डूबते बैंक

-हरिवंश- बैंक देश की अर्थव्यवस्था के वाहक हैं, सामाजिक-आर्थिक तब्दीली के सबसे कारगर यंत्र भी, लेकिन बैंकिंग व्यवसाय की अंदरूनी स्थिति चरमरा रही है. डूबते बैंकों के संबंध में हरिवंश की छानबीन. उत्तरप्रदेश, बिहार व बंगलूर में हुए बैंक घोटालों के संबंध में शैलेश, कमलचंदर व कुमारन की रिपोर्ट. भारतीय अर्थव्यवस्था के बैंक रीढ़ हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 2, 2016 4:55 PM

-हरिवंश-

बैंक देश की अर्थव्यवस्था के वाहक हैं, सामाजिक-आर्थिक तब्दीली के सबसे कारगर यंत्र भी, लेकिन बैंकिंग व्यवसाय की अंदरूनी स्थिति चरमरा रही है. डूबते बैंकों के संबंध में हरिवंश की छानबीन. उत्तरप्रदेश, बिहार व बंगलूर में हुए बैंक घोटालों के संबंध में शैलेश, कमलचंदर व कुमारन की रिपोर्ट.

भारतीय अर्थव्यवस्था के बैंक रीढ़ हैं. पिछले कुछ वर्षों से देश के सामाजिक-आर्थिक हालात बदलने में भी बैंक सरकार की एकमात्र प्रभावी एजेंसी के रूप में कार्यरत हैं. कभी-कभार सेठिया घोटाले जैसे कांड होते हैं, तभी बैंक सुर्खियों में रहते हैं. वस्तुत: बैंकिंग व्यवसाय की अंदरूनी हालत खस्ता है. किसी भी दिन यह व्यवस्था चरमरा कर औंधे मुंह गिर सकती है. सच्चाई यह है कि सेठिया घोटाले जैसी अनेक वारदातें बैंकों में हुई हैं, हो रही हैं, लेकिन अभी तक सार्वजनिक रूप से उनका खुलासा नहीं हुआ है.

लोकसभा की प्राक्कलन समिति ने बैंकों में हुए धोखाधड़ी के मामलों में तेजी से हुई वृद्धि पर रोष प्रकट किया है. समिति की रपट में बताया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 1978 में धोखाधड़ी के 1422 मामले थे, जिनमें 7 करोड़ 38 लाख की राशि फंसी हुई थी. 1982 में ये मामले बढ़ कर 2068 हो गये और इसमें कुल 19 करोड़ 53 लाख की धनराशि फंसी हुई है. समिति का निष्कर्ष था कि ये घोटाले इस कारण नहीं होते कि निर्धारित प्रक्रियाओं में कमियां हैं, बल्कि इन प्रक्रियाओं का मुस्तैदी से पालन नहीं होता.

इन घोटालों के अधिकांश मामले बैंकों की आतंरिक कार्यप्रणाली की देन हैं. प्रतिदिन शाखाओं में खातों-हिसाबों का संतुलन यानी जनरल लेजर की बैलेंसिंग व आंतर-कार्यालय लेन-देन (शाखाओं के बीच आपसी लेन-देन) का समायोजित होना अति आवश्यक है. वस्तुत: अनेक बैंकों ने अपना हिसाब वर्षों से संतुलित नहीं किया है.

राज्यसभा की समिति का स्पष्ट मत था कि भ्रष्टाचार या अधिकारों के दुरुपयोग के संबंध में सरकारी बैंक अन्य सरकारी विभागों से मीलों आगे निकल गये हैं. रिपोर्ट में कहा गया था कि अनेक ऐसे बैंक हैं, जो 1980 के पूर्व की अपनी बहियों को आज तक संतुलित नहीं कर सके हैं.

गत वर्ष इलाहाबाद बैंक अधिकारी संघ ने अपने प्रबंधन पर 500 करोड़ रुपये की सक्यिूरिटी को अमेरिकन सिटी बैंक के हाथ 300 करोड़ रुपये में बेचने का आरोप लगाया. बैंक के अधिकारी संघ ने अपने आरोप पत्र में कहा था कि उनके चेयरमैन की अकूत संपत्ति बंगलूर, मद्रास, दिल्ली तथा बंबई में है. इसकी सीबीआइ द्वारा जांच होनी चाहिए.

केंद्रीय सतर्कता आयोग के पास आज सर्वाधिक मामले बैंक अधिकारियों के हैं. बैंकों में घोटालों की राशि की सार्वजनिक जानकारी नहीं दी जाती, लेकिन भारतीय स्टेट बैंक ने घोटालों के संबंध में, जो तालिका तैयार की है. उसके अनुसार वर्ष 1983 में करीब 7 करोड़ 80 लाख रुपयों का घोटाला हुआ था. सीबीआइ ने वर्ष 1981 में 1891 घपलों के मामलों को दर्ज किया. इनमें कुल 20.34 करोड़ रुपये फंसे हैं. वर्ष 1983 में 33.29 करोड़ रुपये के घपलों के मामले सी.बी.आइ. ने दर्ज किये. अधिकांश मामले ऐसे हैं, जो सीबीआइ तक पहुंचते ही नहीं या देर से पहुंचते हैं.

वर्ष के आरंभ में पंजाब नेशनल बैंक के अध्यक्ष व प्रबंध निदेशक बालूजा, सेंट्रल बैंक के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक वीवी सोनालकर व बैंक ऑफ बड़ौदा के कार्यकारी अध्यक्ष को बरखास्त किया गया. इन बैंकों ने सेठिया ग्रुप को, जो ऋण दिया है, उसमें से 200 करोड़ रुपये वसूल होने की आशा नहीं है. गालाधारी ब्रदर्स को स्टेट बैंक की विदेश शाखा से 100 करोड़ रुपये ऋण देने की शिकायत भी सामने आयी. इस बैंक के चेयरमैन नांबियार रिटायर हो कर गालाधारी ब्रदर्स के यहां एक लाख रुपये प्रतिमास पर नौकर हो गये. यह प्रक्रिया एक आदमी तक ही सीमित नहीं है. बैंक में ऐसे अनेक बड़े अधिकारी हैं, जो बड़ी पार्टियों के लिए पक्षपात-भ्रष्टचार करते हैं और बैंक से रिटायर हो कर फिर वहां नौकरी पा जाते हैं. साथ ही अपने पुत्रों व सगे-संबंधियों को भी नौकरी दिलाते हैं.

सिंडीकेट बैंक के चेयरमैन आर. रघुपति के घर भी सी.बी.आइ. ने छापे में काफी धन पकड़ा था. आखिर बैंकिंग व्यवस्था में शीर्ष के लोग इस कदर भ्रष्टाचार में लिप्त हो जायेंगे, तो यह व्यवस्था कैसे चल पायेगी!हाल ही में सी.बी.आइ. ने मुंबई में एक और मामला पकड़ा, जिसमें 10 करोड़ का चूना बैंक ऑफ बड़ौदा, स्टेट बैंक ऑफ पाटियाला व पंजाब एवं सिंध बैंक को लगा. बैंक के उच्चाधिकारियों व निजी क्षेत्रों के वरिष्ठ लोगों में गहरा संबंध रहता है. बड़े अधिकारियों के दौरे के समय निजी क्षेत्रों के उद्योगपति उन्हें हर प्रकार की सुविधा मुहैया कराते हैं. उनकी आवभगत करते हैं. उपहार देते हैं.

फलस्वरूप ऐसे लोगों के पक्ष में हर तरह का घपला करने को वे अधिकारी तैयार रहते हैं. कुछ दिनों पूर्व बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने तो बड़े अधिकारियों की पत्नियों को जागरूक बनाने के लिए एक प्रशिक्षण आयोजित किया. इसमें लाखों रुपये खर्च हुए. सीबीआइ प्रतिवर्ष घोटालों के जो मामले दर्ज करता है, उनमें से 25 से 30 प्रतिशत मामले बैंकों में हुए भ्रष्टाचार से संबंधित होते हैं. बैंक अधिकारी-कर्मचारी अक्सर कहते हैं कि पूरा समाज-देश भ्रष्ट है, तो हम पर ही तोहमत क्यों? ऐसे लोगों को सीबीआइ की रपट की यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि उसके पास भ्रष्टाचार के सर्वाधिक मामले बैंकिंग व्यवसाय के ही हैं.

ऋण देने में लापरवाही का परिणाम है कि आज करीब बैंकों द्वारा दिये गये कुल ऋण में से 16 फीसदी ऋण संदिग्ध ऋण हो गये हैं. इनकी वापसी असंभव हैं. तकरीबन 100 करोड़ रुपये तो बैंकों को बट्टे खाते (राइट ऑफ) में डालने पड़े हैं.

वर्षों से कुछ बैंकों के खातों का मिलान या संतुलन नहीं हुआ है. इन असमायोजित राशियों में काफी घपले की संभावना है, पिछले वर्ष तक भारतीय स्टेट बैंक में असमायोजित मामले एक करोड़ 19 लाख थे. इनमें 86442 करोड़ रुपये की राशि फंसी है. अन्य बैंकों के भी यही हाल हैं. अरबों रुपयों की राशि ऐसे फंसी है. अगर इनका मिलाना हो, तो करोड़ों के घोटाले इनमें मिलेंगे.

बैंकों से ऋण लेना आसान नहीं है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री आदिवासियों के बीच विभिन्न प्रदेशों में गये, जहां भी गये, आदिवासियों ने उनसे शिकायत की, साहब ऋण तो मिला, लेकिन इतना पैसा बैंक के बाबू ही कमीशन ले लिये. सच्चाई यह है कि गांव से लेकर शहर तक ऋण वितरण में कमीशन तय है. यह खुलेआम होता हैं. प्रति ट्यूबवेल 1500 रुपये, प्रति ट्रक 10 हजार रुपये, बाकी बड़े कामों के लिए बड़ा कमीशन.

आइ.आर.डी.पी. के तहत, जो ऋण बंटते हैं. उनमें बैंक अधिकारियों, डॉक्टरों व स्थानीय अधिकारियों का भी हिस्सा होता है. कहीं-कहीं तो बैंककर्मी-प्रबंधकगण स्वयं भी व्यवसाय करते हैं. मसलन, कोई मौसमी रोजगार आरंभ किया, पूंजी का प्रबंध बैंक से किया. कुछ कल्पित नामों पर ऋण मंजूर किया. कागज ठीक-ठाक रखा. कम ब्याज पर पूंजी मिली, रोजगार किया, मुनाफा कमा कर बैंक का पैसा वापस कर दिया. पैसा वापस होने के बाद बैंक ऐसे खातों के संबंध में चिंतित नहीं रहते. बैंक के पैसे सूद पर चलाने की भी प्रक्रिया है. कुछ भ्रष्ट अधिकारी कैशियर से मिल कर छोटी जगहों पर यह धंधा भी करते हैं.

बैंक में स्टेशनरी विभाग होते हैं. यहां से आवश्यक सामानों की सप्लाई होती है. छपाई आदि का काम होता है. इसमें काफी घपले होते हैं. बंबई स्थित एक प्रतिष्ठित बैंक के प्रधान कार्यालय के इस विभाग में जिस दिन कोई नया उच्च अधिकारी कार्यभार संभालता है, उसे ‘सप्लायरों’ की ओर से एक नयी एंबेसडर कार भेंट की जाती है. ये सप्लायर अधिक कीमत पर सामान सप्लाई करते हैं. यह अधिकारियों की मिलीभगत से होता है और कमीशन उन तक पहुंचा देते हैं. ऐसे कार्य बैंकों के प्रधान कार्यालय से लेकर क्षेत्रीय कार्यालयों के स्तर तक खूब हो रहे हैं. फर्ज कीजिए, कहीं नयी शाखा खोलनी है, उसके लिए भवन चाहिए. किसी मकान मालिक से बात हुई, वह 1000 रुपये प्रति माह किराया मांगता है, तो उसे कहा जायेगा, 3000 प्रतिमाह हम आपको देंगे, लेकिन हमें इतना कमीशन दे दीजिए. भला कौन मकान मालिक घर आयी लक्ष्मी लौटायेगा? ऐसे घपले भी बैंकों में निरंतर हो रहे हैं. ऋण के जो आवेदन-पत्र बैंक से नि:शुल्क प्राप्त होते हैं, वे भी पांच-दस रुपये ले कर बेचे जा रहे हैं.

बड़े-बड़े उद्योगपतियों को करोड़ों रुपये ऋण दिये जाते हैं. अब इन उद्योगपतियों ने नयी तकनीक अपना ली है. पहले अधिकारियों को समझाते-पटाते हैं, उनसे ऊपर लिखवाते हैं कि ‘हमारी आर्थिक’ स्थिति लुंजपुंज हो गयी है, हम ऋण वापस करने की स्थिति में नहीं हैं. कम से कम ब्याज माफ किया जाये. मूल राशि धीरे-धीरे हम अधिक किस्तों में वापस कर देंगे. अगर बैंक अधिकारी इसे अनुशंसित कर देता है, ऊपर से भी उद्योगपति अपना काम करा लेता है, तो लाखों का उसका ब्याज बच जाता है. इसमें हिस्सा भी संबंधित लोगों के बीच बंटता है. बड़े महानगरों में तो अनेक एजेंसियां हैं, जो ऋण लेने व न लौटाने का कानूनी रास्ता भी बताती हैं.

अनेक ऐसे मामले सामने आये हैं, जिनमें बैंक अधिकारियों पर बड़े घोटालों के आरोप हैं, मामला चल रहा है, पर उनकी पदोन्नति हो रही है. वस्तुत: बैंकों में आज सबसे ताकतवर वर्ग है, अधिकारों संघ व यूनियनें. प्रबंधन वर्ग को इनके इशारे पर चलना होता है. ईमानदार अधिकारी के लिए जीना मुहाल है. अगर प्रबंधन या अधिकारी संघ में उसका कोई आका नहीं है, तो कभी भी, किसी भी क्षण उसका तबादला ऐसी जगह हो सकता है, जहां न रहने का घर है, न चिकित्सा की सुविधा, न आवास और न आवागमन का साधन. इस व्यवसाय में भ्रष्ट लोगों का अनुपात अधिक नहीं है, लेकिन ऐसे लोग अधिकांश महत्वपूर्ण जगहों पर हावी हैं. बहुसंख्यक ईमानदार अधिकारी पीछे हैं, महत्वहीन जगहों पर हैं, इनके भाग्य का फैसला भ्रष्ट लोग ही करते हैं, गोपनीय प्रगति रिपोर्ट लिखते हैं. अत: बहुसंख्यक ईमानदार अधिकारी चुप रहना ही बेहतर समझते हैं.

बैंक की दृष्टि में, जिस ऋण की वापसी संदिग्ध है, उसे ‘राइट ऑफ’ करने की भी प्रक्रिया है. खासकर उन्हीं लोगों की राशि माफ की जाती है, जो बड़े-बड़े अधिकारियों के प्रियजन हैं, सगे-संबंधी हैं और राजनेताओं के अपने हैं. बैंकिंग रेगुलेशन ऐक्ट 1949 के तहत बैंक संदिग्ध ऋणों की राशि का सार्वजनिक रूप से खुलासा नहीं करते. यह प्रावधान काफी पूर्व निजी बैंकों की दृष्टि से बना था, अब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया है. अत: ऐसी राशि को सार्वजनिक रूप से घोषित करना आवश्यक है.

बैंकों में फिजूलखर्ची भी खूब है. कुछ दिनों पूर्व देश के सबसे बड़े बैंक के निदेशकमंडल की बैठक के अवसर पर बोर्ड रूम की सजावट पर मात्र 15 लाख रुपये खर्च हुए, बाकी खर्च अलग. अनेक बैंकों में ऐसे लोग भी हैं, जो ढंग से दस्तखत नहीं कर सकते, पर सैकड़ों-करोड़ों के मालिक हैं. अधिकारी संघों में महत्वपूर्ण जगहों पर आसीन हैं. अधिकारी संघ के कई लोगों पर घोटालों के भी मामले हैं.

कुछ उद्योगपति व बैंक अधिकारी मिल कर बैंकों की नींव खोद रहे हैं. सरकार रुग्ण औद्योगिक इकाइयों को काफी रियायतें देती है. आजकल एक उद्योगपति कई उद्योग चलाता है, उनमें से कुछ को वह रुग्ण दिखाता है. उस पर रियायतें लेता है और पैसे का उपयोग कहीं और करता है. वह कई कंपनियां खोल लेता है. एक का पैसा दूसरे में लगाता है. आजकल भ्रष्टाचार के जो मामले पकड़े गये हैं, उसमें से अनेक मामले इसी प्रकार के हैं. इसमें बैंक अधिकारियों का पूर्ण सहयोग होता है. फिलहाल देश में एक लाख से अधिक औद्योगिक इकाइयां रुग्ण हैं. इन पर वित्तीय संस्थाओं का 33 अरब रुपया बकाया है.

बैंक गांवों से जमा राशि उठा कर शहरों में व्यवसायों को मुहैया करा रहे हैं. 1969 से 1980 के बीच ग्रामीण शाखाओं में जमा 145 करोड़ से बढ़ कर 3538 करोड़ रुपये हो गयी. इस बीच गांवों को दिया गया अग्रिम 54 करोड़ से बढ़ कर 2016 करोड़ ही हुआ. कुछ बैंकिंग अधिकारी कहते हैं कि कृषि व छोटे उद्योगों को दिये गये ऋणों की वापसी संदिग्ध होती है, लेकिन तथ्य अलग हैं. आज बड़े उद्योगों को दिये गये 2500 करोड़ के ऋण संदिग्ध हैं. केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री जनार्दन पुजारी का आरोप था कि बैंकों के अधिकारी इन ऋणों के संबंध में चिंतित नहीं दीखते, बल्कि कृषकों, मजदूरों व जरूरतमंद लोगों को ऋण देने में कोताही बरतते हैं.

बैंकों की ‘बैलेंस शीट’ में काफी मुनाफा दिखाया जाता है, लेकिन तथ्य कुछ और हैं. यह सब अंकों के हेरफेर से दरसाया जाता है, जो ऋण दिये गये हैं, उनमें से बड़ी राशि लौटने की संभावना नहीं है, उन पर भी लाखों का सूद लगता है, यह राशि भी आय के रूप में दिखायी जाती है, लेकिन सच्चाई यह है कि जो ऋण संदिग्ध हो गये हैं, उनकी मूल राशि ही लौटने की संभावना नहीं है, सूद की बात तो अलग है. ऐसी राशि को बैलेंस शीट में शामिल करना व उन पर लाभ दिखाना गलत है. वस्तुत: बैंक घाटे में चल रहे हैं.

स्टेट बैंक ने सावधानी बरतने संबंधी अपने निर्देश पत्र में स्पष्ट किया है कि ऋण डूबने के कारणों में प्रमुख हैं- बैंककर्मियों के सहयोग से गलत डाक्यूमेंट तैयार करना या इसे अधूरा रखना. हाल ही में बैंक ऑफ बड़ौदा में 12 करोड़ रुपयों का घोटाला हुआ. अन्य बड़े घोटालों की भांति इसमें भी बैंक अधिकारियों की सांठगांठ थी. इस भ्रष्टाचार की खासियत है कि अधिकारियों को जब इसके संबंध में पता चला, तो कार्रवाई आरंभ हुई. कार्रवाई आरंभ होने के दौरान भी घोटाले होते रहे, लेकिन इस पर पूर्ण पाबंदी नहीं लग सकी.

इस घोटाले को देखते हुए ही रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को एक पत्र लिखा. इस पत्र में कहा गया कि शाखा व क्षेत्रीय कार्यालय के लोगों को इस गड़बड़ी की जानकारी थी, लेकिन किसी ने भी इसकी सूचना नहीं दी. यह भी पाया गया कि बैंक के प्रधान कार्यालय के बड़े अधिकारी उन जगहों पर ठहरते थे, उन लोगों का मेहमान बनते थे, जिनका हाथ इन घोटालों में था. बड़े अधिकारियों को घोटाला करनेवाले लोगों से घुलते-मिलते देख कर नीचे के अधिकारी साफगोई से बात करने की हिम्मत नहीं करते थे. रिजर्व बैंक ने अपने पत्र द्वारा रोष जाहिर किया कि रिजर्व बैंक के स्पष्ट निर्देश के बावजूद बैंक के अधिकारी, जिन्हें ऋण देते हैं, उनके मेहमान बनते हैं, उनसे सुविधाएं उठाते हैं.

आइकोबो बैंक अधिकारियों का सबसे बड़ा संगठन है. इसमें अब दरार पड़ गयी है. एक वर्ग ने संघ के सचिव एलवी सुब्रह्मण्यम पर गंभीर आरोप लगाये हैं. विदेशी पैसों के घोटाले से ले कर अन्य तरह के भ्रष्टाचार करने के आरोप, संघ के पदाधिकारियों पर लगाये गये हैं.अगर यूनियन व संघ का दुरुपयोग देखना हो, तो बैंकों का उदाहरण सामने है. चंद लोगों के स्थानांतरण पर हड़ताल हो जाती है. व्यवसाय व लोगों के जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इससे बैंकिंग व्यवसाय के नेताओं का लेना-देना नहीं. पिछले दिनों पटना में चंद क्लर्कों के स्थानांतरण पर काफी दिनों तक बैंकिंग करोबार ठप रहा. हाल में रांची स्थित कुछ बैंकों के क्लर्कों का स्थानांतरण हुआ, उन्होंने भी ऐसी कार्रवाई की.

बाद में जनता ने बैंककर्मियों के बहिष्कार का बाकायदा आंदोलन चलाया. बैंक में ‘स्पेशल असस्टिेंट’ लोगों का पद भी है. जिम्मेवारी के नाम पर शून्य, पर सुविधाएं अधिकारियों जैसी. इस वर्ग में ज्यादातर यूनियन के नेता होते हैं. पिछले दिनों क्लर्कों का जब वेतन पुनरीक्षण हुआ, तो सबसे अधिक फायदा इसी वर्ग को हुआ. एक क्लर्क की टिप्पणी थी, ‘चूंकि यही हमारे नेता हैं, अत: पहले अपने फायदे की बात सोचते हैं.’

बैंकिंग व्यवसाय व आम लोगों के बीच खाई गहरी होती जा रही है. इस कारण बैंक के लोगों की जो परेशानियां हैं, उस पर भी लोग सहानुभूति से विचार नहीं करते. वस्तुत: किसी भी शाखा का ईमानदार प्रबंधक या अधिकारी आज सबसे दयनीय प्राणी है. उसकी कोई सुरक्षा नहीं. असामाजिक तत्व उसे धमकाते हैं. ऋण लेना चाहते हैं. राजनेता उसे विवश करते हैं. स्थानीय अधिकारी उस पर रौब गांठते हैं. उसके परिवार के लोगों को परेशान किया जाता है. बड़े अधिकारियों व अधिकारी संघों के लोगों को उसे प्रसन्न रखना पड़ता है. ऊपर से रातोंरात फरमान आता है, इतने लोगों को निर्धारित अवधि में ऋण दीजिए.

कम समय में छानबीन नहीं हो पाती. जल्दी में लक्ष्य पूरा करना होता है. ऐसे में गलत लोगों का चुनाव नकारा नहीं जा सकता. अगर लक्ष्य पूरे नहीं हुए, तो बड़े अधिकारी प्रताड़ित करते हैं. दिये गये ऋण अगर डूब जाते हैं, तो उसे परेशान होना पड़ता है. अगर शाखा में काम अधिक हुआ, तो यूनियन के लोग असहयोग करते हैं. स्थानीय सांसद-विधायक तो जान के पीछे पड़े रहते हैं. ऐसी-ऐसी जगहों पर शाखाएं हैं, जहां जीवन की कोई बुनियादी सुविधा नहीं है. बच्चों की शिक्षा का प्रबंध नहीं, रहने लायक आवास नहीं. ऐसी कठिन परिस्थितियों में बैंक अधिकारियों को कार्य करना पड़ता है. फिर भी आज लोगों में उनके प्रति सहानुभूति का अभाव है.

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