पर चले गये. इससे श्री सिंह बहुत खफा हो गये. उन्होंने कहा कि ‘एडीगे अपने ‘गॉडफादर’ (मुख्य सचिव) को अरजी दे कर छुट्टी पर बिना मुझे बताये चले गये हैं. यह गंभीर बात है. इसके बाद उन्होंने भारत सरकार से एक ऐसे सचिव की मांग की है, जो मुख्य सचिव को अपना ‘गॉडफादर’ न समझे और अनुशासित रहे.’ लेकिन संकट यह है कि कानूनन कोई भी प्रधान सचिव अपने पद के कारण मुख्य सचिव के मातहत ही काम कर सकता है. उसकी अवमानना करना उसके लिए असंभव है. श्री सिंह ने अपने इस काम से भारत सरकार को भी पसोपेश में डाल दिया है. दूसरी ओर एडीगे की नियुक्ति राज्य सरकार में भूमि हदबंदी अभिकरण में कर दी गयी है. चर्चा तो यह भी है कि राज्यपाल महोदय एडीगे के घर की तलाशी भी कराना चाहते थे. श्री सिंह के ऐसे रुखे व्यवहार से भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी उनसे खफा हैं.

जब राज्यपाल महोदय को एक भी भरोसे का अधिकारी बिहार में नहीं मिला, तो वह लोकसभा के एक पूर्व उपसचिव आर.के. गुप्ता को सहायक सचिव बना कर लाये. आजकल राजभवन में श्री गुप्ता की ही तूती बोलती है. 1931 में निर्मित बिहार के भव्य राजभवन में अब न तो पुरानी चहल-पहल है और न कर्मचारियों का राज. राजभवन के अधिकारी दहशत में हैं, लेकिन अंदर ही अंदर गुस्से से उबल रहे हैं. कर्मचारियों की खामोशी इस तथ्य का सबूत है कि नयी स्थिति के साथ अभी यहां के लोग तादात्य स्थापित नहीं कर सके हैं.

राजभवन के कुछ और वरिष्ठ अधिकारी राज्य सरकार की सेवाओं में लौटने के लिए बेताब हैं. करीब 20 कर्मचारियों की बरखास्तगी नये राज्यपाल ने करायी है. राजभवन में हुई धांधलियों के बारे में एक पत्रकार को बताते हुए राज्यपाल ने अपने पूर्ववर्ती राज्यपालों पर भी छींटाकशी की. ‘देखो भाई! दूसरे राज्यपालों ने शायद ही कभी (जहां कार्यालय है) नीचे समय व्यतीत किया. जब आवश्यकता होती थी, तब वे नीचे आते थे और अपना सिर हिला कर ऊपर अपने आवास में लिफ्ट से चले जाते थे. अब मेरी आदत है, नीचे के कर्मचारियों से भी खुल कर बातचीत करने की. इस कारण धीरे-धीरे वे मुझसे खुलते गये और मुझे, यहां हो रहे कार्यकलापों के बारे में बहुत-सी चीजें जानने को मिली.’

लेकिन कोई भी राज्यपाल महज अपनी इच्छा को तत्काल सामंतों की तरह क्रियान्वित नहीं कर सकता. किसी के भी खिलाफ कार्रवाई के लिए कुछ मान्य नियम हैं. उनके तहत ही कार्रवाई संभव है. अब पंचानंद झा ने राज्यपाल के खिलाफ हाईकोर्ट में एक याचिक दायर की है, जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल नियुक्त करनेवाले अधिकारी नहीं हैं. अत: उन्हें बरखास्त करने या अनिवार्य रूप से सेवामुक्त करने का भी अधिकार नहीं है. राज्य सरकार नियुक्त करनेवाली संस्था है. वही अपने कर्मचारियों के खिलाफ मान्य प्रक्रियाओं के तहत कार्रवाई भी कर सकती है. बिहार के पूर्व महाधिवक्ता ताराकांत झा और उनके सहयोगी युवा और तेज-तर्रार वकील मिहिर कुमार झा पंचानंद झा की ओर से पटना उच्च न्यायालय में मुकदमा लड़ रहे हैं.

ताराकांत झा ने रविवार को इस संदर्भ में बताया कि ‘राज्यपाल की दो हैसियत हैं. एक निजी, दूसरी सरकारी. निजी हैसियत से वह किसी कर्मचारी की बरखास्त नहीं कर सकते. सरकारी हैसियत के तहत उनके नाम पर सरकार शासन करती है यानी महज शासन राज्यपाल के नाम पर चलता है. सरकार लोगों को बहाल करती है. वही जबरन सेवामुक्त कर सकती है. सरकार ने पंचानंद झा के खिलाफ कुछ नहीं किया है. वह तो डेपुटेशन में राजभवन में काम करने गये थे. 1991 में उन्हें सेवामुक्त होना था. अत: राज्यपाल को सरकारी कर्मचारी को जबरन सेवामुक्त करने का अधिकार नहीं है.’

पटना उच्च न्यायालय की एक पीठ ने इस संदर्भ में राज्य सरकार से भी पूछताछ की है. चूंकि राजभवन में हो रहे कार्यकलापों से राज्य सरकार अवगत नहीं है. अत: वह अजीब मुसीबत में फंस गयी है. यह याचिका, पूरे देश में अनूठे ढंग की है. इस कारण पूरे राज्य में लोगों की रुचि इसमें बढ़ गयी है.

एक दूसरे वरिष्ठ वकील इस संदर्भ में संविधान की धारा 361 का उल्लेख करते हैं. इसमें राष्ट्रपति, राज्यपाल या राजप्रमुखों के अधिकारों की रक्षा की चर्चा है. इस अनुच्छेद में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने अधिकारों और कर्तव्यों के पालन, कार्यान्वयन या इस दौरान किये गये अपने सरकारी कामकाज के प्रति किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. संभवतया इस आधार पर यह मामला अदालत से खारिज भी हो सकता है. लेकिन राज्य सरकार के लिए जो गंभीर संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है. वह अपनी जगह अलग है. वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं कि कानूनों का रक्षक ही यदि सेवानिवृत्ति, जबरन सेवामुक्ति या बरखास्तगी जैसे मुद्दों पर मान्य कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं करेगा, तो संविधान की रक्षा कौन करेगा?

पटना उच्च न्यायालय में दायर चाचिका (संख्या 2321, 1988) के अनुसार कार्यभार संभालते ही राज्यपाल ने 26.2.1988 को राजभवन में मालियों की संख्या घटाने का निर्देश दिया. फरवरी माह में राजभवन में 15 स्थायी और 15 रोजमर्रा पर काम करनेवाले माली थे. इसके अतिरिक्त 8 माली सार्वजनिक निर्माण विभाग से प्रतिनियुक्ति (डेपुटेशन) पर आये थे. ये माली अपनी तनख्वाह अपने मूल विभाग से ही लेते थे. राज्यपाल महोदय ने तत्काल दैनिक मजदूरी पर काम करनेवाले 14 मालियों को हटाने का आदेश दिया. लेकिन उपसचिव श्री झा ने सुझाव दिया कि पीडब्ल्यूडी से प्रतिनियुक्ति पर आये मालियों को उनके मूल विभाग में लौटा दिया जाये और दैनिक मजदूरी करनेवालों को रखा जाये. इससे अनावश्यक मालियों की संख्या भी कम हो जायेगी और छंटनी भी नहीं करनी पड़ेगी. अंतत: उनका यह सुझाव स्वीकृत हो गया.

इसके बाद राज्यपाल महोदय ने रांची राजभवन के लिए दो नयी गाड़ियों के क्रय का आदेश दिया. उपसचिव (प्रभारी संपत्ति व उपस्कर) ने राज्यपाल को बताया कि गृह मंत्रालय ने जो गाड़ियों की स्वीकृत दी है, उसके तहत गाड़ियां खरीदी जा चुकी हैं. अब नयी गाड़ियों के क्रय के लिए गृह मंत्रालय से नयी स्वीकृति लेनी पड़ेगी.

कहते है, इससे राज्यपाल चिढ़ गये. उन्होंने एडीगे के सामने बुला कर श्री झा को भला-बुरा कहा. राज्यभवन के अधिकारियों के फर्निचर देने के संबंध में भी पूछताछ की. अंतत: राज्यपाल की झिड़कियों और फटकार से तंग आ कर श्री झा ने खुद स्वेच्छया सेवामुक्ति के लिए आवेदन को राज्य सरकार के पास भेज दिया. कुछ दिनों बाद राज्यपाल को पुन: श्री झा की सुध आयी. तब तक एडीगे छुट्टी पर जा चुके थे. उन्होंने श्री झा को बुलाया और पूछा कि आपको सेवामुक्ति का आदेश क्यों नहीं मिला? मैंने एडीगे से तत्काल आदेश देने को कहा था. इसके बाद कहा कि ‘एडीगे किस तरह मेरे आदेश की अवमानना कर सकते हैं. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो वह मूर्ख हैं.’ अंतत: राज्यपाल के मनचाहे अधिकारी आर.के. गुप्त ने अपने आदेश (मेमो सं 89/ए. एस) के तहत 23.3.1988 को पंचानन झा को अनिवार्य रूप से सेवामुक्त कर दिया. इस बीच सार्वजनिक स्वास्थ्य व इंजीनियरिंग विभाग के मंत्री अमरेंद्र मिश्र ने श्री झा को अपना व्यक्तिगत सचिव नियुक्त करने के संबंध में सरकार को लिखा, लेकिन यह योजना मूर्तरूप ग्रहण करे, इसके पूर्व ही राज्यपाल के कार्यालय ने उन्हें जबरन सेवामुक्त करा दिया.

पिछले दिनों राज्यपाल रांची गये, तो वहां भी कुछ करतब दिखा आये. राजभवन के एक हिस्से में पुलिस व जिला प्रशासन के अधिकारी रहते थे. उन्हें तत्काल राजभवन को छोड़ने का फरमान दे दिया. रांची विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के एक प्राचार्य को बरखास्त करने का भी आदेश दिया. उन पर प्रश्नपत्रों को आउट करने का आरोप है. उन्होंने यह भी घोषणा की कि झारखंड के सुदूर गांवों में वह पदयात्रा करेंगे और स्वत: झारखंड की समस्याओं को समझना चाहेंगे. आदिवासियों की बेचैनी के कारणों की तलाश करेंगे.

रांची में आयोजित ‘प्रभात खबर’ परिसर में पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान राज्यपाल ने कहा कि राज्य के संक्षिप्त अध्ययन से उन्हें लगा है कि माफिया व नक्सलवाद जैसी समस्याओं को कड़ाई से दबा दिया जाये, तो इसका समाधान हो सकता है. माफिया तत्वों को राज्यपाल ने सशक्त लोगों की निर्बल लोगों पर संगठित गुंडागीरी की संज्ञा दी. बहरहाल राज्यपाल उन्मुक्त हो कर हर विषय पर अपना दिलचस्प विचार व्यक्त कर रहे हैं. उनके ऐसे बयानों से अब राज्य सरकार के कान खड़े हो गये है. लोक दल (ब) के एक विधायक का कहना है कि विरोध पक्ष की जगह अब राज्यपाल ही राज्य सरकार को सबक दे रहे हैं.

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