लाइव अपडेट
दिखी आदिवासी लोक संस्कृति की झलक
शोभायात्रा को लेकर विभिन्न खोड़हा दलों में विशेष उत्साह देखा गया. पारंपरिक वेशभूषा में विभिन्न गांवों के लोग अलग-अलग दल में बंटकर शोभायात्रा में शामिल हुए. प्रत्येक खोड़हा दल एक-दूसरे से बेहतर प्रस्तुति देने को तत्पर था. शहर की सड़कों पर लय स्वर एवं ताल के साथ सरहुली गीत गूंज रहे थे. आनंद के इस उत्सव में शामिल हर सरना धर्मावलंबी मस्त था. धरती और सूरज के इस विवाह उत्सव को यादगार बनाने के लिए सभी अपनी- अपनी तरफ से प्रयत्नशील थे. मांदर की मधुर थाप, नगाड़े की गूंज तथा शंख ध्वनियों से वातावरण के मंगलमयी होने का संदेश दिया जा रहा.
गुमला शहर में निकली सरहुल पर्व पर शोभायात्रा
गुमला शहर में सरहुल पर्व पर शोभायात्रा निकाली गयी, जिसमें 20 हजार से अधिक लोग पारंपरिक वेशभूषा में भाग लिए, महिलाएं जहां लाल पाड़ी साड़ी तो पुरुष धोती कुर्ता पहने हुए मांदर, नगाड़ा की थाप पर नाचते गाते नजर आये, सांसद सुदर्शन भगत सहित कई लोग भाग लिए,
गुमला शहर में निकली सरहुल पर्व पर शोभायात्रालोहरदगा में पारंपरिक विधि विधान व हर्षोल्लास के साथ मना प्रकृति पर्व सरहुल, निकली भव्य शोभायात्रा
प्रकृति पूजा का पर्व सरहुल जिले में पारंपरिक उत्साह के साथ मनाया गया. चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीय के अवसर पर मनाया जानेवाला यह त्योहार धरती एवं सूर्य के विवाहोत्सव के रूप में मनाया जाता है. करमा त्योहार के साथ सरहुल का त्योहार आदिवासी समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है. सोमवार को सरहुल त्योहार के मौके पर शहर की सड़कें गुलजार थीं. जिले के दूर-दराज से आए हुए ग्रामीणों से शहर की शहर की गलियां पट गयीं. सड़कों व चौक चौराहों पर आदिवासी पारंपरिक वेशभूषा नजर आ रही थी. सरहुल के मुख्य अनुष्ठान का प्रारंम्भ एमजी रोड स्थित झखरा कुंबा से समारोहपूर्वक हुआ. समारोह के मुख्य अतिथि व विशिष्ट अतिथियों को पगड़ी पहनाकर सम्मानित किया गया.झखरा कुंबा में पारंपरिक पूजन के बाद केंद्रीय सरना समिति अध्यक्ष मनी उरांव व अन्य पदाधिकारियों के नेतृत्व में दोपहर बाद शहर में भव्य शोभायात्रा निकाली गयी.
सरहुल पर्व पर 62 सालों से गुमला में निकल रहा जुलूस
प्रकृति पर्व सरहुल के अवसर पर आदिवासी समाज द्वारा गुमला में विगत 62 सालों से जुलूस निकाला जा रहा है. गुमला में सबसे पहले सन 1961 में जुलूस निकाला गया था. तब और अब में अंतर यह है कि तब लगभग 500 लोग जुलूस में शामिल होते थे और अब जुलूस में शामिल होने वाले लोगों की संख्या एक लाख तक है. जुलूस में आदिवासी समाज की कला, संस्कृति, पंरपरा और वेशभूषा देखने को मिलती है. इस संबंध में प्रभात खबर प्रतिनिधि ने पूर्व विधायक बैरागी उरांव से खास बातचीत की. श्री उरांव ने बताया कि 1961 से पहले 1960 तक गांव के सरना स्थल पर पूजा के बाद वहीं पास नाच-गाना होता था. उस समय जुलूस निकालने की परंपरा नहीं थी. पूजा के बाद सरना स्थल पर ही नाच-गाना होता था. जो रातभर चलता था.
मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने सरहुल पर्व की शुभकामनाएं दी
मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने करम टोली स्थित आदिवासी बालक - बालिका छात्रावास में आयोजित सरहुल पर्व महोत्सव -2022 में शामिल हुए. मुख्यमंत्री ने पूजा स्थल पहुंच कर सभी को सरहुल पर्व की शुभकामनाएं दी.
खरसावां के आनंदडीह में धूमधाम के साथ मनाया गया सरहुल पर्व
खरसावां के आनंदडीह गांव में सोमवार को प्रकृति का पर्व सरहुल धूमधाम के साथ मनाई गई. मौके पर सरना स्थल में पारंपरिक विधि-विधान के साथ पूजा की गयी. पुजारी नरसिह उरांव, जागनाथ उरांव, जगदीश उरांव व बैसगु उरांव ने सरना स्थल पर विधिवत पूजा अर्चना की. पूजा में सखुआ का फूल, सिंदूर, जल व दूब घास चढ़ाया गया. पूजा समाप्ति के बाद श्रद्धालुओं के बीच सखुआ के फूलों को ही प्रसाद के रुप में वितरित किया.
शचिंद्र कुमार दाश, सरायकेला-खरसावां
क्या है लाल पाड़ और सफेद साड़ी का महत्व
नाचगान आदिवासियों की प्रमुख संस्कृति में से एक है, क्यों कि ऐसी मान्यता प्रचलित है कि जे नाची से बांची. यानी कि जो नाचेगा वही बचेगा. इस दिन महिलाएं लाल पाड़ और सफेद साड़ी पहनकर नाचते गाते हैं. क्यों कि सफेद साड़ी पवित्रता और शालीनता का संदेश देता है. वहीं लाल संघर्ष करते रहने का संदेश देता है.
केकड़ा, मछली और मुर्गा पकड़ना
सरहुल के पहले दिन गांव के कुछ लोग केंकड़ा और मछली पकड़ने के लिए नदी-नालों, खेतों और तालाबों की ओर निकल पड़ते हैं. इस दिन खेतों में हल चलाने की मनाही रहती है. गांव के लड़के जोश के साथ मछली और केकड़ा पकड़ने निकलते हैं. शाम होते होते वे लौट आते हैं. शाम के समय जब पहान के घरों में मांदर बजने लगता है तो उस शुभ मुहूर्त में औरतें अपने चूल्हे में केकड़स डाल देती हैं. आग की ताप से केकड़ों के पैर फैलने लगते हैं, ऐसे में उरांव लोगों को मानना है कि ऐसा होने से उनके खेतों में उगने वाले उड़द दाल और बोदी की फसल केकड़ों के पैरों के समान गुच्छों में होगी, यानी फसल अच्छी होगी. इसे उरांव भाषा में ‘ककड़ों बक्का लेक्खाः खंजओं‘ कहते हैं. उड़द, बोदी और धान को बोते समय उसे तुलसी पानी से धोया जाता है और उसमें केकड़ों के अंशों को मसलकर गिराया जाता है.
सरहुल पूजा विधि
सरहुल से एक दिन पहले उपवास और जल रखाई की रस्म होती है. सरना स्थल पर पारम्परिक रुप से पूजा की जाती है. खास बात ये है कि इस पर्व में मुख्य रूप से साल के पेड़ की पूजा होती है. सरहुल वसंत के मौसम में मनाया जाता है, इसलिए साल की शाखाएं नए फूल से सुसज्जित होती हैं. इन नए फूलों से देवताओं की पूजा की जाती है.
आज मना जा रहा है सरहुल पर्व
इस साल सरहुल 4 अप्रैल को यानी आज मनाया जा रहा है. सरहुल आदिवासियों का प्रमुख पर्व है, जो झारखंड, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी द्वारा मनाया जाता है. यह उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. इसमें वृक्षों की पूजा की जाती है. यह पर्व नये साल की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है.
'खद्दी' या 'खेखेल बेंजा' के नाम से भी जाना जाता है सरहुल
उरांव सरना समाज में इस त्योहार को 'खद्दी' या 'खेखेल बेंजा' के नाम से भी जाना जाता है. उरांव सरना समाज में किसी भी सरहुल की तिथि पूरे गांव को हकवा लगाकर बताई जाती है. जैसा कि पहले ही बताया गया है कि सरहुल को त्योहार इस समाज में एक ही दिन नहीं मनाया जाता. विभिन्न गांवों में इसे अलग-अलग दिन मनाने की प्रथा है.
सरहुल पर्व पर लाल साड़ी पहनने का है महत्व
सरहुल पर्व के दौरान आदिवासी समुदाय के महिलाएं खूब डांस करती है. दरअसल आदिवासियों की मान्यता है कि जो नाचेगा वही बचेगा. दरअसल आदिवासियों में माना जाता है कि नृत्य ही संस्कृति है. यह पर्व झारखंड में विभिन्न स्थानों पर नृत्य उत्सव के रूप में मनाया जाता है. महिलाएं लाल पैड की साड़ी पहनती हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि सफेद शुद्धता और शालीनता का प्रतीक है, वहीं लाल रंग संघर्ष का प्रतीक है. सफेद सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरु बोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना का झंडा भी लाल और सफेद होता है.
विभिन्न जनजातियां के बीच प्रसिद्ध है सरहुल पर्व
सरहुल पर्व को झारखंड (Jharkhand) की विभिन्न जनजातियां अलग-अलग नाम से मनाती हैं. उरांव जनजाति इसे 'खुदी पर्व', संथाल लोग 'बाहा पर्व', मुंडा समुदाय के लोग 'बा पर्व' और खड़िया जनजाति 'जंकौर पर्व' के नाम से इसे मनाती है.
प्रकृति की आराधना का पर्व है सरहुल
सरहुल उरांव सरना समाज के लोगों का अपना बड़ा और पवित्र त्योहार है. यह उत्सव चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. यह पर्व भी प्रकृति की आराधना का पर्व है. इस त्योहार को पूरे विधि विधान, नियम और पवित्रता के साथ मनाया जाता है.
सरहुल पूजा विधि
सरहुल से एक दिन पहले उपवास और जल रखाई की रस्म होती है. सरना स्थल पर पारम्परिक रुप से पूजा की जाती है. खास बात ये है कि इस पर्व में मुख्य रूप से साल के पेड़ की पूजा होती है. सरहुल वसंत के मौसम में मनाया जाता है, इसलिए साल की शाखाएं नए फूल से सुसज्जित होती हैं. इन नए फूलों से देवताओं की पूजा की जाती है.
आज मनाया जा रहा है सरहुल
इस साल सरहुल 4 अप्रैल को यानी आज मनाया जा रहा है. सरहुल आदिवासियों का प्रमुख पर्व है, जो झारखंड, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी द्वारा मनाया जाता है. यह उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. इसमें वृक्षों की पूजा की जाती है. यह पर्व नये साल की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है.
डाड़ी-चुवां छींटना
पहान, पुजार और पनभरा उपवास करके सरहुल के एक दिन पहले गांव के लोगों के साथ मिलकर सुबह ही बांस की टोकरी, मिट्टी से बना तावा और तेल सिंदूर लेकर सरना डाड़ी (दोन में बने बावड़ी) के पास जाते हैं. वहां डाड़ी की सफाई की जाती हैं. इसके बाद उसमें साफ पानी भरा जाता है. इसके बाद पहान, पुजार और पनभरा बारी-बारी से नहाते हैं. स्नान के बाद वह डाड़ी में तेल-टिक्का और सिंदूर चढ़ाते हैं. इसके बाद सभी लौटकर पहान के घर जाते हैं और खुशियां मनाते हैं. एक तरह से कहा जाए कि वह सरहुल को स्वागत करते हैं.
'खद्दी' या 'खेखेल बेंजा' के नाम से भी जाना जाता है सरहुल
उरांव सरना समाज में इस त्योहार को 'खद्दी' या 'खेखेल बेंजा' के नाम से भी जाना जाता है. उरांव सरना समाज में किसी भी सरहुल की तिथि पूरे गांव को हकवा लगाकर बताई जाती है. जैसा कि पहले ही बताया गया है कि सरहुल को त्योहार इस समाज में एक ही दिन नहीं मनाया जाता. विभिन्न गांवों में इसे अलग-अलग दिन मनाने की प्रथा है.
चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है सरहुल
सरहुल उरांव सरना समाज के लोगों का अपना बड़ा और पवित्र त्योहार है. यह उत्सव चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. यह पर्व भी प्रकृति की आराधना का पर्व है. इस त्योहार को पूरे विधि विधान, नियम और पवित्रता के साथ मनाया जाता है.
विभिन्न जनजातियां के बीच प्रसिद्ध है सरहुल पर्व
सरहुल पर्व को झारखंड (Jharkhand) की विभिन्न जनजातियां अलग-अलग नाम से मनाती हैं. उरांव जनजाति इसे 'खुदी पर्व', संथाल लोग 'बाहा पर्व', मुंडा समुदाय के लोग 'बा पर्व' और खड़िया जनजाति 'जंकौर पर्व' के नाम से इसे मनाती है.
सरहुल पर्व के दौरान इस लिए पहनी जाती है लाल साड़ी
सरहुल पर्व के दौरान आदिवासी समुदाय के महिलाएं खूब डांस करती है. दरअसल आदिवासियों की मान्यता है कि जो नाचेगा वही बचेगा. दरअसल आदिवासियों में माना जाता है कि नृत्य ही संस्कृति है. यह पर्व झारखंड में विभिन्न स्थानों पर नृत्य उत्सव के रूप में मनाया जाता है. महिलाएं लाल पैड की साड़ी पहनती हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि सफेद शुद्धता और शालीनता का प्रतीक है, वहीं लाल रंग संघर्ष का प्रतीक है. सफेद सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरु बोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना का झंडा भी लाल और सफेद होता है.
सरहुल पर्व की पूजा विधि
सरहुल से एक दिन पहले उपवास और जल रखाई की रस्म होती है. सरना स्थल पर पारम्परिक रुप से पूजा की जाती है. खास बात ये है कि इस पर्व में मुख्य रूप से साल के पेड़ की पूजा होती है. सरहुल वसंत के मौसम में मनाया जाता है, इसलिए साल की शाखाएं नए फूल से सुसज्जित होती हैं. इन नए फूलों से देवताओं की पूजा की जाती है.
आदिवासियों का प्रमुख पर्व है सरहुल
इस साल सरहुल 4 अप्रैल को है. सरहुल आदिवासियों का प्रमुख पर्व है, जो झारखंड, उड़ीसा और बंगाल के आदिवासी द्वारा मनाया जाता है. यह उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. इसमें वृक्षों की पूजा की जाती है. यह पर्व नये साल की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है.