Lucknow: इस्लाम धर्म में मोहर्रम का महीना बेहद खास माना जाता है.यह इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है, जिसे गम का महीना भी कहा जाता है. इसके दसवें दिन को आशूरा कहा जाता है. जिसे मातम का दिन कहा जाता है. इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग ताजिए निकालते हैं. वहीं लखनऊ का मोहर्रम पूरी दुनिया में बेहद खास माना जाता है. इसका बेहद महत्व है.
प्रसिद्ध शिया धर्मगुरु मौलाना हमीदुल हसन के मुताबिक पैगंबर ए इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन अलेहिस्सलाम को उनके 71 साथियों के साथ कर्बला के मैदान में क्रूर शासक यजीद की फौज ने तीन दिन की भूख प्यास की शिद्दत में कत्ल कर दिया था, जिसकी याद में हर साल मोहर्रम मनाया जाता है.
पूरी दुनिया में इस महीने को माह-ए-गम के रूप में मनाया जाता है. लेकिन, तहजीब के इस शहर में मोहर्रम मनाने का तरीका अन्य जगहों के अपेक्षा कुछ अलग है. दुनिया में केवल लखनऊ ही एकमात्र ऐसी जगह है जहां लोग सवा दो महीने अपने घर में अजाखाना सजाकर इमाम का गम मनाते हैं. इसलिए पूरी दुनिया में लखनऊ मरकज है.
यहां पहली मोहर्रम को निकलने वाली शाही मूंग की जरीह का ऐतिहासिक जुलूस हो या 72 ताबूत, आमद ए काफिला-ए हुसैनी का मंजर हो या फिर शाही मेहंदी का जुलूस और शाम-ए गरीबा की मजलिस सभी बेहद खास हैं. मुहर्रम के सवा दो महीने में होने वाले ये सभी आयोजन भारत के अलावा दुनिया के दूसरे मुल्कों में भी बेहद प्रसिद्ध हैं.
नवाब आसिफुद्दौला के दौर से लेकर आज तक लखनऊ के मोहर्रम की सबसे खास बात है कि यहां न केवल शिया समुदाय के लोग बल्कि दूसरे धर्म के लोग भी बड़ी संख्या में इमामा का गम मनाते हैं और ताजिया रखकर उनको अपने अंदाज में खिराज ए अकीदत पेश करते हैं. वैसे पूरी दुनिया में करीब डेढ़ हजार साल से गम का यह महीना मनाया जा रहा है.
हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके 72 साथियों की याद में पहली मोहर्रम को आसिफी इमामबाड़ा से शाही जरीह का जुलूस शाम को निकाला जाएगा. इस दौरान खूबसूरत मोम की बनी जरीह बड़े इमामबाड़े से छोटे इमामबाड़े तक हजारों अकीदतमंदों के साथ जाएगी. मुहर्रम को लेकर पुराने शहर के शिया बहुल क्षेत्रों में या हुसैन की सदाएं गूंजने लगी हैं. लोगों ने कर्बला के शहीदों का गम मनाने के लिए रंग बिरंगे कपड़े उतारकर काले कपड़े पहन लिए हैं.
शिया समुदाय के मुताबिक मोहर्रम के महीने की 10 तारीख को हजरत इमाम और हजरत हुसैन की शहादत हुई थी. इसी को लेकर मुस्लिम समाज इस पूरे महीने को गम के रूप मनाता है. गम का इजहार करते हुए ताजिए बनाए जाते हैं और फिर उनको कब्रिस्तान में सुपुर्द ए खाक किया जाता है. काले लिबास मुस्लिम महिलाएं और पुरुष पहनते हैं. किसी परिवार में कोई मृत्यु होने पर जिस तरह का माहौल होता है, मुस्लिम समाज के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को वही माहौल अपने घर रखते हैं. इस दौरान लोग अपने घरों में चूल्हा नहीं जलाते और झाड़ू नहीं लगाते हैं. दूसरे घर के लोग उनका खाना देकर अपना फर्ज निभाते हैं.
कहा जाता है कि लगभग 1400 साल पहले कर्बला की जंग हुई थी. यह जंग हजरत इमाम और हजरत हुसैन ने साथ में मिलकर बादशाह यजीद की सेना के साथ लड़ी थी. बादशाह यजीद इस्लाम धर्म को खत्म करना चाहता था. इस्लाम धर्म को बचाने के लिए यह जंग लड़ी गई और इस जंग के अंत में हजरत इमाम और हजरत हुसैन की शहादत हो गई थी.
जिस दिन इनकी शहादत हुई वह दिन मोहर्रम के महीने की 10 तारीख बताई जाती है, इसलिए हर साल मोहर्रम की 10 तारीख को मातम किया जाता है. मुस्लिम इस मोहर्रम के पूरे महीने को अपने लिए गम का महीना मानते हैं. इस महीने घर में कोई नया कपड़ा नहीं आता, कोई नई चीज नहीं आती, टीवी नहीं चलता, सिर्फ नमाज और कुरान की तिलावत की जाती है. इस दौरान ताजिए बनाए जाते हैं और उनको कब्रिस्तान में ले जाकर सुपुर्द ए खाक करते हैं.
लखनऊ को मरकजे अजादारी (सेंटर प्वाइंट) कहा जाता है क्योंकि न सिर्फ उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों बल्कि पूरे देश में लखनऊ के तरीका-ए- मोहर्रम को फॉलो किया जाता है. दरअसल नवाबों ने खास तौर पर नवाब आसिफुद्दौला ने लखनऊ में अजादारी को बढ़ावा दिया. उन्होंने ईरान के तरीकों को लखनऊ की अजादारी में शामिल किया. आग का मातम, जंजीरी मातम, कमां का मातम, जुलूस, अमारी ये सब अजादारी के हिस्से हैं.
मजलिस, मर्सिया ख्वानी, सोज, मातम, पेश ख्वानी, नौहाख्वानी ये सब इमाम हुसैन और करबला के 72 शहीदों को याद करने के तरीके हैं. लखनऊ में एक मोहर्रम से मजलिस, मातम का सिलसिला शुरू हो जाता है जो दो महीने आठ दिन तक चलता रहता है. लखनऊ के गुफरान माब इमामबाड़े, आगा बाकर इमामबाड़े, नाजमिया मदरसा, डॉ. आगा, अफजल महल में कदीमी मजलिसें होती हैं. इस दौरान दुनिया में आतंकवाद सहित इंसानियत पर प्रहार करने वाले मुद्दों के खिलाफ संदेश दिया जाता है.
अजादारी का मतलब गम मनाना है. अजा अरबी का शब्द है, जिसके मतलब होता है मातम पुरसा, दुख मनाना. इस लिहाज से गम मनाने में माना जाता है कि सफेद कपड़े पहनना चाहिए, क्योंकि गम की निशानी सफेद कपड़े हैं. वरना हरे कपड़े पहने जा सकते हैं, जो कि इस्लाम से जोड़कर देखा जाता है. फिर मुहर्रम में सफेद और हरे कपड़े के बजाय लोग काले कपड़े क्यों पहनते हैं, इसके पीछे भी एक वजह है.
लखनऊ के एसएन लाल बताते हैं कि काले कपड़ा ज़ुल्म के खिलाफ आवाज उठाना और विरोध की निशानी है, जोकि इमाम हुसैन ने किया. वह यजीद की गलत बातों के खिलाफ खड़े रहे और अपना बलिदान दे दिया. लेकिन, यजीद की गैर इंसानी बातों को नहीं माना. ये एक इमाम हुसैन का पैगाम है कि जुल्म के खिलाफ कभी मत झुको. काले कपड़े मुहर्रम में पहनकर लोग इमाम के त्याग और बलिदान को याद करते हैं और अपने इंसानी जज्बे को जगाते हैं, कि हम कहीं मुर्दा न हो जाएं. अजादारी का बुनियादी मकसद ज़ुल्म का विरोध करना है. काले कपड़े उसी की निशानदेही करते हैं.