Lucknow: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ आजादी से जुड़ी अनगिनत कहानियों को अपने अंदर सहेजे हुए है. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में जहां लखनऊ क्रांतिकारियों की गतिविधियों का अहम केंद्र रहा, जिससे जुड़ी यादें आज भी इस शहर में मौजूद हैं. वहीं महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस के आजादी के आंदोलन में सक्रिय होने के दौरान भी लखनऊवासियों ने अहम भूमिका निभायी.
अंग्रेजों की हुकुमत से पहले लखनऊ में नवाबों का शासन रहा. इसलिए इस शहर में नवाबों की बनाई ऐतिहासिक इमारतें जहां आज भी उस दौर की यादें ताजा करती हैं, वहीं अंग्रेजों ने भी इस शहर में रहने के दौरान कई निर्माण करवाए, जो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े तमाम गतिविधियों का केंद्र रहे.
लखनऊ का राजभवन इन्हीं में से एक है. सैकड़ों वर्ष पुरानी इस ऐतिहासिक इमारत का नाम कोठी हयात बख्श था. इसकी रूपरेखा जनरल क्लाड मार्टिन ने बनायी थी जो अवध के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. क्लाड मार्टिन का जन्म फ्रांस के लिओंस नामक शहर में 4 जनवरी, 1735 को हुआ था. वे 1785 में काउंट डिलेली के अंगरक्षक बन कर हिन्दुस्तान आये थे और कुछ अर्से तक भारत के दक्षिण व पूर्वी भाग में रहे, उसके बाद लखनऊ आये.
इस शहर की खूबसूरती और यहां के लोगों की तहजीब से वह इतना प्रभवित हुए कि यहां स्थायी रूप से बसने का फैसला कर लिया. इसमें कोई संदेह नहीं कि क्लाड मार्टिन कुशल क्षमताओं और अनेक सदगुणों के धनी थे. लखनऊ शहर के लिए प्लान बनाना और शानदार इमारतों की देखरेख करना मार्टिन का पसन्दीदा शौक था. इसी हुनर के हाथों वो नवाब आसफुद्दौला दरबार के प्रमुख बन गये थे.
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सन् 1798 में नवाब आसफुद्दौला के बाद नवाब सआदत अली खां को ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने दुर्गा कुंड बनारस से लाकर लखनऊ के तख्त पर बिठा दिया. नये नवाब को मार्टिन की बनवाई हुई सुन्दर इमारतें बहुत पसन्द आईं. नबाव की इच्छानुसार कोठियां बनवाने का ठेका मार्टिन साहब ने ले रखा था. कोठी हयात बख्श इसी तरह का निर्माण है जिसमें दोनों की साझेदारी थी.
लखनऊ शहर का ये दो मंजिला शानदार भवन शहर के पूर्व हरे-भरे पेड़ों के बीच बनवाया गया था. हयात बख्श का अर्थ ही ‘जीवन दायिनी’ जगह है. इस तरह की इमारतें यहां कोठियां कहलायीं, जो कि यहां की परंपरागत भवन शैली से बिल्कुल अलग हुआ करती थीं.
भारतीय शैली के मकानों में आंगन होना बहुत जरूरी होता था, जिसके लिए इन कोठियों में कहीं कोई गुंजाइश नहीं रखी जाती थी. कोठियां आमतौर पर दो मंजिला हुआ करती थीं, जिनकी ऊंची सीधी सपाट दीवारों पर कोई अलंकरण नहीं होता था और जो कुछ भी रचनात्मक स्थापत्य रहता था वह गाथिक शैली में खिड़की दरवाजों की साज-सज्जा के लिए होता था.
कोठी हयात बख्श एक हवादार आलीशान इमारत है जिसके चारों ओर ऊंची छत वाले शानदार बरामदे हैं. कोठी के अन्दर का राजदरबार ही भारतीय स्थापत्य और कला शिल्प में बना हुआ है, जबकि शेष भवन पूरी तरह से विशिष्ट पश्चिमी प्रभाव लिये हुए है. दीवान खाने की मेहराबों के साथ सुन्दर फूल बूटेकारी बनी हुई है जिनकी सजावट में सुनहरी कलम से काम किया गया है.
राजभवन के बरामदे में लगे हुए कोठी के पुराने चित्र से मालूम होता है कि एक जमाने में इस इमारत पर चारों तरफ छप्पर छाया हुआ था और जो इसे तत्कालीन मकानों की श्रेणी में कुछ शामिल करता था. सच तो यह है कि इस भवन को केवल नवाब का दिया हुआ नाम मिला, यह आवास कभी उनके काम नहीं आया और न ही इसमें उनके खानदान के लोग ही कभी रहे.
इसकी जो मुख्य वजह थी वह यह थी कि यह कोठी दौलत सराय सुल्तानी, छतर मंजिल और राजदरबार के इलाके से बहुत दूर थी. जनरल क्लाड मार्टिन ने इसको अपना निवास स्थान बनाया था. यहां उनके सुरक्षा सैनिकों और हथियारों का पूरा प्रबन्ध था. सन् 1830 के आस-पास बादशाह नसीरूद्दीन हैदर के समय इस कोठी में कर्नल रोबर्ट्स रह रहे थे.
सन् 1857 ई. के प्रथम स्वाधीनता संग्रम में लखनऊ के रेजिडेन्ट हेनरी लारेंन्स की बहुत अहम भूमिका रही है. उनका भी इस कोठी में आना जाना था. बाद में जब कर्नल इंगलिस फौज के कमांडर बनाये गये तो वो भी यहीं रह रहे थे और इस तरह यह क्षेत्र छावनी का एक हिस्सा हो गया था.
मेजर जानशोर बुक अवध के चीफ कमिश्नर बने तो उन्होंने इसी भवन में निवास किया. उसके बाद जब मेजर बैंक साहब ने यहां निवास किया तो यह कोठी ‘बैंक हाउस’ कही जाने लगी और काठी के पश्चिमी गेट से कैसरबाग तक पहुंचने वाली सड़क को ‘बैंक रोड’ कहा जाने लगा. 21 जुलाई सन् 1857 को मेजर बैंक एक क्रान्तिकारी की गोली से जख्मी होकर गुजर गये, तो उन्हें रेजीडेंसी में दफना दिया गया. हजरतगंज के बीच बनी हुई ऐतिहासिक बेगम कोठी, जहां अब जनपथ बाजार है, में घायल होने वाले मेजर हडसन ने इसी कोठी हयात बख्श में अपनी अंतिम सांस ली थी.
इसके बाद ब्रिटिश रणनीति का रूख बदल गया और कालिन कैम्पवेल साहब मदद के लिए फौज लेकर कानपुर से लखनऊ आ पहुंचे. उस समय ब्रिगेडियर रसेल की देख-रेख में कोठी हायत बख्श अंग्रेजी फौज की गढ़ बन गयी. 18 मार्च, 1857 में अवध पर पूर्ण अधिकार पा जाने के बाद ब्रिटिश शासकों ने कोठी हयात बख्श के विस्तार की योजना बनायी.
सन् 1873 में सर जार्ज कूपर के निर्देशन में इसके साथ खूबसूरत बगीचा, कई फव्वारे बनाये गये और सुन्दर बैठकें लगायी गयीं जो पहले कैसरबाग में हुआ करती थीं. उस समय मेसर्स पार्क एलेन एंड कम्पनी के नाम से एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान सड़क के किनारे बन चुका था, जहां अब राजभवन का डाकघर कायम है. इसी क्षेत्र में एक बारादरी भी थी जो अब मकानों के बीच घिर कर समाप्त हो चुकी है. शाही मस्जिद इसी के करीब ही बनी हुई थी.
19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में ब्रिटिश अधिकारियों के परिवार लखनऊ आने पर इसी ऐतिहासिक भवन में ठहरते थे. राजभवन के पश्चिम उत्तर में बहुत बड़ा चरागाह था, जो शाही घोड़ों के अस्तबल के साथ था. घोड़ों के रख रखाव करने वालों की छोटी सी आबादी भी यहां थी. ये लोग रायल ब्रिटिश फोर्स के घोड़ों को चुस्त तैयार रखते थे. इनके लिए एक छोटी सी मस्जिद बनी थी, जो नालदारों की मस्जिद कहलाती है और अभी भी उत्तर प्रदेश के विधान सभा भवन के पीछे देखी जा सकती है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही कोठी हयात बख्श को यूनाइटेड प्रोविन्सेज आगरा एंड अवध के गवर्नर का सरकारी आवास बना दिया गया था और तभी इस भवन को वर्तमान रूपरेखा प्रदान की गयी. स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले इसमें ब्रिटिश गवर्नर और आजादी के बाद यहां भारतीय राज्यपाल रहने लगे. स्वाधीन भारत में इस भवन को राजभवन का नाम दिया गया.
उत्तर प्रदेश की प्रथम राज्यपाल सरोजनी नायडू का निधन इसी राजभवन में अप्रैल 1948 में हृदयाघात से हो गया था. तब सारा शहर यहां उमड़ आया था. पंडित नेहरू उनकी बेटी पदमजा नायडू को सांत्वना देने यहीं आए थे. गवर्नर कन्हैया लाल माणिक मुन्शी के समय राजभवन में बहुत से फेर बदल हुए थे. उनके द्वारा बनवाया गया गुप्ता कक्ष भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा का प्रतीक है. उन्हीं के राज्यकाल में राजभवन में दीपावली की धूम होती थी और उस दिन नगर निवासियों के लिए राजभवन के द्वार खोल दिये जाते थे.
उत्तर प्रदेश के तराई इलाके का चर्चित सुल्ताना डाकू जब बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों के हाथ आया तो उसके हथियारों का जखीरा भी अंग्रेजों के हाथ लगा. सुल्ताना डाकू के असलहे उत्तराखंड के नैनीताल स्थित ग्रीष्म ऋतु वाले राजभवन में अच्छी तादाद में लगे हैं. जबकि, लखनऊ के राजभवन में लगे हुए हथियारों में सिर्फ उसका एक भाला लगा हुआ है.
पुरानी शान-शौकत के साथ परिसर की सुन्दर सुराहीदार रेलिंग, चारों तरफ की हरियाली, ऊंचे-ऊंचे पेड़, खूबसूरत बाग, फब्बारे और रोशनी राजभवन को और भी रमणीक बनाये हुये हैं. राजभवन के वास्तु विन्यास में बहुत तबदीली की जा चुकी है. इसकी आराजी पर आवासीय कालोनियां बनायी जा चुकी हैं. आज ये राजभवन, राज्यपाल के निवास के साथ राज्य सरकार के कुछ प्रमुख अतिथियों के सत्कार में और विशेष समारोहों में प्रयुक्त होता है. वार्षिक पुष्प प्रदर्षनी में नगर के लोग भारी तादाद में यहां आते हैं.
राजभवन के मुख्य द्वार के सामने राज्य सरकार की शासकीय मोहर की रचना पर एक विशाल फव्वारा बनाया गया है. इसमें गंगा-जमुना और सरस्वती की प्रतिमायें धारा के साथ सजी हैं, धनुष-बाण बना हुआ है और मछलियों का एक मनोरम जोड़ा सजा हुआ है. संगमरमर की एक खुशनुमा छतरी उसके उपवन में और भी रंग भरती है.
पूर्व राज्यपाल विष्णुकान्त शास्त्री ने पिंक रूम जो आगन्तुक कक्ष है, का नाम शतदल, ब्लू रूम (अति विशिष्ट आगन्तुक कक्ष) को नीलकुसुम, गुप्ता रूम को कलाकक्ष, बैक्विट हाॅल को अन्नपूर्णा कक्ष, मिनी बैंक्विट हॉल को तृप्ति, कान्फ्रेंस रूम को प्रज्ञा, अपने कार्यालय को परिमल, प्रमुख सचिव के कार्यालय को अमलताश तथा विशिष्ट अतिथि कक्षों को किंशुक, कदम्ब, कचनार आदि जैसे सुन्दर हिंदी नाम दिए.