दूषित पानी से बचाव जरूरी
चेलीडोनियम मेजर्स : इस औषधि का सेवन तब करें, जब मरीज को पेट के ऊपरी एवं दाहिने हिस्से में हमेशा दर्द एवं भारीपन महसूस हो. जीभ पीला एवं मुंह का स्वाद तीखा हो. भूख न लगे तथा उलटी के जैसा महसूस हो. पेट की स्थिति सामान्य न रहे जैसे-कभी कब्ज, तो कभी पतला शौच हो. […]
चेलीडोनियम मेजर्स : इस औषधि का सेवन तब करें, जब मरीज को पेट के ऊपरी एवं दाहिने हिस्से में हमेशा दर्द एवं भारीपन महसूस हो. जीभ पीला एवं मुंह का स्वाद तीखा हो. भूख न लगे तथा उलटी के जैसा महसूस हो. पेट की स्थिति सामान्य न रहे जैसे-कभी कब्ज, तो कभी पतला शौच हो.
यह औषधि लिवर टॉनिक के रूप में प्रयोग की जाती है . यह यकृत की कोशिकाओं को टूटने से बचाती है एवं टूटी हुई कोशिकाओं को पुन: स्थापित करने में सहायक होती है. इस औषधि का मूल अर्क छह-आठ बूंद आधा कप पानी के साथ सुबह और रात लें. लाभ होगा.
लाइकोपोडियम : मरीज का पेट फूल जाये, भूख न लगे, थोड़ा खाने के बाद लगे जैसे बहुत खा लिया हो अर्थात् पेट भरा हुआ महसूस हो, तीखी एवं खट्टी डकार आये, पेट के नीचे के हिस्से में दर्द हो तथा गैस पास होने से आराम मिले. पाचन सामान्य न हो, खाने के बाद पेट फूल जाये, एसिडिटी हो, जो गले तक महसूस हो, तब इस औषधि की 200 शक्ति की दवा दिन में दो बार लें. अवश्य लाभ होगा .
नक्स वोमिका : यह औषधि पेट की आम समस्याओं के लिये रामबाण की तरह काम करती है. इस औषधि का उपयोग तब करते हैं जब मरीज को भूख न लगे. खाने को देख कर उलटी जैसा लगे एवं खाना खाने के बाद ऐसा लगे कि खाना खा कर गलती कर दी. मरीज ज्यादातर बैठ कर काम करनेवाला या आरामतलब होगा. उसे पुरानी कब्ज की भी शिकायत होगी.
शौच से तसल्ली न मिलती हो, बार-बार शौच जाने की इच्छा होती हो. मरीज पतला-दुबला एवं उत्साही होगा. छोटी-छोटी बातों पर नाराजगी व्यक्त करेगा तथा नशीली चीजों का आदी हो, तब इस औषधि की 200 शक्ति की दवा सुबह एवं रात देने से बहुत ही लाभ होगा.
मेडोरीनम : जब रोगी रोग से निराश हो जाये और अपनी परेशानी बिना रोये व्यक्त न कर पाये. घबराहट रहे और अंधेरी जगहों में जाने से भय लगे. मुंह का स्वाद अच्छा न लगे, बहुत प्यास लगे तथा नशीली चीजों को खाने या पीने की इच्छा हो. तब इस दवा का सेवन एक हजार शक्ति में 15 दिनों के अंतराल पर लें. दवा का उपयोग कम-से-कम तीन से छह महीने तक करें और पुन: जांच करवा कर देख लें. फायदा जरूर होगा.
(डॉ एस चंद्रा, होमियोपैथी विशेषज्ञ से
बातचीत पर आधारित)
सैलून और पार्लर में बरतें सावधानी
हेपेटाइटिस बी एवं सी का संक्रमण खून के माध्यम से हो सकता है. इनका संक्रमण ऐसे सैलून या पार्लरों से भी हो सकता है, जहां उचित सफाई व्यवस्था नहीं होती है. यहां पर संक्रमित उपकरणों जैसे कैंची, क्लिपर, रेजर आदि से कटने या छिलने पर यह वायरस फैलता है. विभिन्न सार्वजनिक स्थानों, खास कर रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंड एवं सरकारी अस्पतालों में काम करनेवाले नाइयों पर कोई रोक नहीं है. इन स्थानों पर जानेवाले सैकड़ों ग्राहक अनजाने में खुद को बीमारी के खतरे में डाल लेते हैं. ओपन स्टील ब्लेड के साथ स्ट्रेट रेजर के मामले भी सबसे अधिक होते हैं. यह रोग इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि हेपेटाइटिस बी एवं सी के लक्षण प्रारंभिक संक्रमण के 10 से 20 वर्षों तक दिखाई नहीं देते हैं.
टैटू से रहें सावधान : टैटू भी हेपेटाइटिस बी एवं सी फैलने के प्रमुख कारणों में से एक है. टैटू आपकी त्वचा पर बनाया गया स्थायी चिह्न या डिजाइन होता है, जिसमें पिगमेंट्स को सुई की मदद से त्वचा की ऊपरी परत में डाला जाता है. आम तौर पर इसके लिए हाथ की मशीन का प्रयोग होता है. इसमें एक या उससे अधिक सूइयां त्वचा को बार बार छेदती हैं.
हर छेद के साथ सूई इंक की छोटी-छोटी बूंदें त्वचा में डालती है. यदि यह उपकरण संक्रमित खून से संक्रमित हो चुका हो, तो आपको टिटनेस, हेपेटाइटिस बी एवं हेपेटाइटिस सी सहित खून से फैलनेवाली कई बीमारियां हो सकती हैं. यह खतरा इंक की बोतल में होता है, जिसमें कलाकार अपनी सुई को बार-बार डुबोता है. यदि वह डिस्पोजेबल सीरिंज या नये ग्लव्ज का भी प्रयोग करे, तो भी असली खतरा तो इंक की बोतल है, जिसे हम अनदेखा करते हैं. वायरस के संचार का मुख्य कारण यही है.
रोकथाम एवं उपचार
यह रोग 40 से 60 वर्ष की आयु में देखा जाता है. इसका सबसे अच्छा इलाज बचाव है.हेपेटाइटिस बी : इसे साइलेंट किलर भी कहते हैं, क्योंकि इस बीमारी से पीड़ित 95 फीसदी लोगों में तब तक कोई लक्षण नहीं दिखते हैं, जब तक बहुत देर न हो जाये. आराम करने, प्रतिरोधी शक्ति को कमजोर करनेवाले आहार, जैसे-शक्कर/फ्रक्टोज, अनाज एवं प्रोसेस्ड फूड न लेने से लक्षणों में आराम हो सकता है. प्रतिरोधी शक्ति को बढ़ानेवाले सेहतमंद आहार फर्मेंटेड फूड एवं आॅर्गेनिक सब्जियां हैं. विटामिन डी के स्तरों को आॅप्टिमाइज करना, पर्याप्त शुद्ध पानी पीना एवं अल्कोहल और ड्रग से बचना भी लाभदायक है.
हेपेटाइटिस सी : इसका आम तौर पर तब तक इलाज नहीं किया जाता है, जब तक यह क्रॉनिक न बने. क्रॉनिक हेपेटाइटिस का इलाज उन दवाइयों से होता है, जो वायरस को लिवर खराब करने से रोकती हैं और हेपेटाइटिस सी वायरस पर हमला करती हैं. इसका इलाज 24 से 48 हफ्तों तक चल सकता है. रोगों को रोकने का अच्छा तरीका है कि रक्तदान के समय सावधानी बरतें. यदि अन्य व्यक्ति का खून छूना है, जैसे घाव साफ करते समय ग्लव्ज पहनें. टूथब्रश, रेजर, आदि किसी से शेयर न करें.
उपचार के नये तरीके
सरकार की ओर से इसे रोकने के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं. स्वच्छ भारत अभियान से भी इसमें काफी लाभ मिला है. अगर ऐसे प्रयास लगातार जारी रहे, तो जल और खाद्य जनित रोगों के संचरण/प्रसारण को रोका जा सकता है. चीन ने हेपेटाइटिस इ के वैक्सीन का ट्रायल कर लिया है. अत: उम्मीद की जा रही है कि एचइवी वैक्सीन का इंतजार शीघ्र समाप्त होनेवाला है. भारत भी इसके लिए प्रयास कर रहा है. हेपेटाइटिस सी के उपचार के लिये एक नयी दवाई बाजार में आयी है. यह दवाई वायरस के उपचार में अत्यंत प्रभावकारी है. इन दवाइयों की बिक्री पहले अमेरिका में प्रारंभ हुई, लेकिन ये बहुत महंगी थीं. अब इनके सब्सिडीवाले संस्करण भारत में उपलब्ध हैं. कीमत वहां की तुलना में काफी कम है. आशा है कि आनेवाले छह महीने में कई और नयी दवाइयां आ जायेंगी, जिनकी मदद से इलाज आसान हो जायेगा.
आदत में शामिल करें ये बातें
– सफाई का ध्यान रखें. – जब भी जरूरी हो हाथ धोएं, खास कर टॉयलेट से आने के बाद. – ताजे और स्वच्छ भोजन का सेवन करें. – साफ पानी पीएं. हो सके, तो पानी उबाल कर ठंडा करके पीएं.
– फलों को अच्छी तरह धोने के बाद खाएं.
– बरतनों को गुनगुने पानी से धोएं.
– तरल पदार्थों का सेवन करें.
परहेज है जरूरी
सीधे रोग का उपचार नहीं है, हां लक्षणों को सपोर्टिव ट्रीटमेंट से कंट्रोल किया जाता है. मरीज को भरपूर आराम करना चाहिए. परहेज का अहम रोल होता है. मरीज को तेल, मक्खन, अंडा, मांस आदि से परहेज करना चाहिए. आटा, चावल, उबली हुई सब्जी खा सकता है.
गन्ने का रस, फलों का जूस पीने की सलाह दी जाती है. यदि मरीज आराम नहीं करे, तो रोगी की स्थिति गंभीर हो जाती है. डिहाइड्रेशन से भी स्थिति गंभीर हो सकती है. रोगी अचानक बेहोश होकर कोमा में जा सकता है. ऐसी स्थिति में मरीज को ग्लूकोज चढ़ाना पड़ता है.
कुछ विटामिन भी दिये जा सकते हैं. खाना पचाने के लिए एंजाइम भी दिया जा सकता है. कुछ आयुर्वेदिक दवाइयां जैसे-लिव 52 आदि भी इसमें फायदेमंद हैं. 15 दिन से एक महीने तक रेस्ट करना होता है. परहेज छह महीने तक करना होता है. आंखों का पीलापन डेढ़ महीने में कम होने लगता है. परहेज जरूरी है, क्योंकि इन्फेक्शन के बाद लिवर की कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं. इन्हें फिर से बनने में समय लगता है.
बातचीत : अजय कुमार