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ज्ञानवापी का सच ASI सर्वे से आएगा सामने, जिस GPR का हो रहा जिक्र, जानें क्या है? चांद के मिशन से भी है कनेक्शन

जीपीआर भूमि की सतह से नीचे के स्तरों को देखने और भू-वस्तुओं की गहराई का मापन करने के लिए उपयोगी होता है. इसका उपयोग भू-संरक्षण, भू-विज्ञान, खनिज खोज, जलवायु परिवर्तन और भूगर्भीय अध्ययन में किया जाता है. जीपीआर उपकरण भूमि के नीचे गहराई की तस्वीरों को तैयार करता है.

Gyanwapi Case: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वाराणसी में ज्ञानवापी के एएसआई सर्वे की मंजूरी दे दी है. हाईकोर्ट ने जिला जज के फैसले को बरकरार रखा है. ऐसे में एएसआई सर्वे और इससे जुड़े तमाम तकनीक को लेकर चर्चा फिर तेज हो गई है.

आधुनिक तकनीक से स्ट्रक्चर की जांच

इस केस की सुनवाई का बिंदु भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) का सर्वे रहा, जो ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार (जीपीआर) पर आधारित है. इसे हिंदू पक्ष ने सच्चाई सामने लाने के लिए सबसे अहम बताया. उन्होंने दावा किया कि ज्ञानवापी का पूरा और सही सच एएसआई के वैज्ञानिक सर्वे के जरिए ही सामने आ सकता है. आधुनिक तकनीक से स्ट्रक्चर की जांच किया जाना पूरी तरह से सही है. संबंधित एरिया की पैमाइश, फोटोग्राफी रडार इमेजिंग की जाएगी.

मुस्लिम पक्ष ने साक्ष्य नहीं होने का दिया हवाला

कोर्ट में कहा गया कि इस सर्वे के दौरान निर्माण को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. ऐसे में इस पर आपत्ति दाखिल करना किसी भी हालत में ठीक नहीं है. जबकि मस्जिद की इंतजामिया कमेटी की ओर से इसे लेकर तमाम सवाल खड़े किए गए. मुस्लिम पक्ष ने कहा कि​ बिना किसी साक्ष्य के तमाम दावे किए जा रहे हैं, इनका कोई आधार नहीं है. हालांकि हाईकोर्ट ने उनकी दलीलों को सही नहीं माना.

अभी तक केवल इतने प्रतिशत हुआ एएसआई का सर्वे

इससे पहले दोनों पक्षों की अपनी दलीलों के बीच मुख्य न्यायमूर्ति प्रीतिंकर दिवाकर ने ज्ञानवापी परिसर में सर्वे कराये जाने के मामले में दाखिल अंजुमन इंतजामिया कमेटी की याचिका पर सुनवाई करते हुए एएसआई के वैज्ञानिक से भी तमाम सवाल किए. एएसआई की ओर से एडिशनल डिप्टी डायरेक्टर आलोक त्रिपाठी कोर्ट में पेश हुए. उन्होंने कहा कि सर्वे में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाएगा कि ज्ञानवापी परिसर को किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं हो.

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बताया जा रहा है कि अभी तक ज्ञानवापी सर्वे का काम केवल पांच प्रतिशत हुआ है. पश्चिमी दीवार के पास व कुछ अन्य खुली जगहों पर ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार यानी जीपीआर का भी प्रयोग किया गया है. अभी तक के सर्वे के दौरान हर कार्य की फोटो खींची गई और वीडियोग्राफी कराई गई है. टीम ने छह समूहों में परिसर के अलग-अलग हिस्सों की जांच की है.

एएसआई ने दी जीपीआर की जानकारी

इस दौरान उन्होंने हाईकोर्ट को जीपीआर विधि और फोटोग्राफी विधि से सर्वेक्षण होने की जानकारी दी. इस प्रक्रिया की पूरी जानकारी दी. एएसआई की ओर से कहा गया कि वैज्ञानिक सर्वेक्षण से मूल ढांचे को कोई नुकसान नहीं होगा. इस बीच कोर्ट ने एएसआई से पूछा कितने सर्वे हो चुका है? कब तक पूरा कर लेंगे सर्वे?

जीपीआर पर पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद सुनाया फैसला

दरअसल एएसआई के वैज्ञानिक सर्वे में बार बा​र जिस ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार (जीपीआर) का नाम आ रहा है, उसे लेकर हाईकोर्ट पूरी तरह से संतुष्ट होना चाहता था. कोर्ट एएसआई से यह स्पष्ट करना चाहता था कि सर्वे के दौरान कोई क्षति हो सकती है या नहीं. मुख्य न्यायाधीश इस मामले में एएसआई से उस मैथेड को जानना चाहते थे, जिसके जरिये एएसआई की टीम सर्वे कर रही है. इन तमाम बिंदुओं पर पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद ही हाईकोर्ट ने गुरुवार को एएसआई सर्वे की अनुमति को लेकर अपना फैसला सुनाया.

ये पूरी कवायद इसलिए अहम मानी जा रही है, क्योंकि मस्जिद पक्ष की ओर से कहा गया है कि सर्वे से संरचना को क्षति हो सकती है. जिला जज को सर्वे कराये जाने का अधिकार नहीं है. यह आदेश गलत है. जबकि मंदिर पक्ष की ओर से जवाब दिया गया कि सर्वे के बाद ही मंदिर के स्ट्रक्चर का सही पता चल सकता है. बताया गया कि एएसआई की टीम दो तकनीकों के माध्यम से सर्वे कर रही है, जिसमें फोटोग्राफी और इमेजिंग करेगी. किसी तरह की क्षति नहीं होगी.

क्या है जीपीआर और क्यों होता है इसका उपयोग

जीपीआर भूमि की सतह से नीचे के स्तरों को देखने और भू-वस्तुओं की गहराई का मापन करने के लिए उपयोगी होता है. इसका उपयोग भू-संरक्षण, भू-विज्ञान, खनिज खोज, जलवायु परिवर्तन और भूगर्भीय अध्ययन में किया जाता है. जीपीआर उपकरण भूमि के नीचे गहराई की तस्वीरों को तैयार करता है और वस्तुओं के संरचना, गहराई और अन्य पैरामीटर्स को विश्लेषण करता है.

पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर होता है काम

विशेषज्ञों के मुताबिक, ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार (जीपीआर) एक अद्भुत वैज्ञानिक पद्धति से प्रमाणिक तकनीकी उपकरण है जो भूमि के नीचे वस्तुओं को देखने और उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यह रडार भूमि की सतह से लेकर बेहद गहरे स्तरों तक काम करता है और भू-विज्ञान सहित कई अन्य प्रकार की गहन जांच और पर्यावरणीय अनुसंधान में उपयोगी है. इसका उपयोग खुदाई, पेट्रोलियम और गैस खोज, जल संसाधनों के अध्ययन, भू-विज्ञान, विकासी अध्ययन और भू-संरक्षण के लिए किया जाता है.

जीपीआर से विभिन्न चरणों में इस तरह होता है अध्ययन

जीपीआर विधि से विभिन्न चरणों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन और भू-वस्तुओं की नीचे की संरचना का अध्ययन किया जाता है:

Setup Localization: सबसे पहले एक ग्राउंड पेनीट्रेटिंग रडार उपकरण का चयन किया जाता है जो उच्च तकनीकी योग्यता वाला होता है और भू-मापदंडों के अनुसार उपयुक्त होता है. इसके बाद जीपीआर उपकरण को भूमि पर स्थानांतरित किया जाता है. यह उपकरण रडार ट्रांसमीटर और रिसीवर का संयोजन होता है.

Radar Operation: जीपीआर उपकरण को भूमि पर चलाया जाता है. इस दौरान रडार ट्रांसमीटर भूमि की सतह से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें उत्पन्न करता है, जो भूमि के नीचे प्रवेश करती हैं. ये तरंगें भूमि के विभिन्न परतों से गुजरती हैं और संरचनाओं की गहन जानकारी करती हैं, जो सबसे अंत में डाटा के जरिए सामने आता है.

Data Acquisition: जीपीआर रडार चालने के दौरान तरंगे वस्तुओं से संघटित होती हैं और विभिन्न स्थानों पर परावर्तित होती हैं. रडार रिसीवर इन परावर्तित तरंगों को ग्रहण करता है और उन्हें डिजिटल डाटा में परिवर्तित करता है. रडार स्कैनिंग के माध्यम से भूमि के नीचे का चित्रण करता है और यहां तक की जमीन की गहराई के विभिन्न स्तरों को भी दिखा सकता है.

Data Analysis: जीपीआर डाटा का विश्लेषण भूगर्भीय तत्वों को पहचानने के लिए किया जाता है. सरल तरीके से समझें तो डिजिटल डाटा विश्लेषण के जरिए जमीन के नीचे की वस्तुओं की गहराई, संरचना और अन्य विशेषताओं का मूल्यांकन किया जाता है. ये पूरी प्रकिया डाटा विश्लेषण के तौर पर सबसे सामने आती हैं तो उसमें कई बिंदुओं का गहराई से जानकारी होती है, जो सामान्य तौर पर संभव नहीं है.

Mapping: डाटा विश्लेषण के बाद भू-मानचित्र तैयार किया जाता है. इसमें कई बारीक बिंदु शामिल होते हैं. यह मानचित्र संबंधित जगह का गहन विश्लेषण और भू-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उपयोगी होता है.

ज्ञानवापी के सर्वे में जीपीआर है बेहद अहम

जीपीआर विधि के माध्यम से हम भू-संरक्षण, भू-विज्ञान, खनिज संसाधन अनुसंधान, भू-मानचित्रण, जलवायु परिवर्तन, भूगर्भीय अध्ययन और जल संसाधनों के अध्ययन जैसे क्षेत्रों में विस्तारपूर्वक अध्ययन कर सकते हैं.जमीन के नीचे मौजूद किसी ऑब्जेक्ट की उम्र का पता लगाने के लिए जीपीआर तकनीक से रडार सेंसर का इस्तेमाल किया जाता है. रडार सेंसर ऑब्जेक्ट से टकराने के बाद उसकी आयु की गणना कर लेता है. इसलिए ज्ञानवापी के एएसआई सर्वे में इसका अहमियत बेहद ज्यादा है.

एएसआई ने आईआईटी कानपुर की मांगी मदद

इस बीच ज्ञानवापी परिसर की जीपीआर और रडार जांच के लिए एएसआई ने आईआईटी कानपुर से मदद मांगी है. आईआईटी निदेशक प्रोफेसर अभय करंदीकर के मुताबिक इस प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है. संस्थान के विभिन्न विभागों के वैज्ञानिकों के साथ विचार विमर्श किया जाएगा. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि एएसआई की जरूरत के अनुसार आईआईटी कितनी मदद कर सकता है.

ज्ञानवापी परिसर में बगैर कोई छेड़छाड़ किए पुरातात्विक महत्व की पड़ताल करने के लिए एएसआई ने रडार और जीपीआर तकरीर की मदद लेने का फैसला किया है. इसके लिए टीम ने आईआईटी कानपुर से संपर्क स्थापित किया है. आईआईटी के निदेशक ने बताया कि एएसआई ने यह जानने की कोशिश की है कि क्या इस तकनीक से जांच के मामले में संस्थान उनकी कोई मदद कर सकता है. आईआईटी के विज्ञानियों की ऐसी कोई विशेषज्ञ टीम क्या एएसआई की मदद के लिए वाराणसी पहुंच सकती है.

क्या कहते हैं वैज्ञानिक

पुरातात्विक खोज अभियानों में शामिल रह चुके आईआईटी के भूविज्ञानी प्रोफेसर जावेद मलिक के मुताबिक जीपीआर ऐसी तकनीक है, जिससे किसी भी वस्तु या ढांचे को बगैर छेड़े हुए उसके नीचे जले हुए कंक्रीट धातु पाइप केबल या अन्य वस्तुओं की पहचान की जा सकती है. इस तकनीक में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन की मदद से ऐसे सिग्नल प्राप्त किए जाते हैं जो यह बताने में सक्षम हैं कि किसी भी वस्तु के आंतरिक हिस्से में क्या-क्या मौजूद है.

अपोलो मिशन के दौरान हो चुका है जीपीआर का इस्तेमाल

तकनीक का प्रयोग करने के दौरान इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणों को उस वस्तु या स्थान पर प्रवेश कराया जाता है, जिसकी जांच करनी होती है. लौटने वाली किरणों और ध्वनि आवृत्तियों का विश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है. इस तकनीक का प्रयोग 1972 में चांद पर भेजे गए अपोलो-17 मिशन के दौरान भी किया चुका है.

भारत में काफी समय से हो रहा जीपीआर का इस्तेमाल

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के भू एवं ग्रहीय विज्ञान विभाग के प्रो. जयंत के मुताबिक जीपीआर का इस्तेमाल भारत में लंबे समय से हो रहा है और यह काफी प्रभावी है. जब कोहरे या बादलों के कारण सेटेलाइट की पहुंच ढीली पड़ जाती है, तब जीपीआर तकनीक काम आती है.

इसका रडार सेंसर 20 फीट की गहराई तक किस भी ऑब्जेक्ट को पेनिस्ट्रेट करके आसानी से चिह्नित कर सकता है. इसका उपयोग पुरातात्विक अध्ययन में किया जाता है. यह तकनीक सांस्कृतिक विरासत स्थलों को संरक्षित करने और मूल्यवान कलाकृतियों के नुकसान को कम करने में मदद करती है.

जमीन के इतिहास और कब्जे के अवधि की मिलती है सटीक जानकारी

जीपीआर जमीन के नीचे छिपी कलाकृतियों और वस्तुओं का पता लगा सकता है. जीपीआर पुरातत्वविदों को किसी स्थल की उपसतह स्ट्रैटिग्राफी का विश्लेषण करने में मदद करता है. यह तलछट और मिट्टी की विभिन्न परतों के बीच के अंतर का विश्लेषण करता है, जिससे संबंधित के इतिहास, कब्जे की अवधि और संभावित गड़बड़ी की घटनाओं के बारे में जानकारी मिलती है.

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