बिहार में झगड़ालू तीन
-हरिवंश- इनमें से एक, दूसरे के वंश का विनाश कर देने का दावा करते हैं. दूसरे जब-तब और जहां-तहां, जिस किसी के हाथ-पैर तोड़ देने की धमकी देते रहते हैं. और तीसरे ने दूसरे से मिलने मात्र से मना कर दिया है. झगड़े के ये तौर-तरीके, यों तो, किसी चौराहे पर भी क्षम्य नहीं है. […]
-हरिवंश-
गोविंद नारायण सिंह कानूनविद हैं और प्रारंभ में कुछ समय, भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी रहे थे. धारणा तो शिवचंद्र झा के बारे में भी यही रही है कि वह शांत और विनयी व्यक्ति हैं. वह कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. लेकिन आज जब वे राज्य के तीन शीर्ष संवैधानिक पदों को सुशोभित कर रहे हैं, उन्होंने सबसे ज्यादा अपने झगड़ालू स्वभाव का ही परिचय दिया है. इससे सर्वाधिक हानि जिस चीज की हुई है, वह है पदों की गरिमा. सार्वजनिक जीवन में शालीनता का जो जिक्र की बेमानी है. क्या राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और प्रतिस्पर्द्धा ही इस अशोभनीय झगड़े की वजह है? उत्तर है, नहीं. फिर बिहार के इन तीन झगड़ालू राजनेताओं के टकराव के क्या कारण हैं? इनके झगड़े का स्वरूप क्या है? मुद्दे क्या हैं? कितना पेचीदा है यह टकराव? और इसके राजनीतिक नतीजे क्या हो सकते हैं? हरिवंश, जयशंकर गुप्त और सत्येंद्र प्रताप सिंह ने लिखी है यह आमुख कथा. साथ में भागवत झा आजाद से राजीव शुक्ल की बातचीत और कृष्ण मुरारी की तसवीरें.
लेकिन इतने जिम्मेदार व शीर्ष पदों पर गोविंद नारायण सिंह, भागवत झा आजाद और शिवचंद्र झा का आचरण राजनीतिक मर्यादाओं के अनुरूप क्यों नहीं है? यह सिर्फ सत्ता की लड़ाई या राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का टकराव नहीं है, बल्कि अब यह विश्वास करने के अनेक कारण हैं कि इस अशोभनीय लड़ाई की जड़ें इन तीनों राजनीतिज्ञों के व्यक्तिगत राग-द्वेष और झगड़ालू स्वभाव में भी हैं.
महामहिम गोविंद नारायण सिंह राज्यपाल का कार्यभार संभालते ही चर्चा के केंद्र बन गये थे. राजभवन में आते ही उन्होंने अनेक लोगों को निकाल-बाहर किया. एक अधिकारी के घर की तलाशी करायी, जिसमें राजभवन से गायब चांदी के सामान, बरतन आदि बरामद हुए. राजभवन की सफाई की दृष्टि से उनका यह कार्य महत्वपूर्ण था, लेकिन किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई की कुछ मान्य संवैधानिक और कानूनी प्रक्रियाएं हैं. राज्यपाल महोदय का सामंती मिजाज इन परंपराओं को कबूल नहीं करता.
यह सही है कि उन्होंने राजभवन को विलास और वैभव का अड्डा नहीं रहने दिया है. उनके सचिव आरके गुप्त के आवास में महज एक तख्त है, जिस पर वह सोते हैं. राजभवन में भी यह सादगी दिखाई देती है. गोविंद नारायण सिंह के आगमन के पूर्व बिहार राजभवन में उपलब्ध सामानों की सूची नहीं थी. अनेक दुर्लभ व महत्वपूर्ण सामान चुराये जा चुके हैं. राजभवन परिसर में होनेवाली खेती के उत्पाद सीधे बाजारों तक पहुंच जाते थे. गाड़ियों व टेलीफोन का खूब दुरुपयोग होता था.
लेकिन गोविंद नारायण सिंह ने राजभवन में पांव रखते ही अपनी विशिष्ट कार्यशैली में काम आरंभ किया. उन्होंने अधिकांश पुराने लोगों को वहां से हटाया. राजभवन के बरामदे में उन्होंने आसन जमा लिया. पहले के राज्यपाल ऊपर से नीचे नहीं उतरते थे. अब वह तख्त पर मसनद डाल कर राजभवन के बरामदे में पड़े रहते हैं. पास में थाल रहता है. उसमें पान-मसाला आदि रखा रहता है. उनसे मिलनेवालों का तांता लगा रहता है. वह मुख्यमंत्री के समानांतर सत्ता केंद्र बन गये हैं. लोगों की फरियाद-शिकायतें सुनते हैं और उन पर तत्काल कार्रवाई के लिए राज्य सरकार को लिखते हैं. राजभवन में टेलीफोन और गाड़ियों के दुरुपयोग पर पाबंदी लग गयी है. पहले राजभवन में पेट्रोल की औसत खपत प्रतिमाह लगभग 35 हजार रुपये होती थी, अब वह घट कर पांच हजार हो गयी है. टेलीफोन के बिल प्रतिमाह 60 हजार रुपये आते थे, अब यह घट कर औसत 16 हजार रुपये प्रतिमाह हो गया है. राजभवन परिसर में कृषि उत्पाद दोगुना बढ़ गया है, यह सभी उत्पाद राजभवन के कर्मचारियों में वितरित कर दिया जाता है. सख्त मिजाज गोविंद नारायण सिंह खुद आइएएस रह चुके हैं, कानूनविद भी हैं, लेकिन उनकी इच्छाओं के पूरा होने में कानून आड़े आये, यह उन्हें पसंद नहीं है. मूल गड़बड़ी भी यही है, इसलिए उनकी कार्यशैली अनोखी है.
जब वह पहली बार रांची राजभवन में गये, तो वहां लगे परदों को देख कर खुंदक खा गये. रांची विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति रामदयाल मुंडा के सामने उन्होंने रांची कमश्निर को तलब किया और फटकारा. रांची पहले बिहार की ग्रीष्म राजधानी थी. इस कारण वहां भी राजभवन में पूरा तामझाम था. जब रांची ग्रीष्म राजधानी नहीं रही, तो राजभवन परिसर में अनेक मकान राज्य सरकार के विभिन्न महकमों के लोगों को आवंटित कर दिये गये. राज्यपाल महोदय ने फरमान जारी किया कि वे आवास तुरंत खाली कराये जायें.
कुलाधिपति के रूप में उन्होंने अनेक अनोखे कार्य किये हैं. एक दिन उन्होंने रामदयाल मुंडा को फोन किया. कहा कि रांची विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग का एक वरिष्ठ प्राध्यापक प्रश्न-पत्र बेचता है, ऐसी उन्हें शिकायत मिली है. डॉ मुंडा ने कहा कि उनसे भी कुछ लड़कों ने यह शिकायत की है. वह जांच करा रहे हैं, लेकिन कुलाधिपति ने दलील दी कि हर पाप का प्रमाण नहीं होता, उन्हें बरखास्त कर दिया जाये. विश्वविद्यालय के वरिष्ठ लोगों ने हाईकोर्ट (रांची पीठ) के एक जज से परामर्श किया. उन्होंने कहा कि यह मामला कोर्ट में एक क्षण भी नहीं टिक सकता, बेवजह सरकार की फजीहत होगी. फिर भी आरोपपत्र बनाया गया और उस प्राध्यापक को बरखास्त कर दिया गया. बरखास्तगी के बाद वह प्राध्यापक राज्यपाल भवन में महामहिम के दर्शन करने गये. बातचीत हुई. राज्यपाल महोदय का दिल पसीज गया. उन्होंने डॉ मुंडा को फोन किया कि आपने ठीक से उनके संबंध में नहीं बताया, यह तो भले आदमी हैं, गलत बरखास्तगी हुई है. इसे वापस कराइए. वह प्राध्यापक अब राजभवन के नियमित अतिथि तो हैं ही, राज्यपाल के पारिवारिक ज्योतिषी भी हैं.
काफी पहले विभिन्न विश्वविद्यालयों में तदर्थ पद बनाने की छूट दी गयी थी. तब प्राचार्यों को यह अधिकार मिल गया था कि वे तदर्थ पद बना कर अध्यापक नियुक्त कर लें. इन तदर्थ अध्यापकों की प्रति कक्षा 20 रुपये और प्रतिमाह अधिकतम 700 रुपये तक का भुगतान होता था. ऐसी नियुक्तियों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई. प्राध्यापकों-राजनेताओं ने जम कर पैसे बनाये. 5-7 वर्षों में बिहार के विश्वविद्यालयों में हजारों लोग आ गये, जो तदर्थ आधार पर पढ़ा रहे हैं. अब वे स्थायी नियुक्ति के लिए अलग आंदोलन चला रहे हैं. एक कुलपति सम्मेलन में राज्यपाल महोदय ने हुक्म फरमाया कि सभी तदर्थ अध्यापकों की सूची तैयार की जाये. यह सूची राजभवन पहुंचे, इससे पूर्व ही उन्होंने विश्वविद्यालयों के अधिकारियों को परिपत्र पढ़ा दिया कि तदर्थ अध्यापकों को वेतन न दिया जाये. प्राचार्यों ने वेतन देना बंद कर दिया. अब तदर्थ अध्यापकों की ओर से धरना, घेराव और आंदोलन शुरू हुए, उनका एक
प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिला भी. उन्हें समझाया. राज्यपाल ने कहा कि यह निर्णय बिलकुल न्यायसंगत नहीं है, आप लोग जाइए, मैं अवश्य कुछ करूंगा. और उन्होंने कुलपतियों को आदेश दे दिया कि इन्हें पूर्ववत वेतन दिया जाये. राज्यपाल महोदय के इस आदेश से एक नया संकट पैदा हो गया. इन तदर्थ शिक्षकों में अधिकांश ऐसे हैं, जो अध्यापक होने के काबिल नहीं हैं. वे फर्जी तरीकों से नियुक्त हुए हैं. स्थायी करने की मांग को ले कर वे पहले से ही लड़ रहे हैं. अब राज्यपाल के आदेश से उन्हें एक किस्म की वैधता मिल गयी है.
राज्यपाल महोदय की यह अद्भुत खूबी है कि वे आदेश देकर तुरंत-फुरंत उन्हें वापस भी ले लेते हैं. इससे राज्य सरकार मुश्किल में पड़ जाती है. बिहार के सभी विश्वविद्यालय बंद होने के कगार पर हैं. वे कुल 170 करोड़ के घाटे में चल रहे हैं. कई विश्वविद्यालयों के पास वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं. राजनीति अखाड़ेबाजी यहां चरम पर है. लिहाजा कुलाधिपति की हैसियत से राज्यपाल इनमें तत्काल सुधार चाहते हैं. लेकिन राज्य सरकार की अपनी कार्यशैली है. नतीजे टकराव के रूप में सामने आते हैं. और उसका चरम बिंदु यह है कि एक बार गोविंद नारायण सिंह ने खीज कर राज्य सरकार को सलाह दी कि ‘राज्यपाल से कुलाधिपति के अधिकार वापस ले लेने का अध्यादेश लाइए, मैं तत्काल हस्ताक्षर कर देता हूं.’ कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की मांगें क्या हैं? वह राजभवन परिसर में एक अलग भवन बनवाना चाहते थे. ताकि विश्वविद्यालयों का कामकाज देखनेवाले वहां बैठ सकें. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को उन्होंने लिखा कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति दिये जायें.
अपना स्टाफ बढ़ाने के लिए भी राज्यपाल ने राज्य सरकार से कहा. दिल्ली में वह एक सलाहकार चाहते थे, लिहाजा यह पद बनाने की अनुशंसा हुई. अधिसूचना भी जारी हो गयी. लेकिन बाद में राज्यपाल महोदय ने इस पद के एवज में दिल्ली के बजाय पटना में ही केबीएन सिंह (पूर्व मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय) को नियुक्त कर लिया, और प्रस्ताव अनुमोदन के लिए वित्त विभाग को भेज दिया. नतीजा था राज्य सरकार और राजभवन में टकराव. वित्त विभाग से फाइल नहीं लौटी, तो राजभवन ने तहकीकात की. पता चला कि फाइल मुख्यमंत्री के पास है. इस नियुक्ति को लेकर राज्यपाल पर यह भी आरोप लगा कि वह स्वजातीय लोगों को प्रश्रय दे रहे है.
इसी तरह ‘सहकारिता अध्यादेश’ को लेकर राज्यपाल और मुख्यमंत्री में ठन गयी थी. कहा गया कि सहकारिता अध्यादेश से जो लोग प्रभावित हो रहे थे, उनसे राज्यपाल की सहानुभूति थी. इस कारण उन्होंने अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने में विलंब किया. जबकि राजभवन के सूत्रों का कहना है कि यह अध्यादेश कानूनी रूप से कमजोर था. इसलिए राज्यपाल को उसे नये सिरे से तैयार करना पड़ा. और राज्य सरकार ने राज्यपाल द्वारा किये गये संशोधनों को हू-ब-हू स्वीकार कर लिया. इस अध्यादेश का ‘प्रियंबल’ (प्रस्तावना) खुद राज्यपाल ने लिखा है.
पटना से राज्यभवन से सटा हुआ संजय जैविक उद्यान है. इसका एक बंगला राज्यपाल महोदय लेना चाहते हैं, ताकि वहां विश्वविद्यालय के कामकाज के लिए मुख्यालय बनाया जा सके. राज्य सरकार इसे राजभवन को सौंपने के लिए तैयार नहीं है. टकराव की इच्छा हो, तो मुद्दों की क्या कमी! कॉलेजों में फर्जी नियुक्तियों के अनेक मामले उन्होंने पकड़े हैं, उन पर कार्रवाई के लिए लिखा है. अध्यापकों को उनकी हिदायत है कि ‘कक्षा में अवश्य जाओ, भले ही दीवारों को पढ़ाने पड़े.’
हां, आगंतुकों से राज्यपाल दिल खोल कर मिलते हैं. हर समस्या पर खुल कर बातचीत करते हैं. राज्य सरकार के अधिकारियों को सीधे तलब कर लेते हैं. राज्य सरकार इससे भी परेशान है. सरकार के एक प्रमुख व्यक्ति कहते हैं, ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि राज्यपाल सीधे राज्य सरकार के कर्मचारियों को निर्देश दें. बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री बाबू के समय में तत्कालीन राज्यपाल ने सीधे एक जिलाधीश को तलब कर लिया था, जिसे लेकर विवाद छिड़ गया था. मिलने आये अध्यापकों से गोविंद नारायण सिंह की बातचीत बड़ी दिलचस्प होती है. राजनीतिशास्त्र के तीन प्रवक्ता उनसे मिलने आये. राज्यपाल महोदय ने इन लोगों से राजनीतिशास्त्र के तीन मशहूर विद्वानों के नाम पूछे. उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के किन्हीं दो प्राध्यापकों के नाम ले दिये. बस फिर क्या था, वह बिफर गये, बोले..‘तीसरे तुम लोग, चौथा…मैं, अब तुम लोग जाओ.’
उनकी सक्रियता बहुआयामी है. भूकंप पीड़ितों को पर्याप्त सहायता मुहैया न कराने पर उन्होंने राज्य सरकार को लताड़ा और राहत पहुंचाने खुद भूकंप पीड़ितों के बीच पहुंच गये. राज्यपाल रेडक्रॉस के अध्यक्ष होते हैं. इस नाते भी वह कई लाख रुपये नगद ले कर भूकंप पीड़ितों के बीच गये और बांट आये. वह समानांतर राजनीतिक शक्ति की तरह कार्य कर रहे हैं. इससे भी मुख्यमंत्री नाखुश हैं.
इस सबका परिणाम यह है कि बिहार सरकार भी अब राज्यपाल को महत्व नहीं देती. हाल ही में वह राज्यपाल सम्मेलन में दिल्ली गये थे. जाने से पहले उन्होंने राज्य सरकार की उपलब्धियों पर सरकार से एक ‘नोट’ मांगा, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें नोट नहीं दिया. राज्यपाल सम्मेलन में भी अपना यह दुखड़ा सुना आये.
गोविंद नारायण सिंह हालांकि राज्यपाल बिहार के हैं, लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से वह चिढ़े हुए हैं. अर्जुन सिंह के बारे में वह बेझिझक अपने विचार प्रकट करते हैं. भागवत झा आजाद और अर्जुन सिंह की मित्रता से भी उन्हें दुख है. अक्सर वह मध्यप्रदेश की राजनीति में कूद पड़ने की अपनी आतुरता छिपा नहीं पाते.
राजभवन से राज्य सरकार के संबंध में जो गोपनीय रिपोर्ट भेजी जाती थीं, वे दिल्ली पहुंचने के पहले ही सार्वजनिक हो जाती थीं. लिहाजा गोविंद नारायण सिंह ने आते ही पुराने स्टाफ को बदल दिया. यही नहीं, वह गोपनीय पत्र खुद लिखते और बंद करते हैं, लेकिन तो भी, उनके पत्र पता नहीं कैसे, तत्काल अखबारों में पहुंच जाते हैं. हाल ही में उन्होंने मुख्यमंत्री के खिलाफ प्रधानमंत्री को एक कड़ी चिट्ठी लिखी. वह भी तुरंत अखबारों में छप गयी. कुछ सूत्र बताते हैं, जब उन्होंने यह पत्र तैयार किया, तो उनके पास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और एक वरिष्ठ नौकरशाह मौजूद थे.
राज्यपाल और मुख्मयंत्री के टकराव का कारण सिर्फ गोविंद नारायण सिंह, उनकी कार्यशैली और उनका स्वभाव नहीं है. खुद मुख्यमंत्री भी जरा स्वेच्छाचारी और गरममिजाज इनसान हैं. फिर दोनों के बीच टकराव भला क्या न हों! लेकिन अक्खड़ स्वभाव भागवत झा आजाद के व्यक्तित्व का नया गुण नहीं है. 1980 में जब श्रीमती गांधी ने उन्हें अपनी मंत्री परिषद में राज्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाना चाहा, तो वह ऐन मौके पर राष्ट्रपति भवन के शपथ ग्रहण समारोह से उठ कर बाहर चले गये थे.
मुख्यमंत्री बनते ही भागवत झा आजाद अपनी उग्रता के कारण विवाद के विषय बन गये थे. जब वह मुख्यमंत्री बने, उस वक्त तारिक अनवर, रामाश्रय सिंह और डॉ जगन्नाथ मिश्र भी उनके शुभचिंतक थे. आज ये सभी एक दूसरे से गुत्थमगुत्था हैं. नेतृत्व की खूबी तो यह है कि आप विरोधियों को भी साथ लेकर चलें, लेकिन आजाद साहब ने अपने मित्रों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों को भी अपना दुश्मन बना लिया. मुख्यमंत्री बनने पर विधायक हरखू झा उनके पैर छूने गये, तो मुख्यमंत्री बरस पड़े, ‘मेरा पांव मत छुओ. न मैं किसी के पैर छूता हूं, न ही छूने देता हूं. वैसे भी पैर छूने से मंत्री नहीं बना दूंगा. चलो, हटो यहां से.’ हरखू एक पूर्व विधानसभाध्यक्ष के सुपुत्र हैं. इसी तरह कांग्रेसी विधायक व पूर्व मंत्री संजय कुमार टोनी उनसे मिलने गये. उन्होंने मुख्यमंत्री को चाचा कह कर पुकारा. आजाद जी ने झट उत्तर दिया, ‘कैसा चाचा, किसका चाचा? कब से हम तुम्हारे चाचा हो गये और तुम हमारे भतीजा? सुनो यह चाचा-भतीजा का रिश्ता दूबे जी (पूर्व मुख्यमंत्री) को पसंद है. उनके पास ही चले जाओ. उनसे यह सब कहना.’
मुख्यमंत्री के उग्र स्वभाव का आरंभ में नौकरशाहों पर अनुकूल असर हुआ. भय के कारण नौकरशाह ढंग से काम करने लगे. लेकिन धीरे-धीरे उनकी यह उग्रता ‘सामान्य’ बात लगने लगी. इस कारण उनका मजाक उड़ाया जाने लगा. उनके संबंध में अनेक कस्सिे मशहूर हुए. जुलाई के अंतिम सप्ताह में एक दिन मुख्यमंत्री ने विधायक बिलट बिलट पासवान को तलब किया. उनसे कहा कि ह्यहो बिलट, 18 बरस के संबंध के कहिनै (क्यों) तोड़ि देलहो, कहिनै नाराज छोहो?’ पासवान ने कहा कि राजनीति में संबंध तो राजनीतिक मदद पर ही बनता है. मदद शब्द सुनते ही मुख्यमंत्री भड़क गये. बोले, ‘मदद? चले जाइए.’ इसी तरह, मुख्यमंत्री के जनता दरबार में अपना दुखड़ा सुनाने आये कांग्रेस के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता से वह नाहक उलझ पड़े. वह कार्यकर्ता प्रधानमंत्री का पत्र ले कर उनसे मिलने आया था. आजाद जी ने उससे कहा, ‘तुम प्रधानमंत्री का पत्र लेकर धौंस देने आये हो. मालूम है न कि मैं उनकी मां से नहीं डरा. तुरंत जाइए.’ कहा तो यह भी जाता है कि मुख्यमंत्री ने उक्त कार्यकर्ता का कॉलर पकड़ लिया.
सितंबर के मध्य में हजारीबाग की एक जनसभा में भी वह उत्तेजित हो गये. डॉ जगन्नाथ मिश्र को उन्होंने काफी भला-बुरा कहा. इस सभा में उन्होंने ऐलान किया कि ‘कोशी में बालू लूट कर महल बनानेवाले लोगों से मैं नहीं डरता.’ तारिक अनवर से भी उन्होंने तकरार मोल ले ली, जबकि आरंभ में तारिक ने जगह-जगह मुख्यमंत्री का पक्ष मजबूत करने की कोशिश की थी. मुख्यमंत्री अपने साले बच्चा झा को कांग्रेस का महासचिव बनाने पर तुले हैं, लेकिन तारिक अनवर इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं.
मुख्यमंत्री बनते ही भागवत झा आजाद ने वादा किया था कि वह नौकरशाहों के स्थानांतरणों के लिए निश्चित मापदंड निर्धारित करेंगे. राजनीतिज्ञों की सिफारिश पर स्थानांतरण न करने की भी उन्होंने घोषणा की थी. लेकिन केंद्रीय मंत्री कमलाकांत तिवारी के दबाव पर उन्होंने भोजपुर के जिलाधीश का तबादला कर दिया. इस तबादले के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ. जब एक कार्यकर्ता ने उनसे पूछा, तो उन्होंने कहा, ‘मुझसे क्यों पूछते हैं’? केके तिवारी से बात करिए, जिनका कहना है कि इस जिलाधीश के रहते मैं अगला चुनाव नहीं जीत सकता.’ मुख्यमंत्री कार्यालय अब भी पहले की तरह तबादलों के निर्देश देता है. मिथिला विश्वविद्यालय की एक महिला प्राध्यापक के स्थानांतरण के लिए मुख्यमंत्री सचिवालय से तीन बार तत्कालीन कुलपति को फोन किया गया.
मुख्यमंत्री के साले बच्चा झा तो बेहिचक कबूल करते हैं कि वह पैरवी (सिफारिश) करते हैं. उन्होनें स्वीकार किया है कि ‘पहले पैरवी करने में जूतों का सोल घिस जाता था. दौड़ना अब भी पड़ता है, लेकिन चार-पांच बार जाने से काम हो जाता है.’ प्रशासन में मुख्यमंत्री के सगे-संबंधियों का बढ़ता हस्तक्षेप उनके विरोधियों के लिए अच्छा मुद्दा बन गया है.
अब वह अपने पुत्र को राजनीति में उतारने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं. इसी कारण जगन्नाथ मिश्र ने राज्य कांग्रेस संगठन की एक बैठक में राजनीति में बढ़ते वंशवाद पर प्रहार किया और कहा कि पुत्र-पुत्रियों को टिकट मिलना बंद होना चाहिए. दोनों के बीच मतभेद का यह एक प्रमुख कारण यह भी है. अपने बेटे को प्रतिष्ठित करने के प्रयास में आजाद जी ने एक हास्यास्पद काम और किया. अपने क्रिकेटर पुत्र कीर्ति आजाद को उन्होंने ‘बिहार गौरव’ की उपाधि से विभूषित करवा दिया. वह फख्र के साथ कहते हैं कि उनका पुत्र कोई अनपढ़ या नासमझ तो है नहीं कि राजनीति में न आये.
राजनेताओं की पहचान उनके दरबारियों के आधार पर भी होती है. आजाद जी के मुख्य सिपहसालार हैं मंत्री श्यामसुंदर सिंह धीरज, विधायक जयकुमार पालित और कुमुद रंजन झा. श्री धीरज पर बेनामी संपत्ति बटोरने से लेकर अपराधियों को प्रश्रय देन तक के गंभीर आरोप लगते रहे हैं. श्री पालित पहले जगन्नाथ मिश्र के प्रिय थे, बाद में वे वीपी सिंह के साथ गये, अब झा जी का खेमा सुशोभित कर रहे हैं. कुमुद रंजन झा के अनेक किस्से चर्चित हैं.
भागवत झा ने अपनी अनोखी कार्यशैली से सबको दुश्मन बना लिया है. राज्यपाल से उनकी पटरी नहीं बैठी है. विधानसभाध्यक्ष उन्हें उखाड़ने में लगे हैं. जगन्नाथ मिश्र को वह फूटी आंखों नहीं देखना चाहते. तारिक अनवर से उनके मतभेद बहुत बढ़ गये हैं. भ्रष्टाचार खत्म करने, नौकरशाहों को दुरुस्त करने, भ्रष्ट ठेकेदारों की टांग तोड़ने, समयबद्ध काम करने का आह्वान कर लोगों के बीच उन्होंने जो उत्साह पैदा किया था, वह भी खत्म हो गया है.
हालांकि मुख्यमंत्री के तेवर पिछले कुछ महीनों के दौरान कुछ नरम हुए हैं. फिर भी उनका उग्र स्वभाव जब-तब व्यक्त होने से बाज नहीं आता. नवंबर के अंतिम सप्ताह में उन्होंने पूरी गैरजम्मिेदारी का परिचय देते हुए राज्य बैंकर्स समिति की बैठक में घोषणा कर दी कि अगर बैंक बिहार को लूटते रहे, तो वह उन्हें काम करने से रोक देंगे, बैंक शाखाओं के आगे पुलिस तैनात कर देंगे और यह व्यवस्था करेंगे कि राज्य की जनता बैंकों में पैसे जमा नहीं करे.
मुख्यमंत्री की उग्रता का कुछ सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता था, लेकिन उनके बड़बोले होने के कारण उनकी बहुत-सी घोषणाएं हास्यास्पद हो गयी हैं. शुरुआत में ही उन्होंने भ्रष्ट ठेकेदारों व इंजीनियरों को दुरुस्त करने और यहां तक कि उनके पैर तोड़ने की धमकी दी थी. लेकिन बिहार में ठेकेदारों व अफसरों के भ्रष्टाचार आज भी बदस्तूर जारी हैं. 3 दिसंबर को गांधी मैदान की सभा में भी मुख्यमंत्री ने शोर मचानेवालों के हाथ तोड़ने की धमकी दी.
उग्र और बड़बोले स्वभाव के गोविंद नारायण सिंह और भागवत झा आजाद की तुलना में विधानसभाध्यक्ष शिवचंद्र झा थोड़े शांत और विनयी दिखायी देते हैं. लेकिन शांत व विनम्र वह सिर्फ दिखाई देते हैं, हैं नहीं. उनके काम करने का तरीका जरा अलग है. लेकिन उसमें भी उनकी झगड़ालू प्रवृत्ति को अच्छी तरह पहचाना जा सकता है. चूंकि वह विधानसभाध्यक्ष हैं, इसलिए राज्य में संवैधानिक संकट पैदा करने में उन्हें आसानी रहती है. और मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के खिलाफ तो उन्होंने एकदम पहले ही दिन से मोरचा खोल दिया था.
दरअसल, भागवत झा आजाद जब मुख्यमंत्री बने, तब बिहार में सबसे ज्यादा नाखुश व्यक्ति संभवत: शिवचंद्र झा ही थे. उससे पहले उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को विधानसभा में विपक्षी नेता के पद से हटा दिया था. और यह भी उन्होंने संविधान, नियमों, परंपराओं और मर्यादाओं को ताक पर रख कर किया था. जब दुबे जी का मुख्यमंत्री की कुरसी से जाना तय हो गया, तो शिवचंद्र झा को पूरा यकीन था कि आलाकमान उन्हें कर्पूरी ठाकुर की बरखास्तगी का इनाम जरूर देगा और मुख्यमंत्री बना देगा. उस शाम, जब भागवत झा आजाद के पक्ष में फैसला हो चुका था, पर घोषणा नहीं हुई थी, शिवचंद्र झा ने रविवार से कहा था कि ‘मेरा, जगन्नाथ और भागवत झा का नाम चल रहा है, पर अभी भागवत का अपर हैंड है.’ लेकिन उनके चेहरे से साफ था कि उन्हें निर्णय पता है और वह बेहद नाखुश हैं.
उन्हें अफसोस इस बात का भी था कि आलाकमान ने कर्पूरी ठाकुर की बरखास्तगी के उनके प्रयासों का इनाम उन्हें न देकर उनके कट्टर दुश्मन भागवत झा आजाद को दे दिया. खुन्नस में वह भागवत झा के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गये. यहां तक कि जब खुद मुख्यमंत्री सदाशयतावश उनसे मिलने आये,तो वह गले जरूर मिले, लेकिन उनकी आंखें नीची ही रहीं. संभवत: उन्हें लगा कि भागवत झा उनसे दोस्ती करने नहीं, जले पर नमक छिड़कने आये हैं. तभी से शिवचंद्र झा मुख्यमंत्री के खिलाफ माहौल बनाने और विधानसभा के अंदर व बाहर उन्हें नीचा दिखाने में लगे हुए हैं. भागवत झा आजाद और प्रो शिवचंद्र झा की राजनीतिक लड़ाई अब इस अशोभनीय स्तर पर आ गयी है कि एक तरफ, प्रो झा को मुख्यमंत्री की तरह से अपनीजान पर खतरा दिखाई देता है, दूसरी तरफ, वह अपने घर मिलने आये लोगों, पत्रकारों से कहते हैं कि ‘मैं इसका (भागवत झा आजाद) वंश नाश कर दूंगा.’
मुख्यमंत्री और विधानसभाध्यक्ष की लड़ाई की जड़ें, दरअसल, इस तथ्य में भी हैं किये दोनों राजनीतिज्ञ भागलपुर के हैं, और भागलपुर से कांग्रेस की राजनीति आज भी इनकी राजनीति लड़ाई की पृष्ठभमि में है. भागवत झा आजाद राजनीति और उम्र, दोनों के लिहाज से शिवचंद्र झा से वरिष्ठ हैं. भागवत झा 1952 में पहली बार गोड्डा से लोकसभा के लिए चुने गये थे. 1957 में गोड्डा से चुनाव हारने के बाद उन्होंने अपनी राजनीति का केंद्र भागलपुर को बनाया. उस वक्त शिवचंद्र झा भागलपुर विश्वविद्यालय में शिक्षक थे और राजनीति भी करते थे. 1962 के आम चुनाव में प्रो झा भागलपुर या बांका से कांग्रेस का टिकट भागवत झा आजाद को मिल गया. वह ब्राह्मण थे और भागलपुर से उन्हें टिकट मिलने का अर्थ था, बांका से किसी दूसरे ब्राह्मण शिवचंद्र झा को बांका से भी टिकट नहीं मिलना. लिहाजा दूसरे ब्राह्मण शिवचंद्र झा को लगा कि भागवत झा आजाद के कारण ही वह लोकसभा में पहुंचने से रह गये हैं, न वह गोड्डा छोड़ कर भागलपुर आते और न ही उनका टिकट कटता. उसके बाद तो लगातार (1977 को छोड़ कर) श्री आजाद ही भागलपुर से लोकसभा में जाते रहे और शिवचंद्र झा को भागलपुर से विधानसभा का टिकट भी नहीं मिल सका. इससे उन्हें लगा कि भागवत झा आजाद ही उन्हें राजनीति में आगे बढ़ने से रोक रहे हैं. नतीजतन दोनों ब्राह्मणों के रिश्तों में कटुता की गांठ पड़ती और मजबूत होती गयी.
1984 के लोकसभा चुनाव में भागवत झा आजाद और 1985 के विधानसभा चुनाव में शिवचंद्र झा भागलपुर से कांग्रेस से उम्मीदवार थे. दोनों ने एक-दूसरे के लिए ‘जम कर’ काम किया. उदाहरण के लिए भागवत झा आजाद के लिए वोट मांगने निकले शिवचंद्र झा एक तरफ वोट मांगते थे, तो पीठ पीछे ही कहते थे, ‘साला हार जायेगा, भागलपुर के लिए कुछ किया थोड़े है, जो जीतेगा.’ मतदाता को समझने में देर नहीं लगती थी कि प्रो झा क्या चाहते हैं. उधर शिवचंद्र झा का भी आरोप है कि भागवत झा ने उन्हें हराने में भरपूर प्रयास किये. वे कहते हैं कि चुनाव के दिन भागवत झा और चंद्रशेखर सिंह के इशारे पर ही भागलपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी संजय श्रीवास्तव ने उनके समर्थकों को (जो मतदान केंद्रों पर मत-पत्र लूट कर जबरन ठप्पा लगा रहे थे) गिरफ्तार करवा कर, उनके एक तरफ के बाल-दाढ़ी-मूंछ मुंडवा कर सड़कों पर घुमाया था. उन्हें छुड़ाने के लिए प्रो झा को थाने पर धरना तक देना पड़ा था.
शिवचंद्र झा भी यह चुनाव जीत गये थे और तब मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने सिरदर्द मोल न लेने की गरज से उन्हें विधानसभाध्यक्ष की कुरसी पर बिठा दिया. अध्यक्ष बनने के बाद शिवचंद्र झा की निगाह मुख्यमंत्री की कुरसी पर टिक गयी और जब भी कोई मौका आता, वह अपना नाम चला देने से नहीं चूकते. उन दिनों उनके कट्टर विरोधी भागवत झा आजाद दिल्ली से उपेक्षित पड़े थे. जब जगन्नाथ मिश्र, बिंदेश्वरी दुबे के खिलाफ खुल कर सामने आ गये, प्रो झा ने पहले डॉ मिश्र से निपट लेने की सोची. एचइसी में हुई तालाबंदी के सवाल पर तो एक समय ऐसा भी आया, जब प्रो झा, डॉ मिश्र के समर्थक विधायकों की सदस्यता छीन लेने पर ही उतारू हो गये थे. जब तक दुबे जी मुख्यमंत्री रहे, शिवचंद्र झा की डॉ मिश्र से कभी नहीं पटी. भागलपुर के नाथनगर में जब बुनकरों को पुलिस ने भूना, तो डॉ मिश्र ने वहां जाने का कार्यक्रम बनाया. अध्यक्ष जी के मना करने पर भी जब डॉ मिश्र उनके चुनाव क्षेत्र में गये, तो प्रो झा ने इसका बहुत बुरा माना और जवाब में मिथिलांचल, खास कर डॉ मिश्र के चुनाव क्षेत्र झंझारपुर की पदयात्रा पर निकल गये.
बिंदेश्वरी दुबे की विदाई के वक्त, सीताराम केसरी और माखनलाल फोतेदार दिल्ली में शिवचंद्र झा के नाम की पैरवी कर रहे थे. लेकिन आलाकमान किसी विवादास्पद व्यक्ति को मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहता था, इसलिए प्रो झा मुख्यमंत्री नहीं बन पाये.
इस वर्ष मई में भागलपुर जिले में अध्यक्ष जी के गांव नीमागढ़ से डेढ़ दर्जन हरिजन पटना आये और धरना चौक पर धरने पर बैठ गये. ये हरिजन अध्यक्ष जी के भाई राधाकृष्ण झा की हत्या के मामले में अभियुक्त थे. उनका आरोप था कि शिवचंद्र झा के इशारे पर उन्हें बेवजह फंसाया गया है और गांव में उनके आतंक के चलते हरिजनों का जीना मुहाल हो गया है. ये हरिजन मुकदमा उठा लेने की मांग कर रहे थे. उस समय अध्यक्ष जी शिमला की यात्रा पर थे. चार दिन बाद लौटने पर जब उन्हें इस धरने का पता चला, तो उन्हें लगा कि यह उन पर मुख्यमंत्री का हमला है. अगले ही दिन उन्होंने पत्रकार सम्मेलन किया और कहा कि उनके गांव के हरिजनों को कसा कर पटना लाया और धरने पर बिठाया गया है.
इसके बाद मुख्यमंत्री और विधानसभाध्यक्ष की लड़ाई और तेज हो गयी और सड़कों पर आ गयी. मुख्यमंत्री अपने भाषणों में शिवचंद्र झा पर कटाक्ष करते हुए स्व रामधारी सिंह दिनकर की कविता की एक पंक्ति को दोहराना नहीं भूलते, ‘विषधारी मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है.’ इसके जवाब में अध्यक्ष जी इसी कविता की दूसरी पंक्ति अपने समर्थकों के बीच सुनाते, ‘लघुता में भी कृष्ण किंतु सांपों से बहुत बड़ा है.’
विधानसभा के पावस सत्र में अध्यक्ष जी ने अपने रंग फिर दिखाये. उन्होंने मुख्यमंत्री को विधानसभा की कार्य मंत्रणा समिति का सदस्य बनाने के बजाय विशेष आमंत्रित सदस्य बना दिया. राज्य सरकार ने सिंचाई और शिक्षा विभागों के नाम बदल कर जल संसाधन और मानव संसाधन विभाग रखना चाहा, तो उन्होंने आपत्ति की और राज्यपाल को लिखा कि विधानसभा से अनुमति लिये बिना इन विचारों पर खर्च कैसे किया जा सकता. संसदीय कार्य मंत्री भीष्म प्रसाद यादव के समझाने-बुझाने पर ही किसी तरह वह माने.
विधानसभा के इस सत्र में अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ने एक दूसरे को नीचा दिखाने के सारे हथकंडे अपनाये. सत्र के दौरान ही नवभारत टाइम्स में ‘विधानसभा दस्तावेज जालसाजी प्रकरण’ शीर्षक खबर छपी, जिसमें अध्यक्ष जी पर आरोप लगाया गया था कि पहले तो उन्होंने एक निर्दलीय विधायक के एक प्रश्न को, जो पूर्व मंत्री रामाश्रय प्रसाद सिंह के भ्रष्टाचार के बारे में था, स्वीकार कर सूचीबद्ध कर लिया और फिर उस अल्पसूची प्रश्न को गायब करवा दिया. इसको लेकर सदन में, और बाहर भी जबरदस्त हंगामा हुआ. लोक दल के हिंद केसरी यादव ने तो यहां तक कहा कि आज सदन की गरिमा दांव पर लग गयी है, जिस व्यक्ति को जालसाजी के लिए जेल में होना चाहिए, वह अध्यक्ष की कुरसी पर बैठा है. इसके प्रतिकार में अध्यक्ष जी विधानसभा नहीं आये. सदन के मनाने पर वह आये भी, तो सदन में न जा कर अपने कक्ष में ही बैठे रहे. उनका कहना था कि सदन को अधिकार है कि किसी सवाल को किसी चरण में बदल दे या रद्द कर दे. और यह भी कि अध्यक्ष के निर्णय की ओलचना प्रतिआलोचना नहीं हो सकती, अखबार में छपी खबर और संपादकीय विशेषाधिकार हनन का मामला है. विधानसभाध्यक्ष ने, बाद में, मुख्यमंत्री पर प्रहार करते हुए यह भी कहा कि ‘पांच दिनों से सदन में और बाहर अखबारों के जरिये जो कुछ हो रहा है, वह सदन और अध्यक्ष की ओर अवमानना है.’ इस दौरान मुख्यमंत्री लगातार चुप रहे.
शिवचंद्र झा ने इस अखबारी हमले का जवाब देने के लिए अपने करीबी भाकपा विधायक रमेंद्र कुमार के जरिये विधानसभा में मुख्यमंत्री की कथित संपत्ति के विवरण का मामला उठवा दिया. ये वही ब्योरे थे, जो अध्यक्ष जी अपने दीवाने खास में पत्रकारों को बताते रहते थे. विधानसभा की परंपरा रही है कि जब कोई सदस्य मुख्यमंत्री या किसी मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाता है, तो पहले वह अध्यक्ष को संबंधित दस्तावेज दिखा कर संतुष्ट करता है.
इसी सत्र में विधानसभाध्यक्ष का लोकदल विधायक दल के नेता लल्लू प्रसाद यादव से भी जम कर झगड़ा हुआ. अध्यक्ष जी ने बहुमत के बावजूद उन्हें नेता विरोधी दल घोषित नहीं किया. लोक दल विधायक नवल किशोर भरत के विवादास्पद दल-बदल को भी उन्होंने समर्थन दिया. इस पर लल्लू यादव ने सदन में ही अध्यक्ष को भद्दी-भद्दी गालियां दीं. एक बार फिर अध्यक्ष जी की जान पर खतरा बन गया. इस बार कहा गया कि मधेपुरा के एसपी के बेतार संदेश के अनुसार, अध्यक्ष जी को मारने के लिए मधेपुरा के पप्पू यादव का अपराधी गिरोह पटना गया है. मधेपुरा लोक दल का गढ़ है. अध्यक्ष जी की सुरक्षा व्यवस्था चुस्त कर दी गयी.
इस सत्र के आखिरी दिन भी सदन में कई अनोखी और ऐतिहासिक बातें हुईं. संचालन नियमावली और परंपराओं को ताक पर रख कर नियमन दिया गया कि मुख्यमंत्री, चूंकि विधानसभा सदस्य नहीं है, इसलिए सदन के नेता नहीं हो सकते. यह सवाल अध्यक्ष के करीबी विधायक रमेंद्र कुमार ने विधानसभा सत्र शुरू होते समय ही पूछा था. आखिरी दिन फर यह सवाल पूछने पर अध्यक्ष जी ने नियमन दे दिया. इस पर कांग्रेस के जय कुमार पालित, कुमूद रंजन झा, जगदीश शर्मा, रामजतन सिन्हा आदि कई विधायक उठ खड़े हुए और ‘अध्यक्ष चोर है’ के नारे के साथ उन्हें अश्लील गालियां देने लगे.
इसी दिन अध्यक्ष जी का लोकदल विधायक छेदी पासवान से भी झगड़ा हुआ. श्री पासवान हरिजनों के बारे मे कई सवाल उठाना चाहते थे. इसकी इजाजत न मिलने पर सामान्यत: गंभीर और संजीदा रहनेवाले श्री पासवान उत्तेजित हो गये और माइक वगैरह तोड़ कर हंगामा करने लगे. जवाब में कुपित अध्यक्ष जी उनकी सदस्यता समाप्त करने पर उतारू हो गये. मुख्यमंत्री के बीच-बचाव और छेदी पासवान द्वारा अपने आचरण पर क्षोभ प्रकट करने के बाद मामला शांत हो सका.
अब हालत यह है कि विधानसभा अध्यक्ष का निवास और विधानसभा में उनका कक्ष अफवाहों के गढ़ बन गये हैं. असंतुष्ट विधायकों की बैठकें और गतिविधियां वहीं से संचालित हो रही हैं. अध्यक्ष जी से मिलने का खास पत्रकारों को आये दिन बताया जाता है ‘मुख्यमंत्री आज हटे, तो कल.’ एक बार तो एक पत्रकार ने स्पीकर के कहने पर यह बात छाप भी दी. पर जब मुख्यमंत्री नहीं हटे, तो उस पत्रकार ने स्पीकर से कहा, ‘आपने तो मेरी नाक ही कटा दी.’ इस पर अध्यक्ष जी ने कहा कि ‘घबराइए नहीं, आपकी नाक नहीं कटेगी.’ इसी तरह मुख्यमंत्री के करीबी लोग लगातार कहते आ रहे हैं कि अध्यक्षजी की छुट्टी अब हुई कि तब.
शिवचंद्र झा ने मुख्यमंत्री को नीचा दिखाने का एक काम और किया. विधानसभा की विभिन्न महत्वपूर्ण और लाभप्रद समितियों ने मुख्यमंत्री के समर्थकों को चुन-चुन कर छांट दिया और उनकी जगह पार्टी से मशविरा किये बिना मुख्यमंत्री के विरोधियों को मनोनीत कर दिया. इस पर संसदीय कार्य मंत्री भीष्म प्रसाद यादव ने जब बाकायदा लिखित आपत्ति की, तो अध्यक्ष जी ने पहले तो उनका पत्र लौटा दिया. फिर मौखिक बातचीत में उन्होंने इनसे सभी समितियों के लिए पार्टी के नामों की सूची मांगी. सूची मिलने पर भी उन्होंने कमल पांडे के अलावा किसी को नहीं लिया. कांग्रेस के आठ विधायकों जय कुमार पालित, कुमुद रंजन झा, असगर हुसैन, जगदीश शर्मा, रामजतन सिन्हा, मानिक चंद्र राय तथा कृपाशंकर चटर्जी को तो किसी भी समिति में सदस्य भी नहीं रखा. ऐसा ही उन्होंने विपक्ष के कुछ सदस्यों के साथ भी किया.
शिवचंद्र झा और भागवत झा आजाद की आपसी कटुता की यहीं इंतहा नहीं है. वे बेहद गलीज ढंग से एक दूसरे के निजी चरित्र की हत्या करने में भी लगे हुए हैं. विधानसभाध्यक्ष अक्सर भागवत झा आजाद के कथित प्रेम प्रसंगों की चर्चा करते रहते हैं. राजधानी में ‘भागवत पुराण’ शीर्ष एक पर्चा भी बंटा, जिसमें मुख्यमंत्री के ‘रुनु-झुनु’ नामक युवतियों के साथ ‘गहरे संपर्क’ की बातें लिखी थीं. जवाब में एक और परचा सामने आया, जिसमें शिवचंद्र झा के रीता ठाकुर नामक युवती तथा विधानसभा सचिवालय के एक पूर्व अधिकारी के परिवार से प्रेम संबंधों का जिक्र था.
विधानसभाध्यक्ष की एक पुरानी शिकायत यह है कि उन्हें इनकी इच्छानुरूप विधानसभा सचिव नहीं दिया जा रहा है. इस पर मुख्यमंत्री के करीबी सूत्र कहते हैं कि अध्यक्ष जो को इस पद पर कोई पसंद ही नहीं आता. पिछले दिनों विधानसभा सचिवालय में कुछ नियुक्तियां हुईं, जिन पर मुख्यमंत्री खेमे को आपत्ति है कि ये नियुक्तियां मनमाने ढंग से हुई है और इनके लिए सरकार से सलाह व अनुमति नहीं ली गयी.
शिवचंद्र झा और भागवत झा आजाद के झगड़े बदस्तूर जारी ही थे कि इसी बीच अध्यक्ष जी ने एक और विवाद को न्योता दिया. 7 दिसंबर को उन्होंने भाजपा विधायक दल के नेता सत्यनारायण दुधानी (जिनका चुनाव पटना उच्च न्यायालय की रांची खंडपीठ ने 6 दिसंबर को खारिज कर कांग्रेस के उदय कुमार सिंह को विजयी घोषित किया था) का पक्ष जाने बिना और फैसले में उल्लेखित लीव पीटीशन की बात को समझे बिना, उनकी जगह कांग्रेस के उदय कुमार को ‘आनन-फानन’ में शपथ दिला दी. इसकी वजह से एक नया संवैधानिक संकट खड़ा हो गया. इससे कई सवाल उठते हैं. क्या अध्यक्ष को श्री दुधानी की स्थगन याचिका पर निर्णय तक का इंतजार नहीं करना चाहिए? क्या चुनाव आयोग से इस बाबत मशविरा लिया गया था? आखिर चुनाव आयोग ही तो घोषित उम्मीदवार को प्रमाण पत्र देता है. क्या कांग्रेस के मुख्य सचेतक ने अपने नये सदस्य को अध्यक्ष जी के सामने प्रस्तुत किया था?
मजेदार बात यह है कि यह खबर दी गयी कि शपथ ग्रहण के समीप संसदीय कार्य मंत्री भीष्म प्रसाद यादव, जो कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक भी हैं, भी उपस्थित थे, जबकि श्री यादव वास्तव में वहां गये ही नहीं थे. दरअसल, अध्यक्ष जी का विश्वास है कि उनके किसी निर्णय या नियमन की आलोचना नहीं की जा सकती. इसलिए वह कुछ भी कर सकते हैं. उदय कुमार सिंह को शपथ दिला कर उन्होंने एक तौर से दो शिकार करने की सोची. विधानसभा में विभिन्न मसलों पर श्री दुधानी अत्यंत चौकन्ने रहते थे और तेज तर्रार व उग्र प्रतिक्रिया करते थे, दूसरे, उदयकुमार सिंह को उनके पास असंतुष्ट विधायक लेकर आये थे. इसलिए अध्यक्ष जी ने सोचा कि इस बहाने दुधानी और भाजपा को सबक सिखा ही सकते हैं, साथ ही, मुख्यमंत्री के विरुद्ध एक और असंतुष्ट विधायक हाथ लग जायेगा. लेकिन अगर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला उलट कर दुधानी के ही पक्ष में कर दिया तो? अध्यक्ष जी इस संवैधानिक संकट को कैसे हल करेंगे?
इस तरह, अपने-अपने समर्थकों से घिरे बिहार के यो तीनों राजनेता एक-दूसरे को नेस्तानाबूद करने में लगे हैं. उनका सारा समय रणनीतियां रचने और षडयंत्र बुनने में व्यतीत होता है. स्पष्ट ही यह लड़ाई अब राजनीतिक नहीं रह गयी है, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर आ गयी है. शालीनता की सीमाएं टूट ही गयी हैं. इस सबका नतीजा यह होना ही था कि राज्य का विकास ठप हो गया है. मुख्यमंत्री की तमाम बड़बोली घोषणाएं खुद उन्हें ही मुंह चिढ़ा रही हैं. बिहार के लोग इस सिर-फुटौव्वल पर एक करूण व असहाय हंसी हंसने के सिवा कर ही क्या सकते हैं.
बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मुहम्मद हुसैन आजाद ने, हाल ही में, कहा है कि ‘बिहार उथल-पुथल से गुजर रहा है. राज्य में कम-से-कम एक दर्जन नेता हैं, जो शासन करने के लिए चीत्कार कर रहे हैं.’ अब यह बहुत स्पष्ट है कि सिर्फ मुख्यमंत्री की कुरसी के लिए ही धकापेल नहीं मची है. शायद यह पहली बार है कि आलाकमान राज्य के तीन सर्वोच्च पदों के लिए विकल्प चुनने की चुनौती से रूबरू है. झगड़ालू और कर्कश स्वभाव के नेता एक साथ एक राज्य में इकट्ठा हो जायें, तो वे राज्य को कितनी अस्त-व्यस्त और कठिन हालत में पहुंचा सकते हैं, आज का बिहार इसका सबसे अच्छा उदाहरण है.